Tuesday, 29 April 2025

आतंकवादियों का कोई मजहब नहीं होता


कुछ स्थानीय कश्मीरियों को भी इन सीमापार से आए आतंकियों का गुप्त समर्थन है। शायद यही समझकर पाकिस्तान ने पहलगाम के बैसरन पर्यटक स्थल पर हमला करवाया। आतंकियों के हुक्मरानों ने सोचा होगा कि बैसरन में चुन-चुन कर मजहब के नाम पर निर्दोषों की निर्मम हत्या की जाए तो इससे भारत के अंदर हिन्दु-मुस्लिम टकराव बढ़ेगा और भारत में गृह युद्ध की स्थिति आ जाएगी और देश बुरी तरह से बंट जाएगा। पर हुआ

इसके विपरीत। पूरा देश एकजुट होकर आतंकवाद खिलाफ खड़ा हो गया। तमाम सियासी पार्टियों ने सरकार के साथ खड़ा होकर एकजुटता का जो प्रदर्शन किया उसकी शायद पाकिस्तान ने कभी कल्पना भी नहीं की होगी।

रही बात मजहब की तो पाकिस्तान के सामने जीता जागता उदाहरण आदिल हुसैन शाह का है। आदिल हुसैन ने बैसरन में जब आतंकियों ने

हालांकि जम्मू-कश्मीर कई दशकों से आतंकवाद से प्रभावित है और इसका असर स्थानीय आबादी पर भी पड़ता है। कहा यह भी जाता है कि निर्दोष सैलानियों पर हमला किया तो आदिल हुसैन एक आतंकी से भिड़ गया। पहले तो उसने उस आतंकी से कहा कि निर्दोष सैलानियों पर हमला न करें। ये हमारी रोजी-रोटी का जरिया हैं। हमारे मेहमान हैं। पर जब वो आतंकी नहीं माना तो आदिल उससे भिड़ गया और उसने उसकी राइफल छीनने की कोशिश की। इस लड़ाई में आतंकी ने गोली चला दी और आदिल हुसैन के शरीर को छलनी कर दिया। आदिल हुसैन शाह गरीब परिवार और बहादुर टट्ट वाला था। उसने दर्जनों हिन्दुओं की जान बचाई। अगर वह न भिड़ता तो पता नहीं कितने और शहीद हो जाते। आदिल एक मुसलमान था जिसने दर्जनों हिन्दुओं को बचाया और कश्मीरियों की लाज रखी। पूरी कश्मीर घाटी में इन निर्मम हत्याओं के खिलाफ सड़कों पर कश्मीरी उतर आए और ऐसा कम ही देखा गया है कि जब स्थानीय कश्मीरी आतंक के खिलाफ सड़कों पर उतरे हों। आतंकी हमले के विरोध में जम्मू-कश्मीर में प्रदेश के मुसलमानों ने जुमे की नमाज अदा करने के बाद आक्रोश जाहिर किया और पाकिस्तान के विरोध में नारेबाजी की। पूरे देश में मुसलमानों ने इस हमले के विरोध में प्रदर्शन किए। संभल, सहारनपुर, बरेली, हापुड़ और बुलंदशहर समेत यूपी के कई जिलों में मुसलमानों ने आतंकवादी घटना की निंदा की और पाकिस्तान के खिलाफ नारे लगाए और सख्त जवाबी कार्रवाई की मांग की। कश्मीर के पहलगाम शहर के बैसरन में मंगलवार को हुए आतंकी हमले में 26 लोगों की मौत हो गई थी, जिनमें से अधिकतर पर्यटक थे। संभल जैसे सैनसेटिव जिले की कई मस्जिदों में शुक्रवार को जुमे की नमाज अता करने नमाजी काली पट्टी बांधकर पहुंचे और पाकिस्तान के खिलाफ नारेबाजी की। शाही जामा मस्जिद में नमाज पढ़कर निकले साकिर हुसैन ने कहा कि जिन निहत्थे लोगों के साथ यह जुल्म हुआ और हमारी बहनों का सुहाग उजाड़ दिया गया, बेहद ही दुखद घटना है। मेरी सरकार से गुजारिश है कि इन आतंकवादियों को ऐसा सबक मिले कि नस्ले भी याद रखें। इधर दिल्ली में 900 से अधिक बाजार इस आतंकी हमले के खिलाफ बंद रहे। कनाट प्लेस, सदर बाजार और चांदनी चौक जैसे दिल्ली के मशहूर शापिंग हब समेत 900 से ज्यादा बाजार शुक्ररार को वीरान नजर आएं। क्योंकि व्यापारियों ने पहलगाम आतंकी हमले के विरोध में दिल्ली बंद का आह्वान किया था। कपड़ा, मसाले, बर्तन और सर्राफा जैसे क्षेत्रों के विभिन्न व्यापारियों के संघों ने भी अपनी दुकानें बंद रखीं। सीएआईटी के अनुसार दिल्ली में आठ लाख से अधिक दुकाने बंद रहीं। जिसके परिणामस्वरूप दिन भर में 1500 करोड़ रुपए का व्यापार घाटा हुआ। जम्मू-कश्मीर में ऐसे आरोप भी सामने आए कि वहां आतंकवादी हमलों के खिलाफ अपेक्षित प्रतिरोध मुखर नहीं दिखता। अगर पहलगाम के आतंकी ने बर्बरता की सारी हदें पार करते हुए जिस तरह 26 पर्यटकों को मार डाला, उसके बाद कश्मीरी जनता का गुस्सा उभरा है। खासकर अनंतनाग और उसके आसपास के इलाकों को आतंक का गढ़ माना जाता है। वहां रहने वालों के भीतर इस घटना के खिलाफ जैसा आक्रोश पैदा हुआ वह दर्शाता है कि कश्मीरी आवाम में इस हमले को लेकर कितना रोष है। समूची कश्मीर घाटी में इस हमले पर स्थानीय आबादी के बीच स्वतः स्फूर्त विरोध उभरा और व्यापाक पैमाने पर लोगों ने इस घटना की निंदा की, प्रदर्शन किया और आपसी भाईचारे का मुजाहरा किया। जैसे मैंने कहा कि इन आतंकवादियों का कोई मजहब नहीं होता।

- अनिल नरेन्द्र

Saturday, 26 April 2025

पहलगाम हमला ः सवाल तो पूछे जाएंगे

बैसरन ही क्यों निशाना बना? आतंकियों का पनाहकार आखिर कौन? ऐसे सवाल आज पूरा देश पूछा रहा है। यह कोई छोटा-मोटा हमला नहीं था। जम्मू-कश्मीर में 2019 में पुलवामा में हुए हमले के बाद मंगलवार को पहलगाम में पर्यटकों पर हुआ हमला सबसे बड़ा आतंकी हमला है। पुलवामा में 14 फरवरी 2019 को जैश-ए-मोहम्मद के एक आत्मघाती हमलावर ने केंद्रीय रिजर्व पुलिस फोर्स (सीआरपीएफ) के काफिले पर विस्फोटक से भरी गाड़ी से हमला किया गया था। इस हमले में 40 जवान शहीद हो गए थे। आज तक इस बात का संतोषजनक जवाब नहीं मिला कि आतंकी विस्फोट से भरी अपनी गाड़ी सीआरपीएफ के कापिले में लेकर घुसे कैसे? खैर आज बात करते हैं बैसरन के आतंकी हमले की। इस हमले ने हर भारतीय का कलेजा चीर के रख दिया है। किसी का सुहाग उजड़ा तो किसी की गोद, किसी के कमाने वाले ने दम तोड़ा तो किसी का भाई अब कभी भी लौटकर घर नहीं आएगा। दहशतगर्दों ने एक बार फिर से धरती की जन्नत पर खून की होली खेली है, जिसने न केवल मानवता को शर्मसार किया बल्कि कश्मीरियों की कमर तोड़ कर रख दी है। इस बार ना तो आतंकियों ने रात के अंधेरे का इंतजार किया और न ही किसी सुनसान जगह को टारगेट किया। इस बार उन्होंने भरी दोपहर पहलगाम के बैसरन को चुना जिसे स्विट्जरलैंड से कम नहीं कहा जाता है। घृणित आतंकी हमले ने कई बड़े सवाल खड़े किए हैं। अब तक जो बैसरन प्यार, मोहब्बत के लिए जाना जाता था वो अब डर, खौफ, मौत, दहशत के लिए हमेशा याद किया जाएगा। पहला सवाल ः बैसरन घाटी को आतंकियों ने निशाना क्यों बनाया? बैसरन घाटी पर्यटकों के लिए काफी सेफ मानी जाती रही है इसलिए पहलगाम की तुलना में यहां सेना और पुलिस की तैनाती नहीं होती है। क्या इसका फायदा आतंकियों ने उठाया? क्या ये आतंकी बैसरन वैली में काफी दिन से रुके थे? जिस तरह से आतंकियों ने इस घटना को अंजाम दिया है उससे तो यही लगता है कि सब कुछ प्लान के तहत किया है। इसका मतलब तो वो काफी समय से पहलगाम या बैसरन के आसपास यहां मौजूद थे? क्या स्थानीय नागरिकों भी इस हमले में शामिल हैं? क्या स्थानीय लोगों ने इन्हें पनाह दी है? आतंकी (4-5) एक दिन में ही बैसरन कैसे पहुंच सकते हैं? अमरनाथ यात्रा से पहले क्यों बनाया पहलगाम में पर्यटकों को निशाना? आतंकियों के पास इतने आधुनिक हथियार कहां से आए? यह हमला ऐसे समय हुआ जब प्रधानमंत्री सऊदी अरब में थे और अमेरिका के उपराष्ट्रपति वैंस दिल्ली में थे तो क्या संदेश देना चाहते थे ये आतंकी और उनके आका? सेना के दिग्गजों ने सामरिक विफलताओं और सुरक्षाकर्मियों की कमी को भी उजागर किया। जैसे-जैसे देश इस भयावह त्रासदी से उभर रहा है वैसे-वैसे भारत की सुरक्षा और कमजोरियों पर कई गंभीर सवाल उठ रहे हैं। कर्नल आशुतोष काले जिन्होंने कश्मीर में लंबे समय तक उग्रवाद से लड़ते हुए और आतंकवाद विरोधी अभियान चलाने में कई कमियां गिनाई। योजना बनाते समय कई कारणों पर विचार किया गया होगा। इनमें स्थानीय गाइड का इस्तेमाल, हमले की जगह के नजदीक बेस बनाना और घटना स्थल पर भीड़ जमा होने के पीक ऑवर्स के आधार पर हमले के समय का विश्लेषण करना शामिल हो सकता है। आतंकियों के घुसपैठ के रास्ते के साथ-साथ बाहर निकलने के रास्ते का भी पता लगाना होगा जिसके आधार पर बिना पकड़े जाने का गुप्त रास्ता ]िमलता और हमले के बाद वे जल्दी से भाग निकले। एक अन्य अफसर ने कहा कि यह हमारी इंटैलीजेंस फेलियर है। बैसरन में हमले के समय 2000 से ज्यादा पर्यटक मौजूद थे और एक भी सुरक्षाकर्मी मौजूद नहीं था। न आर्मी, न पुलिस? ऐसा क्यों हुआ? क्या हमारे खुफिया विभाग को इस प्रस्तावित हमले की कोई जानकारी थी या नहीं? अगर नहीं थी तो यह बहुत बड़ी इंटैलीजेंस फेलियर है और अगर थी तो समय रहते कदम क्यों नहीं उठाए गए? को देखते हुए, एक ऐसा क्षेत्र जहां पर्यटक अक्सर आते हैं, आतंकियों ने जांच की होगी यहां केवल पैदल या घोड़ों से आया जाता है। सुरक्षा रोटेशन अंतराल की पहचान की होगी और कम सतर्कता का फायदा उठाया। क्या पाक सेना प्रमुख जनरल मुनीर का भाषण एक चेतावनी थी जब उन्होंने अपनी सभा में कहा कि कश्मीर में हमारी सरकार का रुख बिल्कुल स्पष्ट है। क्या यह एक चेतावनी थी? फिर सवाल यह भी उठता है कि बैसरन कोई सीमावर्ती इलाका नहीं है। यह कम से कम कश्मीर के बार्डर से 150 किलोमीटर अंदर है। आतंकी इतना अंदर कैसे सुरक्षित आ गए? यह घटना सुरक्षा प्रोटोकाल में बहुस्तरीय युद्ध को दर्शाती है। संभावित खामियों में गतिशील निगरानी की कमी शामिल है। विशेष रूप से माध्यम और बम गश्त वाले मार्गों पर। एक सुरक्षित क्षेत्र माने जाने वाले क्षेत्र में हथियारों से घुसपैठ न केवल परिधि सुरक्षा में उल्लंघन को उजागर करती है, बल्कि खतरे के आंकलन में लापरवाही को स्थायी शांति समझ लेना भी उजागर करती है, इस तरह का ऑपरेशन पेशेवर समर्थन के बिना नहीं किया जा सकता। पाक सेना और आईएसआई को इसमें शामिल किया जाना चाहिए। अंत में हम उन शहीदों के परिवारों को अपनी श्रद्धाजंलि देते हैं जिन्होंने अपनों को खोया है। ऊपर वाला उन्हें धैर्य दे इस क्षति से उभरने के लिए? - अनिल नरेन्द्र

Thursday, 24 April 2025

तीन महीने में ही ट्रंप ने तारे दिखा दिए

अमेरिका में जबसे डोनाल्ड ट्रंप ने सत्ता संभाली है, उनका हर कदम विवादों में घिर जाता है। अभी हॉवर्ड विश्वविद्यालय का अनुदान रोकने पर विवाद थमा भी न था कि विभिन्न विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों के एक हजार से अधिक अंतर्राष्ट्रीय विद्यार्थियों का वीजा रद्द किए जाने को लेकर नया विवाद छिड़ गया है। शनिवार को डोनाल्ड ट्रंप की नीतियों के खिलाफ लाखों प्रदर्शनकारी एक बार फिर सड़कों पर उतर आए। इन प्रदर्शनों को हैंडस ऑफ नाम दिया गया। 50 राज्यों के हजारों लोगों ने इसमें हिस्सा लिया। ये प्रदर्शन नागरिकों के अधिकारों, आजीविका और अमेरिकी लोकतंत्र के मूलभूत ढांचे को खतरा माने जाने वाले मुद्दों पर हो रहा है। इस दौरान प्रदर्शनकारियों ने राष्ट्रपति आवास व्हाइट हाउस का भी घेराव किया। प्रदर्शन सभी अमेरिका के 50 राज्यों में हुए। प्रदर्शनकारियों ने ट्रंप पर नागरिक और कानून के शासन को कुचलने का आरोप लगाया। इस आंदोलन को 50501 नाम दिया गया है जिसका मतलब 50 विरोध प्रदर्शन, 50 राज्य, 1 आंदोलन है। प्रदर्शन के दौरान लोगों ने व्हाइट हाउस के अलावा टेस्ला के शोरूम का भी घेराव किया। प्रदर्शन के दौरान पोस्टर पर लिखा था, ट्रंप के अल साल्वाडोर जेल में डिपोर्ट कर दिया जाए। साथ ही ट्रंप के खिलाफ शर्म करो, जैसे नारे भी लगाए गए। प्रदर्शनकारियों ने राष्ट्रपति पर नागरिक स्वतंत्रता और कानून के शासन को कमजोर करने के आरोप लगाए हैं। प्रदर्शन कर रहे लोगों का कहना है कि हमारा मकसद ट्रंप प्रशासन के तहत बढ़ते सत्तावादी रवैये से लोकतंत्र को बचाना है। उन्होंने इसे अहिंसक आंदोलन बताया है। इस विरोध प्रदर्शन में कई राजनीतिक दलों के शामिल होने की बात कही जा रही है। इतना ही नहीं प्रदर्शकारियों ने अल साल्वाडोर से निर्वासित होने वाले किल्मर अब्रेगो गार्सिया की वापसी की भी मांग की है। अमेरिका के लोग ट्रंप की नीतियों के खिलाफ प्रदर्शन कई कारणों से कर रहे हैं। इसमें टैरिफ वार और सरकारी नौकरी समेत कई मुद्दे शामिल हैं। यह विरोध प्रदर्शन का दूसरा दौर है जब अमेरिकी जनता फिर से सड़कों पर उतरी है। इससे पहले 5 अप्रैल को ट्रंप के खिलाफ पूरे देश में प्रदर्शन हुए थे। प्रदर्शन के पीछे कौन है जवाब में कहा जा सकता है कि इसको लोकतंत्र समर्थक समूहों, नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं और महिला अधिकार जैसे 150 समूह आयोजित कर रहे है। प्रमुख आयोजक जैसे मूव ऑन ट्रंप प्रशासन के खिलाफ चुनाव से काफी पहले से सक्रिय रहे हैं। फंडिंग के मामले में कहा जा रहा है कि क्राउड फंडिंग डोनेशन और दो ग्रुप अपने संसाधनों से प्रदर्शन को मैनेज कर रहे हैं। सेन फ्रांसिस्को में सैकड़ों लोगों ने प्रशांत महासागर के किनारे समुद्री रेत पर महाभियोग लाओ और ट्रंप हटाओ नारा लिख रखा था। एंक्रोरेज में लोगों ने हाथ में तख्तियां ले रखी थी जिस पर लिखा था कोई राजा नहीं है। उसके साथ एक प्रदर्शनकारी हाथ में कार्ड बोर्ड को लेकर चल रहा था जिस पर लिखा था सामंती युग खत्म हो चुका है। प्रदर्शन का आयोजन करने वालों का कहना है कि वे नागरिक और संवैधानिक अधिकारों के उल्लंघनों का विरोध करते हैं। राष्ट्रपति ने अप्रवासियों को निर्वासित करने और हजारों सरकारी कर्मचारियों को नौकरी से निकालकर संघीय सरकार को कमजोर करने का प्रयास किया है। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जब से आए हैं उन्होंने सारी दुनिया में अपनी नीतियों को लेकर उथल-पुथल मचा दी है। जिस तरह से उन्हें अमेरिकी जनता ने मैंडेट दिया था उम्मीद की जाती थी कि यह अमेरिकी हितों व व्यापार को नई दिशा देंगे। इन्होंने तो ऐसे कदम उठाएं है जिससे न केवल शेष दुनिया परेशान है बल्कि खुद अमेfिरकी जनता सड़कों पर उतरने को मजबूर हो गई है। अभी तो इन्हें पदभार संभाले मुश्किल से तीन महीने हुए हैं और यह हाल है। उन्हें अगले चार साल झेलना बहुत ही कष्टदायक होने वाला है। अगर यह तब तक राष्ट्रपति रहे तो? -अनिल नरेन्द्र

Tuesday, 22 April 2025

धनखड़ के बयान पर छिड़ा सियासी घमासान

राष्ट्रपति और राज्यपाल द्वारा विधेयकों को मंजूरी देने में तीन महीने की समय-सीमा तय करने के मामले में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ द्वारा सुप्रीम कोर्ट की आलोचना किए जाने के बाद राजनीतिक और कानूनी विशेषज्ञों के बीच बहस तेज हो गई है। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने शीर्ष अदालत पर निशाना साधते हुए कहा कि वह सुपर संसद नहीं बन सकता और भारत के राष्ट्रपति को निर्देश देना शुरू नहीं कर सकता। उपराष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 142 को लोकतांत्रिक ताकतों के खिलाफ न्यूक्लियर मिसाइल तक कह डाला। यह अनुच्छेद सुप्रीम कोर्ट को विशेष अधिकार देता है। जब पूर्ण न्याय के लिए कोई और रास्ता नहीं बचता तब सुप्रीम कोर्ट इस अनुच्छेद से मिली पूर्ण शक्तियों का इस्तेमाल करता है। यह किसी संवैधानिक संस्था के खिलाफ हथियार नहीं कहा जा सकता बल्कि यह एक उम्मीद का दरवाजा है। राज्यसभा सांसद कपिल सिब्बल ने उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ द्वारा दिए गए इस बयान पर कहा कि ये न केवल असंवैधानिक है बल्कि उचित भी नहीं है। उन्होंने कहा आज तक किसी सभापति ने ऐसी राजनीतिक टिप्पणी नहीं की। लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति किसी पार्टी के प्रवक्ता नहीं हो सकते। अगर ऐसा प्रतीत होता है तो यह पद की गरिमा के खिलाफ है और पद की गरिमा को ठेस पहुंचाता है। सिब्बल ने कहा, न्यायपालिका अपनी बात नहीं कह सकती, इसलिए जब कार्यपालिका हमला करे तो बचाव करना चाहिए। पूर्व कानून मंत्री ने कहा, राष्ट्रपति और राज्यपाल भी मंत्रिपरिषद की सलाह पर काम करते हैं। बिल लटकाना संवैधानिक अधिकार नहीं है। अगर संसद से पास बिल राष्ट्रपति लटकाकर बैठ जाएं तो क्या होगा? सिब्बल ने 24 जून 1975 का पा करते हुए कहा, इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द करने का फैसला एक जज जस्टिस कृष्ण अय्यर ने सुनाया था जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के चुनाव को अमान्य घोषित कर दिया गया था। उन्होंने कहा जब इंदिरा गांधी के चुनाव के बारे में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया था तब केवल एक न्यायाधीश जस्टिस कृष्ण अय्यर ने फैसला सुनाया था। धनखड़ जी को यह मंजूर था लेकिन अब दो जजों की पीठ का फैसला सही नहीं है क्योंकि यह सरकार के पक्ष में नहीं है। उधर महेश जेठमलानी ने धनखड़ के इस दमदार कदम की तारीफ करने के साथ इसकी कानूनी व्याख्या करते हुए एक्स पर लिखा, जहां कुछ लोग सरकार के दो अंगों (कार्यपालिका और विधायिका) के बीच संघर्ष के बीच देश के दूसरे प्रमुख उपराष्ट्रपति के आने के औचित्य पर सवाल उठा सकते हैं, लेकिन बिल्कुल स्पष्ट संवैधानिक दोष और इशारा करना (उपराष्ट्रपति एक कुशल कानूनविद भी हैं।) की संविधान अनुच्छेद 145(3) के अनुसार संवैधानिक प्रावधान की व्याख्या से संबंधित सवाल पर केवल पांच जजों की पीठ द्वारा विचार किया जाना चाहिए और दो न्यायाधीशों की पीठ का फैसला अमान्य था। यह निश्चित रूप से संविधान की मर्यादा बनाए रखने की उपराष्ट्रपति के शपथबद्ध दायित्व का निर्वहन होगा। बेशक अपने देश में अनेक ऐसे बड़े वकील हैं, जिन्हें लगता है कि वे न्यायपालिका को प्रभावित कर सकते हैं, माननीय जजों को जबरदस्त तरीके से ट्रोल कर प्रभावित कर सकते हैं पर उन्हें समझना चाहिए कि आज की तारीख में अगर जनता को न्याय की कोई उम्मीद बची है तो केवल न्यायालयों से। राजनीतिक पार्टियां भी ऐसे वकीलों को कुछ ज्यादा मजबूती देने लगती हैं। इंसाफ की कोशिश और सियासत के बीच दूरियां मिटने लगती हैं। सही इंसाफ के लिए सियासत को परे रखना होता है। तमिलनाडु के राज्यपाल का मामला हो या वक्फ बोर्ड कानून का दोनों ही मोर्चो पर न्यायालय पर सबकी निगाहें हैं। सियासत से प्रभावित हुए बिना, ट्रोल आर्मी और नेताओं के बयानों से प्रभावित हुए बिना शुद्ध संविधान की पृष्ठभूमि में हुआ फैसला ही ऐसे विवादों का निपटारा कर सकेगा। देश के आम नागरिकों के लिए सियासत से ज्यादा इंसाफ जरूरी है। -अनिल नरेन्द्र

Saturday, 19 April 2025

हज यात्रियों का कोटा क्यों रद्द किया

कई साल से हज जाने की हसरत रखने वाले एडवोकेट फिरोज अंसारी ने इस साल अपनी पत्नी के साथ हज जाने के लिए सभी तैयारियां कर ली थीं। उन्होंने एक निजी टूर ऑपरेटर को आठ लाख रुपये भी जमा करवा दिए, लेकिन अब उन्हें नहीं मालूम कि वो हज पर जा पाएंगे या नहीं। दरअसल, इस साल सऊदी अरब ने भारत के निजी टूर ऑपरेटरों को मिलने वाला हज कोटा रद्द कर दिया है। हालांकि, भारत सरकार के दख़ल के बाद सऊदी सरकार निजी टूर ऑपरेटरों के ज़रिए हज पर जाने वाले दस हज़ार लोगों को वीज़ा देने के लिए तैयार हो गई है। भारत से इस साल लगभग 1.75 लाख लोग हज पर जाने वाले थे। हज कमेटी ऑफ इंडिया और निजी टूर ऑपरेटरों के जरिए भारतीय हज पर जाते हैं। इनमें से करीब 1.22 लाख हज कमेटी के ज़रिए जाएंगे जबकि ब़ाकी (लगभग 52,500) निजी टूर ऑपरेटरों के ज़रिए हज पर जाने वाले थे। सऊदी अरब सरकार ने इस साल निजी ऑपरेटरों का कोटा रद्द कर दिया है। भारत के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय ने इसके लिए निजी टूर ऑपरेटरों को ज़िम्मेदार ठहराया है जबकि निजी टूर ऑपरेटर इसके लिए मंत्रालय की लापरवाही को ज़िम्मेदार बता रहे हैं। दिल्ली हज कमेटी की चेयरपर्सन कौसर जहाँ बताती हैं-जो लोग हज कमेटी के ज़रिए हज पर जाने वाले हज यात्री इससे प्रभावित नहीं होंगे। उन्होंने कहा कि भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अल्पसंख्यक मंत्रालय के दख़ल के बाद सऊदी अरब दस हज़ार यात्रियों का कोटा खोलने के लिए तैयार हुआ है। इससे हज पर जाने वाले लोगों को कुछ राहत जरूर मिलेगी। निजी टूर ऑपरेटरों के जरिए जाने वाले एक हज यात्री पर आमतौर पर पर 7.5 लाख रुपए तक खर्च आता है। जो हज कमेटी के जरिए जाते हैं उनका खर्च कुछ कम आता है। दिल्ली हज कमेटी के मुताबिक एक हज यात्री पर करीब 3 लाख 80 हज़ार रुपए का ख़र्च आता है। हज के दौरान इन यात्रियों के रहने और यातायात की व्यवस्था हज समिति करती है। प्राइवेट टूर ऑपरेटर भी कहते हैं कि निजी ऑपरेटरों के जरिए जाने वाले एक यात्री पर आमतौर पर 7.5 लाख रुपये तक ख़र्च आता है। ये ख़र्च और बेहतर सुविधाएं लेने की स्थिति में 13-15 लाख रुपये तक पहुंच जाता है। भारत सरकार के आंकड़ों के मुताब़िक, साल 2024 में भारत से क़रीब एक लाख 40 हज़ार लोग हज पर गए थे। सऊदी अरब किसी देश की आबादी के लिहाज से हज पर आने वाले लोगों की संख्या निर्धारित करता है। आमतौर पर एक हज़ार मुसलमानों पर हज के लिए एक सीट दी जाती है। सऊदी अरब सरकार के निजी टूर ऑपरेटरों का कोटा रद्द करने पर पीडीपी की प्रमुख और जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती ने कहा कि इस फ़ैसले से देशभर में टूर ऑपरेटरों और हज पर जाने वाले लोगों को तनाव हो रहा है। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने विदेश मंत्री एस जयशंकर से अपील करते हुए कहा कि वो सऊदी अरब के साथ वार्ता करके इस मुद्दे का तुरंत समाधान निकालें। उमर अब्दुल्ला ने कहा, 52 हज़ार भारतीय हाजियों का कोटा रद्द होना, जिनमें से अधिकतर भुगतान भी कर चुके हैं, बेहद परेशान करने वाला है। वहीं भारत के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय ने इसके लिए टूर ऑपरेटरों को ज़िम्मेदार ठहराया है। एक बयान में मंत्रालय ने कहा, अल्पसंख्यक मंत्रालय हज कमेटी के ज़रिए मुख्य कोटे के तहत इस साल 1 लाख 22 हज़ार 518 हज यात्रियों के लिए व्यवस्थाएं कर रहा है। फ्लाइट, यातायात, मीना में कैंप, रहने की व्यवस्था समेत सभी ज़रूरी तैयारियां सऊदी अरब के दिशानिर्देशों के हिसाब से पूरी कर ली गई हैं। शेष कोटा, पारंपरिक रूप से निजी टूर ऑपरेटरों को आवंटित किया गया था। सऊदी अरब के दिशानिर्देशों में बदलाव करने की वजह से मंत्रालय ने 800 निजी टूर ऑपरेटरों को 26 कंबाइंड हज ग्रुप ऑपरेटरों (सीएचजीओ) में मिला दिया गया था और उन्हें क़ाफी पहले ही कोटा भी आवंटित कर दिया गया था। हालांकि, कई बार याद दिलाने के बावजूद सीएचजीओ सऊदी अरब की तऱफ से निर्धारित अहम डेडलाइन को पूरा नहीं कर पाए और मीना में कैंपों, रहने की जगह और यातायात के लिए ज़रूरी कॉन्ट्रैक्ट पूरे नहीं कर पाए। सऊदी सरकार ने समय पर भुगतान ना होने की वजह से निजी ऑपरेटरों के कोटा को रद्द किया है। बीबीसी से बात करते हुए टूर ऑपरेटर ने कहा, टूर ऑपरेटरों ने मंत्रालय में पैसा जमा कर दिया था और उन्हें यह लग रहा था कि मंत्रालय भुगतान करने की व्यवस्था कर रहा है। उन्होंने बताया कि इस नोटिस में स्पष्ट है कि मंत्रालय भुगतान कर रहा है और सऊदी अरब को भुगतान मिल चुका है तो फिर जाने क्यों रद्द कर रहा है। मीना में यात्रियों के लिए जोन बुक करने के लिए सऊदी अरब ने भुगतान की समय-सीमा 14 फरवरी तय की थी। ये समय-सीमा पार होने के बाद ही कोटा रद्द किया गया। -अनिल नरेन्द्र

Thursday, 17 April 2025

तीन महीने में फैसला लें राष्ट्रपति



राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर सहमति रोकने में राज्यपाल के विवेक पर सीमाएं तय करने वाले अपने 8 अप्रैल के आदेश के बाद सर्वोच्च न्यायालय न राज्य के कानून को अनिश्चितकाल के लिए निलंबित करने की राष्ट्रपति की शक्ति पर भी रोक लगा दी है। इस फैसले का भारतीय राजनीति पर गंभीर असर पड़ना तय है, खासकर भारत के संघीय ढांचे में केंद्र और राज्यों के बीच संतुलन बहाल करने में। यह राज्यों के अधिकारों के पक्ष में बहुत ही परिणामी और राज्यों की दृष्टि से स्वागतयोग्य कदम माना जाएगा। खासकर उन विपक्षी राज्यों में जहां केंद्र द्वारा इसके दुरुपयोग के आरोप लगते रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि न तो राज्यपाल और न ही राष्ट्रपति के पास राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित किसी भी विधेयक पर पूर्ण वीटो का प्रयोग करने की अनियंत्रित शक्तियां हैं। इसने राज्यपालों के लिए एक महीने की समय-सीमा के बाद राष्ट्रपति के किसी विधेयक पर बैठने के अधिकार पर तीन महीने की समय -सीमा तय की, यदि सहमति दी जाती है। विधानसभाओं द्वारा राज्यपाल को लौटाए गए विधयेकों पर कार्रवाई के लिए प्रक्रिया और समय-सीमा भी तय कर दी गई है। फैसले में स्पष्ट किया गया कि संविधान के अनुच्छेद 201 के तहत अपने कार्यों के निवर्हन में राष्ट्रपति को कोई पॉकेट वीटो का पूर्ण वीटो उपलब्ध नहीं है। अपने 415 पृष्ठों के फैसले में न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर महादेवन ने यह दूरगामी फैसला दिया है। फैसले से साफ है कि संविधान के अनुसार इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती कि एक चुनी हुई सरकार और लोगों की इच्छा का सम्मान न किया जाए। यह लोकप्रिय संप्रभुता का एक मूलभूत मुद्दा है जिस पर संविधान के माध्यम से राजनीतिक व्यवस्था का निर्माण किया गया है। जहां तमाम विपक्ष इस फैसले का स्वागत कर रहा है वहीं सूत्रों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को लेकर केंद्र सरकार समीक्षा याचिका दाखिल करने की तैयारी में है। सरकार का मानना है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल जैसे संवैधानिक पदों के लिए समय- सीमा निर्धारित करना न्यायपालिका की सीमा से बाहर जा सकता है। सर्वोच्च अदालत के इस फैसले पर कानून के जानकारों के बीच भी बहस छिड़ गई है और वह भविष्य के संवैधानिक संकट को लेकर आशंकित हैं। कुछ विधि विशेषज्ञों का मानना है कि जब राज्यपालों के निर्णयों में राष्ट्रपति की कोई भूमिका नहीं है तो फिर उनको पार्टी क्यों बनाया गया? संवैधानिक और विधिक विशेषज्ञों के बीच बहस छिड़ गई है कि क्या सुप्रीम कोर्ट वास्तव में भारत के राष्ट्रपति को निर्देश दे सकता है? यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण हो गया है, क्योंकि यह शायद पहली बार है जब न्यायपालिका ने सीधे तौर पर राष्ट्रपति को कोई समय-सीमा तय करने संबंधी निर्देश दिया है। कोर्ट को यह हस्तक्षेप इसलिए करना पड़ा क्योंकि राज्यपाल अपनी संवैधानिक सीमाओं का उल्लंघन न करें। उनका मानना है कि यह फैसला एक तरह से अनुशासनात्मक कदम है, जिसे अन्य राज्यपालों को भी एक स्पष्ट संदेश मिलेगा कि वे संविधान के दायरे में रहकर ही काम करें। यह तर्क दिया जा रहा है कि राष्ट्रपति कोई सामान्य सरकारी पदाधिकारी नहीं है, बल्कि वह देश का प्रमुख, संविधान का संरक्षक और सशस्त्र बलों का सर्वोच्च कमांडर है। वह प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद की सलाह और सहायता से काम करता है। यदि कोर्ट राष्ट्रपति को कोई आदेश देता है, तो इससे उस संवैधानिक व्यवस्था पर सवाल उठ सकता है, जिसमें राष्ट्रपति केवल कार्यपालिका की सलाह पर काम करता है। इससे यह भी शंका उत्पन्न होती है कि क्या कोर्ट कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच की लक्ष्मण रेखा को पार कर रहा है? क्या सुप्रीम कोर्ट इस फैसले के जरिए एक नई संवैधानिक स्थिति तो नहीं बना रहा है? अगर राष्ट्रपति इस निर्देश को मानने से इंकार कर रहा है तो क्या उसे अदालत की अवमानना का दोषी ठहराया जा सकता है? यह एक कठिन संवैधानिक सवाल है। दूसरी ओर यह मानने वालों की भी कमी नहीं जो सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का स्वागत कर रहे हैं और लोकतंत्र को सही दिशा-निर्देश देने में सही कदम मान रहे हैं। यह भी कहा जा रहा है कि इस फैसले से जनता में न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता के प्रति विश्वास बढ़ेगा। देखें, आगे क्या होता है?

-अनिल नरेन्द्र

 

Tuesday, 15 April 2025

स्कूलों में बढ़ती फीस

स्कूलों में मनमानी फीस वृद्धि के खिलाफ आरोप-प्रत्यारोप का दौर जारी है। आम आदमी पार्टी (आप) की ओर से लगाए जा रहे आरोपों के बीच दिल्ली सरकार ने निजी स्कूलों के ऑडिट करने का निर्णय लिया है। वहीं शिक्षा मंत्री आशीष सूद ने आरोप लगाया है कि आम आदमी पार्टी की सरकार के दौरान घपला करने के बाद भी स्कूलों ने कई बार फीस बढ़ाई थी। शिक्षा मंत्री ने बताया कि दिल्ली में 1677 निजी स्कूल हैं। इनमें 335 सरकारी जमीन पर बने हैं। जिनके लिए 1973 के दिल्ली स्कूल एक्ट में यह नियम है कि राज्य सरकार से फीस बढ़ाने से पहले अनुमति लेना जरूरी है। 114 स्कूल ही ऐसे हैं जिनकी फीस बढ़ाने की अनुमति लेने के लिए कोई बाध्यता नहीं है। उन्होंने आरोप लगाया कि द्वारका स्थित एक निजी स्कूल ने बीते 5 साल में 20, 13, 9, 8, 7 फीसदी फीस बढ़ाई। डीएम कापसहेड़ा के नेतृत्व में इस स्कूल की जांच चल रही है। आप सरकार के शासन में एक और निजी स्कूल ने 2024-25 में 36 प्रतिशत फीस बढ़ाई। उन्होंने कहा ]िक एक निजी स्कूल ने 15 करोड़ रुपए खर्च कर घपला किया था। फिर भी उस स्कूल को 2022-23 में 15 फीसदी फीस बढ़ाने की अनुमति दी गई। स्कूल ने 2024-25 में भी 13 फीसदी फीस बढ़ाई फिर भी कोई कार्रवाई नहीं की गई। इसी तरह एक अन्य निजी स्कूल को 42 लाख रुपए की अनियमितता के लिए नोटिस दिया था। फिर भी स्कूल ने 2022-23 में 14 फीसदी फीस बढ़ा दी। हर वर्ष सिर्फ 75 स्कूलों का हुआ ऑडिट। शिक्षा मंत्री ने बताया कि पिछली सरकार के दस साल के शासनकाल में सिर्फ 75 स्कूलों की ही हर साल ऑडिट हुआ। उन्होंने स्पष्ट किया कि साल 2024 में निजी स्कूल के केस में दिल्ली हाईकोर्ट ने साफ कर दिया था कि किसी भी स्कूल को फीस बढ़ाने से पहले शिक्षा निदेशालय की मंजूरी लेना जरूरी है। द्वारका स्थित नामी स्कूल को लेकर फीस बढ़ोत्तरी के मामले में जांच जारी है। बच्चों के बयान दर्ज किए जा चुके हैं। अभिभावकों का आरोप है कि गैर मंजूर फीस की अदायगी न करने पर लगभग 20 छात्रों को दोबारा से सोमवार को लाइब्रेरी में बिठाकर मानसिक तौर पर प्रताड़ित किया गया। अभिभावक ने कहा कि आखिर यह कब तक चलेगा। स्कूल के खिलाफ उचित कार्रवाई होनी चाहिए। बढ़ी हुई फीस के विरोध में अभिभावकों को अलग-अलग स्कूलों के बाहर विरोध प्रदर्शन जारी है। मंगलवार का द्वारका स्थित एक नामी स्कूल के बाहर अभिभावकों ने शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर फीस वृद्धि के खिलाफ विरोध दर्ज कराया। वहीं बढ़ी फीस का विरोध करने पर स्कूल अभिभावकों को अब कानूनी नोटिस भी भेज रहे हैं। इसमें स्कूल को बदनाम करने का आरोप लगाए गए हैं। एक स्कूल एसोसिएशन के पदाधिकारी ने बताया कि फीस के खिलाफ आवाज उठाने पर दो करोड़ रुपए से अधिक का कानूनी नोटिस स्कूल की तरफ से मिला है, लेकिन हम डरेंगे नहीं। अभिभावकों का विरोध जारी रहेगा। फीस बढ़ोत्तरी का मामला, सिर्फ दिल्ली-एनसीआर तक ही सीमित नहीं है। देश भर के निजी स्कूलों में फीस बढ़ोतरी का मुद्दा उठा हुआ है। एक रिसर्च संस्था द्वारा किए गए एक सर्वे में 36 फीसदी पेरेंटस ने बताया कि पिछले तीन सालों में उनके बच्चों की स्कूल की फीस 80 फीसदी तक बढ़ाई गई। वहीं 8 फीसदी ने कहा कि स्कूल फीस में 80 फीसद से भी ज्यादा बढ़ोतरी की गई। यह इजाफा बिना किसी स्पष्ट कारण के किया गया। वहीं 93 फीसदी पैरेंटस का कहना है कि उनकी राज्य सरकारें इस बढ़ोतरी को रोकने में पूरी तरह नाकाम रही हैं। सर्वे में 309 जिलों में 31 हजार से ज्यादा पैरेंटस ने हिस्सा लिया। इनमें से 62 फीसदी पुरुष और 38 फीसदी महिलाएं थीं। रिपोर्ट में यह भी सामने आया कि कई पैरेन्टस अब स्कूलों की प्रासंगिकता पर भी सवाल उठा रहे हैं और एआई आधारित होम लर्निंग विकल्पों पर विचार कर रहे हैं। यह चिंता भी जताई जा रही है कि मध्यम और निम्न आय वर्ग के परिवार कर्ज लेकर बच्चों को पढ़ा रहे हैं। हमें इस बात की खुशी है कि दिल्ली सरकार और विशेष कर शिक्षा मंत्री आशीष सूद ने इस ज्वलंत मुद्दे की ओर ध्यान दिया है और इसमें जरूरी कदम उठाने का आश्वासन दिया है। बढ़ती महंगाई के इस दौर में अभिभावकों के लिए अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलवाने के लिए कितनी कठिनाई उठानी पड़ती हैं हम समझ सकते हैं। कर्जा लेकर, अपना पेट काटकर अपने बच्चों को अच्छी तालीम मिले इसके ]िलए उनसे हमें सहानुभूति है और हम उम्मीद करते हैं कि उन्हें जल्द राहत मिलेगी। -अनिल नरेन्द्र

Saturday, 12 April 2025

सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में कहा है कि राज्यपाल के पास राज्य विधानमंडल से पारित विधेयकों को रोकने के लिए पूर्ण या आंशिक (पॉकेट वीटो) किसी तरह का वीटो पावर नहीं है। विधेयकों को लटकाए रखना अवैध है। राज्यपाल को निर्वाचित सरकार की सलाह से ही काम करना होगा। संविधान की अनुच्छेद-200 के तहत उनके पास अपना कोई विवेकाधिकार नहीं है। कोर्ट ने कहा, जनता की पसंद में बाधा बनना राज्यपाल की संवैधानिक शपथ का उल्लंघन होगा और उन्हें राजनीतिक विचारों से संचालित नहीं होना चाहिए। जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की पीठ ने बड़ा कदम उठाते हुए राज्यपालों को विधानमंडल से पारित विधेयकों को मंजूरी देने के लिए समय-सीमा भी तय कर दी, क्योंकि संविधान के प्रावधानों में अभी तक इसके लिए समय-सीमा तय नहीं थी। साथ ही पीठ ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत मिली विशेष शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि की ओर से रोके गए 10 विधेयकों को पारित घोषित कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इन विधेयकों को उसी दिन से पारित माना जाएगा जिस दिन राज्य विधानमंडल से इसे पुनर्विचार के बाद राज्यपाल को दोबारा भेजा गया था। राज्यपाल ने इन विधेयकों को राष्ट्रपति की राय के लिए भेजे जाने की बात कहकर मंजूरी रोक रखी थी। कोर्ट ने राज्यपाल के इस फैसले को अवैध, गलत और त्रुटिपूर्ण घोषित किया। राज्यपाल आरएन रवि की ओर से राज्य विधानसभा में पारित कई विधेयकों को मंजूरी देने से इंकार करने के खिलाफ तमिलनाडु सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। तमिलनाडु सरकार की इस याचिका पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला राज्य और राज्यपालों के बीच लंबे समय से चले आ रहे विवादों के समाधान की दिशा में बेहद अहम कदम है। शीर्ष अदालत ने एक बार फिर से राज्यपालों की भूमिका स्पष्ट की है। यह फैसला आने वाले वक्त में एक नजीर बनेगा और उम्मीद है कि टकराव के रास्ते से हटकर राज्य सरकार और राज्यपाल मिलकर काम करेंगे। इस फैसले ने राज्यपालें द्वारा विशेषकर उन राज्यों में जहां केंद्र सरकार के विरोधी दलों की सरकारें हैं। सरकारों पर मनमानी तरीके से अपने अधिकारों द्वारा अंकुश लगाने के प्रयासों को लगभग समाप्त कर दिया है। पिछले कुछ सालों में देखा गया है कि केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त कई राज्यपाल ऐसा बर्ताव करते हैं मानों वे केंद्र सरकार या सत्तारूढ़ पार्टी के एजेंट हों यहां तक कि वह सरकारें बनाने और गिराने तक में शामिल हो जाते हैं। इसी तरह का विवाद पिछले साल केरल में हुआ था। तब राज्य की डेमोक्रेटिक फ्रंट सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई थी कि तत्कालीन राज्यपाल ने कई बिल को दो साल तक लटकाए रखा और फिर उसे राष्ट्रपति के पास भेज दिया। अब आगे से कोई राज्यपाल किसी भी पारित विधेयक को एक महीने से अधिक अपने पास लंबित नहीं रख सकता। अगर यह विधेयक राज्यपाल के द्वारा वापस कर दिया जाता है और पुनर्विचार के लिए पुन उसके पास आता है तो वह उसे राष्ट्रपति को भी नहीं भेज सकते। राष्ट्रपति को वह पहली बार में ही भेज सकें। अगर निश्चित अवधि के बाद कोई विधेयक लंबित रखा जाता है तो उसे स्वत स्वीकृत मान लिया जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से यह तो तय है कि अब कोई विधेयक राज्यपाल की मानमानी की जकड़बंदी की गिरफ्त में नहीं रहेगा। शीर्ष अदालत ने इस समुचित प्रक्रिया को समयबद्ध और सीमाबद्ध करके निश्चित तौर पर एक ऐतिहासिक काम किया है। हम इसके लिए जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन को तहfिदल से बधाई देना चाहते हैं। उन्होंने साबित कर दिया कि आज भी सुप्रीम कोर्ट जिंदा है और संविधान की रक्षा करने में वचनबद्ध है। तमाम दबावों के बावजूद ऐसा निर्णय लेना साधारण नहीं कहा जा सकता इसलिए इसे ऐतिहासिक कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। -अनिल नरेन्द्र

Thursday, 10 April 2025

संघ की विचारधारा में भेदभाव नहीं

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सर संघ चालक मोहन भागवत ने रविवार को वाराणसी में कहा कि संघ की शाखाओं में सभी भारतीयों का स्वागत है। देश में पंथ, जाति, संप्रदाय की पूजा पद्धति अलग-अलग है, लेकिन संस्कृति एक है। हालांकि औरंगजेब को आदर्श मानने वालों को छोड़कर सभी स्वीकार हैं। संघ में विचारधारा में पूजा पद्धति के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता। अलदहिया स्थित लाजपत नगर पार्क में प्रभात शाखा में स्वयं सेवकों के सवालों का जवाब देते हुए उन्होंने ये बातें कही। भागवत ने कहा कि शाखा में उन सभी लोगों के लिए द्वार खुले हैं जो `भारत माता की जय बोले और भगवा ध्वज के प्रति सम्मान प्रखर करे'। भागवत ने कहा कि जो लोग अखंड भारत अव्यावहारिक मानते हैं, उनको सिंध प्रांत की दुर्दशा देखनी चाहिए। पिछले दशकों में भारत से जो हिस्से कटे हैं। आज उनकी दुर्दशा हो रही है। इसलिए अखंड भारत व्यावहारिक है। भागवत ने कहा कि स्वयं और परिवार के साथ हमें समाज पर भी खर्च करना चाहिए। सामाजिक समरसता के लिए यह आवश्यक है। शाखा पर प्रोटोकॉल के तहत पहुंच नगर आयुक्त अक्षत वर्मा और सीडीओ हिमांश नागपाल से भी चर्चा की। भागवत ने कहा कि संघ समाज को कुछ देने की भावना को प्रमुखता देता है। संघ में जो लोग प्रकट करने की सोच के साथ आते हैं उनसे निवेदन है कि न आएं। रविवार को लाजपत नगर में स्वयं सेवक दीपक कपूर के आवास पर विवेकानंद शाखा के स्वयं सेवकों को संबोधित करते हुए उन्होंने यह बात कही। मोहन भागवत ने कहा कि स्वयं सेवक के लिए शाखा के महत्व को खुद समझना सबसे जरूरी है। प्रतिदिन एक घंटे शाखा पर जाने से व्यक्तित्व का विकास होता है। -अनिल नरेन्द्र

ट्रंप के खिलाफ अमेरिका में विरोध

जहां लगभग सारी दुनिया में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के खिलाफ विरोध हो रहा है वहीं उनके अपने देश अमेरिका में भी अब जमकर प्रदर्शन हो रहे हैं। ट्रंप के खिलाफ आलम यह है कि पिछले दिनों एक डेपोट सीनेटर ने अमेरिकी कांग्रेस में सबसे लंबे भाषण का रिकॉर्ड बनाया। सीनेटर, कोरी बुकर सीनेट में लगातार 25 घंटे से अधिक समय तक राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के खिलाफ बोले। उन्होंने सोमवार शाम को अपना भाषण शुरू किया और मंगलवार शाम को समाप्त किया। बिना किसी ब्रेक के। एक व्याख्यान पीठ पर खड़े होकर दिए गए भाषण में असाधारण सहनशक्ति का प्रदर्शन किया। उन्होंने सीनेट के उस नीयत का लाभ उठाया जो सीनेटरों को ट्रंप की नीतियों के खिलाफ अभियान चलाने और उनकी छवि बनाने के लिए समय सीमा के बिना अनुमति देना है। अपने भाषण में कई जगहों पर नागरिक अधिकार नेता जॉन लुईस का हवाला देते हुए उन्होंने अंत में अपने शब्दों को दोहराया, अपनी परेशानी में पड़े। जरूरी परेशानी में पड़ने और अमेरिका की आत्मा को बचाने में मदद करो। वहीं दो दिन पहले डोनाल्ड ट्रंप और अरबपति एलन मस्क के खिलाफ अमेरिका के सभी 50 राज्यों के साथ-साथ पड़ोसी कनाडा और मैक्सिको में भी प्रदर्शन आयोजित किया गया। इसमें 150 कार्यकर्ता समूहों ने विरोध प्रदर्शनों में भाग लिया, जिसमें वाशिंगटन डीसी और राष्ट्रपति के फ्लोरिडा के पास बहुत संख्या में लोग शामिल हुए। हैंड्स ऑफ का नारा लगाते हुए भीड़ ट्रंप और सरकारी दक्षता विभाग (डीओजीई) के निदेशक एलन मस्क के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं। हैंड्स ऑफ का मतलब हमारे अधिकारों से दूर रहो। इस नारे का मकसद यह जताना है कि प्रदर्शनकारी नहीं चाहते कि उनके अधिकारों पर किसी का नियंत्रण हो। ट्रंप प्रशासन और डीओजीई के आलोचकों ने बजट कटौती और कर्मचारी बर्खास्तगी के माध्यम से संघीय सरकार के अधिकार और आकार को कम करने के प्रयासों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन आयोजित किए हैं। व्हाइट हाउस ने रविवार को कहा कि 50 से अधिक देशों ने टैरिफ को लेकर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से बातचीत की मांग की है, ताकि अमेरिका का निर्यात टैरिफ को कम किया जा सके। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के नई टैरिफ नीति के ऐलान के बाद दुनिया भर में खलबली मच गई है। प्रभावी देश इनसे निपटने की तैयारी में जुट गए हैं और उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति की इस योजना की आलोचना की है। कुल मिलाकर अमेरिका के अंदर और बाहर सभी जगह ट्रंप की नीतियों का विरोध हो रहा है। अमेरिका के प्रदर्शनों में लाखों लोगों ने सड़कों पर आकर प्रदर्शन किए। नारे करने की बात यह है कि इतनी संख्या में सड़कों पर उतरने के बाद भी कहीं भी हिंसा नहीं हुई और न ही कोई गिरफ्तारी ही हुई। सब शांति से निपट गया। अमेरिका के अंदर ट्रंप और एलन मस्क का विरोध बढ़ता जा रहा है और लोग अपने को कोस रहे हैं कि उन्होंने कैसे खुराफाती इंसान को अपने देश की बागडोर संभाल दी है।

Tuesday, 8 April 2025

जम्मू क्षेत्र में बढ़ती आतंकी घटनाएं

भारत-पाकिस्तान अंतर्राष्ट्रीय सीमा से महज 6 किलोमीटर की दूरी पर जम्मू-कश्मीर के कठुआ जिले में पिछले दो हफ्ते से चरमपंथ विरोधी अभियान जारी है। इस चरमपंथ विरोधी अभियान में अब तक जम्मू-कश्मीर पुलिस के 4 जवान शहीद हो चुके हैं और 5 घायल हो चुके हैं। दो चरमपंथियों को मार गिराया गया है। अभियान कठुआ के कई इलाकों में सुरक्षाकर्मी चला रहे हैं और इस अभियान की जम्मू-कश्मीर पुलिस के डीजीपी और आईजी खुद निगरानी कर रहे हैं। ऑपरेशन के दूसरे दिन पुलिस महानिदेशक नलिन प्रभात की एक तस्वीर मीडिया में आई है। उस तस्वीर में डीजीपी खुद हाथ में एके-47 लेकर सर्च अभियान में शामिल नजर आए थे। बीते तीस सालों में ऐसा पहली बार देखा गया जब पुलिस के डीजीपी पद के अधिकारी ने खुद सर्च ऑपरेशन में हिस्सा लिया हो। जब तक सभी चरमपंथी मारे नहीं जाते तब तक यह अभियान जारी रहेगा। यह अभियान ऐसी जगह चलाया जा रहा है जो पूरा इलाका जंगलों से घिरा है, जिस वजह से समय लग रहा है और मुश्किलें आ रही हैं। पुलिस सूत्रों के मुताबिक ये 5 चरमपंथियों का ग्रुप था जो पहले एक साथ थे और पहली मुठभेड़ के बाद से अलग हो गए। उनका कहना था कि दो तो मारे जा चुके हैं और तीन जो बाकी हैं उनके खिलाफ यह अभियान चलाया जा रहा है, उनका यह भी कहना था कि घने जंगलों और बड़ी-बड़ी चट्टानों की वजह से उन तक पहुंचने में मुश्किलें आ रही हैं और घने जंगलों की वजह से ड्रोन्स से भी कोई खास मदद नहीं मिल सकती है। ये पूछने पर कि अभी इस अभियान में और कितना समय लग सकता है तो उनका कहना था कि इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है। ये बात सच है कि पिछले दो सप्ताह से अभियान चलाया जा रहा है और अभी तक पूरी कामयाबी नहीं मिली है। जम्मू में बीते चार सालों से (साल 2021) से एक के बाद एक चरमपंथी घटनाएं हो रही हैं। इससे पहले जम्मू दशकों तक शांत रहा। लेकिन धीरे-धीरे चरमपंथ ने जम्मू के दूसरे इलाकों में भी अपना सिर उठाना शुरू कर दिया। हालांकि साउथ एशिया टेररिज्म पोर्टल के मुताबिक पूरे जम्मू-कश्मीर में साल 2021 की तुलना में साल 2024 में घटनाएं कम हुई हैं, साल 2021 में जम्मू-कश्मीर में कुछ घटनाओं की संख्या 153 थी, जबकि साल 2024 में दो घटनाएं दर्ज हुई हैं। -अनिल नरेन्द्र

न्यायपालिका में पारदर्शिता जरूरी है

सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों ने अपनी संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक करने पर जो सहमति जताई है उसका हम स्वागत करते हैं। इसके पीछे कारण जो भी हो, वह सही दिशा में सही कदम है। इससे न्यायपालिका में पारदर्शिता बढ़ाने में मदद मिलेगी जोकि पिछले कुछ दिनों में विवादों में आ गई है। भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के उपायों में पारदर्शिता को एक लंबे समय से अहम कड़ी माना जाता रहा है। पीठ की एक बैठक में शीर्ष अदालत के न्यायाधीशों ने अपनी सहमति का खुलासा करने का निर्णय लिया और इसका विवरण सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर अपलोड किया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट का यह कदम न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा मामले के बाद उठाया गया है। हाल ही में दिल्ली हाईकोर्ट के न्यायाधीश यशवंत वर्मा के आवास पर आग लगने की घटना के बाद कथित तौर पर नकदी की जली हुई गड्डियां मिलीं थीं। विवाद के बाद उनका तबादला इलाहाबाद हाईकोर्ट में कर दिया गया था। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि उनका तबादला नकदी मिलने के विवाद से संबंधित नहीं था। हालांकि इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को निर्देश दिया गया है कि न्यायमूर्ति वर्मा को कोई न्यायिक काम न सौंपा जाए। मामले की जांच सुप्रीम कोर्ट की अतिरिक्त जांच समिति कर रही है। जिसमें तीन जज हैं। इसी बीच जले हुए कचरे में नकदी की मौजूदगी दिखने वाले वीडियों को भी सुप्रीम कोर्ट ने सार्वजनिक किया है। वहीं सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशंस के पूर्व अध्यक्ष आदेश अग्रवाल ने न्यायाधीशों की संपत्ति का विवरण सार्वजनिक करने के निर्णय की प्रशंसा की है। उनका मानना है कि सुप्रीम कोर्ट के इस कदम के बाद उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश भी इस तरह का कदम उठाएंगे। देश में सुप्रीम कोर्ट को ऐसी संस्था के रूप में देखा जाता है जो आम, गरीब, बेसहारा लोगों के लिए न्याय की आखिरी उम्मीद है। फिर भी जस्टिस यशवंत वर्मा के घर पर कथित तौर पर जली हुई नोटों की गड्डियां मिलने जैसी घटनाओं और उनसे उपजे विवादों से कहीं न कहीं कुछ संदेह बनता है, पर विषय पुराना है कि न्यायाधीशों को भी अपनी संपत्ति सार्वजनिक करनी चाहिए। 1997 में सुप्रीम कोर्ट ने एक प्रस्ताव पारित किया था, जिसके अनुसार हर न्यायाधीशों को अपनी प्रापर्टी और देनदारी के बारे में मुख्य न्यायाधीशों को बताना होता है। बाद में एक और प्रस्ताव आया कि न्यायाधीश चाहें तो अपनी संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक कर सकते हैं। इस संबंध में एक संसदीय समिति भी अपनी एक रिपोट में यह कह चुकी है कि जजों की संपत्ति की घोषणा को अनिवार्य बनाने के लिए एक कानून लाना चाहिए। दरअसल, जब तक जजों की ओर से नियमित रूप से अपनी संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक करने की प्रािढया को संस्थागत रूप नहीं दिया जाएगा, तब तक इस संबंध में सिर्फ निजी स्तर पर की गई पहल या संकल्प के बूते इसमें निरंतरता बनाए रखना मुश्किल होगा। जहां हम मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना के इस फैसले का स्वागत करते हैं वहीं यह भी कहना चाहेंगे कि न्यायपालिका के कामकाज में कई स्तर पर सुधार की जरूरत है। वर्तमान परिदृश्य में न्यायपालिका की निष्पक्ष एवं स्वतंत्र भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण हो गई है।

Saturday, 5 April 2025

औरंगजेब मुद्दा गैर जरूरी है


पिछले कुछ दिनों से औरंगजेब की कब्र का मुद्दा राजनीतिक रूप से गरमाया हुआ है। इस पर सियासी दल खूब बयानबाजी कर रहे हैं। एक-दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं। भाजपा नेता भी इस मुद्दे को लगातार हवा दे रहे हैं। लेकिन भाजपा के वैचारिक संगठन आरएसएस ने इस पर संयमति रुख अपनाया है। इस कड़ी में अब संघ के पूर्व सरकार्यवाह सुरेश भैयाजी जोशी ने कहा है कि औरंगजेब की कब्र का मुद्दा अनावश्यक है। जोशी ने कहा कि औरंगजेब की मौत जहां हुई हो कब्र भी वहीं बनेगी, जिसे श्रद्धा है वे जाएंगे। उन्होंने कहा कि छत्रपति शिवाजी महाराज ने अफजल खान की कब्र बनवाकर एक मिसाल कायम की थी यह भारत की उदारता और समावेशिता का प्रतीक है। इससे पहले संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा से पहले संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील ने कहा था कि औरंगजेब प्रासंगिक नहीं है। फिर संघ के सहकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले ने कहा कि भारत के जो विरोध कर रहे हैं उनको आइकॉन बनना चाहिए, जो हमारी संस्कृति की बात करेगा, उसको हम लोग फालो करेंगे। दरअसल संघ पिछले काफी समय से मुस्लिम संवाद पर काम कर रहा है, जिसका मकसद है समाज में तनाव न हो और मतभेद के जो बिंदु हैं उन्हें बैठकर सुलझाया जाए। संघ के ये बयान उसी दिशा में हैं।

- अनिल नरेन्द्र

चीन-बांग्लादेश-पाक खतरनाक त्रिकोण


बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के प्रमुख मोहम्मद यूनुस 26 से 29 मार्च तक चीन के दौरे पर थे। 28 मार्च को चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग से उनकी द्विपक्षीय बातचीत के दौरान कई करार तो हुए ही, साथ ही यूनुस ने ये भी कहा कि चीन का विकास बांग्लादेश के लिए प्रेरणादायक है। दोनों देशों के साझा बयान में बांग्लादेश में तीस्ता प्रोजेक्ट के लिए चीनी कंपनियों को न्यौता दिया। याद रहे कि पिछले साल जून में पूर्व पीएम शेख हसीना चीन गई थीं और दौरे को अधूरा छोड़ वह बांग्लादेश लौट आई थीं। उन्होंने कहा था कि वह चाहती हैं कि प्रोजेक्ट भारत की ओर से पूरा हो। भारत के पूर्वोत्तर राज्यों का हवाला देते हुए चीन ने अपनी अर्थव्यवस्था को विस्तार देने की अपील करके बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के नेता मोहम्मद यूनुस से एक नया विवाद खड़ा कर दिया है। उन्होंने भारत के पूर्वोत्तर के सातों राज्यों को लैंड लॉक्ड (जमीन से चारों ओर से घिरा) क्षेत्र बताया और बांग्लादेश को इस इलाके में समंदर का एकमात्र संरक्षक बताते हुए चीन से अपने यहां आर्थिक गतिविधि बढ़ाने की अपील की। असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा ने मोहम्मद यूनुस के इस बयान को आपत्तिजनक बताया है। भारतीय राजनयिकों ने भी यूनुस के इस बयान पर हैरानी जताई है। हिमंत बिस्व सरमा ने एक्स पर लिखा, बांग्लादेश की तथाकथित अंतरिम सरकार के मोहम्मद यूनुस द्वारा दिया गया वह बयान घोर निदंनीय है, जिसमें उन्होंने पूर्वोत्तर भारत के राज्यों को जमीन से घिरा बताया और बांग्लादेश को उनकी समुद्री पहुंच का संरक्षक बताया। यूनुस के ऐसे भड़काऊ बयानों को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए क्यों ये (बयान) गहन राजनीतिक विचारों दीर्घकालिक एजेंडे को दर्शाते हैं। वही कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गौरव गोगोई ने कहा, यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश की विदेश नीति इस हद तक कमजोर हो गई कि भारत की मदद से स्वतंत्रता हासिल करने वाला बांग्लादेश भी उसके खिलाफ हो गया है। गोगोई मोहम्मद यूनुस के उस बयान पर प्रतिक्रिया दे रहे थे, जिसमें उनहोंने अपने देश को इस क्षेत्र  में महासागर का एकमात्र संरक्षक बताया था। चीन-बांग्लादेश की ये नजदीकियां कई लिहाज से भारत के लिए चिंताजनक हैं। एक ओर तीस्ता नदी विकास परियोजना से भारत की सुरक्षा चिंताएं जुड़ी हैं। साथ ही नार्थ-ईस्ट के मद्देनजर बांग्लादेश का चीन को प्रस्ताव भी भारत के लिए खतरे की घंटी की तरह है। जनवरी में यूनुस सरकार ने भारत के चिकेन नेक के नाम से मशहूर सिलिगुड़ी कॉरिडोर के पास रंगपुर में पाकिस्तानी सेना के उच्च अधिकारियों के एक प्रतिनिधिमंडल का  दौरा कराया था। इसी चिकन नेक के दूसरी ओर चीन की निगाहें लगी हुई हैं। यह कॉरिडोर भारत के लिए बेहद अहम है। दूसरी ओर अतीत की कड़वाहट को परे कर पाकिस्तान के डिप्टी पीएम और विदेशी मंत्री इशाक डार ने ऐलान किया है कि वह अगले महीने बांग्लादेश जाएंगे। 2012 के बाद यह किसी पाकिस्तानी मंत्री की पहली यात्रा होगी। इस बीच अप्रैल के शुरुआत में बीआईएमएसटीईसी समिट में पीएम मोदी और यूनुस का आमना-सामना होगा। चीन-बांग्लादेश-पाक त्रिकोण भारत के लिए बड़ी चिंता का विषय है जिसकी काट करना जरूरी है।

Thursday, 3 April 2025

दूर होंगी दिल्ली के मरीजों की तकलीफ



लगभग पौने दो करोड़ की सघन आबादी वाले दिल्लीवासियों की सेहत को बूस्टर डोज देने के लिए दिल्ली सरकार प्लान तैयार कर रही है। प्लान के तहत सरकार 10 बिंदुओं पर फोकस कर विभिन्न अस्पतालों, पॉलीक्लीनिक्स, अरोग्य मंदिरों सहित दूसरी स्तरीय अस्पतालों का ऑडिट कर रही है। एक अधिकारी के अनुसार इसका लक्ष्य जून 2025 रखा गया है। इसमें 10 बिंदुओं को फोकस किया गया है, जिसके तहत स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग के अंडर आने वाले 28 अस्पतालों मैडिकल कालेजों में तीन पॉवर विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के आधार पर सुनिश्चित करने की पहल होगी। सेहत सुधारने की पहल में मोशन और क्लीचर में आगे बढ़ने के अवसरों में वृ]िद्ध करना, सैलरी स्ट्रक्चर में बदलाव करना, जनकपुरी सुपर स्पेशल और राजीव गांधी सुपर स्पेशलिटी में विशेषज्ञ स्तरीय सर्जन्स कम्युनिटी मेडिसन व अन्य विभागों से जुड़े विशेषज्ञों की कमी को दूर करना रखा गया है। लोकनायक व जीटीबी अस्पताल के आईसीयू में बिस्तरों की संख्या में इजाफा करने का भी लक्ष्य रखा गया है। जरूरी दवाओं और उपकरणों को अपग्रेड करने के साथ ही किसी प्रकार की किल्लत को दूर करने के लिए क्रीनिंग कमेटी के गठन की भी योजना है। मरीजों की वेटिंग कम करने के लिए पेशेंट डॉक्टर्स डैशबोर्ड की स्थापना होगी। नए अस्पतालों के उनके अधूरे पड़े निर्माण कार्य कम से कम समय में पूरा करने उसकी लागत नियंत्रण करने के लिए लोक निर्माण विभाग और केन्द्राrय लोक निर्माण के एक्सपर्ट्स की मदद ली जाएगी। सर्जरी विभाग इमरजेंसी में औसत टाइम को कम करने का लक्ष्य भी रखा जाएगा। दिल्लीवासी उम्मीद करते हैं कि दिल्ली सरकार अपनी इन योजनाओं में सफल हो और इन्हें जमीन पर उतारे ताकि दिल्लीवासियों को इलाज में सहूलियतें मिलें जिनकी बहुत आवश्यकता है। दिल्ली सरकार की योजना तो सही है, उम्मीद रखें कि वह इन्हें पूरा करेंगी।

-अनिल नरेन्द्र

सवाल रॉ पर प्रतिबंध लगाने का



अमेरिका में भारत की खुफिया एजेंसी रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) पर प्रतिबंध लगाने की मांग हुई है। पता नहीं अमेरिका भारत के साथ कौन सी दुश्मनी का बदला निकाल रहा है। एक के बाद एक झटका हमें देने पर तुला हुआ है। ताजा उदाहरण अमेरिका के यूएस कमीशन ऑन रिलीजियस फ्रीडम (यूएससीआईआरएफ) ने साल 2025 की वार्षिक रिपोर्ट जारी की है। रॉ पर प्रतिबंध लगाने की मांग इस रिपोर्ट का हिस्सा है। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि भारत में धार्मिक स्वतंत्रता की स्थिति लगातार खराब हो रही हैं क्योंकि धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ हमले और भेदभाव के मामले बढ़ रहे हैं। हालांकि भारत ने यूएससीआईआरएफ की रिपोर्ट को खारिज करते हुए इसे पक्षपाती और राजनीति से प्रेरित बताया है। पिछले कुछ सालों से यह संस्था लगातार भारत कि धार्मिक स्वतत्रता और अल्पसंख्यक उत्पीड़न पर चिंता जताता रही है और भारत हर बार इसे खारिज करता आया है। 96 पन्ने की इस रिपोर्ट में भारत को उन 16 देशों के साथ रखने का सुझाव दिया है। जहां कुछ खास चिंताएं हैं। रिपोर्ट में लिखा गया है कि भारत सरकार ने विदेशों में धार्मिक अल्पसंख्यकों विशेष रूप से सिख समुदाय के सदस्यों और उनकी आवाज उठाने वालों को टारगेट करने के लिए अपनी दमनकारी रणनीति का विस्तार करना जारी रखा। भारत के धार्मिक स्वतंत्रता उल्लंघनों का डॉक्यूमेंटेशन करने वाले पत्रकारों, शिक्षाविदों और नागरिक समाज संगठनों ने कांसुलर सेवाएं न मिलने, ओवर सीज सिटीजन ऑफ इंडिया (ओसीआई) कार्ड को निरस्त करने के साथ-साथ हिंसा और निगरानी की धमकियों की सूचना दी है। रॉ के बारे में कहा गया, अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्टिंग और कनाडा सरकार की खुफिया जानकारी ने भारत के रॉ के एक अधिकारी और छह राजनयिकों के न्यूयार्क में 2023 में एक अमेरिकी सिख कार्यकर्ता की हत्या के प्रयास से जुड़े आरोपों की पुष्टि की है। संस्था ने अमेरिकी सरकार से रॉ पर प्रतिबंध लगाने की सिफारिश भी की है। रिपोर्ट में लिखा ः धार्मिक स्वतंत्रता के गंभीर उल्लंघन में दोषी पाए गए व्यक्तियों और संस्थाओं जैसे विकास यादव और रॉ पर टारगेटेड प्रतिबंध लगाएं। उनकी संपत्तियों को जब्त करें और/या संयुक्त राज्य अमेरिका में उनके प्रवेश पर प्रतिबंध लगाएं। अमेरिका के न्याय मंत्रालय ने 17 अक्टूबर को भारतीय नागरिक विकास यादव के खिलाफ भाड़े पर हत्या और मनीलांड्रिंग का मामला दर्ज करने की घोषणा की थी। अमेरिकी अधिकारियों का कहना था कि साल 2023 में अमेरिकी धरती पर गुरपतवंत सिंह पन्नू की हत्या की नाकाम साजिश में विकास यादव की अहम भूमिका थी। जहां अमेरिकी न्याय मंत्रालय ने यादव को भारत सरकार का कर्मचारी बताया था। वहीं भारत ने कहा था कि विकास यादव अब भारत सरकार का कर्मचारी नहीं है। टारेगेटेड प्रतिबंध एक प्रकार का आर्थिक या व्यापारिक प्रतिबंध है जो एक या एक से अधिक देश या अंतर्राष्ट्रीय संगठन किसी देश के अंदर व्यक्ति विशेष संस्थाओं या सेक्टर के खिलाफ लगाया जा सकता है न कि पूरे देश पर। धार्मिक स्वतंत्रता की 2025 की इस रिपोर्ट पर भारत के विदेश मंत्रालय ने जवाब देते हुए कहा ः हमने अमेरिका की अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग की हाल ही में जारी भारत की वार्षिक रिपोर्ट देखी है जो एक बार फिर पूर्वाग्रह से भरी हुई और राजनीतिक उद्देश्यों से प्रेरित है। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल का कहना है कि रिपोर्ट में बार-बार कुछ घटनाओं को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता है और भारत के बहुसांस्कृतिक समाज को गलत तरीके से दर्शाने की कोशिश करता है।

Tuesday, 1 April 2025

अंतत कांग्रेस कोयह समझ आई



सत्ता के बिना संगठन की विचारधारा लागू नहीं कर सकते यह बात लगातार चुनाव दर चुनाव हारने के बाद अंतत कांग्रेsस को अब समझ आई है। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने राज्यों में चुनाव जीतने के लिए दीर्घकालिक रणनीति के साथ एकजुट होकर काम करने के वास्ते पार्टी की जिला इकाई प्रमुखों को आह्वान किया और कहा कि संगठन की विचारधारा मजबूत है। लेकिन इसे सत्ता के बिना देश में लागू नहीं किया जा सकता है। 2024 के लोकसभा चुनाव में इंडिया गठबंधन ने एक होकर लड़ाई लड़ी, जिससे भाजपा 240 पर अटक गई। कांग्रेस पार्टी ने 2024 लोकसभा चुनाव में लगभग 100 सीट हासिल की। अगर हमने अधिक मेहनत की होती, हमारा संगठन और मजबूत होता तो हम 20-30 सीटें और हासिल कर सकते थे। खरगे ने कहा कि इतनी सीट हासिल करने से देश में वैकल्पिक सरकार भी बना सकते थे। कांग्रेस फसल को तैयार कर लेती है पर उसे काटने वाला संगठन निहायत कमजोर है या यूं कहें है ही नहीं। राहुल गांधी जितना मर्जी देश में घूम लें, हर वर्ग से मिल लें, जब तक संगठन उनके सपने को साकार नहीं करेगा वह सपने ही रह जाएंगे। देखें खरगे जी जो कह रहे हैं उसे क्रियान्वयन करने की क्षमता भी रखते हैं या नहीं?

-अनिल नरेन्द्र


अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जरूरी है


सुप्रीम कोर्ट ने अहम फैसले में कहा कि असुरक्षित लोगों के आधार पर अभिव्यक्ति की आजादी को नहीं आंका जा सकता। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा जरूरी है क्योंकि इसके बिना सम्मानजनक जीवन जीना असंभव है। सुप्रीम कोर्ट ने अभिव्यक्ति की आजादी को लोकतंत्र का अहम अंग बताते हुए कांग्रेस सांसद इमरान प्रतापगढ़ी के खिलाफ गुजरात में दर्ज एफआईआर रद्द कर दी। कोर्ट ने कहा, भले बड़ी संख्या में लोग किसी के विचार को नापसंद करते हों, पर उसके विचार व्यक्त करने के अधिकार का सम्मान व संरक्षण होना चाहिए। जस्टिस अभय एस ओका और जस्टिस उज्जवल भुइयां की पीठ ने कहा, 75 वर्ष पुराना लोकतंत्र इतना कमजोर नहीं कि किसी कविता या कॉमेडी से समाज में शत्रुता या घृणा फैले। यह कहना कि किसी कला या स्टैण्डअप कॉमेडी से नफरत फेल सकती है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचल देगा। शीर्ष अदालत ने इस टिप्पणी के साथ कांग्रेस से सांसद इमरान प्रतापगढ़ी के खिलाफ सोशल मीडिया पर भड़काऊ गीत का संपादित वीडियो पोस्ट करने के मामले में गुजरात पुलिस की एफआईआर को खारिज कर दिया। खंडपीठ ने जोर देकर कहा, भाषण व अभिव्यक्ति की आजादी प्रतिबंधों से ऊपर है। भारतीय न्याय संहिता की धारा-196 के तहत धार्मिक समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देने के लिए अपराध के किसी व्यक्ति के बोल या लिखे गए शब्दों के प्रभाव को मजबूत दिमाग वाले दृढ़ व साहसी व्यक्ति के मानकों के आधार पर विचार करना होगा। इसे उन लोगों के समर्थन के आधार पर नहीं आंका जा सकता, जो कमजोर व अस्थिर दिमाग वाले हैं, जिनमें सदैव असुरक्षा की भावना होती है या जो हमेशा आलोचना को यानि ताकत व पद के लिए खतरा मानते हैं। पीठ ने कहा, लोगों या उनके समूहों के विचारों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति स्वस्थ व सभ्य समाज का अभिन्न अंग है। विचारों व दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति की आजादी के बिना, संविधान के अनुच्छेद-21 में दी गई गारंटी वाला सम्मानजनक जीवन असंभव है। पीठ ने कहा, यह सुनिश्चित करना कोर्ट का परम कर्तव्य है कि संविधान व इसके आदर्शों का उल्लंघन न हो। गुजरात हाईकोर्ट के 17 जनवरी के आदेश को इमरान ने चुनौती दी थी। जिसमें उन पर दर्ज प्राथमिकी को रद्द करने की याचिका यह कहते हुए खारिज कर दी थी कि जांच शुरुआती चरण में है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने अभिव्यक्ति की आजादी के संरक्षण को सर्वोपरि बताया और साफ किया कि किसी भी बयान या लेख की व्याख्या तार्किक और दृढ़ व्यक्ति की दृष्टि से होनी चाहिए न कि उन लोगों के अनुसार जो असुरक्षा के चलते आलोचना को खतरा मानते हैं। साथ ही धारा-196 के तहत जांच प्रक्रिया को सख्ती से लागू करने का निर्देश दिया गया ताकि अनावश्यक मुकदमों से नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन न हो। हम माननीय सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का स्वागत करते हैं और उम्मीद करते हैं कि भविष्य में सभी संबंधित पक्ष इसको ध्यान में रखेंगे और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को नाजायज तरीके से दबाने का प्रयास नहीं करेंगे।