Saturday, 23 November 2024

मणिपुर में राजग विधायकों का अल्टीमेटम

 

मणिपुर में बिगड़ते हालात के बीच सत्तारूढ़ राजग के fिवधायकों ने अपनी ही सरकार को अल्टीमेटम दे दिया है। मणिपुर हिंसा की आग में अब मुख्यमंत्री बीरेन सिंह की अगुवाई वाली भाजपा सरकार झुलसती नजर आ रही है। भाजपा सरकार पर सियासी संकट कम होता नहीं दिख रहा है। मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह की कुर्सी भी खतरे में आ रही है। राज्य की स्थिति का आकलन करने के लिए सीएम बीरेन सिंह की अध्यक्षता में सोमवार को बुलाई गई बैठक में 37 में से 19 विधायक (भाजपा के) नहीं शामिल हुए। मैतई समाज में आने वाले एक कैबिनेट मंत्री भी बैठक में शामिल नहीं हुए। उधर विधायकों ने एक महत्वपूर्ण बैठक कर प्रस्ताव पारित किया। प्रस्ताव में जिरीबाम जिले में तीन महिलाओं और तीन बच्चों की हत्या के लिए जिम्मेदार कुकी उग्रवादियों के खिलाफ सामूहिक कार्रवाई का आह्वान किया गया है, कहा कि यदि इन प्रस्तावों को लागू नहीं किया गया तो राजग के सभी विधायक मणिपुर के लोगों के परामर्श के बाद आगे की कार्रवाई करेंगे। मणिपुर में हिंसा का दौर थमने का नाम ही नहीं ले रहा। अब तो पहली बार मंत्रियों-विधायकों के घरों पर बड़े स्तर पर हमले हुए हैं। गत रविवार शाम इंफाल पश्चिम में भीड़ ने एक भाजपा विधायक का घर फूंक दिया। वहीं, जिरीबाम में भाजपा-कांग्रेस के दफ्तर और एक निर्दलीय विधायक की बिल्डिंग में तोड़-फोड़ की। दो दिन में तीन मंत्रियों सहित 9 विधायकों के घर पर हमला हो चुका है। शनिवार को भीड़ ने एनसीपी विधायक शमशेर सिंह को घर से निकालकर पीटा था। दहशत के चलते कई मंत्री विधायकों ने परिजनों को राज्य से बाहर भेज दिया है। वहीं सीएम एन बीरेन सिंह के आवास पर भी सुरक्षा बड़ा दी गई है। इंफाल घाटी के छह पार्टी के घर जिलों में कर्फ्यू भी लगा दिया गया है और कई जिलों में इंटरनेट भी बंद कर दिया गया है। इस बीच 565 दिन से जारी हिंसा की आंच राज्य की भाजपा सरकार तक पहुंच गई। सरकार में शामिल नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) ने बीरेन सिंह सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया है। भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा को पत्र लिखकर सूचित कर दिया है। राज्य विधानसभा में एनपीपी के 7 विधायक हैं। राज्य के एक विधायक ने बताया कि भाजपा के 14 और 5 अन्य विधायक इस्तीफा देने की तैयारी में हैं। एक दिन पहले ही विधानसभा स्पीकर सहित भाजपा के 19 विधायकों का एक पत्र सामने आया था, जिसमें बीरेन सिंह को तत्काल पद से हटाने की मांग की गई थी। एनपीपी के एक विधायक ने बताया कि हम कुछ दिन केंद्र के फैसले का इंतजार करेंगे। बीरेन fिसंह की जगह नया नेता नहीं बना तो हम फ्लोर टेस्ट की मांग करेंगे, क्योंकि सरकार अल्पमत में है। दूसरी ओर, मणिपुर कांग्रेस अध्यक्ष कैशाममेघाचंद्रा ने भी कहा है कि अगर जनता कहेगी तो हमारे सभी विधायक इस्तीफा देंगे। राज्य विधानसभा में कांग्रेस के पांच विधायक हैं। देखना यह है कि अब केंद्र सरकार मणिपुर को लेकर कैसा फैसला करती है।

-अनिल नरेन्द्र

गौतम अडाणी पर धोखाधड़ी, रिश्वत का केस


गौतम अडाणी पर अमेरिका में धोखाधड़ी का अभियोग लगाया गया है। पर उन अमेfिरका में एक कंपनी को कांट्रैक्ट दिलाने के लिए 25 करोड़ डॉलर की रिश्वत देने और इस मामले को छिपाने का आरोप लगाया गया है। बुधवार को न्यूयार्क में दायर किया गया। आपराधिक मामला, भारत के सबसे अमीर व्यक्तियों में से एक 62 साल के गौतम अडाणी के लिए एक बड़ा झटका है। गुरुवार दोपहर अडाणी ग्रुप ने एक बयान जारी कर आरोपों का खंडन किया और उन्हें बेबुनियाद बताया। आपको पूरा मामला विस्तार से बताते हैं कि आखिर धोखाधड़ी के आरोप किस सिलसिले में हैं? जांच के घेरे में कौन-कौन आए हैं। गौतम अडाणी पर क्या आरोप लगे? अमेरिका की सिक्यूरिटी एंड एक्सचेंज कमीशन यानि एसईसी ने 20 नवम्बर को इस मामले में गौतम अडाणी के भतीजे सागर अडाणी समेत ग्रीन एनर्जी लिमिटेड के अधिकारियों समेत अन्य फर्म अश्योर ग्लोबल पावर लिमिटेड के कार्यकारी सिरोल कोपनसे के खिलाफ रिपोर्ट में बताया गया है कि गौतम अडाणी, सागर के साथ 7 अन्य प्रतिवादियों ने अपने रिन्यूवल एनर्जी कंपनी को कांट्रेक्ट दिलाने और भारत की सबसे बड़ी सौर ऊर्जा संयत्र परियोजना विकसित करने के लिए भारतीय सरकारी अधिकारियों को लगभग 265 मिलियन डॉलर की रिश्वत देने पर सहमति जताई थी। दरअसल यूनाइटेड स्टेटस अटार्नी ऑफिस अमेरिका कानून लागू करने वाली एजेंसी है। इसके मुताबिक 2020 से 2024 के बीच अडाणी को भारत में अपने ही सोलर एनर्जी प्रोजेक्ट के लिए भारत सरकार से कांट्रेक्ट चाहिए थे। जिसके लिए अडाणी ने भारतीय अधिकारियें को 265 मिलियन डॉलर के रिश्वत देने की बात कही। अडाणी को इस प्रोजेक्ट से 20 साल में लगभग दो बिलियन डॉलर से ज्यादा का मुनाफा कमाने की उम्मीद थी। आरोप है कि अडाणी ने इस पैसे को जुटाने के लिए अमेरिकी निवेशकों और बैंकों से झूठ बोला और उनसे 175 मिलियन डॉलर लिए। इन पैसों को रिश्वत के लिए इस्तेमाल किया गया था। अमेरिकी जांच एजेंसी एफबीआई के पास इन आरोपों को सिद्ध करने के पुख्ता सुबूत हैं। सफाई दी जा रही है कि जब अपराध भारत में हुआ है तो केस अमेरिका में कैसे चल सकता है। भारतीय अदालतों में चलना चाहिए। इसका जवाब यह है कि अडाणी ने पैसे जुटाने के लिए अमेरिकी निवेशकों और अमेरिकी बैंकों से झूठ बोलकर, गलत आंकड़े देकर पैसा उगाया जो अमेरिका में अपराध है। अमेरिकी न्याय विभाग ने स्वयं कहा है कि अभियोग में लगाए गए आरोप फिलहाल आरोप हैं और जब तक दोष साबित नहीं हो जाते, तब तक शामिल लोगों को निर्दोष माना जाता है। अडाणी ग्रुप की ओर से कहा गया है कि सभी संभव कानूनी उपाय किए जाएंगे। भारत में लंबे समय से विपक्षी पार्टियां आरोप लगाती रही हैं कि राजनीतिक संबंध के कारण अडाणी को फायदा मिलता रहा है। आम धारणा बनी हुई है कि मोदी जी, अमित शाह और गौतम अडाणी के करीबी रिश्ते हैं। हालांकि अडाणी इन आरोपों को खारिज करते रहे हैं। अमेरिका में राष्ट्रपति अटार्नी जनरल की नियुक्त करता है। यह मामला तब आया जब डोनाल्ड ट्रंप ने कुछ हफ्ते पहले ही चुनाव जीता है। ट्रंप ने अमेरिकी जस्टिस fिडपार्टमेंट में आमूलचूल परिवर्तन की बात कही है। पिछले हफ्ते गौतम अडाणी ने न केवल डोनाल्ड ट्रंप की जीत की बधाई ही दी थी। साथ-साथ यह आश्वासन भी दिया कि उनका समूह अमेरिका में 10 अरब डॉलर का निवेश करेगा और 15000 नौकरियां भी देंगे। देखें, यह केस आगे कैसे बढ़ता है।

Thursday, 21 November 2024

लाभ के पद से जुड़े सांसदों की अयोग्यता



सरकार 65 साल पुराने उस कानून को निरस्त करने की योजना बना रही है, जो लाभ के पद पर होने के कारण सांसदों को अयोग्य ठहराने का आधार प्रदान करता है। वह एक नया कानून लाने की योजना बना रही है, जो वर्तमान आवश्यकताओं के अनुरूप हो। केन्द्राrय विधि मंत्रालय के विधायी विभाग ने 16वीं लोकसभा में कलराज मिश्र की अध्यक्षता वाली लाभ के पदों पर संयुक्त समिति (जेसीओपी) द्वारा की गई सिफारिशों के आधार पर तैयार संसद (अयोग्यता निवारण) विधेयक, 2024 का मसविदा पेश किया है। प्रस्तावित विधेयक का उद्देश्य मौजूदा सांसद (अयोग्यता निवारण) अधिनियम 1959 की धारा-3 को युक्तिसंगत बनाना और अनुसूची में दिए गए पदों की नकारात्मकता सूची से हटाना है, जिसके कारण पर किसी जन प्रतिनिधि को अयोग्य ठहराया जा सकता है। इसमें मौजूदा अधिनियम और कुछ अन्य कानूनों के बीच टकराव को दूर करने का भी प्रस्ताव है, जिसमें अयोग्य न ठहराए जाने का स्पष्ट प्रावधान है। मसविदा विधेयक में कुछ मामलों में अयोग्यता का अस्थाई निलंबन से संबंधित मौजूदा कानून की धारा-4 को हटाने का भी प्रस्ताव है। इसमें इनके स्थान पर केंद्र सरकार को अधिसूचना जारी करके अनुसूची में संशोधन करने का अधिकार देने का भी प्रस्ताव है। मसविदा विधेयक पर जनता की राय मांगते हुए विभाग ने याद दिलाया कि संसद (अयोग्यता निवारण) अधिनियम, 1959 इसलिए बनाया गया था कि सरकार के अधीन आने वाले लाभ के कुछ पद अपने धारकों को संसद सदस्य बनने या चुने जाने के लिए अयोग्य नहीं ठहराएंगे। हालांकि, अधिनियम में उन पदों की सूची शामिल है, जिनके धारक अयोग्य नहीं ठहराएं जाएंगे और उन पदों का भी जिक्र है, जिनके धारक अयोग्य करार दिए जाएंगे। संसद ने समय-समय पर इस अधिनियम में संशोधन किए हैं। सोलहवीं लोकसभा के दौरान ही संसदीय समिति ने इस कानून की व्यापक समीक्षा करने के बाद एक रिपोर्ट पेश की थी। समिति ने विधि मंत्रालय के वर्तमान कानून की अप्रचलित प्रविष्टियों को ध्यान में रखने की आवश्यकता पर बल दिया। इसकी एक प्रमुख सिफारिश यह थी कि लाभ के पद शब्द को व्यापक तरीके से परिभाषित किया जाए। मसविदा विधेयक में कुछ मामलों में अयोग्यता के अस्थायी निलंबन से संबंधित मौजूदा कानून की धारा-4 को हटाने का भी प्रस्ताव है। इसमें इनके स्थान पर केंद्र सरकार की अधिसूचना जारी करके अनुसूची में संशोधन करने का अधिकार देने का भी प्रस्ताव है।

-अनिल नरेन्द्र

समय से पहले हो सकते हैं दिल्ली विधानसभा चुनाव



दिल्ली विधानसभा चुनाव का बिगुल समय से पहले बज सकता है। बता दें कि पिछली बार दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिए 8 फरवरी को मतदान हुआ था। राज्य चुनाव आयोग ने इसके लिए तैयारी भी शुरू कर दी है। राजधानी में फरवरी 2025 से पहले विधानसभा का गठन होना है। इसके चलते जनवरी के अंत तक और फरवरी के शुरू में चुनाव की उम्मीद थी लेकिन सूत्रों के मुताबिक चुनाव दिसंबर में हो सकता है। इसके लिए मतदाता सूची में रिवीजन का काम शुरू हो चुका है। 2019 में दिल्ली विधानसभा चुनाव 8 फरवरी को हुए थे। इसके बाद 11 फरवरी को मतगणना हुई थी। यह चुनाव पहले हो सकता है इसका एक संकेत उन्हें दिल्ली के मुख्य निर्वाचन अधिकारी कार्यालय के पत्र ने इन कयासों को बढ़ा दिया है। पत्र में सभी विभाग प्रमुखों से मैनपावर की स्थिति मांगी गई है। यह जानकारी अधिकारियों के ग्रेड के हिसाब से मांगी गई है। इससे चुनाव ड्यूटी तय की जा सकती है। दस वर्ष से दिल्ली की सत्ता पर काबिज आम आदमी पार्टी (आप) ने समय से पहले चुनाव की संभावना को देखते हुए प्रचार अभियान भी शुरू कर दिया है। पार्टी के पदाधिकारी पद यात्राएं कर रहे हैं और उन्होंने बूथ मैपिंग भी शुरू कर दी है। उधर भाजपा लगातार आम आदमी पार्टी के नेताओं को तोड़कर अपनी पार्टी में शामिल कर रही है। कैलाश गहलोत ताजा उदाहरण हैं। कयास लगाए जा रहे हैं कि आम आदमी पार्टी (आप) अति आत्मविश्वासी कांग्रेस के साथ जाने के बजाए अकेले मैदान में उतरेगी। उधर भाजपा बड़ी संख्या में नए प्रत्याशियों पर दांव लगाने की फिराक में है। दावा तो यहां तक किया जा रहा है कि पार्टी दिसंबर के मध्य तक विधानसभा चुनाव के लिए अपना घोषणा पत्र भी जारी कर सकती है। आगामी दिल्ली विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करने के लिए भाजपा कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती है। बीते चार विधानसभा चुनाव की बात करें तो दिल्ली में ऐसी 24 विधानसभा सीटें हैं जहां एक बार भी भाजपा प्रत्याशी चुनाव जीत नहीं सके। ऐसे में भाजपा के लिए 70 सीटों में से 36 सीटें जीतने की चुनौती कहीं ज्यादा बड़ी है, क्योंकि पहले ही 24 विधानसभा सीटों पर पार्टी हारती आ रही है। ऐसे में जीत के लिए पार्टी किस गणित पर काम करेगी, यह बात अहम है। जहां केंद्र में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार लगातार तीसरी बार जीतकर आई है, वहीं तीन बार से लगातार आम आदमी पार्टी की सरकार भी दिल्ली की सत्ता पर काबिज है, ऐसे में दिल्ली भाजपा का सपना दिल्ली विधानसभा चुनाव जीतकर डबल इंजन की सरकार बनाने का पूरा हो पाएगा या नहीं। यह दिल्ली विधानसभा चुनाव परिणाम तय करेगा, लेकिन भाजपा के लिए जमीनी स्तर पर उतरकर जनता में अपनी पकड़ बनाना बेहद जरूरी है। हालांकि पिछले विधानसभा चुनाव के वक्त भी हरियाणा में भाजपा की जीत के बावजूद आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में बंपर जीत हासिल की थी, लेकिन इस बार खुद पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपने नेताओं को अति आत्मविश्वास और आपसी कलह से बचने की सलाह दी है, साथ ही ये नसीहत भी दी है कि ये चुनाव हल्के में न लें। इससे यह संकेत भी मिलता है कि हालिया झटकों से पार्टी का आत्मविश्वास कहीं न कहीं घटा है और वह अपने कार्यकर्ताओं का आत्मबल बढ़ाने का प्रयास कर रही है। फिलहाल कांग्रेस का अभियान ठंडे बस्ते में पड़ा है।

Tuesday, 19 November 2024

झारखंड में ज्यादा मतदान किसको फायदा मिलेगा



झारखंड में पहले चरण का बेहतर मतदान स्वागत योग्य है। इस पठारी राज्य में मतदान के अंतिम आंकड़े देर से आए पर जो आंकड़े सामने आए वे बहुत उत्साह जगाने वाले हैं। झारखंड के प]िश्चमी सिंहमूम जिले के नक्सल प्रभावित इलाके में माओवादियों के चुनाव बहिष्कार के बावजूद बूथों पर लंबी कतारों से साफ है कि वहां की जनता ने नक्सलियों की धमकियों की परवाह नहीं की और खुलकर मतदान किया। झारखंड के पहले दौर में 43 सीटों पर हुए मतदान का आंकलन सभी दल इस लिहाज से कर रहे हैं कि यह 2019 के मुकाबले तीन प्रतिशत ज्यादा है। झारखंड विधानसभा चुनाव के पहले चरण में 15 जिलों की 43 विधानसभा सीटों पर मतदान में जबरदस्त उत्साह दिखा। चुनाव आयोग के मुताबिक यहां 66.48 फीसदी मतदान दर्ज किया गया। झारखंड की 43 सीटों पर पिछली विधानसभा चुनाव में 63.9 फीसदी मतदान हुआ था। आयोग के मुताबिक नक्सल प्रभावित सीटों पर नक्सलियों की धमकियां बेअसर रही और मतदाताओं ने जमकर मतदान किया। पहले फेज में पिछली बार जेएमएम-कांग्रेस गठबंधन ने भाजपा से ज्यादा सीटें जीती थीं। लेकिन इस बार 3 प्रतिशत ज्यादा मतदान किसको जीत दिलाएगा इस पर आंकलन और दावे हो रहे हैं। भाजपा का एनडीए गठबंधन इसे अपने लिए और उसका विरोधी गठबंधन अपने लिए फायदेमंद बता रहा है। 2019 में पहले फेज में 38 सीट पर 63.75 फीसदी वोटिंग के बाद जेएमएम 17, कांग्रेस 8, आरजेडी और एनसीपी भी एक सीट जीती थी। इनके मुकाबले में भाजपा को 13 सीट ही मिल पाई थी। इस हिसाब से इस बार की 38 और बाकी 5 सीटों का अनुमान बूथ वाइज लगाने की कोशिश सभी दल कर रहे हैं। इसके आधार पर 20 नवम्बर को 38 सीटों के लिए अपने समर्थकों द्वारा ज्यादा से ज्यादा वोटिंग कराने की रणनीति पर भी काम हो रहा है। इसी बीच पहले चरण के लिए पीएम मोदी ने गोड्डा और देवघर की रैली में माटी, बेटी और रोटी बचाने का चुनाव कहकर आदिवासियों और अन्य मतदाताओं को आक्रोषित करने का प्रयास किया। योगी ने बंटेंगे तो कटेंगे के अपने बोल के साथ ही अब पीएम मोदी के एक रहेंगे तो सेफ रहेंगे को भी बोला। उधर हेमंत सोरेन और झारखंड की नई उभरती सितारा कल्पना सोरेन भी गरज रही हैं और भाजपा गठबंधन की कलई खोल रही हैं। आदिवासी क्षेत्रों में भारी मतदान से इंडिया गठबंधन डर गया है और अपनी जीत का दावा कर रहे हैं। संविधान बचाओ, आरक्षण बचाओ, अपनी जमीन उद्योगपतियों को देने से बचाओ के नारे दिए जा रहे हैं। हेमंत सोरेन को जेल में डालने से भी आदिवासियों में हमदर्दी की लहर दौड़ रही है। कहा जा रहा है कि दोनों गठबंधनों में कांटे की टक्कर है। इस चुनाव में किसका पलड़ा भारी होगा, यह कहना राजनीतिक विश्लेषकों के लिए भी मुश्किल हो रहा है। राजनीतिक विश्लेषकों की माने तो चुनाव में जिस प्रकार की टक्कर है, मत प्रतिशत एक से दो प्रतिशत का अंतर किसी पक्ष का खेल बिगाड़ सकता है। खासकर जब इन चुनावों में झारखंड लोकतांत्रिक कल्याणकारी मोर्चा जैसी पार्टियां मैदान में हैं जिन्होंने पिछले चुनाव (2019) में 5.5 फीसदी वोट हासिल करके 3 सीटें अपने खाते में करने वाली भाजपा में विलय हो चुकी झविमो के ये मतदाता किस ओर जा रहे हैं। आमतौर पर माना जा रहा है कि पहला फेज झामुमो के पक्ष में जाता नजर आ रहा है। बाकी तो मशीनें खुलने पर पता लगेगा।

-अनिल नरेन्द्र

महाराष्ट्र की सत्ता किसके हाथ में?


23 नवम्बर को महाराष्ट्र की सत्ता में कौन आएगा ये सवाल महाराष्ट्र और राजनीतिक दिलचस्पी रखने वाला हर शख्स जानना चाहता है। विधानसभा चुनाव में क्या चर्चा चल रही है और चुनाव में कौन-सा फैक्टर काम करेगा, किन जातीय समीकरणों का गणित चलेगा? मराठवाड़ों में क्या होगा, दौड़ में कौन आगे है इत्यादि-इत्यादि सवाल पूछे जा रहे हैं। कुछ ही महीने पहले लोकसभा चुनाव में महाविकास अघाड़ी को मिली जीत का टैम्पो वह बरकरार रख सकेगा। दूसरी और मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के  नेतृत्व वाली महायुति सरकार ने राज्यभर में विभिन्न योजनाओं को लागू करके चुनाव में वापसी करने की कोशिश की है। विश्लेषकों का कहना है कि भाजपा 2014 के बाद महाराष्ट्र में एक प्रमुख पार्टी बनकर उभरी है। इसलिए वह इस चुनाव मे भी प्रमुख पार्टी के रूप में उभरने की कोशिश करेगी। राज्य में कई छोटी पार्टियां भी मैदान में है, कई बागी भी मैदान में हैं। यह दोनों ही गठबंधनों का समीकरण बदल सकती हैं। महाराष्ट्र में महायुति (भाजपा गठबंधन) में विचारों की भिन्नता की दरार भी खुलकर सामने आ रही है। महायुति के साथी अजित दादा पवार और उनकी पार्टी एनसीपी खुलकर भाजपा नेताओं के बयानों का विरोध कर रही है। शिंदे और देवेन्द्र फण्डनवीस में आपसी खींचतान है। ऐसे में सवाल उठता है कि वोटिंग के दिन क्या गठबंधन के कार्यकर्ता एक-दूसरे की पार्टी को वोट ट्रांसफर करा पाएंगे? चुनाव के दौरान गौतम अडानी का मुद्दा भी बीच में आ गया है। महाविकास अघाड़ी पार्टी जहां एक तरफ यह प्रचार कर रही है कि अब उद्योगपति मेज पर बैठकर सरकारें बना रहे हैं, तोड़ रहे हैं, वहीं महाराष्ट्र में लगने वाले कई उद्योग (प्रोजेक्ट्स) गुजरात ले जाए जा रहे हैं, जिससे महाराष्ट्र की अस्मिता को धक्का लगा है। शरद पवार और उद्धव ठाकरे की पार्टियों को तोड़ने से भी जनता की सहानुभूति महाविकास अघाड़ी के साथ है। दूसरी ओर एकनाथ शिंदे की कल्याणकारी योजनाएं, थोक भाव में धन-बल का प्रयोग करना भी एक चुनावी फैक्टर है। फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ चूंकि महाराष्ट्र में उनका मुख्यालय है कई क्षेत्रों खासकर  कि धर्म में महत्व रखता है और  संघ खुलकर भाजपा के लिए बैटिंग कर रहा है। हालांकि विदर्भ की बात करे तो नितिन गडकरी को पूरी तरह से नजरअंदाज करना महायुति को भारी पड़ सकता है। हमें लगता है कि भाजपा का प्रयास यह भी होगा कि वह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरे ताकि राज्यपाल उन्हें सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करें। अगर एक बार सरकार बन गई तो फिर खेल खेलने में भाजपा माहिर है। दूसरी ओर विश्लेषकों का यह भी मानना है कि महाविकास अघाड़ी का पोस्ट पोल एलायंस है और राज्यपाल को पहले सबसे बड़े पोस्ट एलायंस को मौका देना चाहिए। हवा का रुख महाविकास अघाड़ी की ओर लग रहा है पर हमारे सामने हरियाणा का परिणाम है जहां दावा तो कांग्रेस की जीत का किया जा रहा था और परिणाम भाजपा की रिकार्ड जीत के सामने आए। इसलिए चुनाव में किसी की भविष्यवाणी करना ठीक नहीं होता। देखें कि ईवीएम में किसकी किस्मत खुलती है।

Saturday, 16 November 2024

उपचुनाव में दिग्गजों की यूपी में अग्नि परीक्षा


 उत्तर प्रदेश की 9 सीटों पर हो रहे उपचुनाव में सत्तारूढ़ दल और विपक्षी दिग्गजों की अग्नि परीक्षा है। कांग्रेस के मैदान से बाहर होने से अब चुनाव भाजपा और सपा के बीच माना जा रहा है। हालांकि बसपा भी त्रिकोणीय लड़ाई में बनी हुई है। भाजपा की तरफ से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने लगातार तीन दिनों तक ताबड़तोड़ प्रचार कर हर सीट पर माहौल बनाने का प्रयास किया। अखिलेश यादव भी सियासी रुख को भांप रहे हैं। राजनीति के जानकारों के मुताबिक उपचुनाव में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, सपा मुखिया अखिलेश यादव और मायावती की प्रतिष्ठा दांव पर है। हालांकि 2027 का यूपी विधानसभा चुनाव अभी दूर हैं लेकिन इस उपचुनाव को विधानसभा के सेमीफाइनल की तरह देखा जा रहा है। यही कारण है कि सभी दलों ने इसे जीतने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। अंबेडकर नगर की कटेहरी विधानसभा उपचुनाव के लिए भाजपा ने पूर्व विधायक धर्मराज निषाद को अपना उम्मीदवार बनाया है। सपा ने लाल जी वर्मा की पत्नी शोभावती को टिकट दिया है। वहीं बसपा ने अमित वर्मा को अपना उम्मीदवार बनाया है। भाजपा ने कटेहरी सीट के लिए जल शक्ति मंत्री स्वतंत्र देव सिंह को प्रभारी बनाकर उन्हें एक बड़ी जिम्मेदारी सौंपी है। वह चुनाव की घोषणा के कई माह पहले से ही यहां कैंप कर रहे है और पूरी शिद्दत से यहां भाजपा के पक्ष में माहौल बनाने में जुटे हैं। भाजपा की सहयोगी पार्टी सुभासपा के मंत्री ओम प्रकाश राजभर भी कटेहरी में पूरा जोर लगा रहे हैं। वहीं इस सीट से विधायक रहे अब सांसद बने लालजी वर्मा की प्रतिष्ठा भी दांव पर है क्योंकि उनकी पत्नी यहां से सपा की उम्मीदवार हैं। उपचुनाव की सबसे हॉट सीट करहल है। यहां पर मुलायम सिंह यादव के परिवार की साख दांव पर है। इस सीट पर मुलायम के पोते और अखिलेश के भतीजे तेज प्रताप को सपा ने उम्मीदवार बनाया है। वहीं, सूबे की सत्ता पर काबिज भाजपा ने इस सीट से मुलायम सिंह यादव के भाई अभय राम यादव के दामाद अनुजेश यादव को मैदान में उतरा है। मुलायम सिंह यादव के परिवार के बेटे और दामाद की लड़ाई ने यादव बाहुल्य करहल की चुनावी जंग को दिलचस्प बना दिया है। उपमुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक के लिए भी यहां से भाजपा की हार का सूखा खत्म करने का बड़ा लक्ष्य है। इसके साथ ही योगेन्द्र उपाध्याय, जयवीर सिंह और अजीत पाल जैसे मंत्रियें की प्रतिष्ठा भी इस चुनाव में जुड़ी हुई है। वहीं इस सीट पर मुलायम परिवार के सभी सदस्य लगातार चुनाव प्रचार कर रहे हैं। सपा सांसद डिंपल यादव इस सीट पर जमकर प्रचार कर रही हैं। इसके अलावा शिवपाल यादव, बदायूं से सांसद आदित्य यादव, आजमगढ़ सांसद धर्मेन्द्र यादव भी इस सीट पर लगातार पसीना बहा रहे हैं। प्रयागराज से फूलपुर कुर्मी बहुसंख्यक होने की वजह से यहां से भाजपा सरकार के एससी/एसटी मंत्री राकेश सचान और सपा महासचिव इन्द्रजीत सरोज डटे हैं। यह सीट उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य की प्रतिष्ठा से भी जुड़ी हुई है। कुंदरकी की विधानसभा सीट में भाजपा ने रामवीर को उम्मीदवार बनाया है, सपा ने पूर्व विधायक रिजवान पर दांव लगाया है, भाजपा ने यहां से सहकारिता मंत्री जेपीएस राठौर और जसवंत सिंह को प्रभारी बनाया है। कुल मिलाकर बड़े दिग्गजों की प्रतिष्ठा दांव पर है।
 -अनिल नरेन्द्र

भाजपा और अजित पवार में बढ़ती दूरी



 महाराष्ट्र में गठबंधन में होते हुए भी भाजपा और राकांपा (अजित पवार) में कई मुद्दों पर दूरी बरकरार है। उम्मीदवार तय करने से लेकर चुनाव प्रचार तक में दोनों अपनी-अपनी लाइन पर अलग-अलग काम कर रहे हैं। गठबंधन में सामूहिक चुनाव प्रचार और प्रचारकों को लेकर मोटे-तौर पर सहमति तो है, लेकिन कई मुद्दों पर मतभेद खुलकर सामने आ रहा है। उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को लेकर उठे विवाद को ले लीजिए। राकांपा (अजित पवार) ने भाजपा नेता को साफ कह दिया है कि उनके उम्मीदवारों के चुनाव क्षेत्रों में योगी आदित्यनाथ की सभाएं न लगाई जाएं। योगी आदित्यनाथ के विवादास्पद बयान बंटेंगे तो लेकर अल्पसंख्यक समुदाय में तीखी प्रतिक्रिया को देखते हुए अजित पवार नहीं चाहते हैं कि उनको मिलने वाले समर्थन में कोई कमी आए। अजित पवार ने भाजपा के विरोध के बावजूद नवाब मलिक को उम्मीदवार बनाया है। अब जबकि पार्टी के दो धड़े हैं, तब भी दोनों की मुस्लिम समुदाय में अच्छी खासी पैठ है, जबकि नवाब मलिक की बेटी सना मलिक भी चुनाव लड़ रही हैं। बता दें कि भाजपा नेताओं ने खुलेआम नवाब मलिक को उम्मीदवार बनाने का विरोध किया था। उन्होंने यहां तक कहा था कि नवाब मलिक के दाउद इब्राहिम से करीबी संबंध रहे हैं और भाजपा नवाब मलिक के लिए प्रचार भी नहीं करेगी। तमाम दवाबों के बावजूद अजित पवार ने नवाब मलिक को उम्मीदवार बनाया बल्कि उनका प्रचार भी किया है। चार दिन पहले अजित पवार ने एक बम ही फोड़ दिया। महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री अजित पवार ने दावा किया है कि पांच साल पहले भाजपा के साथ सरकार बनाने के लिए हुई बैठक में उद्योगपति गौतम अडाणी भी शामिल थे। एक न्यूज पोर्टल को दिए इंटरव्यू में अजित पवार ने कहा पांच साल पहले क्या हुआ सब जानते हैं ... सब जानते हैं बैठक कहां हुई... मैं फिर से बता देता हूं। वहां अमित शाह थे, गौतम अडाणी थे, प्रफुल्ल पटेल थे, देवेन्द्र फडनवीस थे, मैं था, पवार साहब (शरद पवार) थे। अजित ने कहा कि इसके लिए पांच बैठकें हुई थी। कार्यकर्ता के रूप में मैंने वही किया जो नेता (शरद पवार) ने कहा, गौरतलब है कि इस बैठक के बाद ही 23 नवम्बर 2019 की सुबह फडनवीस सीएम और अजित ने डिप्टी सीएम की शपथ ली थी। हालांकि शरद पवार ने भाजपा के साथ सरकार बनाने से इंकार कर दिया। ऐसे में करीब 80 घंटे बाद अजित को इस्तीफा देकर वापस चाचा के साथ आना पड़ा। इसके चलते 28 नवम्बर को फडनवीस को इस्तीफा देना पड़ा और कुछ दिन बाद राज्य में उद्धव ठाकरे ने कांग्रेस-एनसीपी के साथ सरकार बनाई। अजित फिर डिप्टी सीएम बने। यह सनसनीखेज रहस्योद्घाटन अगर सही है तो यह अत्यंत चिंता का विषय है कि सरकार बनाने, उखाड़ने में गौतम अडाणी का नाम आया है। इस खबर का न तो भाजपा ने खंडन किया है और न ही गौतम अडानी ने। अगर यह सही है तो इससे पता चलता है कि महाराष्ट्र चुनाव में उद्योगपतियों की कितनी बड़ी भूमिका है। कहा जा रहा है कि इस चुनाव में हजारों करोड़ रुपए बांटे जा रहे हैं। हम इसकी पुष्टि नहीं कर सकते। सोशल मीडिया में यह खुद चल रहा है।
 

Thursday, 14 November 2024

मैं व्यवसाय नहीं, एकाधिकार के खिलाफ हूं

लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष और कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने हाल में भारत के कई बड़े समाचार पत्रों में एक लेख लिखा था जो विवादों में आ गया है। जहां कुछ लोग इसकी आलोचना कर रहे हैं और गलत तथ्यों का दावा कर रहे हैं वहीं ऐसे लोगों की कमी नहीं जो इसकी तारीफ कर रहे हैं। आखिर इस लेख में राहुल गांधी ने लिखा क्या था? राहुल ने कहा कि वह व्यवसायों के नहीं, बल्कि एकाधिकार के खिलाफ हैं। उन्होंने अपने एक लेख का हवाला देते हुए यह दावा भी किया कि नियम-कायदे के अनुसार काम करने वाले कुछ कारोबारी समूहों को केंद्र सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार के कार्यक्रमों की तारीफ करने के लिए मजबूर कर रहे हैं। उनके इस दावे पर सरकार की तरफ से फिलहाल कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है। भाजपा ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ बेबुनियाद आरोप लगाने के लिए बुधवार को राहुल गांधी की आलोचना की थी और उनसे किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले तथ्यों की जांच करने की सलाह दी थी। राहुल गांधी ने गुरुवार को एक वीडियो जारी कर कहा, भाजपा के लोगों द्वारा मुझे व्यवसाय विरोधी बताने का प्रयास किया जा रहा है। लेकिन मैं व्यवसाय विरोधी नहीं हूं बल्कि एकाधिकार के खिलाफ हूं। उनका कहना है कि वह एक-दो-तीन या पांच लोगों द्वारा उद्योग जगत में एकाधिकार स्थापित करने के खिलाफ हैं। उन्होंने कहा, मैंने अपने करियर की शुरुआत प्रबंधक सलाहाकार के रूप में की थी। मैं कारोबार को समझता हूं और उनके लिए जरूरी चीजों को भी जानता हूं। इसलिए स्पष्ट रूप से कहना चाहता हूं कि मैं व्यवसाय विरोधी नहीं हूं, एकाधिकार विरोधी हूं। राहुल गांधी ने एक्स पर एक पोस्ट में कहा, मैं नौकरियों के सृजन का समर्थक हूं, व्यवसाय का समर्थक हूं, नवोन्मेष का समर्थक हूं, प्रतिस्पर्धा का समर्थक हूं। मैं एकाधिकार विरोधी हूं। हमारी अर्थव्यवस्था तभी फूलेगी-फलेगी जब सभी व्यवसायों के लिए स्वतंत्र और निष्पक्ष स्थान होगा। बाद में उन्होंने एक अन्य पोस्ट में दावा किया कि मेरे लेख के बाद नियम-कायदे से चलने वाले व्यवसायिक समूहों ने मुझे बताया कि एक वरिष्ठ मंत्री फोन पर कह रहे हैं और उन्हें प्रधानमंत्री मोदी और सरकार के कार्यक्रमों के बारे में सोशल मीडिया पर अपनी बातें कहने के लिए मजबूर कर रहे हैं। राहुल गांधी ने कहा कि इससे उनकी बात बिलकुल सही साबित होती है, कांग्रेस नेता ने बुधवार को एक लेख में दावा किया था कि ईस्ट इंडिया कंपनी भले ही सैकड़ों साल पहले खत्म हो गई है, लेकिन उसने जो डर पैदा किया था वह आज फिर से दिखाई देने लगा है और एकाधिकारवादियों की एक नई पीढ़ी ने उसकी जगह ले ली है। उनका कहना है कि वह एक-दो, तीन या पांच लोगों द्वारा उद्योग जगत में एकाधिकार स्थापित करने के खिलाफ हैं। गांधी ने अपने लेख में कहा कि भारत माता अपने सभी बच्चों की मां है। उनके संसाधनों और सत्ता पर कुछ लोगों का एकाधिकार भारत मां को चोट पहुंचाता है। मैं जानता हूं कि भारत के सैकड़ों प्रतिभाशाली कारोबारी हैं पर वह एकाधिकारवादियों से डरते हैं। -अनिल नरेन्द्र

चुनाव नतीजे तय करेंगे कि असली कौन है और नकली कौन है

महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव प्रचार अब धीरे-धीरे अपने चरम पर पहुंचता जा रहा है। 20 नवम्बर को वोट पड़ेंगे और 23 नवम्बर को पता चलेगा कि सरकार महायुति बनाने जा रही है या महाविकास अघाड़ी जीतेगी। विधानसभा के इस चुनाव में दोनों गठबंधन आमने-सामने हैं। महाविकास अघाड़ी (एमवीए) और महायुति गठबंधन जीत के लिए प्रचार में पूरी ताकत झोंक रहे हैं। जहां दोनों गठबंधनों के बीच कांटे की लड़ाई है वहीं कई छोटी लड़ाइयां गठबंधन के अंदर भी लड़ी जा रही हैं। जैसे असली शिव सेना कौन-सी है, असली एनसीपी कौन-सी है? विधानसभा चुनाव परिणाम दोनों गठबंधनों की हार-जीत के साथ यह भी तय करेंगे कि शिवसेना का कौन सा धड़ा मुंबई में ज्यादा असर पर है। बता दें मुंबई अविभाजित शिवसेना का गढ़ रही है। अभी मुंबई विधानसभा की 36 सीट हैं। वर्ष 2019 में भाजपा अविभाजित शिवसेना एक साथ थे और इस चुनाव में दोनों ने 30 सीट पर जीत दर्ज की थी। इन चुनाव में स्थिति अलग है। शिवसेना (शिंदे) महायुति में शामिल हैं, जबकि शिवसेना (यूबीटी) एमवीए का हिस्सा है। एमवीए के घटक दलों में मुंबई सीट को लेकर काफी तकरार भी हुई। वर्ष 2019 में कांग्रेस ने 36 में से 30 सीट पर चुनाव लड़ा था। इस बार इसके हिस्से सिर्फ 11 सीट आई हैं। वहीं शिवसेना (यूबीटी) 22 सीट पर चुनाव लड़ रही है, बाकी तीन सीट पर दूसरे घटक दल हैं। वहीं महायुति में शामिल एकनाथ शिंदे की अध्यक्षता वाली शिवसेना 16, भाजपा 18 और अजित पवार की एनसीपी सिर्फ दो सीट पर चुनाव मैदान में है। वर्ष 2019 विधानसभा चुनाव में अविभाजित शिवसेना ने भाजपा के साथ गठबंधन में मुंबई में 19 पर चुनाव लड़कर 14 सीट जीती थी। मुंबई की 36 सीट चुनाव के हार जीत में बेहद अहम भूमिका निभाएगी क्योंकि, मुंबई के मतदाता तय करेंगे कि विभाजित के बाद असल शिवसेना कौन है? विधानसभा में शिवसेना के दोनों धड़े 49 सीट पर एक-दूसरे के आमने-सामने लड़ रहे हैं। मुंबई की 14 सीट पर एकनाथ शिंदे और उद्धव ठाकरे की अध्यक्षता वाली शिवेसेना आमने-सामने है। प्रदेश कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि एमवीए एकजुट है। पिछले ढाई वर्षों में विभाजित हुए शिवसेना के दोनों गुटों के बीच कौन शिवसेना का असली सेनापति होगा यह तय होगा। शिव सेना के दोनों गुट 49 सीटों और राकंपा के दोनों गुट 38 सीटों पर एक-दूसरे के सामने मैदान में हैं। ये 87 सीटें भी भविष्य में उद्धव ठाकरे, एकनाथ शिंदे, शरद पवार और अजित पवार का वर्चस्व तय करेंगी। 49 सीटों पर सीधा मुकाबला एकनाथ शिंदे व उद्धव ठाकरे की शिवसेना के बीच और 38 सीटों पर सीधा मुकाबला शरद पवार और अजित पवार की राकंपा के बीच हो रहा है। जहां यह चुनाव परिणाम यह तय करेंगे कि असली शिवसेना कौन-सी है वहीं यह भी तय होगा कि असली एनसीपी कौन-सी है? शरद पवार का 38 सीटों पर मुकाबला उनके भतीजे अजित पवार से हो रहा है। इसमें ज्यादातर सीटें पश्चिम महाराष्ट्र बेल्ट की है। इनमें से एक सीट बारामती सीट है जहां अजित पवार का मुकाबला भतीजे युगेन्द्र पवार से हो रहा है।

Tuesday, 12 November 2024

क्या राष्ट्रपति रहते भी जेल का खतरा बना रहेगा?



अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे घोषित हो चुके हैं। कई हफ्तों के चुनावी अभियान और कड़ी टक्कर के बाद रिपब्लिकन पार्टी के डोनाल्ड ट्रंप ने चुनाव जीत लिया है। ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति कार्यालय पहुंचने वाले ऐसे पहले राष्ट्रपति बनेंगे जिनके खिलाफ कई आपराधिक मामलों में फैसला आना अभी बाकी है। चूंकि ट्रंप के खिलाफ कई कानूनी मामले दर्ज होने के बावजूद वह एक बार फिर अमेरिका के राष्ट्रपति कार्यालय में पहुंचने के लिए तैयार हैं। इसके चलते वहां अनसुलझी स्थिति पैदा हो गई है। जब ट्रंप व्हाइट हाउस पहुंचेंगे तो उनके सामने चार चुनौतियां होंगी। इनमें हर स्थिति के साथ क्या हो सकता है, उसे समझने का प्रयास करते हैं। डोनाल्ड ट्रंप को न्यूयॉर्क में 34 गंभीर मामलों में दोषी ठहराया जा चुका है। यह मामला व्यापार से जुड़े रिकार्ड्स में हेराफेरी करने से जुड़ा है। मई महीने में न्यूयॉर्क की एक ज्यूरी ने ट्रंप को दोषी पाया था। यह मामला पोर्न फिल्म स्टार को चुपचाप भुगतान किए जाने से जुड़ा था। ज्यूरी के मुताबिक ट्रंप इस भुगतान प्रक्रिया में शामिल थे। जज जुआन मर्चेंट ने ट्रंप की सजा को सितम्ब से 26 नवम्बर तक (अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के बाद) के लिए टाल दिया था। बुकलेन के भूतपूर्व अतियोजनक जूलिया रेडलोन ने कहा कि ट्रंप के चुनाव जीतने के बावजूद जज मर्चेंट अपनी योजना के अनुसार सजा को आगे बढ़ा सकते हैं। कानूनी जानकार मानते हैं कि ऐसी संभावनाएं बेहद कम हैं कि ट्रंप को पहली बार उम्रदराज अपराधी के तौर पर सजा सुनाई जाएगी। सुश्री रेंडलमेन कहती हैं कि यदि ऐसा होता है तो ट्रंप के वकील तुरन्त सजा के खिलाफ अपील कर सकते हैं कि यदि ट्रंप को जेल भेजा जाता है तो वो अपने आधिकारिक काम नहीं कर पाएंगे। ऐसे में उनको आजाद रखना चाहिए। अपील करने की प्रक्रिया कई साल आगे बढ़ाई जा सकती है। स्पेशल काउंसिल जैक स्मिथ ने पिछले साल ट्रंप के खिलाफ आपराधिक आरोप तय किए थे। यह मामला जो बाइडन के खिलाफ 2020 का राष्ट्रपति चुनाव हारने के बाद नतीजे को पलटने के लिए की गई कोशिश और हिंसा भड़काने का है। ट्रंप ने इस मामले में खुद को निर्दोष बताया था। यह केस तब से कानूनी अधर में लटका हुआ है। भूतपूर्व फेडरेल प्रॉसिक्यूटर नीम रहमानी के मुताबिक जब से ट्रंप चुनाव जीते हैं, आपराधिक मुकदमों से जुड़ी उनकी समस्याएं दूर हो चुकी हैं। उन्होंने कहा यह बहुत अच्छी तरह से स्थापित हो चुका है कि मौजूदा राष्ट्रपति के खिलाफ मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है। ऐसे में वाशिंगटन डीसी की जिला अदालत में चल रहा चुनावी धोखाधड़ी से जुड़ा मामला खारिज हो जाएगा। एक और मामला गोपनीय दस्तावेजों को गैर-कानूनी रूप से अपने पास रख लिया था और कानून विभाग ने जब उन फाइलों को वापस लाने की कोशिश की तो ट्रंप ने उस काम में बाधा पहुंचाई। जज ने यह मामला ट्रंप द्वारा नियुक्त एलीन केनन को सौंपा था। उन्होंने जुलाई में यह कहकर खारिज कर दिया था कि कानून विभाग ने इस पूरे मामले की पैरवी करने के लिए स्मिथ की नियुक्ति अनुचित ढंग से की थी। अब जब ट्रंप राष्ट्रपति बन गए हैं तो कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि राष्ट्रपति कार्यालय में ट्रंप के रहते सभी मुकदमों पर रोक की संभावना है। अमेरिका के राष्ट्रपति होने के नाते जब तक वो राष्ट्रपति कार्यालय में हैं, तब तक उनके खिलाफ कोई मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है।

-अनिल नरेन्द्र

सुप्रीम कोर्ट के फैसले का क्या असर होगा?


जो यह उम्मीद कर रहे थे कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) के माइनॉरिटी स्टेटस को लेकर लंबे समय से चले आ रहे विवाद पर हां या न में स्पष्ट जवाब मिल जाएगा। उन्हें सुप्रीम कोर्ट के शुक्रवार को आए फैसले से थोड़ी राहत भी मिली होगी और थोड़ी निराशा भी। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की एहमीयत इस मायने में है कि इस मसले को देखने समझने के तरीकों में निहित कमियों पर रोशनी डालता और उन्हें दूर करता है। सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने शुक्रवार को 1967 के अपने फैसले को पलट दिया है जिसमें कहा गया था कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी जैसे केंद्रीय विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा हासिल नहीं हो सकता था। सात जजों की संवैधानिक पीठ को बहुमत के फैसले में एस अजीज बाशा बनाम केंद्र सरकार मामले के फैसले को पलटा है। हालांकि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा प्राप्त होगा या नहीं इसका फैसला शीर्ष अदालत की एक रेगुलर बेंच करेगी। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, सूर्यकांत, जेबी पारदीवाला, दीपांकर दत्ता, मनोज मिश्रा और एससी शर्मा सात जजों की बेंच में शामिल थे। इस कानूनी विवाद की जटिलता को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि यह आधी सदी से भी ज्यादा पुराना है, इसकी शुरुआत 1967 में अजीज बाशा के आए सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले से मानी जाती है जिसमें कहा गया था कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है क्योंकि यह एक कानून अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी एक्ट 1920 के जरिए अस्तित्व में आया था। शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने इसी फैसले को पलटते हुए कुछ परीक्षण भी निर्धारित किए हैं। अब अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक दर्जे पर अगली सुनवाई का फैसला इन्हीं परीक्षणों को ध्यान में रखते हुए किया जाएगा। व्यापक तौर पर परीक्षण यह है कि संस्थान की स्थापना किसने की, क्या संस्थान का चरित्र अल्पसंख्यक है और क्या यह अल्पसंख्यकों के हित में काम करता है? माइनारिटी स्टेटस का सवाल यूनिवर्सिटी प्रबंधन के विभिन्न महत्वपूर्ण पहलुओं से तो जुड़ा है ही, यहां लागू होने वाली आरक्षण व्यवस्था पर भी निर्णायक प्रभाव डालने वाला है। यूनिवर्सिटी में मुस्लिमों का कितना आरक्षण रहेगा और एससी एसटी ओबीसी आरक्षण मिलेगा या नहीं, यह भी इस सवाल के जवाब में निर्भर करता है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक स्वरूप की बहाली बेशक हो गई है हालांकि अभी तीन सदस्यीय पीठ को इस स्वरूप से जुड़े मानदंड तय करने होंगे। एएमयू इंतेजामिया और अलीगढ़ बिरादरी इसे अपनी बड़ी जीत और रास्ता खुलना मान रहे हैं। इस फैसले के साथ ही सवाल खड़ा हो रहा है कि अब एएमयू के संचालन और व्यवस्थाओं में क्या बदलाव हो सकें। जिस पर एक ही जवाब है कि अभी आदेश के कानूनी पहलुओं की समीक्षा और बारीकियों पर कानूनी राय लेने के बाद ही कुछ कहा जाएगा। और फिर तय होगी। एएमयू के संचालन में अगर गौर करें तो अब तक एएमयू अपने एक्ट, यूजीसी और शिक्षा मंत्रालय के नियमों से संचालित होता है। इसके तहत एएमयू में 50 फीसदी छात्रों को आंतरिक कोटे का लाभ मिलता है। हालांकि अगर अल्पसंख्यक स्वरूप हटता है तो शायद आरक्षण व्यवस्था लागू होगी। जानकार कहते हैं कि अब स्थितियां यथावत रहेंगी।

Friday, 8 November 2024

एक अहम फैसला जिसका दूरगामी प्रभाव होगा

यूपी बोर्ड ऑफ मदरसा एजुकेशन एक्स 2004 से जुड़े एक मामले में मंगलवार को आया सुप्रीम कोर्ट का पैसला ऐतिहासिक तो है ही बल्कि न केवल इस कानून की संवैधानिकता की पुष्टि करता है, बल्कि यह भी बताता है कि शिक्षा और धर्मनिपेक्षता जैसे मुद्दों को कितनी बारीकी और संवेदनशीलता के साथ देखा जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा कानून 2004 की संवैधानिक वैधता बरकरार रखी है। साथ ही इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला खारिज कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट ने इस कानून को असंवैधानिक ठहराकर गलती की थी। हाईकोर्ट ने इसी साल इस कानून को असंवैधानिक बताते हुए खारिज कर दिया था। कोर्ट ने राज्य सरकार को आदेश दिया था कि मदरसों में पढ़ने वाले छात्रों को]िनयमित स्कूलों में दाखिला दिलाया जाए। उच्चतम न्यायालय ने इस आदेश पर रोक लगा दी थी। उन्होंने कहा सिर्फ इसलिए कि मदरसा कानून में कुछ मजहबी प्रशिक्षणन शामिल है, इसे असंवैधानिक नहीं माना जा सकता। मदरसा कानून राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एलसीआरटी) की पाठ्य पुस्तकों और मजहबी तालीम का उपयोग कर शिक्षा देने की रूपरेखा प्रदान करता है। इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने 22 मार्च को यूपी मदरसा शिक्षा बोर्ड कानून ने 2004 को निरस्त कर दिया था। उनका कहना था कि यह अंसवैधानिक है और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों का उल्लघंन है। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने 5 अप्रैल को हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, हमारा विचार है कि याचिकाओं में उठाए गए मुद्दों पर बारीकी से विचार किया जाना चाहिए। हाईकोर्ट ने अधिनियम के प्रावधानों को समझने की भूल की है। उनका उद्देश्य 17 लाख मदरसा विद्यार्थियों पर असर डालेगा। दस हजार शिक्षकों पर भी सीधा असर होगा। इन छात्रों को स्कूलों में भेजने का आरोप ठीक नहीं है। इस मामले की सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश ने एक बार टिप्पणी की थी कि धर्मनिरपेक्षता का मतलब है, जियो और जीने दो। उत्तर प्रदेश सरकार ने भी सुनवाई के दौरान अपना पक्ष रखा। हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ अंजुम कादरी मैनेजर्स एसोसिएशन मदारिस, ऑल इंडिया टीचर्स एसोसिएशन, मदारिस अरबियार न्यू दिल्ली। मैनेजर एसोसिएशन अरबी मदरसा, नई बाजार और टीचर्स एसोसिएशन मदारिस अरबिया कानपुर की ओर से याचिकाएं दायर की गई थी। सुप्रीम कोर्ट को इस बात का अहसास था कि इस आदेश का प्रभाव न सिर्फ यूपी बल्कि पूरे देश के अल्पसंख्यक साधनों से जुड़े मामलों पर होगा। इसलिए उसने यह साफ करने में काई कमी नहीं रखी कि अल्पसंख्यक समुदायों को अपने मनाने का अधिकार है तो राज्य को भी उन संस्थानों में दी जा रही शिक्षा की गुणवत्ता सुनिश्चित करने का अधिकार है। इस मामले में जहां सेक्यूलर मूल्यों की अहमियत रेखांकित हुई है। वहीं उन्हें सुनिश्चित करने के तरीकों में बरती जाने वाली सावधानी की जरूरत भी स्पष्ट हुई। -अनिल नरेन्द्र

सभी निजी संपत्ति कब्जे में नहीं ले सकती

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला कि सरकार हर निजी संपत्ति का अधिग्रहण नहीं कर सकती। केवल इसलिए ऐतिहासिक नहीं है कि यह नौ सदस्यीय संविधान पीठ की ओर से दिया गया है, बल्कि इसलिए भी है, क्योंकि इसे उस विचार को आईना दिखाया है, जिसे सरकारों की रीति-नीति का अनिवार्य अंग बनाने का दबाव रहता है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा नौ सदस्यीय पीठ ने 7ः2 के बहुमत से यह ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए कहा, संविधान के तह सरकारों को आम भलाई के लिए निजी स्वामित्व वाले सभी संसाधन को अपने कब्जे में लेने का अधिकार नहीं है। हालांकि कोर्ट ने कहा कि सरकारें कुछ मामले में निजी संपत्तियों पर दावा कर सकती है। पीठ ने सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस ऋषिकेश राय, जस्टिस बीवी नागरत्ना, जस्टिस सुधांशु धूलिया, जस्टिस जेवी पारदीवाला, जस्टिस मनोज मिश्र, जस्टिस राजेश बिंदल, जस्टिस एससी शर्मा और जस्टिस एजे मसीह शामिल थे। प्रॉपर्टी ऑनर्स एसो. महाराष्ट्र व 16 अन्य ने 1992 में सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दायर की। सुनवाई के दौरान मुद्दा उठा कि क्या निजी सचिव को समुदाय की भलाई का बताकर सरकार अधिग्रहित कर सकती है? सीजेआई चंद्रचूड़ ने इसी साल व जजों की बेंच बनाई और मई को फैसला सुरक्षित रखा। मंगलवार सुबह सीजेआई ने कहा ः मैंने और 6 जजों ने बहुमत से फैसला लिया है। जस्टिस नगरत्ना ने मुख्य फैसले से सहमति जाहिर कर कुछ मुद्दों पर असहमति जताई है। जस्टिस धूलिया का फैसला अस्वीकृति का है। बहुमत ने 1978 के जस्टिस कृष्णा अय्यर फैसले को खारिज किया है। जस्टिस अय्यर ने अल्पमत फैसले में कहा थाö सरकार निजी संपत्ति आम भलाई के लिए अधिग्रहित कर सकती है। सीजेआई ने कहाö इसमें सैद्धांतिक त्रुटि थी। यह निजी संसाधनो पर सरकार के नियंत्रण की वकालत करता है। पुराना शासन विशेष आर्थिक व समाजवादी विचारधारा से प्रभावित था। बीते 30 साल में गतिशील आर्थिक नीति ने भारत सबसे तेज अर्थव्यवस्था बन गया है। जस्टिस नागरत्ना ने कहाö फैसले में जस्टिस कृष्णा अय्यर के फैसले का उल्लेख करते हुए कहाöकेवल अर्थव्यवस्था के उदारीकरण और निजीकरण की ओर बढ़ने के कारण यह नहीं कहा जा सकता कि बीते वर्षों में इस कोर्ट के जजों ने लोगों से अन्याय किया था। उन्होंने कहा, भारत की सुप्रीम कोर्ट की संख्या उन जजों से बड़ी है जो इसके इतिहास का हिस्सा थे। यह अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट करने की आवश्यकता भी समझी कि उक्त फैसला एक विशेष आर्थिक और समाजवादी विचारधारा से प्रेरित था। समय बदल चुका है, व्यवस्था बदल चुकी है, परिस्थितियां बदल गई हैं। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी रेखांकित किया कि पिछले कुछ दशकों में गतिशील आर्थिक नीति अपनाने से ही भारत दुनिया में तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बना है। किसी भी देश को अपने आर्थिक दर्शन देश, काल और परिस्थितियों के हिसाब से अपनाना चाहिए। समय के साथ बदलाव ही प्रगति का आधार है।

Thursday, 7 November 2024

आतंकी हमलों को लेकर गरमाती सियासत


जम्मू-कश्मीर में लगातार हो रहे आतंकी हमलों को लेकर सियासत तेज हो गई है। नेशनल कांफ्रेंस के प्रमुख फारुख अब्दुल्ला ने बड़गाव आतंकी हमले की जांच की मांग की है। उनके समर्थन में एनसीपी के प्रमुख शरद पवार भी उतर आए हैं, मीडिया से बात करते हुए फारुख अब्दुल्ला ने कहा मुझे संदेह है कि आतंकी हमले जम्मू-कश्मीर में सरकार को अस्थिर करने के लिए किए जा रहे हैं। बड़गाव सहित सभी आतंकी हमलों की जांच होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि अगर वे (आतंकवादी) पकड़े जाते हैं तो हमें पता चलेगा कि यह कौन करा रहा है। उन्हें नहीं मारा जाना चाहिए, उन्हें जिंदा पकड़ा जाना चाहिए और पूछना चाहिए कि उनके पीछे कौन है, हमें जांच करनी चाहिए कि क्या कोई एजेंसी है जो उमर अब्दुल्ला सरकार को अस्थिर करने की कोशिश कर रही है? जवाब में केन्द्राrय रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि जम्मू-कश्मीर में आतंकी हमले सुरक्षा में चूक की वजह से नहीं है। हमलों को दुर्भाग्यपूर्ण करार देते हुए उन्होंने कहा कि भारतीय सेना आतंकवादियों से जांबाजी से निपट रही है। पहले की तुलना में आतंकी घटनाएं कम हुई हैं। सुरक्षा बल सर्तक है और जल्द ही ऐसी स्थिति आएगी जब तक आतंकी गतिविधियों को पूरी तरह से समाप्त कर दिया जाएगा। आने वाले समय में जम्मू-कश्मीर में विकास होगा। दरअसल, जम्मू-कश्मीर में हुए शांतिपूर्ण चुनाव और यहां की शांति पड़ोसी देश पाकिस्तान को रास नहीं आ रही है। वह लगातार कश्मीर में नापाक वारदातों को अंजाम दे रहा है। दहशतगर्दों के जरिए प्रवासी लोगों को निशाना बनाए जाने के बाद श्रीनगर के रविवारीय मार्पेट में ग्रेनेड विस्फोट कर एक बार फिर यहां की शांति भंग की साजिश रची है। अब तो पर्यटकों को योजनाबद्ध तरीके से निशाना बनाया जा रहा है ताकि पिछले दो साल की शांति के कारण घाटी में टूरिज्म बढ़ रहा था। इस पर अंकुश लगाने के लिए आतंकी घटनाएं बढ़ी हैं, पाकिस्तान कश्मीर में चुनी हुई सरकार को बर्दाश्त नहीं कर पा रही है। इसलिए गुलमर्ग, पहलगांव जैसे पर्यटन स्थल और अब श्रीनगर को निशाना बनाकर हमला किया गया है। हालांकि हर आतंकी घटना के बाद सेना का तलाशी अभियान तेज हो जाने का दावा किया जाता है और कुछ आतंकियों को मार गिराया जाता है, मगर यह सवाल अपनी जगह बना हुआ है कि आखिर क्या वजह है कि पिछले दस वर्षों से आतंकवाद समाप्त करने के तेज अभियान के दावे के बावजूद इसकी जड़ें घाटी में जमी हुई हैं? सरकार बार-बार दावा करती है कि घाटी में आतंकवादियों की कमर टूट चुकी है, वे केवल कुछ क्षेत्रों तक सिमटकर रह गए हैं मगर हकीकत यह है कि कुछ कुछ अंतराल पर दहशतगर्द अपनी साजिशों को अंजाम देने में कामयाब हो जाते हैं। आतंकवाद को हमारी राय में किसी सियासी चश्मे से नहीं देखना चाहिए। जम्मू-कश्मीर में उमर अब्दुल्ला सरकार को केन्द्र सरकार के साथ बैठकर ठोस रणनीति बनाने की आवश्यकता है। जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद खत्म होना चाहिए पर केन्द्र सरकार के साथ-साथ चुनी हुई उमर सरकार की भी जिम्मेदारी है।

-अनिल नरेन्द्र

अमित शाह पर आरोप बेतुके और निराधार


कनाडा की जस्टिन ट्रूडो सरकार के रवैये को देखते हुए साफ है कि वह दोनों देशों के संबंधों को बिगाड़ने पर तुले हुए हैं। जिस तरह से बिना कोई ठोस सुबूत के वह भारत पर लगाए अपने आरोपों का दायरा बढ़ाता ही जा रहा है। भारत ने साफ कर दिया है कि यदि इस सरकार के गैर-जिम्मेदाराना रवैया कनाडा का रहा तो दोनों देशों के संबंध और बिगड़ेंगे। भारत को इस बार कनाडा को इसलिए चेताना पड़ा, क्योंकि कुछ दिन पहले नागरिक एवं राष्ट्रीय सुरक्षा समिति की एक सुनवाई में कनाडा के उपविदेश मंत्री ने यह कहा था कि कनाडाई नागरिकों को कथित तौर पर धमकाने और खालिस्तानी चरमपंथियों को निशाना बनाने के पीछे भारत के गृहमंत्री अमित शाह और राष्ट्रीय सलाहाकार अजित डोभाल का हाथ है। इसी सुनवाई में उन्होंने यह भी माना था कि उनकी ओर से यह बात कनाडा सरकार को बताने से पहले उन्होंने एक अमेरिकी अखबार द वाशिंगटन पोस्ट को लीक की थी। इससे यही पता चलता है कि कनाडा भारत को बदनाम करने और बेतुके आरोप लगाने के अभियान में लिप्त है और सनसनी फैलाने में लिप्त शातिर तरीके से मीडिया का सहारा ले रहा है। भारत ने शनिवार को कहा कि उसने केन्द्राrय गृहमंत्री अमित शाह के बारे में कनाडा के एक मंत्री की टिप्पणियों को लेकर कड़े शब्दों में विरोध दर्ज कराया है। साथ ही चेतावनी दी है कि इस तरह के बेतुके और निराधार आरोपों से दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय संबंधों पर गंभीर असर पड़ेगा। यह बयान कनाडा के उपविदेश मंत्री डेविड मॉरिसन द्वारा मंगलवार को लगाए गए उस आरोप के बाद आया, जिसमें कहा गया था कि अमित शाह ने कनाडा के अंदर सिख अलगाववादियों को निशाना बनाकर हिंसा, धमकी और खुफिया जानकारी जुटाने का अभियान चलाने का आदेश fिदया था। मॉरिसन ने राष्ट्रीय सुरक्षा समिति में कनाडाई संसद सदस्यों को यह भी बताया कि उन्होंने ही वाशिंगटन पोस्ट को अमित शाह के नाम की पुष्टि की थी जिसने सबसे पहले आलेखों की पुष्टि की थी। इस प्रकार के बेतुके आरोप की योजना काफी हद तक तभी साफ हो गई थी जब पिछले साल महज सूचनाओं के आधार पर जस्टिन ट्रूडो ने आरोप लगाया था कि वह एक खालिस्तानी समर्थक हरदीप सिंह निज्जर की हत्या में भारत का हाथ है। तब भी भारत ने यही कहा था कि उनके पास अगर कोई ठोस सुबूत हैं तो वह हमें मुहैया कराएं। लेकिन आज तक कोई सुबूत नहीं आया। पिछले दिनों खुद ट्रूडो को एक समिति के सामने कबूल करना पड़ा कि उनके पास कोई सुबूत नहीं है। दरअसल कनाडा में निकट भविष्य में चुनाव होने हैं और वहां सिखों की खासी आबादी है जिस पर अलगावादी खासा प्रभाव रखते हैं। उनकी एक पार्टी के समर्थन से ही ट्रूडो सत्ता में हैं और अगामी चुनावों में भी उनकी नजर इन अलगावादी तत्वों पर टिकी हुई है। इसलिए इन मतदाताओं को दिखावे की गरज से कनाडा गैर जिम्मेदाराना हरकते किए जा रहा है। सुबूत मांगे जाने को भी अनदेखा कर रहा है। अफसोस इस बात का है कि इस स्थिति का प्रभाव न सिर्फ दोनों देशों के रिश्तों पर ही पड़ रहा है बल्कि कनाडा में रह रहे या वहां पढ़ाई के लिए जाने की सोच रहे छात्रों और युवाओं पर भी पड़ रहा है। कहा जा सकता है कि कनाडा के व्यवहार में परिपक्वता का अभाव है

Tuesday, 5 November 2024

भारत की 19 कंपनियों पर प्रतिबंध



अमेरिका ने बुधवार 30 अक्टूबर को यूक्रेन में रूस के युद्ध प्रयासों में मदद करने के आरोप में 19 भारतीय कंपनियों और दो भारतीय नागरिकों सहित करीब 400 कंपनियों और व्यक्तियों पर प्रतिबंध लगा दिया है। यह कार्रवाई ऐसे समय पर हुई है जब अमेरिकी धरती पर सिख अलगाववादी गुरपतवंत सिंह पन्नू की हत्या की साजिश में एक भारतीय नागरिक की कथित भूमिका को लेकर दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ा हुआ है। 24 अक्टूबर को टाइम्स ऑफ इंडिया में एक इंटरव्यू में भारत में अमेरिकी राजदूत एरिक गार्सेटी ने कहा था कि अमेरिका इस मामले में तभी संतुष्ट होगा जब पन्नू की हत्या की कोशिश को लेकर जिम्मेदारी तय की जाएगी। अमेरिका ने एक बयान जारी कर बताया है कि उसके विदेश विभाग, ट्रेजरी विभाग और वाणिज्य विभाग ने इन लोगों और कंपनियों पर प्रतिबंध लगाए हैं। अमेरिका का आरोप है कि ये कंपनियां रूस को वो सामान उपलब्ध करवा रही हैं, जिनका इस्तेमाल रूस, यूक्रेन युद्ध में कर रहा है। इन वस्तुओं में माइक्रो इलेक्ट्रानिक्स और कम्प्यूटर न्यूमेरिकल कंट्रोल आइटम शामिल हैं, जिन्हें कॉमन हाई प्रायोरिटी लिस्ट (सीएचपीए) में शामिल किया गया है। इन वस्तुओं की पहचान अमेरिकी वाणिज्य विभाग के उद्योग और सुरक्षा ब्यूरो के साथ-साथ यूके, जापान और यूरोपीय संघ ने की है। यह पहली बार नहीं है जब अमेरिका ने भारतीय कंपनियों को निशाना बनाया है। इससे पहले नवम्बर 2023 में भी एक भारतीय कंपनी पर रूसी सेना की मदद करने के आरोप में प्रतिबंध लगाया गया था। सवाल है कि वो कौन सी भारतीय कंपनियां और भारतीय नागरिक हैं जिन पर ये आरोप लगाए गए हैं? अमेरिकी विदेश विभाग ने जिन 120 कंपनियों की सूची तैयार की है उसमें शामिल भारत की कंपनियों के खिलाफ आरोप लगाया गया है कि वे यूक्रेन के खिलाफ चल रही जंग में रूस की मदद कर रहे हैं। अमेरिका ने जिन दो भारतीय व्यक्तियों पर प्रतिबंध लगाया है। उनका नाम विवेक कुमार मिश्रा और सुधीर कुमार हैं। अमेरिकी विदेश विभाग के मुताबिक विवेक कुमार मिश्रा और सुधीर कुमार एसेंड एविएशन के सह-निदेशक और आंशिक शेयर धारक हैं। ये कंपनी दिल्ली में स्थित है और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विमानन उद्योग के लिए स्पेयर पार्टस के साथ-साथ लुब्रिकेंट सप्लाई करने का काम करती है। विदेश मामलों के जानकार और द इमेज इंडिया इंस्टीट्यूट के अध्यक्ष रॉबिन्द्र सचदेव कहते हैं, कंपनियों पर प्रतिबंध लगने के बाद उन्हें स्विफ्ट बैंकिंग सिस्टम में ब्लैक लिस्ट कर दिया जाता है। ऐसा होने पर ये कंपनियां उन देशों से लेन-देन नहीं कर पाती हैं। जो रूस-यूक्रेन युद्ध में रूस के खिलाफ हैं। जिन कंपनियों पर प्रतिबंध लगा है, उनकी संपत्तियां फ्रीज हो सकती हैं। रॉबिन्द्र सचदेव कहते हैं कि अमेरिका ऐसा इसलिए कर रहा है, क्योंकि वह रूस की कमर तोड़ना चाहता है। वह चाहता है कि रूस की अर्थव्यवस्था कमजोर हो जाए और उसकी डिफेंस इंडस्ट्री को वो सामान न मिल पाए, जिसकी मदद से यह यूक्रेन से युद्ध लड़ रहा है। हालांकि वे यह भी कहते हैं कि इस तरह से कंपनियों पर प्रतिबंध लगने से भारत और अमेरिका के संबंधों पर खास असर नहीं पड़ेगा, क्योंकि दोनों देशों के बीच पहले से अच्छे संबंध हैं। हालांकि रूसी राष्ट्रपति पुतिन का दावा है कि यूरोपीय प्रतिबंधों से रूस को कोई खास फर्क या नुकसान नहीं पहुंचा है। रूस हर रोज 80 लाख बैरल तेल का निर्यात कर रहा है, जिसमें भारत-चीन बड़े खरीददार हैं। देखना होगा कि ताजा प्रतिबंधों पर भारत सरकार का क्या रुख होता है।

-अनिल नरेन्द्र

महाराष्ट्र में दोनों गठबंधनों के लिए जंग जीतना आसान नहीं



महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में महाविकास अघाड़ी और महायुति गठबंधन के बीच सियासी लड़ाई तेज होती जा रही है। दोनों गठबंधन एक दूसरे को घेरने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे हैं। क्योंकि दोनों गठबंधनों के लिए विधानसभा में बहुमत का जादुई आंकड़ा हासिल करना आसान नहीं है। कांग्रेस की अगुवाई वाला महाविकास अघाड़ी (एमवीए) लोकसभा चुनाव में खुद को साबित करने में सफल रहा है। एमवीए ने 40 में से 30 सीट जीती थीं। पर दोनों गठबंधनों के बीच वोट प्रतिशत का अंतर बेहद कम था। महायुति को करीब 42.71 प्रतिशत और एमवीए को 43.91 प्रतिशत वोट मिला था। लोकसभा के नतीजों को विधानसभा क्षेत्रों के मुताबिक देखें तो एमवीए को 153 और महायुति को 126 सीट पर बढ़त मिली थी। महाराष्ट्र में कुल 288 सीटें हैं और बहुमत का आंकड़ा 145 है। ऐसे में विधानसभा चुनाव में मुकाबला बेहद मुश्किल लगता है। दोनों गठबंधनों के सामने अपने प्रदर्शन को लेकर चुनौती है। लोकसभा और विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और भाजपा का वोट प्रतिशत लगभग स्थिर रहा है। वर्ष 2014 से 2024 लोकसभा तक कांग्रेस हर चुनाव में करीब 17 फीसदी वोट लेने में सफल रही है। वहीं भाजपा को औसतन 27 प्रतिशत वोट मिले हैं। पर शिवसेना और एनसीपी का वोट प्रतिशत बदला है। वर्ष 2019 विधानसभा तक शिवसेना की पूरी ताकत भाजपा के साथ थी। इसी तरह कांग्रेस के साथ एनसीपी, गुट एकजुट था। पर 2019 में एमवीए के गठन के बाद से शिवसेना और एनसीपी में विभाजन से तस्वीर पूरी तरह से बदल गई। अब दोनों गठबंधनों में शिवसेना और एनसीपी का एक-एक हिस्सा है। शिवसेना (यूवीटी) और वरिष्ठ नेता शरद पवार की अध्यक्षता वाली (एनसीपी) लोकसभा चुनाव में खुद को साबित करने में सफल रही है। पर यह दोनों गुट पार्टी के विभाजन से पहले का आंकड़ा छू नहीं पाए हैं। लोकसभा में शरद पवार को 10.27 प्रतिशत और उद्धव ठाकरे को 16.72 प्रतिशत वोट मिले थे। जबकि मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की शिवसेना को 12.95 प्रतिशत तथा अजित पवार की एनसीपी को 03.60 प्रतिशत वोट मिले। बहुमत का आंकड़ा हासिल करने वाला गठबंधन कम से कम 49 प्रतिशत वोट हासिल करता रहा है। इस चुनाव में एक दूसरे के खिलाफ उतरे महायुति और एमवीए यानी महाविकास अघाड़ी की टेंशन फिलहाल अपनों ने ही बड़ा रखी हैं। इस बीच शुक्रवार को महाराष्ट्र के डिप्टी सीएम और भाजपा नेता देवेन्द्र फडणवीस ने कहा वे नाराज हैं लेकिन वे अनपे ही हैं। हम उन्हें जल्द मना लेंगे। दोनों गठबंधन से कुल 50 बागी मैदान में हैं जिनमें महायुति से सबसे अधिक 36 बागी ने पर्चे दाखिल किए हैं। नाम वापसी की आखिरी तारीख 4 नवम्बर थी। दोनों गठबंधनों की तरफ से दावा किया जा रहा है कि तब तक हम बागियों को मना लेंगे और जहां भी वे अपने ही दल के उम्मीदवार के खिलाफ मैदान में हैं, उन्हें नाम वापस लेने के लिए राजी कर लिया जाएगा। हालांकि इतने कम समय में इतने अधिक बागियों को मनाना भी आसान काम नहीं होगा। पूरे महाराष्ट्र में तकरीबन 50 ऐसे उम्मीदवार हैं जिन्होंने अपनी पार्टी से अलग रास्ता तय करने का फैसला ले रखा है। इनमें सबसे ज्यादा 36 उम्मीदवार महायुति से हैं। इनमें भाजपा से 19 और शिवसेना से 16 नाम शामिल हैं। जबकि अजित पवार से एक है।

Sunday, 3 November 2024

अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव और मध्य पूर्व

अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव की प्रक्रिया आरम्भ हो चुकी है। दुनिया के सबसे ताकतवर दफ्तर के लिए दोनों प्रमुख दावेदार यानि डोनाल्ड ट्रंप और कमला हैरिस ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। नतीजों के बाद वाशिंगटन के व्हाइट हाउस में कमला की सत्ता जमेगी या ट्रंप का कार्ड चलेगा यह तो 5 नवम्बर को तय होगा। लेकिन इस चुनावी रेस के लिए अमेरिका में अर्ली वोटिंग यानि समय पूर्व मतदान की कवायद जोर-शोर से जारी है। 30 करोड़ में से करीब 3 करोड़ मतदान अपना वोट डाल भी चुके हैं। पिछली बार जब डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति बने थे, तो इजरायल के प्रधानमंत्री नेतान्याहू इतने खुश हुए कि उन्होंने एक इलाके का नाम उनके नाम पर रख दिया था। यह इलाका है ट्रंप हाइट्स ये गोलन हाइट्स के चट्टानी इलाके में है। सारी दुनिया की नजर खासकर मध्य-पूर्व के लोगों की 5 नवम्बर पर पर टिकी हुई है। यह चुनाव मध्य-पूर्व एशिया के लिए महत्वपूर्ण होगा। सवाल यह है कि रिपब्लिकन उम्मीदवार ट्रंप या डेमोक्रेटिक पार्टी की कमला हैरिस का इस क्षेत्र में क्या असर पड़ेगा? पिछले 7 अक्टूबर से आरम्भ हुए इस जंग को साल से ज्यादा समय हो गया है और यह कहीं थमने का नाम नहीं ले रही है। अमेरिकी राष्ट्रपति के रूप में ट्रंप को इजरायल का समर्थन मिला था, जब उन्होंने ईरान के साथ परमाणु समझौता रद्द कर दिया था। ट्रंप ने यरूशलम को इजरायल की राजधानी के रूप में मान्यता दी थी। यह दशकों पुरानी अमेरिकी नीति के विपरीत था। नेतान्याहू ने ट्रंप को इजरायल का व्हाइट हाउस में अब तक का सबसे अच्छा मित्र कहा था। एक सर्वेक्षण के मुताबिक बेंजामिन नेतान्याहू के समर्थकों में केवल 1 प्रतिशत ही कमला हैरिस की जीत चाहते हैं। यरुशलम के मायने येहुदा बाजार में शापिंग कर रहे 24 साल के युवक का कहना था कि कमला हैरिस ने उस वक्त अपना असली रंग दिखाया जब वो एक रैली में प्रदर्शनकारियों से सहमत दिखीं। जिसमें इजरायल पर नरसंहार का आरोप लगाया था। कमला हैरिस ने कहा था कि वह (प्रदर्शनकारी) जिस बारे में बात कर रहे हैं वह सच है, हालांकि उन्होंने स्पष्ट किया कि वो नहीं मानती हैं कि इजरायल नरसंहार कर रहा है। जुलाई के महीने में व्हाइट हाउस में नेतान्याहू से मुलाकात के बाद कमला हैरिस ने कहा था कि वो गाजा की स्थिति के बारे में चुप नहीं रहेंगी। उन्होंने नेतान्याहू के सामने मानवीय पीड़ा और निर्दोष नागरिकों की मौत के बारे में गंभीर चिंता व्यक्त की थी। डोनाल्ड ट्रंप ने युद्ध की समाप्ति को इजरायल की जीत के रूप में देखा है और अभी तत्काल युद्ध विराम का विरोध किया है। ट्रंप ने कथित तौर पर नेतान्याहू से कहा है आपको जो करना है वो करें। फिलस्तनियों को किसी भी उम्मीदवार से कोई खास उम्मीद नहीं दिखती है। वेस्ट बैंक के एक प्रतिष्ठित फिलस्तीनी विश्लेषक मुस्तफा बरगौती का कहना है कि कुल मिलाकर अनुमान यह है कि उनके लिए डेमोक्रेटिक पार्टी हारती है, लेकिन मगर ट्रंप जीत जाते हैं तो स्थिति और भी खराब हो जाएगी। इसमें मुख्य अंतर यह है कि कमला हैरिस अमेरिकी जनता की राय में बदलाव के प्रति अधिक संवेदनशील होंगी। इसका मतलब है कि वो युद्धविराम के पक्ष में ज्यादा होंगी, गाजा युद्ध ने फिलस्तीनी राज्य को दिशा में प्रगति के लिए सऊदी अरब जैसे अमेरिकी सहयोगियों पर दबाव बढ़ा है। लेकिन किसी भी उम्मीदवार ने फिलस्तीनी राज्य की स्थापना को अपने प्रमुख एजेंडे में नहीं रखा है। अब उनके फिलस्तीनियों ने अपने राज्य के सपने छोड़ दिए हैं। प्राथमिकता तो मध्य-पूर्व में छिड़ी जंग को रोकने की है और प्रभावित लोगों तक मदद पहुंचाने की होगी। -अनिल नरेन्द्र

यह नवाब मलिक कौन है

महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में उद्धव ठाकरे सरकार में मंत्री रहे वरिष्ठ एनसीपी नेता नवाब मलिक की मनखुर्द शिवाजी नगर सीट से उम्मीदवारी को लेकर भयंकर विवाद छिड़ गया है। उन्हें एनसीपी (अजित पवार गुट) ने यहां से टिकट दिया है लेकिन भाजपा इससे बहुत नाराज है। भाजपा ने नवाब मलिक को अंडरवर्ल्ड माफिया और भारत के वांछित अपराधी दाऊद इब्राहिम के साथ जोड़कर उनकी आलोचना की है। भाजपा उस महायुति में शामिल है जिसके शिवसेना (शिंदे गुट) और एनसीपी (अजित पवार) भी हिस्सा हैं। भाजपा ने साफ कर दिया है कि वो नवाब मलिक के लिए प्रचार नहीं करेंगे। जिस सीट पर नवाब मलिक लड़ रहे हैं वहां से शिवसेना (शिंदे गुट) ने भी उम्मीदवार उतार दिया है। नवाब मलिक के सामने समाजवादी पार्टी के अबु असिम आजमी और शिवसेना (शिंदे गुट) के सुरेश बुलेट पाटिल होंगे। महायुति (महागठबंधन) ने बुलेट पाटिल को अपना आधिकारिक उम्मीदवार घोषित किया है। मंगलवार को मुंबई भाजपा अध्यक्ष अवनीश रोलर ने एक बयान में कहा कि उनकी पार्टी नवाब मलिक के समर्थन में प्रचार नहीं करेगी। उन्होंने कहा भाजपा की भूमिका स्पष्ट रही है। महागठबंधन में शामिल सभी दलों को अपने-अपने उम्मीदवार तय करने हैं। विषय सिर्फ एनसीपी द्वारा नवाब मलिक को उम्मीदवार बनाने का है। उपमुख्यमंत्री देवेन्द्र फडण्वीस और मैंने इस संबंध में भाजपा की स्थिति को बार-बार स्पष्ट किया है। अब एक बार फिर कह रहे हैं कि भाजपा नवाब मलिक के लिए प्रचार नहीं करेगी। हमारा रुख दाऊद और उसके मामले से जुड़े व्यक्ति को बढ़ावा देना नहीं है। भाजपा नेता किरीट सोमैया ने भी ऐलान किया है कि भाजपा की इस सीट से शिवसेना (शिंदे गुट) के उम्मीदवार सुरेश पाटिल का समर्थन करेगी। एनसीपी (अजित गुट) ने नवाब मलिक की छोटी बेटी सना मलिक को भी अणुशक्ति नगर विधानसभा सीट से टिकट दिया है, हालांकि भाजपा ने ये संकेत दिया है कि वह सना का विरोध नहीं करेगी। भाजपा का नवाब मलिक को लेकर विरोध नया नहीं है। पार्टी उन्हें दाऊद इब्राहिम का सहयोगी कहती रही है, लेकिन अब नवाब मलिक भाजपा की गठबंधन सहयोगी पार्टी के उम्मीदवार हैं, बावजूद इसके पार्टी उनका खुलकर विरोध कर रही है। कुछ विश्लेषक यह भी मान रहे हैं कि 4 नवम्बर तक इंतजार करना चाहिए, कौन-कौन मैदान से नाम वापिस लेता है? नवाब मलिक जब कथित भ्रष्टाचार के आरोप में जेल गए थे तब उनकी पार्टी (एनसीपी) के अधिकतर नेताओं ने उनसे मुंह मोड़ लिया था, लेकिन अजित पवार उनके साथ थे, नवाब मलिक ने एक साक्षात्कार में कहा मैं आभारी हूं कि अजित पवार ने मुझे उम्मीदवार बनाया है अजित पवार के साथ रहना मेरा कर्तव्य है क्योंकि उन्होंने हमेशा मेरे परिवार का साथ दिया है। उन्होंने कहा कि यह नहीं कहा जा सकता है कि मैं महायुति का उम्मीदवार हूं क्योंकि शिवसेना (शिंदे गुट) का भी उम्मीदवार मैदान में है, भाजपा भी प्रचार नहीं कर रही है, भाजपा मेरा प्रचार करती है या नहीं, इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता है क्योंकि जनता मेरे साथ है। महाराष्ट्र में 20 नवम्बर को सभी 288 सीटों पर चुनाव होने हैं और 23 नवम्बर को नतीजे आएंगे। नवाब पहले नवम्बर 2021 में चर्चा में आए थे जब उन्होंने ड्रग्स मामले में शाहरुख खान के बेटे को गिरफ्तार करने वाले समीर वानखेड़े को हिंदू नहीं बल्कि मुसलमान बताया था। 4 नवम्बर के बाद तस्वीर साफ होगी।

Tuesday, 29 October 2024

चुनाव के बाद घाटी में लौटता आतंक


रविवार को जम्मू-कश्मीर के गांदर बल जिले में एक निर्माणाधीन सुरंग के पास चरमपंथी हमला हुआ जिसमें दो मजदूरों की तो मौके पर ही मौत हो गई। जबकि डाक्टर और अन्य चार मजदूरों की इलाज के दौरान अस्पताल में मौत हो गई। मारे गए लोगों की पहचान डॉ. शाहनवाज, फहीम, नजीर, कलीम, मोहम्मद हनीफ, शशि अबरोल, अनिल शुक्ला और गुरजीत सिंह के रूप में हुई है। चरमपंथियों ने हमला तब किया। जब गांदरबल में सोनभर्ग इलाके के गुंह में सुरंग परियोजना पर काम कर रहे मजदूर और अन्य कर्मचारी देर शाम अपने शिविर में लौट आए थे। दो मजदूरों की मौके पर ही मौत हो गई बाकी की अस्पताल में इलाज के दौरान हो गई। फिलहाल अन्य घायलों का इलाज चल रहा है। आठ अक्टूबर को जम्मू-कश्मीर चुनाव के नतीजे आए थे और सरकार के गठन के बाद यह पहला मौका था जब इतना बड़ा चरमपंथी हमला हुआ है। कश्मीर घाटी में महीनों के बाद ऐसा हुआ कि 7 दिन में ही 4 आतंकी हमलों में 13 लोगों की जान चली गई। 18 अक्टूबर को शोपिया में हुए आतंकी हमले में बिहार के मजदूर की मौत, 20 अक्टूबर को गांदरबल में 6 गैर स्थानीय व एक स्थानीय डाक्टर की मौत और 24 अक्टूबर को गुलमर्ग में सैन्य वाहन पर हमले में 3 जवान व दो स्थानीय रिपोर्टर की जान गई। विधानसभा चुनावों के बाद ये हमले तेजी से बढ़े हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह ये है कि जम्मू-कश्मीर में शांतिपूर्वक चुनाव होने से पाक सेना और खुफिया एजेंसी और सरकार बौखला गई है। अब पाक समर्थित से आतंकी घाटी में अपनी मौजूदगी दिखाना चाहते हैं। वे संदेश देना चाहते हैं कि जम्मू कश्मीर में चुनी हुई सरकार बनाकर भले ही आपने लोकतंत्र का परचम बुलंद कर दिया हो, लेकिन हम अभी खत्म नहीं हुए हैं। 1989 से पाक लगातार घाटी में अशांति फैलाने की कोशिश कर रहा है। पर मंसूबों में कामयाब नहीं हो पाया। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने हमलों को कायरतापूर्ण बताते हुए इनकी निंदा की है। उन्होंने एक्स पर लिखाः सोनमर्ग क्षेत्र में गगनगीर में गैर-स्थानीय मजदूरों पर कायरतापूर्ण हमले की बेहद दुखद खबर है, ये लोग इलाके में एक प्रमुख बुनियादी ढांचा परियोजना पर काम कर रहे थे। मैं निहत्थे, निर्दोष लोगों पर हुए इस हमले की कड़ी निंदा करता हूं और उनके प्रियजनों के प्रति अपनी संवेदना व्यक्त करता हूं। पिछले कुछ दिनों में लगातार होते हमले पुलिस प्रशासन और मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के लिए बड़ी चुनौती हैं। पूरे राज्य में आतंकवादी घटनाओं पर रोक लगाने के लिए खुफिया तंत्र, सुरक्षा उपायों को चाक-चौबंद और मजबूत करने की जरूरत है ताकि शांति भंग करने वाले समूहों को पराजित किया जा सके। हालांकि अलगाववादियों और आतंकवाद को जनता का समर्थन नहीं है जो उसकी तमाम धमकियों के बावजूद विधानसभा के लिए खुलकर वोट दिया और लोकतंत्र का समर्थन किया। लेकिन मुश्किल यह है कि सीमा पार से आने वाले घुसपैठियों का छोटा-सा समूह उग्रवाद को पाक सेना के उकसावे पर बढ़ावा दे रहा है। केंद्र और राज्य सरकार को अपने सियासी मतभेदों को दरकिनार करते हुए साझी रणनीति बनानी चाहिए। और इन हिंसक घटनाओं को रोकने के लिए सुरक्षा रणनीति बनानी चाहिए। चुनाव खत्म हो गए हैं। जनता ने अपना फैसला सुना दिया है अब अपने वादे पूरे करने की चुनौती राज्य सरकार, प्रशासन और केंद्र सरकार की है।

-अनिल नरेन्द्र

महाराष्ट्र में लड़ाई असली और नकली में है


चाहे मामला महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव का हो, चाहे उत्तर प्रदेश में विधानसभा उपचुनावों का हो दोनों ही स्थानों पर गठबंधनों का इस्तेमाल है। आज महाराष्ट्र की बात करें तो वहां गठबंधनों के बीच कड़ा मुकाबला तो है ही साथ-साथ वहां, सब की नजरें गठबंधन से ज्यादा असली-नकली पर लगी हुई है। मैं बात कर रहा हूं शिवसेना के दोनों गुटों की और पवार परिवार में चाचा-भतीजे की लड़ाई की। महाराष्ट्र विधानसभा में दो गठबंधन महायुति और महाविकास अघाड़ी आमने-सामने हैं। दोनों गठबंधनों में मुख्य तौर पर तीन-तीन पार्टियां शामिल हैं। पर असल में महाराष्ट्र चुनाव में मुख्य मुकाबला दो पार्टियों के बीच है। विभाजन के बाद दो पार्टियों से टूटकर बनी यह पार्टियों के बीच खुद को मतदाता के सामने असल पार्टी साबित करने की चुनौती है। वर्ष 2019 विधानसभा चुनाव के बाद महाराष्ट्र की सियासत काफी बदली है। कभी भाजपा की सबसे मजबूत सहयोगी माने जाने वाली शिव सेना के कांग्रेस और एनसीपी के साथ आने से प्रदेश के राजनीतिक समीकरण बदल गए है। इसके बाद 2022 में शिवसेना और एनसीपी में टूट ने प्रदेश की सियासत में नए समीकरण गढ़ दिए। शिवसेना और एनसीपी टूटकर दो पार्टियों से चार पार्टियों में बदल गई। लोकसभा चुनाव में महाविकास अघाड़ी (एमवीए) भाजपा की अगुवाई वाले महायुति गठबंधन पर भारी पड़ी। एमवीए में शामिल कांग्रेस, शिवसेना (यूटीबी) और एनसीपी (एसवी) 48 में से 30 सीट जीतने में सफल रही। जबकि महायुति में शामिल भाजपा, शिवसेना (शिंदे गुट) और एनसीपी (अजित पवार) के हिस्से में सिर्फ 17 सीटें आईं। इस चुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की शिवसेना ने मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की अगुवाई वाली शिवसेना के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन किया। इसी तरह वरिष्ठ नेता शरद पवार की अगुवाई वाली एनसीपी ने अजीत पवार की एनसीपी से अच्छा प्रदर्शन किया। ऐसे में महाराष्ट्र चुनाव में महाविकास अघाड़ी और महायुति में सीधा मुकाबला होने के बावजूद असल लड़ाई शिवसेना और एनसीपी के अलग-अलग धड़ों के बीच है। विधानसभा चुनाव में मतदाता अपने वोट के जरिए यह साबित करेंगे कि उद्धव ठाकरे और एकनाथ शिंदे में असली शिवसेना किसकी है। इसी तरह चाचा शरद पवार और भजीते अजित पवार की अध्यक्षता वाली कौन सी एनसीपी ज्यादा प्रभावशाली है। लोकसभा चुनाव के परिणाम को विधानसभा की सीट के मुताबिक देखें तो एमवीए 156 और महायुति 126 सीट पर बढ़त बनाने में सफल रही है। इसलिए शिवसेना और एनसीपी के दोनों धड़ों के बीच आमने-सामने की लड़ाई तो है साथ ही अपने-अपने गढ़ को बरकरार रखने की चुनौती भी है। शिवसेना के दोनों हिस्सों के बीच जहां कोकणा की 39 सीट पर मुख्य मुकाबला है। इस क्षेत्र की 26 सीट पर उद्धव की शिवसेना और शिंदे की शिवसेना से आमने-सामने हैं। इसी तरह पश्चिमी महाराष्ट्र की 58 सीट पर मुकाबला शरद पवार और अजीत पवार की अध्यक्षता वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के बीच है। वहीं 2019 के विधानसभा चुनाव में एनसीपी ने इस क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन किया था। इस चुनाव में एनसीपी ने 54 सीटें जीती थीं। पर बाद में पार्टी में टूट के बाद 40 विधायक अजित पवार के साथ चले गए और राज्य में सत्तारूढ़ महायुति गठबंधन में शामिल हो गए। कुल मिलाकर महाराष्ट्र में गठबंधनों के बीच लड़ाई तो है ही साथ-साथ असली-नकली लड़ाई भी चल रही है।

Saturday, 26 October 2024

प्रियंका गांधी को उम्मीदवार बनाकर साधे समीकरण

आखिरकार कांग्रेस पार्टी ने महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा को वायनाड उपचुनाव में अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया। इसके साथ ही भारतीय चुनावी राजनीति में प्रियंका की शुरुआत हो गई है। प्रियंका ने 23 अक्टूबर को केरल की वायनाड लोकसभा सीट से अपना पर्चा दाखिल कर दिया है। लेकिन पहली बार वे अपने लिए वोट मांग रही हैं। वहीं राहुल गांधी ने बहन के लिए प्रचार करते हुए कहा कि वायनाड के अब दो सांसद हैं एक औपचारिक और एक अनौपचारिक। ये सीट पहले उनके भाई राहुल गांधी के पास थी। उन्होंने दो लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ा था, वायनाड और रायबरेली। अब पार्टी ने उनकी बहन प्रियंका गांधी के चुनावी डेब्यू के लिए वायनाड सीट को चुना है। राहुल गांधी ने प्रियंका गांधी की उम्मीदवारी का समर्थन करते हुए सोशल मीडिया एक्स पर लिखा, वायनाड के लोगों के लिए मेरे दिल में खास जगह है। मैं उनके प्रतिनिधि के तौर पर अपनी बहन से बेहतर किसी उम्मीदवार की कल्पना नहीं कर सकता था। मुझे उम्मीद है कि वो वायनाड की जरूरतों के लिए जी जान से काम करेंगी और संसद में एक मजबूत आवाज बनकर उभरेंगी। अगर प्रियंका गांधी जीतती हैं तो गांधी परिवार के मौजूदा तीनों सदस्य सांसद हो जाएंगे। राहुल गांधी लोकसभा के सदस्य हैं और सोनिया गांधी राज्यसभा में हैं। भारतीय जनता पार्टी ने वायनाड लोकसभा उपचुनाव के लिए प्रियंका गांधी वाड्रा के खिलाफ नाव्या हरिदास को चुनाव मैदान में उतारा है। नाव्या हरिदास ने रविवार को कहा कि गांधी परिवार इन निर्वाचन क्षेत्र को महज एक विकल्प या दूसरी सीट के रूप में देख रहा है और इस क्षेत्र के लोगों को अब यह बात समझ आ गई है। कोझिकोड निगम में दो बार पार्षद रही हरिदास ने कहा कि वायनाड के मतदाता एक ऐसे नेता चाहते हैं जो उनके लिए खड़ा हो और उनकी समस्याओं का ध्यान करे। पत्रकारों से बातचीत के दौरान हरिदास ने कहा कि जहां तक पूरे देश का सवाल है, तो प्रियंका गांधी वाड्रा कोई नया चेहरा नहीं हैं लेकिन वायनाड के लिए वह नई हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि प्रियंका गांधी परिवार के प्रतिनिधि के रूप में आ रही हैं, जो वायनाड के मुद्दों को उठाने में असफल रहा है। कांग्रेस पार्टी ने बहुत सोच-समझकर सांसद में वायनाड से प्रियंका को चुनाव मैदान में उतारा है। इनके जरिए पार्टी ने राष्ट्रीय राजनीति के साथ केरल की सियासत को साधने की कोशिश की है। केरल में वर्ष 2026 में विधानसभा चुनाव है। पार्टी के अंदर लंबे समय से यह मांग उठती रही है कि प्रियंका को चुनाव मैदान में उतरना चाहिए पर कांग्रेस इसे टालता रहा। प्रियंका को उम्मीदवार बनाकर यह संदेश देने की कोशिश की है कि कांग्रेस ने वायनाड के साथ कोई धोखा नहीं किया। राहुल गांधी ने अगर रायबरेली चुनी है तो अपनी बहन को वायनाड भेजा है क्योंकि, दक्षिण भारत में कर्नाटक के अलावा पार्टी की स्थिति कहीं भी बहुत मजबूत नहीं हैं। प्रियंका गांधी के चुनाव लड़ने से यह संदेश जाएगा कि कांग्रेस दक्षिण को लेकर गंभीर है। लोकसभा चुनाव में पार्टी केरल की 20 में 14 सीटें जीतने में सफल रही थी। पार्टी को उम्मीद है कि प्रियंका गांधी का असर विधानसभा चुनाव पर भी दिखाई देगा। इसके साथ प्रियंका गांधी के जरिए पार्टी ने उत्तर व दक्षिण दोनों में ही अपना संतुलन बनाया है। प्रियंका अगर जीत कर आती है तो लोकसभा में मजबूती से अपनी बातें हिन्दी में रखने वाली वक्ता बनेंगी। -अनिल नरेन्द्र

3 दिन में सरकार बनानी होगी

महाराष्ट्र विधानसभा की तारीख बड़ी दिलचस्प है। यदि किसी दल या गठबंधन को बहुमत नहीं मिला या कोई मतभेद हो गया तो राष्ट्रपति शासन की नौबत आ जाएगी। दरअसल 20 नवम्बर को मतदान होगा और 23 नवम्बर को नतीजा आएगा। इसके 72 घंटे के अंदर नई सरकार को शपथ लेनी पड़ेगी। क्योंकि महाराष्ट्र विधानसभा का कार्यकाल 26 नवम्बर को खत्म हो रहा है। नई सरकार इससे पहले बनना संवैधानिक बाध्यता है, दरअसल नतीजे 23 को देर शाम तक आएंगे। फिर विजेताओं को निर्वाचन आयोग सर्टिफिकेट देगा। बहुमत वाली पार्टी या गठबंधन 24 को राज्यपाल के पास जाकर सरकार बनाने का दावा करेगा। राज्यपाल जरूरी शर्तों की समीक्षा के बाद सरकार बनाने के लिए दावेदार को बुलाएंगे फिर शपथ ग्रहण होगा और सरकार बनेगी। बड़ा सवाल यह है कि यदि किसी को बहुमत न मिला तो राज्यपाल सबसे बड़ी पार्टी या गठबंधन को सरकार बनाने का न्यौता दे सकते हैं। हालांकि यह न्यौता पाने वाले पर निर्भर है कि वह सरकार बनाए या नहीं। मान लें किसी गठबंधन के पास संख्या बल है पर घटक दलों में तनातनी हो जाए तो सरकार बनाने का रास्ता कठिन हो जाएगा। ऐसे में राष्ट्रपति शासन ही विकल्प बचेगा और इसका फैसला तुरन्त लेना पड़ेगा। यदि किसी पार्टी या गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिला तो उसे 24 को राज्यपाल से मिलने का समय लेना होगा। राजभवन को तत्काल मिलने का समय देना होगा, इसमें देरी भी हो सकती है। ऐसे में गठबंधन या पार्टी विधायक दल के नेता को 25 तक सरकार बनाने के लिए राज्यपाल को बुलाना होगा। 26 को शपथ ग्रहण करना होगा। महाराष्ट्र एक बहुत बड़ा राज्य है। दूरदराज इलाकों से जीते हुए विधायकों को भी समय पर पहुंचना होगा, जो काम आसान नहीं होगा। शिवसेना (उद्धव ठाकरे) नेता संजय राउत ने आरोप लगाया कि निर्वाचन आयोग द्वारा महाराष्ट्र में नई सरकार के गठन के लिए केवल 48 घंटे का समय निर्धारित किया जाना भाजपा की चाल है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि महा विकास अघाड़ी (एमवीए) सरकार बनाने का दावा करने में असमर्थ हो जाए। राज्यसभा सासंद ने संवाददाताओं से बातचीत में आरोप लगाया। अमित शाह के साथ भाजपा ने यह स्वीकार कर लिया है कि पार्टी महाराष्ट्र चुनाव नहीं जीत पाएगी। ऐसा लगता है कि महाविकास अघाड़ी को सरकार बनाने के बारे में चर्चा करने और निर्णय लेने के लिए समय सीमित करने की रणनीति है। अगर एमवीए के घटक दावा करने में विफल रहते हैं, तो राज्यपाल छह महीने के लिए राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करेंगे। उन्होंने कहा कि मतगणना 23 नवम्बर को होगी, जिसका मतलब है कि एमवीए के घटक दलों - शिवसेना (यूवीटी), कांग्रेस - राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (शरद पवार) और अन्य छोटे दलों के पास सरकार बनाने के लिए केवल 48 घंटे होंगे। यह सही नहीं है। उन्होंने आरोप लगाया कि निर्वाचन आयोग का यह कदम भाजपा प्रवक्ता के समान है। आयोग ईवीएम का समर्थन करता है, लेकिन जब हरियाणा चुनावों में इन मशीनों के साथ की गई छेड़छाड़ के बारे में कहते हैं तो यह चुप्पी साध लेती है, आयोग ने लोकसभा चुनावों के दौरान धन के दुरुपयोग की शिकायतों पर कोई कार्रवाई नहीं की थी। उन्होंने दावा किया कि मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने लगभग 200 विधानसभा क्षेत्रों में 15 करोड़ रुपए वितरित करने का फैसला किया है और यह सरकारी धन है।

Thursday, 24 October 2024

चूका इजराइल का एयर डिफेंस, नेतन्याहू के घर पर हमला


इजराइल में शनिवार को प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के आवास पर ड्रोन हमला हुआ। यह कल्पना से बाहर था (अब तक) की कोई इतनी जुर्रत कर सकता है कि इजराइल के प्रधानमंत्री के आवास पर सीधा हमला करे। पर हिज्जबुल्ला ने यह करके दिखा दिया। इजराइली प्रधानमंत्री के कार्यालय ने बताया कि ड्रोन हमला नेतन्याहू के भूमध्य सागर के तटवर्ती शहर सीजेरिया में स्थित आवास पर हुआ इससे पहले लेबनान से बड़ी संख्या में राकेट और ड्रोन इजराइल पर छोड़े गए थे। इनमें से ज्यादातर को इजराइली एयर fिडफेंस सिस्टम ने आकाश में ही नष्ट कर दिया, लेकिन नेतन्याहू के आवास को निशाना बनाने वाले ड्रोन को नष्ट करने से सिस्टम चूक गया। इस चूक ने इजराइली सुरक्षा तंत्र की चिंता बढ़ा दी है। हिज्जबुल्ला ने स्पष्ट संकेत दे दिया है कि वह अब इजराइल के किसी भी कोने पर हमला कर सकता है। इससे पहले सितम्बर में यमन से हूती विद्रोहियों द्वारा दागी गई बैलिस्टिक मिसाइल दो हजार किलोमीटर से ज्यादा का सफर तय करके बैनगुरियन एयरपोर्ट के पास तक आ गई थी। यह लगभग वही समय था जब प्रधानमंत्री नेतन्याहू का विमान उतरने वाला था। इस मिसाइल के एयर डिफेंस ने नष्ट करने का दावा किया था। बेजमिन नेतन्याहू ने अपने आवास पर हमले पर अपनी प्रतिक्रिया दी। उन्होंने कहा कि हिज्जबुल्ला ने मेरी हत्या की कोशिश करके बहुत बड़ी गलती की है। उनके कार्यालय ने एक बयान में बताया कि जिस वक्त यह हमला हुआ उस वक्त प्रधानमंत्री और उनकी पत्नी वहां पर नहीं थे। इस घटना में कोई घायल नहीं हुआ है, बेंजामिन नेतन्याहू ने अपनी निजी आवास पर छोड़े गए ड्रोन को लेकर कहा, ईरान की प्रॉक्सी हिज्जबुल्ला का मेरी और मेरी पत्नी की हत्या करने की कोशिश करना बहुत बड़ी गलती है। उन्होंने सोशल मीडिया एक्स पर पोस्ट कर लिखा, यह मुझे या इजराइल को हमारे भविष्य को सुरक्षित करने के लिए अपने दुश्मनों के खिलाफ युद्ध जारी रखने से नहीं रोकेगा। मैं ईरान और उसके प्रॉक्सी से कहना चाहता हूं, जो भी हमारे लोगों को नुकसान पहुंचाने की कोशिश करेगा उसे भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। हम आतंकवादियों को खत्म करना जारी रखेंगे। हम अपने बंधकों को गाजा से वापस घर लेकर आएंगे। नेतन्याहू ने कहा कि हमने हत्यारे याहया सिनवार को मार दिया है। इसी बीच ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खामेइनी ने कहा कि सिनवार से पहले फिलिस्तीन के कई नेताओं के मारे जाने के बाद भी हमास अपना अभियान जारी रखे हुए है। उन्होंने कहा कि हमास जिंदा है और जिंदा रहेगा। नेतन्याहू के निजी आवास के पास हमले के बाद इजराइल ने गाजा और लेबनान दोनों मोर्चों पर लड़ाई तेज कर दी है। उधर अमेरिका उन लीक दस्तावेजों की जांच कर रहा है जिसमें आंकलन किया गया है कि इजराइल ईरान पर हमला करने का प्लान बना रहा है। एक अमेरिकी अधिकारी ने कहा कि वैध दस्तावेज लग रहे हैं। अमेरिकी खुफिया एजेंसी और राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी के हवाले से चिह्नित सीक्रेट दस्तावेजों से संकेत मिलता है कि इजराइल ईरान के हमले के जबाव में सैन्य हमले करने के लिए सैन्य साजो-सामान शिफ्ट कर रहा है।

-अनिल नरेन्द्र


जहाजों में बम की अफवाहों से खलबली।

पिछले सप्ताह ही कम से कम 30 ऐसी धमकियां मिलीं थीं जिनकी वजह से विमानों का रूट बदलना पड़ा था। फ्लाइट कैसिंल हुई या फिर काफी देर बाद उड़ान भरी गई। इस साल जून में एक ही दिन में 41 हवाई अड्डों को ईमेल के जरिए बम से उड़ाने की झूठी धमकियां मिली थीं। नागरिक उड्डयन मंत्री राजमोहन नायडू का कहना है कि मैं भारतीय एयरलाइंस को निशाना बनाने वाली हालिया घटनाओं से बहुत चिंतित हूं। इससे घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय उड़ाने प्रभावित हो रही हैं। इस तरह की शरारती और गैर कानूनी हरकतें गंभीरता का विषय है। एयर इंडिया, विस्तारा, अकासा एयर, स्पाइस जेट, स्टार एयरलाइंस और एलायंस एयर के विमानों को बम की धमकी मिली। उड़ानों को सोशल मीडिया से बम की धमकी दी गई। एक विमान के शौचालय में नोट मिला। भारत दुनिया का सबसे तेजी से बढ़ता विमानन बाजार है। यहां ऐसी अफवाहें भारी नुकसान करती हैं। नागरिक उड्डयन मंत्रालय के अनुसार पिछले साल भारत में 15 करोड़ से अधिक यात्रियों ने घरेलू उड़ान भरी। देश में 33 अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डों सहित 150 से अधिक हवाई अड्डों से रोज 3000 से अधिक उड़ाने लैंड होती हैं या उड़ान भरती हैं। पिछले हफ्ते ये झूठी अफवाहों से स्थिति चरम पर थी। इस दौरान भारत की एयर लाइंस पर 14 अक्टूबर को एक दिन के रिकार्ड 4,84,263 यात्री सवार हुए। भारत में 700 से भी कम वाणिज्यक यात्री विमान हैं। विमानन कपंनियों को मिल रही धमकियों को लेकर सुरक्षा एजेंसियों की बेचैनी बढ़ गई है। गृह मंत्रालय ने उड्डयन मंत्रालय से रिपोर्ट तलब की है। शनिवार की शाम को सिविल एविएशन सिक्यूरिटी ने विमानन कपंनियों के प्रमुखों के साथ बैठक की जिसमें धमकियों के मद्देनजर यात्रियें को होने वाली असुविधा और आर्थिक नुकसान पर भी चर्चा हुई। सूत्रों ने बताया कि इन धमकियों की वजह से हुई अव्यवस्था के चलते करीब 80 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है। सोशल मीडिया पर गुमनाम अकाउंट से बम धमकियों में नाटकीय वृद्धि के कारण अपराधियों की पहचान करने के प्रयास जटिल हो गए हैं। खासकर तब जब ईमेल सीधे एयरलाइंस को भेजे जा रहे हैं। इन धमकियों का मकसद साफ नहीं है और ये भी नहीं मालूम है कि इनके पीछे कोई एक व्यक्ति है या कोई गुट। पिछले हफ्ते इस तरह की धमकियां देने के लिए सोशल मीडिया अकाउंट बनाने के आरोप में एक 17 वर्षीय लड़के को गिरफ्तार किया गया था। ये स्पष्ट नहीं कि उसने ऐसा क्यों किया लेकिन माना जाता है कि इसने चार उड़ानों को निशाना बनाया।

Tuesday, 22 October 2024

यूक्रेनी महिलाओं ने मार गिराया रूसी ड्रोन


यूक्रेन का एक शहर है बुचा। यहां अंधेरा छाते ही रूस के हमलावर ड्रोन का झुंड आना शुरू हो जाता है। लेकिन ठीक उसी समय निकलती है कुछ बेखौफ महिलाएं। बात हो रही है यूक्रेन की एयर डिफेंस यूनिट की, जिसमें ज्यादातर महिलाएं ही शामिल हैं। ये महिलाएं खुद को विचेज ऑफ बुचा कहती हैं। ये एयर डिफेंस यूनिट की वालंटियर हैं। चूंकि पुरुषों को ज्यादा से ज्यादा संख्या में युद्ध के अग्रिम मोर्चे पर भेजा जा रहा है ऐसे में महिलाएं यूक्रेन के आसमान की हिफाजत के लिए आगे आ रही हैं। यूक्रेन के सैनिक अक्सर रूस के उन ड्रोन्स पर निगाह रखते हैं, यह उनके मिसाइल हमलों से पहले एक साथ लहर के तौर पर भेजा जाता है ताकि यूक्रेनी सैनिकों की प्रमुख सुरक्षा पंक्ति पर हावी हुआ जा सके। कई लोग कहते हैं कि यह एक तरीका है। उस विवशता से बाहर आने का, जो उस वक्त महसूस हुई थी जब रूसी सेना ने बड़े पैमाने पर हमले कर बुचा पर कब्जा कर लिया था। ये उन दिनों की डरावनी कहानियां हैं, जिनमें हत्या, यातना और अपहरण जैसी घटनाएं शामिल हैं। ये तब बाहर आना शुरू हुईं जब मार्च 2022 के अंत में यूक्रेनी सेना ने इन इलाकों को आजाद करवा लिया। वेलेंतिना एक पशु चिकित्सक हैं, जो इन गर्मियों में ड्रोन बस्टर्स के तौर पर जुड़ी थीं, उनका कॉलसाइन (पुकारे जाने वाला नाम) वालिकरी है। मैं 51 साल की हूं। मेरा वजन 100 किलो है, मैं दौड़ नहीं सकती हूं। मुझे लगा था कि वो मुझे पैकिंग का काम सौंपेंगे मगर उन्होंने ड्रोन बस्टर्स टीम में ले लिया। वेलेंतिना कहती हैं, मैं यह काम कर सकती हूं। यह किट भारी है लेकिन हम महिलाएं ये कर सकती हैं। वेलेंतिना को ऐसा करके दिखाने का। मौका मिलता है, क्योंकि कुछ घंटों बाद पूरे इलाके में हवाई अलर्ट जारी हो जाता है। उनकी यूनिट अपने वेस से जंगल की ओर भागती है और हम अंधेरे में उनके पिकअप ट्रकों के पीछे चलते हैं जो मैदान के बीच से आगे बढ़ रहा है। इस टीम में एक मात्र पुरुष हैं जिन्हें इनमें कुलेंट के तौर पर हाथ से बोतल-पानी डालना पड़ता है। लेकिन बाबा आदम के जमाने के इन हथियारों का रखरखाव काफी अच्छा है। इन महिलाओं ने बताया कि उन्होंने इन हथियारों से अब तक तीन ड्रोन मार गिराए हैं। वेलेंतिना बताती हैं, मेरी भूमिका ड्रोन की आवाज ध्यान से सुनने की है। यह परेशान करने वाला काम है, लेकिन हमें हर पल हल्की सी आवाज को सुनने के लिए भी सतर्क रहना पड़ता है। वॉल्ँटियर यूनिट पर कोई सार्वजनिक डेटा नहीं है। ये नहीं मालूम कि इसमें कितनी महिलाएं शामिल हैं। मगर जैसे ही रात को रूस के विस्फोटकों से भरे ड्रोन आते हैं, तो ये यूनिट बड़े कस्बों और घरों के ऊपर एक अतिरिक्त ढाल के इर्द-गिर्द सुरक्षा की एक बड़ी ढाल बनाने में मदद करती हैं। इन महिलाओं ने अपनी तैनाती वाली जगह से अपने टैबलेट पर दो ड्रोन ट्रैक किए। ये दोनों पड़ोसी इलाके के ऊपर मंडरा रहे थे। शुरुआत में महिलाओं को सेना व सुरक्षा बलों में शामिल करने की बात को मजाक समझा जाता था। महिलाओं पर कम भरोसा किया जाता था। लेकिन अब ये सोच पूरी तरह बदल गई है। महिलाएं वीकेंड का अधिकतर वक्त मिलिट्री ट्रेनिंग लेने में बिताती हैं, मगर महिलाओं की प्रतिबद्धता और फोकस साफ है, वो अपनी निजी और गहरी वजहों से ऐसा कर रही हैं। वेलेंतिना कहती हैं मुझे मेरा पेशा याद है। मुझे अपने बच्चों की दहशत याद है, वो गहरी सांस लेकर कहती हैं, हम जब भाग रहे थे और बिखरी लाशें याद आ रही थीं।

-अनिल नरेन्द्र

विकास यादव कौन है, जिन पर लगे हत्या के आरोप


अमेरिका के न्याय मंत्रालय ने 17 अक्टूबर को भारतीय नागरिक विकास यादव के खिलाफ भाड़े पर हत्या और मनी लांड्रिग का मामला दर्ज करने की घोषणा की। ये मामला 2023 में न्यूयार्क शहर में अमेरिकी नागरिक और सिख अलगाववादी, आतंकवादी नेता गुरपतवंत सिंह पन्नू के कत्ल की नाकाम साजिश से जुड़ा है। अमेरिकी अधिकारियों का कहना है कि उसकी हत्या की साजिश में विकास यादव की अहम भूमिका थी। जहां अमेरिकी न्याय मंत्रालय ने यादव को भारत सरकार का कर्मचारी बताया है। वहीं भारत कह चुका है कि विकास यादव अब भारत सरकार के कर्मचारी नहीं है। अमेरिका ने विकास यादव और निखिल गुप्ता पर भाड़े पर हत्या की कोशिश का आरोप लगाया है जिसके लिए वहां के कानून के मुताबिक अधिकतम 10 साल की जेल की सजा का प्रावधान है। साथ ही दोनों अभियुक्तों पर भाड़े पर हत्या करने की साजिश रचने का भी आरोप लगाया गया है जिसके लिए भी अधिकतम 10 वर्ष की जेल का प्रावधान है। अमेरिकी प्राधिकारियों ने भारत सरकार के इस पूर्व अधिकारी पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की राजकीय यात्रा के आसपास यह आरोप लगाया। संघीय अभियोजकों ने न्यूयार्क स्थित एक अमेरिकी अदालत में दायर एक अभियान में दावा किया कि विकास यादव (39) कैबिनेट सचिवालय में कार्यरत था, जहां भारत की विदेश खुफिया सेवा रिसर्च एंड एनलाइसिस विंग (21) का मुख्यालय है। अमेरिका के मुताबिक यादव भारत की खुफिया एजेंसी रॉ के लिए काम करते थे जो कैबिनेट सचिवालय का हिस्सा है। अमेरिकी न्याय मंत्रालय ने कहा है कि विकास यादव ने अपने पद को वरिष्ठ फील्ड ऑफिसर के रूप में बताया है जहां उनकी जिम्मेदारियां सुरक्षा प्रबंधन और खुफिया प्रबंधन है। भारत सरकार ने अमेरिका की धरती पर किसी अमेरिकी नागरिक की हत्या की साजिश में अपनी संलिप्तता से इंकार किया है। अमेरिका के आरोपों के बाद भारत ने मामले की जांच के लिए एक भारतीय जांच समिति गठित की थी। अमेरिका ने इस मामले में भारत के सहयोग पर संतोष भी जताया है। अदालत में दूसरा अभियोग पत्र के मुद्दे पर संघीय जांच ब्यूरो (एफबीआई), न्याय मंत्रालय और विदेश मंत्रालय के अधिकारियों की एक अंतर एजेंसी टीम के साथ बैठक के लिए यहां भारतीय जांच समिति की आने के 48 घंटे के भीतर दायर किया गया है। इस पूरे प्रकारण का भारत और अमेरिका के रिश्तों पर क्या असर होगा? जानकार कहते हैं मुझे नहीं लगता कि इस समय कोई सीधा असर होगा। दोनों देश जानते हैं कि इन घटनाओं से ज्यादा मायने रखता है, उनके बीच का बड़ा रिश्ता। अमेरिकी अच्छी तरह जानते हैं कि वे संप्रभुता के सिद्धांतों का इस्तेमाल कर आतंकवादियों, चरमपंथियों और अलगाववादियों को संरक्षण दे रहा है इस पर आवाज उठानी होगी। ऐसा नहीं है कि आप (अमेरिका) एक बड़ी ताकत है तो आप कुछ भी कर सकते हैं और उन देशों की सुरक्षा चिंताओं को ध्यान में नहीं रखेंगे। जो आपके दोस्त या रणनीतिकार साझेदार हैं। अगर हमारे पास क्षमता और योग्यता है और अगर हमारे रणनीतिक साझेदार हमारी सुरक्षा चिंताओं का ख्याल नहीं रख सकते हैं तो हमें खुद ही उनका ख्याल रखना चाहिए। लेकिन यह भारत की नीति नहीं है। अमेरिका जैसे देश सिर्फ शक के आधार पर देशों पर बम गिराते हैं और उन्हें नष्ट कर देते हैं। और फिर आप उम्मीद करते हैं कि दूसरे अपनी रक्षा के लिए कुछ नहीं करेंगे और हाथ पर हाथ रखकर तमाशा देखते रहेंगे तो यह आपकी भूल है। भारत-अमेरिका को मिलकर इस मसले का हल निकालना होगा।

Saturday, 19 October 2024

झारखंड में दोनों झामुमो और भाजपा के लिए चुनौती

झारखंड में विधानसभा चुनाव की आधिकारिक घोषणा भले ही मंगलवार को हुई हो, लेकिन चुनावी बिसात पर शह-मात का खेल पिछले कई महीनों से जारी है। ईडी की कार्रवाई के कारण हेमंत सोरेन को पद छोड़ना पड़ा। वे लगभग 5 महीने जेल में रहे। जेल से वापस आने के बाद उन्हें अपने दल में उथल-पुथल का एहसास हुआ। समय रहते ही उन्होंने फिर मुख्यमंत्री का पद संभाल लिया। कुछ समय बाद भाजपा ने उनके विश्वस्त पूर्व मुख्यमंत्री चंपई सोरेन को तोड़ लिया। हेमंत पर फिलहाल पूरे गठबंधन के नेतृत्व का दारोमदार है। सहुलियत के लिहाज से वे खाली कांग्रेस, राजद और वामदलों के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं। हेमंत की चुनौती फिर से सत्ता में वापसी की है। वहीं, विपरीत परिस्थितियों में जीत दिलाने में माहिर मध्य प्रदेश के पूर्व सीएम शिवराज सिंह चौहान और असम के सीएम हिमंत बिस्वा सरमा को राज्य में पार्टी के चुनाव की कमान सौंपने से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय जनता पार्टी राज्य में सत्ता हासिल करने को लेकर किस कदर गंभीर हैं। वैसे भाजपा के लिए आसान नहीं है जीत हासिल करना। सत्ता में वापसी के लिए पूरी ताकत लगा रही भाजपा के सामने झामुमो सबसे बड़ी बाधा है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के जेल जाने और बाहर आने के दौरान उनकी पत्नी कल्पना सोरेन ने राज्य की राजनीति में अपनी पैठ गहरी की है। कल्पना के कार्यक्रमों में उमड़ रही भीड़ और महिलाओं का समर्थन झामुमो के लिए लाभ का सौदा हो सकता है। वहीं, भाजपा को आजसू व जद (यू) के साथ अपने गठबंधन के कारण सत्ता में लौटने का भरोसा है। साथ ही वह आदिवासी समुदाय में भी समर्थन हासिल कर रही है। झारखंड विधानसभा चुनाव में इस बार भाजपा सहयोगी दलों जद यू और आजसू के साथ मिलकर मैदान में उतरी है। पार्टी को पिछली बार के मुकाबले ज्यादा लाभ की उम्मीद है, क्योंकि तब सब अलग-अलग लड़े थे और इससे भाजपा को नुकसान हुआ था। तत्कालीन सीएम रघुबर दास की गैर आदिवासी राजनीति पर जोर देने से भी भाजपा को घाटा हुआ था। यह नुकसान भाजपा को हाल के आम चुनाव में ही हुआ। हालांकि भाजपा रणनीतिकारों का कहना है कि झारखंड चुनाव इस बार भाजपा के लिए ज्यादा आसान होगा। हरियाणा में भाजपा को मिली जीत का असर भी झारखंड में पड़ सकता है और विरोधी खेमे में आत्म विश्वास कम हुआ है। झामुमो की अगुवाई वाले सत्तारूढ़ गठबंधन की आस मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के करिश्मे पर टिकी हैं। जमानत पर बाहर आने के बाद फिर से सरकार की बागडोर संभालने के बाद से ही हेमंत ने स्वजातीय वोट बैंक को साधने की पहल की है। वहीं भाजपा ने ओबीसी वोट बैंक को साधने और झामुमो के आदिवासी वोट बैंकों में सेंध लगाने की रणनीति बनाई है। वहीं झामुमो की रणनीति आदिवासी वोट बैंक को साधे रखने के साथ ही भाजपा के ओबीसी वोट बैंक में सेंध लगाने की है। पार्टी को लगता है कि इसमें कांग्रेस और राजद मददगार साबित होंगे। -अनिल नरेन्द्र

महायुति बनाम महाविकास अघाड़ी

पिछले पांच वर्षों में महाराष्ट्र की राजनीति में अप्रत्याशित उथल-पुथल हुई है। राज्य की जनता ने एक के बाद कई सियासी झटके देखे। लेकिन क्या जनता इन झटकों को पचा पाई, यह आने वाले हफ्तों में साफ हो जाएगा। चुनावों की घोषणा के साथ राज्य में छह प्रमुख राजनीतिक दलों की परीक्षा शुरू हो चुकी है। महाराष्ट्र में 288 सीटों पर विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। 2019 से 2024 तक पांच साल का कार्यकाल महाराष्ट्र की राजनीति में अप्रत्याशित घटनाओं का दौर रहा है। इस बार चुनाव में दो नई पार्टियां नजर आएंगी। दरअसल, ये दोनों नई पार्टियां पिछली बार चुनाव लड़ चुकी दो पार्टियों से अलग होकर बनी हैं। पिछले पांच वर्षों की राजनीतिक घटनाओं की वजह से इन पार्टियों का गठन हुआ है। महाराष्ट्र विधानसभा में शिव सेना शिंदे गुट के पास 40 विधायक हैं। भाजपा के पास 103 विधायक और एनसीपी (अजित पवार) के पास 40 विधायक हैं। दूसरी ओर महाविकास अघाड़ी से एनसीपी (शरद पवार) के पास 13 विधायक हैं, शिवसेना (उद्धव ठाकरे) के साथ 15 विधायक हैं और कांग्रेस के 43 विधायक हैं। इसके अलावा राज्य में बहुजन विकास अघाड़ी के तीन, समाजवादी पार्टी के 2, ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहदुल मुस्लिमीन के 2, प्रहार जन शक्ति 2, एमएनएस के 1, कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) 1, भारतीय किसान एवं मजदूर दल 1, स्वाभिमानी पक्ष 1, राष्ट्रीय समाज पार्टी 1, महाराष्ट्र जनसुराज शक्ति पार्टी के 1, क्रांतिकारी पार्टी के 1 और निर्दलीय 13 विधायक हैं। 2019 का विधानसभा चुनाव शिव सेना और भाजपा के गठबंधन ने मिलकर लड़ा था। दूसरी और कांग्रेsस और एनसीपी गठबंधन ने भी साथ मिलकर चुनाव लड़ा था। विधानसभा चुनाव की रणभेरी बजने के साथ ही महाराष्ट्र में दोनों गठबंधनों सत्तारुढ़ महायुति और महाविकास अघाड़ी (एमपीए) की चुनौतियां बढ़ गई हैं। महायुति की जीत की हैट्रिक लगाने की है तो एमवीए के सामने लोकसभा चुनाव का प्रदर्शन बरकरार रखते हुए बीते दो चुनाव से जारी सूखा खत्म करने की। सवाल यही है कि क्या भाजपा की अगुवाई में महायुति महाराष्ट्र में हरियाणा जैसा पलटवार दोहरा पाएगी या फिर एमवीए हरियाणा की हार से सबक सीखते हुए इस बार बाजी मार जाएगी? लोकसभा चुनाव के नजरिए से देखें तो महाराष्ट्र और हरियाणा में कई समानताएं नजर आएंगी। हरियाणा में पांच सीटें छीनने वाली कांग्रेस को भाजपा से महज डेढ़ फीसदी अधिक वोट मिले और महाराष्ट्र में महायुति को 17 सीटों पर सीमित करने वाले एमवीए को महज 0.16 फीसदी वोट अधिक मिले। दोनों ही राज्यों में भाजपा की अगुवाई वाले राजग को ओबीसी, दलित वोट बैंक में सेंध लगने का नुकसान उठाना पड़ा। हालांकि हरियाणा विधानसभा चुनाव में जीत की हैट्रिक लगाकर भाजपा ने कांग्रेsस से हिसाब-किताब बराबर कर लिया। महाराष्ट्र में लोकसभा चुनाव में लगे झटके से उबरने के लिए महायुति की निगाहें छिटक चुके 40 फीसदी ओबीसी और 10 फीसदी वोट दलित वोट बैंक पर हैं, जिसकी नाराजगी की कीमत आम चुनाव में उठानी पड़ी थी। दूसरी ओर महाविकास अघाड़ी में शरद पवार जैसे चाणक्य मोर्चा संभाले हुए हैं। राहुल गांधी ने भी हरियाणा की हार से सबक सीखा है। पार्टी टूटने व सिंबल छिनने के बावजूद उद्धव ठाकरे अपनी जड़े जमाए हुए हैं और उनकी असली-नकली लोकप्रियता भी सामने हैं। इस चुनाव में पार्टी का भी फैसला होगा। लोकसभा चुनाव में एनसीपी (अजित) को सिर्फ 1 सीट मिली थी, वहीं शरद पवार गुट को 8 सीटें मिलीं तो शिवसेना (उद्धव) 9 तो शिवसेना (शिंदे) ने 7 सीटें जीतीं।

Thursday, 17 October 2024

उत्तर प्रदेश के उपचुनाव सभी के लिए चुनौती


लोकसभा चुनावों में जोरदार कामयाबी के बाद उत्तर प्रदेश की 10 विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के लिए चुनौती है। हरियाणा की अप्रत्याशित सफलता के बाद से उत्साहित भाजपा के सामने अब झारखंड व महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव के साथ उत्तर प्रदेश में होने वाले दस विधानसभा सीटों में से 9 पर उपचुनाव की बड़ी चुनौती है। याद रहे कि लोकसभा चुनाव में भाजपा को उत्तर प्रदेश से ही बड़ा झटका लगा था। जिसकी वजह से वह अपने दम पर स्पष्ट बहुमत हासिल करने में चूक गई थी। उत्तर प्रदेश में जिन दस सीटों पर उपचुनाव होने हैं इनमें नौ सीटें विधायकों के लोकसभा सांसद बनने से खाली हुई हैं। जबकि सीसामऊ की एक सीट पर चुनाव सपा विधायक इरफान सोलंकी की सदस्यता रद्द होने से हो रहा है। इन दस सीटों में सपा के पास 5, भाजपा के पास तीन और दो सीटें उसके सहयोगी रालोद व निषाद पार्टी के पास हैं। इसमें अयोध्या की अति प्रतिष्ठित सीट मिल्कीपुर भी शामिल है। भाजपा के एक प्रमुख नेता ने कहा है कि विधानसभा चुनाव में आमतौर पर स्थानीय मुद्दों व सामाजिक समीकरणों से प्रभावित होता है। ऐसे में इनको लोकसभा चुनाव के परिणामों से जोड़कर नहीं देखा जा सकता। अब हरियाणा से निकला जाट बनाम गैर जाट ओबीसी का यह नैरेटिव आगे बढ़ता है तो भाजपा की यूपी में चिंता बढ़ाएगा। दरअसल भाजपा को खासतौर पर उत्तर प्रदेश में अपनी जमीन को मजबूत बनाए रखना है। वहां भाजपा हरियाणा की तरह यादव बनाम अन्य ओबीसी नहीं कर सकती। क्योंकि यादवों का करीब-करीब एक मुश्त वोट सपा के समर्थन में रहता है। मगर सपा-कांग्रेस गठबंधन जाटों के साथ दलित और मुस्लिम समीकरण बनाते हैं तो भाजपा की राह पथरीली हो जाती है। अन्य ओबीसी में सेंध लगाकर सपा से पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी लोकसभा चुनाव में भाजपा का नुकसान कर दिया। वैसे सीएम योगी का कटेंगे तो बटेंगे वाला बयान इस प्रयास का हिस्सा है। वहीं, भाजपा पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ के प्रदेश अध्यक्ष व योगी सरकार के पिछड़ा वर्ग कल्याण मंत्री नरेन्द्र कश्यप को विश्वास है कि जाट नाराज नहीं हैं। भाजपा को रालोद से गठबंधन का भी लाभ मिलेगा। उधर यह उपचुनाव इंडिया और विशेषकर समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती पेश करेंगे। कांग्रेस ने 10 सीटों में से पांच पर दावा किया है। उधर अखिलेश यादव ने 6 सीटों पर अपने उम्मीदवारों के नाम घोषित कर दिए हैं। अब सबकी निगाहें इस बात पर टिकी हैं कि कांग्रेस और सपा के बीच सीटों के बंटवारे पर सहमति बनती है या नहीं। अखिलेश ने यह तो घोषणा कर दी है कि यूपी में सपा-कांग्रेस का गठबंधन जारी रहेगा। हरियाणा परिणामों के बाद कांग्रेस की सौदेबाजी करने की स्थिति अब मजबूत नहीं है। हमें लगता है कि सीट बंटवारे में ज्यादा मुश्किल नहीं होगी। लोकसभा में अभूतपूर्व सफलता के बाद अखिलेश के सामने यह उपचुनाव जीतने की भारी चुनौती है। दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का भी सियासी भविष्य इस चुनाव पर टिका हुआ है। यह किसी से नहीं छिपा की दिल्ली उनको हटाना चाहती है। वह देख रही है कि इन उपचुनावों का परिणाम क्या होता है। इन उपचुनावों में जहां मोदी-शाह-योगी की इज्जत दांव पर लगी है वहीं इंडिया एलायंस, अखिलेश यादव और कांग्रेस की भी प्रतिष्ठा दांव पर है।

-अनिल नरेन्द्र

 

सवाल बाबा सिद्दीकी की हत्या की टाइमिंग पर


महाराष्ट्र के पूर्व मंत्री और अजित पवार की पार्टी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के वरिष्ठ नेता बाबा सिद्दीकी के शव को रविवार शाम राजकीय सम्मान के साथ मुंबई के बड़ा कब्रिस्तान में दफनाया गया। बाबा सिद्दीकी की अंतिम यात्रा से पहले उनके आवास के बाहर नमाज-ए-जनाजा पढ़ी गई। अंतिम यात्रा में हजारों की संख्या में लोग पहुंचे थे। इस मामले में शनिवार रात गिरफ्तार हुए दो लोगों में से एक शुभम लोनकर के भाई प्रवीण लोनकर को रविवार को पुणे से गिरफ्तार किया गया। माना जाता है कि प्रवीण लोनकर ने अपने भाई शुभम लोनकर के साथ मिलकर साजिश रची थी। प्रवीण लोनकर ने ही धर्मराज कश्यप और शिव कुमार गौतम को इस साजिश में शामिल किया था। धर्मराज कश्यप और गुरमेल सिंह पुलिस हिरासत में हैं। तीसरा अभियुक्त शिव कुमार फरार बताया जाता है और चौथे अभियुक्त मोहम्मद जीशान अख्तर के बारे में कहा जा रहा है कि वो बाकी तीन को गाइड कर रहा था। बाबा सिद्दीकी की शनिवार रात गोली मारकर हत्या के बाद महाराष्ट्र में कानून व्यवस्था के ध्वस्त होने पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। एक प्रेस कांफ्रेंस में मुंबई क्राइम ब्रांच के पुलिस आयुक्त दत्ता नलवाडे ने कहा है कि इस मामले में लारेंस बिश्नोई गैंग की भूमिका को लेकर जांच की जा रही है। बता दे कि लारेंस बिश्नोई इस समय अहमदाबाद की साबरमती जेल में एक साल से बंद है। प्रश्न यह भी उठ रहा है कि इतनी दूर से वो भी अतिसुरक्षित जेल से लारेंस बिश्नोई ऐसे जोखिम भरे हत्याकांड को कैसे अंजाम दे सकता है? क्या लारेंस बिश्नोई महज एक सुविधाजनक मैन है और उसके पीछे असल चेहरा और साजिश छिपी हुई है? बाबा सिद्दीकी की हत्या के बहुत बड़े मायने हैं और इसका चौतरफा असर हो सकता है। हरियाणा में भाजपा की जीत के बाद महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा चुनाव के लिए बड़े जोश से भर गई भाजपा और एनडीए को इस हत्या ने बचाव की मुद्रा में ला दिया है। दोनों राज्यों में जल्द चुनाव होंगे। घोषणा से ठीक पहले इस हत्या के सियासी मायने के अलावा अपराधों के नजरिए से भी बड़ा मतलब है। क्या लारेंस बिश्नोई दाउद इब्राहिम की राह पर चलने की कोशिश कर रहा है? क्या मुंबई में 90 के दशक के गैंगवार की स्थिति फिर से स्थापित करने की कोशिश की जा रही है? दशहरे के दिन उद्धव ठाकरे और सीएम एकनाथ शिंदे ने मुंबई के दो बड़े मैदानों में अलग-अलग बड़ी सभाएं की। उसके थोड़ी देर बाद बांद्रा ईस्ट जैसे एरिया से बाबा सिद्दीकी की घटना घटती है। इसका असर दिल्ली तक महूसस किया गया है। मल्लिकार्जुन, राहुल गांधी से लेकर शरद पवार, उद्धव ठाकरे और संजय राउत तक हमलावर हो गए। बाबा सिद्दीकी तीन बार कांग्रेस के विधायक और राज्य सरकार में मंत्री रहे थे। छह महीने पहले ही वह अजित पवार गुट में शामिल हुए थे। बाबा और अन्य कुछ नेताओं से सलाह कर अजीत पवार विधानसभा में कुछ मुस्लिम नेताओं को टिकट देना चाहते थे। मकसद था मुस्लिम समुदाय में उनका अच्छा संदेश देना पर अब उल्टा मैसेज चला गया है। कानून-व्यवस्था पर विपक्ष के निशाने पर देवेन्द्र फडण्वीस जो गृह मंत्री भी हैं महाराष्ट्र के। चुनाव सिर पर आ गया है और इस समय हत्या पर भी प्रश्नचिह्न लगता है। हत्या की टाइमिंग पर गौर करे। ठीक विधानसभा चुनाव से पहले बाबा सिद्दीकी की हत्या से किस को और किन ताकतों को फायदा होगा? सवाल महाराष्ट्र पुलिस पर भी उठ रहे हैं। दूसरी तरफ लारेंस बिश्नोई जैसे गिरोह सरगनाओं की ओर से लगातार वारदात करने से देश और राज्यों के खुफिया तबके के अलावा पुलिस व अन्य एजेंसियों पर भी सवालिया निशाना लग रहे हैं।

Tuesday, 15 October 2024

जेलों में जातिगत भेदभाव


जेलों में जाति आधारित भेदभाव को समाप्त करने संबंधी सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की जितनी प्रशंसा की जाए कम होगी। इतनी ही प्रशंसा उस रिपोर्ट या याचिका की भी होनी चाहिए जिसने सदियों से चली आ रही इस कुप्रथा पर प्रहार का जरूरी साहस दिखाया। सुप्रीम कोर्ट ने देशभर के 11 राज्यों में जेल मैनुअल में जाति आधारित भेदभाव वाले प्रावधानों को खारिज करते हुए कहा कि आजादी के 75 वर्ष बीत चुके हैं। लेकिन हम अभी तक जाति आधारित भेदभाव को जड़ से समाप्त नहीं कर पाए हैं। ऐतिहासिक फैसले में जेलों में जाति के आधार पर कैदियों के बीच काम के बंटवारे को असंवैधानिक करार देते हुए कहा कि भेदभाव बढ़ाने वाले सभी प्रावधानों को खत्म किया जाए। शीर्ष अदालतों ने राज्यों के जेल मैनुअल के जाति आधारित प्रावधानों को रद्द करते हुए सभी राज्यों को फैसले के अनुरूप तीन माह में बदलाव का निर्देश दिया है। मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला व जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा कि भेदभाव करने वाले सभी प्रावधान असंवैधानिक ठहराये जाते हैं। पीठ ने जेल में जातिगत भेदभाव पर स्वत संज्ञान लेते हुए रजिस्ट्री को तीन महीने बाद मामले को सूची करने का निर्देश दिया। इस फैसले को सुनाते हुए मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने महिला पत्रकार सुकन्या शांता की तारीफ करते हुए कहा कि सुकन्या शांता आपके रोषपूर्ण लेख के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। आपके लेख से ही इस मामले की सुनवाई की शुरुआत हुई। पता नहीं इस लेख के बाद हकीकत कितनी बदली होगी, लेकिन हमें उम्मीद है कि इस फैसले से हालात बेहतर होंगे। जब लोग लेख लिखते हैं। शोध करते हैं और मामलों को अदालतों के सामने इस तरह से लाते हैं कि समाज की वास्तविकता दिखा सकें, तो हम इन समस्याओं का निदान कर सकते हैं। ये सभी प्रक्रियाएं कानून की ताकत को रेखांकित करती हैं। सुकन्या शांता द वायर डिजिटल प्लेटफार्म के लिए काम करती हैं। उन्होंने भारत के विभिन्न राज्यों में जेलों में जाति-आधारित भेदभाव पर रिपोर्टिंग कर एक सीरिज की। इस सीरिज में उन्होंने कैदियों को जाति के आधार पर दिए जाने वाले काम और जाति के आधार पर कैदियों के साथ भेदभाव जैसे कई महत्वपूर्ण मुद्दों को उजागर किया। इस सीरिज के प्रकाशित होने के बाद राजस्थान हाईकोर्ट ने स्वत संज्ञान लिया। इसके बाद सुकन्या ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया और फैसला अब आपके सामने हैं। सरकारी दस्तावेजों में जाति नाम चिह्नित करना अनिवार्य है। कानून में संशोधन कर इस तरह के भेदभाव समाप्त करने में सरकारें संकुचाती हैं। क्योंकि जाति आधारित राजनीति करने में ये माहिर हैं। इसलिए उनकी प्राथमिकताओं में अंग्रेजों के बनाए नियमों को सुधारने की बात ही नहीं उठती। धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होने के बावजूद हम अब तक जातियों के पूर्वाग्रह और अंतहीन जंजाल से निकलने में पूर्णत असफल रहे हैं। अपराधियों को सजा बेशक अदालत देती है पर कैद के दौरान उनके साथ किया जाने वाला जेल अधिकारियों का बर्ताव भी कई दफा पक्षपाती होता है। ये सलाह सिर्फ जेल नियमावली तक ही नहीं सीमित होना चाहिए। बल्कि इस तरह का सुधारवादी कदम पूरे समाज में सख्तीपूर्वक लागू किए जाने की जरूरत है। ये छुआछात या जाति-आधारित भेदभाव से समाज को मुक्त कराने की जरूरत है। अदालत ने पहल कर दी है।

-अनिल नरेन्द्र

हरियाणा चुनाव ः किस पर दबाव कम हुआ किस पर बढ़ा


आरक्षण और संविधान पर खतरे को लेकर विपक्ष की बनाई धारणा के कारण लोकसभा चुनाव में पहुंचे नुकसान के बाद हरियाणा के नतीजे नरेन्द्र मोदी और भाजपा के लिए संजीवनी से कम नहीं है। हरियाणा में जीत की हैट्रिक और जम्मू-कश्मीर में पहले के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन से न सिर्फ मोदी पर दबाव कम होगा बल्कि पार्टी का आत्मविश्वास भी बढ़ेगा। मोदी जी पर पिछले कुछ समय से दबाव लगातार बढ़ता जा रहा था। पार्टी के अंदर बढ़ते मतभेद, विपक्ष का तीखा हमला और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरफ से बढ़ती आलोचना। मोदी नड्डा कई मोर्चो पर एक साथ लड़ रहे थे। हरियाणा के चुनाव परिणाम अगर भाजपा के खिलाफ आते तो संघ का मोदी-शाह जोड़ी पर और दबाव बढ़ता और प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति से लेकर मोदी सरकार की नीतियों पर जो हमले हो रहे थे इनमें और तेजी आ जाती। मोदी ब्रैंड पर प्रश्नचिह्न लगने शुरू हो गए थे। पार्टी के अंदर यह आशंका भी जाहिर की जा रही थी कि अब मोदी ब्रांड चुनाव में चल ही रहा है। हरियाणा के परिणामों से न केवल इन अटकलों, आलोचनाओं पर विराम लगा बल्कि अगले कुछ महीनों में महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव के अलावा उत्तर प्रदेश में अहम माने जाने वाले दस विधानसभा सीटों के उपचुनाव पर भी इसका असर पड़ेगा। वहीं दूसरी ओर राहुल गांधी और कांग्रेsस पार्टी की इस हार की वजह से उन पर दबाव बढ़ेगा। राहुल गांधी जीत के दावे कर रहे थे। वोEिटग से पांच दिन पहले एक्स पर राहुल ने लिखा था, हरियाणा में दर्द के दशक का अंत करने के लिए कांग्रेस पार्टी पूरी शक्ति के साथ एकजुट है, संगठित है, समर्पित है। ये दावे कितने खोखले निकले परिणामों ने बता दिए। कई विश्लेषक इस हार को राहुल गांधी की व्यक्तिगत हार मान रहे हैं। लेकिन हमारा ऐसा मानना नहीं है। राहुल ने ईमानदारी से पूरी ताकत लगाई पर न तो स्थानीय नेताओं ने साथ दिया न ही संगठन ने। अब राहुल रैली में आई भीड़ को पोलिंग बूथ पर तो नहीं ले जा सकते। पर हो राहुल व कांग्रेस की इंडिया गठबंधन में बारगेनिंग की पोजीशन कम जरूर हुई है। होनी भी चाहिए थी क्योंकि कांग्रेस को कुछ ज्यादा अहंकार हो गया था। इसे आप पार्टी व समाजवादी पार्टी को साथ हरियाणा में लड़ना चाहिए था। अहीरवाल क्षेत्र में अखिलेश यादव की एक-दो सभा करनी चाहिए थी। इस हार से राहुल, प्रियंका और सोनिया को इतना तो समझ आ गया होगा कि पार्टी के अंदर बैठे जयचंदों से कैसे निपटा जाएगा। लोकसभा चुनाव में मिली जीत के बाद जिस तरह विपक्षी गठबंधन इंडिया ब्लाक में कांग्रेस का रुतबा बढ़ा था हरियाणा की हार से उस पर पानी फिरता दिखाई दे रहा है। उसके सहयोगी दल ही उन्हें आंखें दिखाने लगे हुए हैं। उधर उत्तर प्रदेश में सपा ने उपचुनाव के लिए अपने छह उम्मीदवारों की घोषणा कर दी हैं इनमें दो सीटें वह भी है जिन पर कांग्रेस दावा कर रही थी। सहयोगी आरोप लगा रहे हैं कि जहां कांग्रेस मजबूत स्थिति में होती है वहां वह सहयोगियों को एडजस्ट नहीं करती है। जम्मू-कश्मीर, हरियाणा के नतीजों का राहुल के नेतृत्व पर क्या असर पड़ेगा ये कहना जल्दबाजी होगी। अभी दो राज्यों के चुनाव बाकी हैं, जिनमें महाराष्ट्र और झारखंड शामिल हैं। इन दोनों राज्यों में राहुल गांधी के सामने चुनौती बढ़ गई है। इस बात में कोई शक नहीं कि कांग्रेस का पलड़ा हल्का हुआ है। टिकट बंटवारे इत्यादि में गठबंधन की पार्टियां अब कांग्रेस पर अतिरिक्त दबाव डाल सकती हैं। कुल मिलाकर मैंने जैसे कहा कि नरेन्द्र मोदी की छवि बढ़ी है। उन पर दबाव कम हुआ है और राहुल गांधी की मेहनत को धक्का लगा है और उन पर दबाव बढ़ा है।

Friday, 11 October 2024

सीटें तो बढ़ी पर कश्मीरियों का दिल नहीं जीत पाई

जम्मू-कश्मीर में भाजपा सत्ता तक तो नहीं पहुंच पाई लेकिन 25.63 फीसदी के साथ सबसे ज्यादा वोट शेयर करने में सफल रही। 2014 में उसे 22.98 प्रतिशत वोट मिले थे। पार्टी को राज्य में अब तक की सबसे ज्यादा सीटें भी मिली हैं। 2014 में भाजपा को पहली बार 25 सीटें मिली थीं। इस बार 29 सीटों पर पहुंच गई। भाजपा को 1987 के बाद साढ़े तीन दशक में सबसे बड़ी सफलता मिली है। हालांकि कश्मीर संभाग में 18 सीटों पर प्रत्याशी उतारे थे, पर एक भी नहीं जीत सका। चुनाव में लोगों को राहुल-अब्दुल्ला का साथ रास आया और 1987 के बाद पांचवीं बार गठबंधन सरकार का रास्ता साफ हुआ। नेशनल कांफ्रेंस के साथ गठबंधन पर कांग्रेस सत्ता तक पहुंचने में तो सफल रही, लेकिन सीटों के साथ वोट शेयर भी घट गया। 2014 में कांग्रेस ने विधानसभा चुनावों में 18.01 फासदी मत प्रतिशत के साथ 12 सीटों पर जीत दर्ज की थी। जबकि इस चुनाव में उसे कुल 6 सीटें मिली और मत प्रतिशत भी गिर कर 11.97 प्रतिशत रह गया। दस साल बाद हुए विधानसभा चुनाव में पीडीपी को भारी झटका लगा है। 2014 में भाजपा के साथ सरकार बनाने की उसे भारी कीमत चुकानी पड़ी। खुद चुनाव से दूर रहकर महबूबा मुफ्ती ने अपनी बेटी इल्तिजा पर दांव लगाया था, लेकिन यह दांव उल्टा पड़ा और उन्हें हार का सामना करना पड़ा। पीडीपी का मत प्रतिशत भी गिरकर 8.87 फीसदी रह गया जो 2014 के चुनाव में 22.67 प्रतिशत था। 2014 में पीडीपी को 28 सीटें मिली थीं। इल्तिजा मुफ्ती का कहना है कि भाजपा के साथ गठबंधन की वजह से पार्टी की हार नहीं हुई। कई कारण रहे। घाटी में नेशनल कांफ्रेंस-पीडीपी में से एक को जनता ने मौका दिया। अनुच्छेद 370 व 35ए की बेड़ियों से जम्मू-कश्मीर की आजादी दिलाने के बाद केंद्र शासित प्रदेश में पहली सरकार बनाने का भाजपा के सपनों को न केवल झटका लगा है बल्कि अपने बलबूते पहली बार सूबे में सरकार बनाने का दावा भी खोखला निकला। भाजपा ने सोशल इंजीनियरिंग के तहत पहली बार जेके में अनसूचित जाति (एसटी) को राजनीतिक आरक्षण देते हुए विधानसभा की नौ सीटें आरक्षित कीं। पर यहां भी उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली। भाजपा को तमाम जतन के बाद भी पोरागंल में जोरदार झटका लगा। राजौरी-पुंछ की आठ में एसटी के लिए आरक्षित पांच सीटों पर वह करिश्मा नहीं कर सकी। इन दोनों जिलों की सात सीटों भाजपा हार गई। केवल चार-पांच सीटों की उम्मीद थी। भाजपा को यहां केवल बालाकोट-सुंदरबन सीट पर ही जीत मिली। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष रविन्द्र रैना भी हार गए। खास बात यह रही कि पहाड़ी समुदाय को पहली बार भाजपा ने अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा दिया था और उसे उम्मीद थी कि पहाड़ी समुदाय भाजपा का साथ देगी। गृहमंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की रैलियां भी काम नहीं आई। चिनाव वैली में पिछला प्रदर्शन दोहराने में सफल रही। -अनिल नरेन्द्र

फसल बोई कांग्रेस ने, काटी भाजपा ने

हरियाणा राज्य के चुनावी इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि किसी पार्टी ने लगातार तीन बार विधानसभा चुनावों में जीत हासिल की हो। हरियाणा में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी अपनी जीत के जोर-शोर से दावे कर रही थी। तमाम सर्वेक्षण, पोल सर्वे, विश्लेषक कांग्रेस की जबरदस्त जीत की भविष्यवाणी कर रहे थे। जानकार भी हरियाणा में बीते इस साल में भाजपा की सरकार को लेकर सत्ता विरोधी लहर का दावा कर रहे थे। एग्जिट पोल में कांग्रेस को न केवल जीतते हुए दिखाया गया बल्कि 90 सीटों में से कांग्रेsस को करीब 60 तक की सीटें मिलने का दावा कर रहे थे। कहा गया था कि हरियाणा में किसानों का मुद्दा हो, पहलवानों का मुद्दा हो, अग्निवीर जैसा मुद्दा हो इनकी वजह से भाजपा सरकार के प्रति नाराजगी है। दावा तो यहां तक किया जा रहा था कि यह चुनाव हरियाणा की जनता बनाम भाजपा है। हरियाणा में दस साल बाद कांग्रेस अपनी सरकार बनाने का सपना पालती रही के हाथों में करारी हार लगी। वजह कई रही। इन नतीजों के पीछे सबसे बड़ी वजह रही है भाजपा का माइक्रो मैनेजमेंट। इसका असर हुआ कि हुड्डा के गढ़ सोनीपत की पांच में से चार सीटों पर कांग्रेस हार गई। हरियाणा के एक वरिष्ठ पत्रकार के मुताबिक हरियाणा में करीब 22 फीसदी जाट वोट हैं जो काफी लोकल हैं यानि खुलकर अपनी बात रखते हैं। गैर-जाटों को लगा कि कांग्रेस के जीतने पर भूपेन्द्र सिंह हुड्डा ही हरियाणा के मुख्यमंत्री बनेंगे इसलिए उन्होंने खामोशी से भाजपा के पक्ष में वोट दिया। इस बार के विधानसभा चुनावों में वोटों का बंटवारा जाट और गैर-जाट के आधार पर हो गया, जिसका सीधा नुकसान कांग्रेsस को हुआ। हरियाणा में कांग्रेsस की हार के पीछे एक बड़ा कारण था पार्टी के अंदर गुटबाजी। जानकार मानते हैं कि राज्य में कांग्रेस के उम्मीदवारों को इस तरह से भी देखा जा रहा था कि कौन हुड्डा खेमे से है, कौन शैलजा खेमे से है। यही नहीं कांग्रेस के कई उम्मीदवारों को आलाकमान यानि कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के कहने से मैदान में उतारा गया जिनका हरियाणा में कोई जनाधार नहीं था। इनमें से प्रमुख नाम लिया जा रहा है कांग्रेस संगठन मंत्री के सी वेणुगोपाल का। वेणुगोपाल ने सुना है 5 नाम दिए थे, सभी पांच हार गए। हुड्डा और शैलजा की आपसी खींचतान से भी पार्टी को नुकसान हुआ। शैलजा का घर बैठना और यह कहना कि पार्टी में उनका अपमान हुआ है ने दलित वोटों को खिसका दिया और इसका फायदा भाजपा को हुआ। हरियाणा में गुटबाजी और गलत तरीके से टिकट बांटने की वजह से कांग्रेस को लगभग 13 सीटें गंवानी पड़ी। इनमें आलाकमान, हुड्डा और शैलजा तीनों के चुनिंदा उम्मीदवार थे। कांग्रेsस के कई नेताओं का ध्यान चुनावों से ज्यादा चुनाव जीतने के पहले ही मुख्यमंत्री कुर्सी पर था। आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविन्द केजरीवाल ने कहा है कि इन चुनावों का सबसे बड़ा सबक यही है कि अति आत्म विश्वास कभी नहीं करना चाहिए। दूसरी ओर भाजपा ने 25 सीटों पर अपने उम्मीदवार बदल दिए थे। इनमें 16 उम्मीदवारों ने जीत हासिल कर ली। कांग्रेस ने अपने किसी विधायक का टिकट नहीं काटा और उसके आधे उम्मीदवारों की हार हो गई। उम्मीदवारों को नहीं बदलना भी कांग्रेsस के लिए बड़ा नुकसान साबित हुआ। हरियाणा विधानसभा चुनाव के नतीजों में से यह बात भी सामने आई कि 10 से ज्यादा सीटों पर छोटे दल और निर्दलीय उम्मीदवार कांग्रेsस की हार के पीछे बड़ी वजह रही हैं। भाजपा ने उन सभी सीटों पर कांग्रेस विरोधी उम्मीदवारों की मदद की। खासकर उन जगहों पर जहां उसकी जीत की संभावना कम थी और कांग्रेस की जीत भी स्पष्ट नहीं दिख रही थी। कांग्रेस के संगठन में एक बार फिर कमी दिखाई दी। वो उमड़ती भीड़ को वोटों में तब्दील नहीं कर सके और अति उत्साह में जीती बाजी हार गई। इसलिए कहता हूं कि फसल बोई कांग्रेस ने, काटी भाजपा ने।

Thursday, 10 October 2024

सिर्फ सरकार की आलोचना पर केस नहीं हो सकता

सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी पत्रकारिता कर रहे लोगों के लिए सुकून दे ही, हो सकती है कि सरकार की आलोचना करना पत्रकारों का अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट ने गत शुक्रवार को कहा कि पत्रकारों के अधिकारों को देश के संविधान 19(1) के तहत संरक्षित किया गया है। एक पत्रकार के लेखन को सरकार की आलोचना के रूप में मानकर उनके खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज नहीं किए जाने चाहिए। यह टिप्पणी करते हुए शीर्ष अदालत ने उत्तर प्रदेश के पत्रकार अभिषेक उपाध्याय की गिरफ्तारी से अंतरिम संरक्षण प्रदान किया। साथ ही निर्देश दिया कि राज्य प्रशासन उनके लेख के संबंध में कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं करेगा। न्यायमूर्ति ऋषिकेश राय और न्यायमूर्ति एनवीएन भट्टी की पीठ ने पत्रकार अभिषेक उपाध्याय की याचिका पर सुनवाई करते हुए यह आदेश दिया। याचिका में उपाध्याय ने उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा उनके खिलाफ दर्ज प्राथमिकी को रद्द करने का अनुरोध किया है। पीठ ने याचिका पर उत्तर प्रदेश सरकार को नोटिस जारी किया है। इस मामले की अगली सुनवाई अब पांच नवम्बर को होगी। अपने संक्षिप्त आदेश में पीठ ने पत्रकारिता की स्वतंत्रता के संबंध में कुछ प्रासंगिक टिप्पणियां की। पीठ ने कहा कि लोकतांत्रिक देशों में अपने विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता का सम्मान किया जाता है। पत्रकारों के अधिकारों को भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1) के तहत संरक्षित किया जाता है। केवल इसलिए कि एक पत्रकार के लेखन से सरकार की आलोचना के रूप में माना जाता है, लेखक के खिलाफ आपराधिक मामला नहीं लगाया जाना चाहिए। दरअसल, सरकारों को अपनी आलोचना करनी रास नहीं आती, मगर पिछले कुछ वर्षों में सरकारें इसे लेकर प्रकट रूप से सख्त नजर आने लगी हैं। सरकार के खिलाफ अखबारों में खबरें, लेख या कोई वैचारिक टिप्पणी करने पर कई पत्रकारों को प्रताड़ित करने की घटनाएं सामने आई हैं। यहां तक कि कुछ पत्रकारों पर गैरकानूनी गतिविधि निवारण अधिनियम के तहत भी मुकदमें दर्ज किए गए हैं, जिसमें जमानत मिलना मुश्किल होती है। इस धारा के तहत कई पत्रकार अब भी सलाखों के पीछे हैं। कुछ मामलों में पहले ही सर्वोच्च न्यायालय कह चुका है कि सरकार की आलोचना देशद्रोह नहीं माना जा सकता। मगर किसी सरकार ने उसे गंभीरता से नहीं लिया। किसी देश की पत्रकारिता कितनी स्वतंत्र है और कितने साहस के साथ अपने सत्ता प्रतिष्ठान की आलोचना कर पा रही है, उससे उस देश की खुशहाली का भी पता चलता है। यह उदाहरण नहीं है कि पिछले कुछ वर्षों में विश्व खुशहाली सूचकांक में भारत निरंतर नीचे खिसकता गया है। सवाल यह है कि सरकार माननीय सर्वोच्च न्यायालय की नसीहत को कितनी गंभीरता से लेती है और स्वतंत्र पत्रकारिता करने की इजाजत देती है? -अनिल नरेन्द्र