Tuesday, 22 April 2025
धनखड़ के बयान पर छिड़ा सियासी घमासान
राष्ट्रपति और राज्यपाल द्वारा विधेयकों को मंजूरी देने में तीन महीने की समय-सीमा तय करने के मामले में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ द्वारा सुप्रीम कोर्ट की आलोचना किए जाने के बाद राजनीतिक और कानूनी विशेषज्ञों के बीच बहस तेज हो गई है। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने शीर्ष अदालत पर निशाना साधते हुए कहा कि वह सुपर संसद नहीं बन सकता और भारत के राष्ट्रपति को निर्देश देना शुरू नहीं कर सकता। उपराष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 142 को लोकतांत्रिक ताकतों के खिलाफ न्यूक्लियर मिसाइल तक कह डाला। यह अनुच्छेद सुप्रीम कोर्ट को विशेष अधिकार देता है। जब पूर्ण न्याय के लिए कोई और रास्ता नहीं बचता तब सुप्रीम कोर्ट इस अनुच्छेद से मिली पूर्ण शक्तियों का इस्तेमाल करता है। यह किसी संवैधानिक संस्था के खिलाफ हथियार नहीं कहा जा सकता बल्कि यह एक उम्मीद का दरवाजा है। राज्यसभा सांसद कपिल सिब्बल ने उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ द्वारा दिए गए इस बयान पर कहा कि ये न केवल असंवैधानिक है बल्कि उचित भी नहीं है। उन्होंने कहा आज तक किसी सभापति ने ऐसी राजनीतिक टिप्पणी नहीं की। लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति किसी पार्टी के प्रवक्ता नहीं हो सकते। अगर ऐसा प्रतीत होता है तो यह पद की गरिमा के खिलाफ है और पद की गरिमा को ठेस पहुंचाता है। सिब्बल ने कहा, न्यायपालिका अपनी बात नहीं कह सकती, इसलिए जब कार्यपालिका हमला करे तो बचाव करना चाहिए। पूर्व कानून मंत्री ने कहा, राष्ट्रपति और राज्यपाल भी मंत्रिपरिषद की सलाह पर काम करते हैं। बिल लटकाना संवैधानिक अधिकार नहीं है। अगर संसद से पास बिल राष्ट्रपति लटकाकर बैठ जाएं तो क्या होगा? सिब्बल ने 24 जून 1975 का पा करते हुए कहा, इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द करने का फैसला एक जज जस्टिस कृष्ण अय्यर ने सुनाया था जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के चुनाव को अमान्य घोषित कर दिया गया था। उन्होंने कहा जब इंदिरा गांधी के चुनाव के बारे में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया था तब केवल एक न्यायाधीश जस्टिस कृष्ण अय्यर ने फैसला सुनाया था। धनखड़ जी को यह मंजूर था लेकिन अब दो जजों की पीठ का फैसला सही नहीं है क्योंकि यह सरकार के पक्ष में नहीं है। उधर महेश जेठमलानी ने धनखड़ के इस दमदार कदम की तारीफ करने के साथ इसकी कानूनी व्याख्या करते हुए एक्स पर लिखा, जहां कुछ लोग सरकार के दो अंगों (कार्यपालिका और विधायिका) के बीच संघर्ष के बीच देश के दूसरे प्रमुख उपराष्ट्रपति के आने के औचित्य पर सवाल उठा सकते हैं, लेकिन बिल्कुल स्पष्ट संवैधानिक दोष और इशारा करना (उपराष्ट्रपति एक कुशल कानूनविद भी हैं।) की संविधान अनुच्छेद 145(3) के अनुसार संवैधानिक प्रावधान की व्याख्या से संबंधित सवाल पर केवल पांच जजों की पीठ द्वारा विचार किया जाना चाहिए और दो न्यायाधीशों की पीठ का फैसला अमान्य था। यह निश्चित रूप से संविधान की मर्यादा बनाए रखने की उपराष्ट्रपति के शपथबद्ध दायित्व का निर्वहन होगा। बेशक अपने देश में अनेक ऐसे बड़े वकील हैं, जिन्हें लगता है कि वे न्यायपालिका को प्रभावित कर सकते हैं, माननीय जजों को जबरदस्त तरीके से ट्रोल कर प्रभावित कर सकते हैं पर उन्हें समझना चाहिए कि आज की तारीख में अगर जनता को न्याय की कोई उम्मीद बची है तो केवल न्यायालयों से। राजनीतिक पार्टियां भी ऐसे वकीलों को कुछ ज्यादा मजबूती देने लगती हैं। इंसाफ की कोशिश और सियासत के बीच दूरियां मिटने लगती हैं। सही इंसाफ के लिए सियासत को परे रखना होता है। तमिलनाडु के राज्यपाल का मामला हो या वक्फ बोर्ड कानून का दोनों ही मोर्चो पर न्यायालय पर सबकी निगाहें हैं। सियासत से प्रभावित हुए बिना, ट्रोल आर्मी और नेताओं के बयानों से प्रभावित हुए बिना शुद्ध संविधान की पृष्ठभूमि में हुआ फैसला ही ऐसे विवादों का निपटारा कर सकेगा। देश के आम नागरिकों के लिए सियासत से ज्यादा इंसाफ जरूरी है।
-अनिल नरेन्द्र
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