Wednesday, 9 July 2014

सवाल न्यायपालिका और सरकार के अधिकार क्षेत्र का

पूर्व सालिसिटर जनरल गोपाल सुब्रह्मण्यम की सुप्रीम कोर्ट में जज की नियुक्ति के मामले में केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस में एक तरह से टकराव की जो स्थिति बनी है उससे  बचना चाहिए। कार्यपालिका और न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र को लेकर मतभेद सामने आए हैं। बीच में हैं गोपाल सुब्रह्मण्यम की बतौर सुप्रीम कोर्ट के जज की नियुक्ति। दरअसल सुप्रीम कोर्ट के चार जजों की नियुक्ति के लिए मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाले चयन मंडल (कोलेजियम) ने कोलकाता हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश अरुण मिश्रा, ओडिशा हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश आदर्श कुमार गोयल, वरिष्ठ वकील रोहिल नरीमन और गोपाल सुब्रह्मण्यम के नाम सरकार के पास भेजे थे। सुब्रह्मण्यम को छोड़कर सरकार ने बाकी तीन नामों पर अपनी मुहर लगा दी पर गोपाल सुब्रह्मण्यम के नाम पर केंद्र सरकार ने एतराज जताया और पुनर्विचार के लिए इसे कोलेजियम को वापस भेज दिया। सरकार के औपचारिक फैसले के पहले ही मीडिया में इस आशय की खबरें लीक हो गई थीं कि मोदी सरकार नहीं चाहती है कि सुब्रह्मण्यम की नियुक्ति सुप्रीम कोर्ट के जज के रूप में हो, इसीलिए सरकार ने कोलेजियम द्वारा भेजे गए चार नामों में से तीन की तो पुष्टि कर दी लेकिन सुब्रह्मण्यम के नाम को रोक लिया। मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा उस समय विदेश में थे। स्वदेश लौटते ही वकीलों के एक कार्यक्रम में मुख्य न्यायाधीश ने इस प्रकरण में सरकार के रवैये के प्रति अपनी नाराजगी जमकर जाहिर कर दी। उन्होंने इस बात पर खास हैरानी जताई कि सरकार ने इस मामले में उनसे विमर्श करना भी जरूरी नहीं समझा। फैसला इतनी जल्दबाजी में किया गया कि उनके स्वदेश लौटने का भी इंतजार नहीं किया गया। इससे वह बहुत आहत हैं जबकि तय नियमों के अनुसार सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिए मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली कोलेजियम का ही फैसला अंत में मान्य होता है। लेकिन सरकार ने इसकी मर्यादा भी नहीं रखी। उन्होंने सरकार को चेताया कि यदि न्यायपालिका की आजादी से खिलवाड़ हुआ तो सबसे पहले मैं कुर्सी छोड़ूंगा। केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने मुख्य न्यायाधीश लोढ़ा की टिप्पणी पर सीधी कोई प्रतिक्रिया तो नहीं जताई बस इतना जरूर कहा कि सरकार ने सिर्प संविधान द्वारा मिले अधिकारों का उपयोग किया है। तय नियमों के अनुसार सरकार किसी मामले में पुनर्विचार के लिए कोई प्रकरण सिर्प एक बार कोलेजियम के पास भेज सकती है। रविशंकर प्रसाद ने कहा कि सरकार के पास यह अधिकार है कि इस बारे में उसकी राय ली जाए। प्रसाद ने साथ ही कहा कि सरकार के मन में न्यायपालिका, उच्चतम न्यायालय और भारत के प्रधान न्यायाधीश के लिए सर्वोच्च सम्मान है। प्रसाद ने कहा कि मैं दोहराना चाहता हूं कि नरेन्द्र मोदी सरकार न्यायपालिका का सम्मान करती है। सरकार न्यायपालिका की स्वतंत्रता की समर्थक है। साफ है कि सरकार इस मामले को इस तरह पेश करने की कोशिश कर रही है कि यहां किसी के अधिकार क्षेत्र का उल्लंघन नहीं हुआ है। लेकिन यहां सवाल किसी अधिकार का नहीं अधिकार के विवेकपूर्ण इस्तेमाल का है। इसमें दो राय नहीं कि जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में सरकार की राय भी अहम होती है। किसी खास मामले में उसके एतराज के बाद आमतौर पर उसे सूची से हटा दिया जाता है। लेकिन स्थापित शिष्टाचार के अनुसार सरकार ऐसा करने से पहले न्यायपालिका को विश्वास में लेती है। मौजूदा मामले में तो इस शिष्टाचार का पालन नहीं किया गया, दूसरे गोपाल सुब्रह्मण्यम को लेकर मोदी सरकार के विद्वेष पहले से ही इतने  ज्यादा थे कि उसके फैसले को दुराग्रही माना जा सकता है। गोपाल सुब्रह्मण्यम के प्रति मोदी सरकार की राय गुजरात के एक फर्जी मुठभेड़ मामले में बतौर न्याय मित्र की  भूमिका को लेकर बनी थी। उनके प्रयासों से ही गुजरात के पूर्व गृह राज्यमंत्री अमित शाह और तत्कालीन गुजरात सरकार को अत्यंत असुविधाजनक स्थितियों से गुजरना पड़ा था। मोदी सरकार के पास गोपाल सुब्रह्मण्यम के खिलाफ खुफिया जांच पर आधारित कोई विस्फोटक सूचना थी तो कम से कम उसे मुख्य न्यायाधीश के साथ उसे वह सूचना जरूर शेयर करनी चाहिए थी। हालांकि इस मामले में गोपाल सुब्रह्मण्यम ने भी जल्दबाजी की उन्हें जस्टिस लोढ़ा के स्वदेश लौटने का इंतजार करना चाहिए था, मीडिया में जाने की इतनी जल्दी नहीं दिखानी चाहिए थी। बहरहाल सभी पक्षों की राय आ जाने के बाद इस प्रसंग को समाप्त माना जाना चाहिए। हम बस इतना ही कहेंगे कि मोदी सरकार को थोड़ी जिम्मेदारी से काम लेना चाहिए था, ऐसे छोटे-छोटे किस्सों से ही सरकार की छवि बनती-बिगड़ती है और न्यायपालिका की स्वतंत्रता और कार्यक्षेत्र से किसी प्रकार के विवाद से बचना चाहिए।

-अनिल नरेन्द्र

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