Tuesday, 7 February 2023
बेल के बावजूद रिहाईं में देरी
चलो आखिर विचाराधीन वैदियों की दुर्दशा पर सुप्रीम कोर्ट ने ध्यान तो दिया। वैदी अगर गरीब और अनपढ़ हुए तो उनका पूरा जीवन नारकीय परिस्थितियों में कटता है। न्याय प्राशासन और जेल प्राशासन अपनी पुरानी रीतियों से इस कदर बंधा चला जाता है कि आज की उन्नत तकनीक के युग में उसकी कईं बातें हास्यास्पद लगती हैं। उदाहरण के तौर पर अदालत से जमानत का आदेश हो जाने के बाद भी बहुतों की रिहाईं सिर्प इसलिए टल जाती है क्योंकि समय पर उस आदेश की कॉपी जेल प्राशासन को नहीं मिलती है। जमानत के पात्र होने या जमानत दिए जाने पर भी ज्यादातर वैदियों के सलाखों के पीछे रहने का संज्ञान लेते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश दिया है कि जमानत मिलने के बावजूद वैदी एक महीने के भीतर बांड पेश करने में विफल रहते हैं तो अदालतें लगाईं गईं शर्तो को संशोधित करने पर विचार करें। वह इस बात पर विचार करें कि जमानत की शर्त में छूट दी जा सकती है क्या? सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि नालसा रिपोर्ट भी तैयार कर रही है जिसके तहत यह पता चलेगा कि कितने आरोपी हैं जिनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है और बेल बांड भरने की स्थिति में नहीं हैं। सुप्रीम कोर्ट को यह भी बताया गया कि पांच हजार से ज्यादा वैदी जेल की क्षमता से ज्यादा हैं और आए दिन ऐसे मामले देखने को मिल रहे हैं कि जमानत के बाद भी आरोपी नहीं छूट पा रहे हैं, क्योंकि वह बेल बांड नहीं दे पा रहे हैं। जस्टिस एमके कौल की अगुआईं वाली बेंच के सामने कोर्ट सलाहकार गौरव अग्रावाल, एल. मैथ्यू और देवेश ए. मेहता की ओर से सुझाव व रिपोर्ट पेश की गईं।
कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि वेंद्र सरकार नालसा (नेशनल लीगल सर्विस अथॉरिटी) से बातचीत करे और यह देखे कि क्या ईं-प््िराजन पोर्टल पर स्टेट लीगल सर्विस अथॉरिटी और जिला लीगल सर्विस अथॉरिटी को पहुंचा दी जा सकती है जिससे तालमेल बने। वेंद्र सरकार के एडिशनल सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि वह निर्देश लेकर कोर्ट को अवगत कराएंगे।
क्या कहा कोर्ट ने गाइड लाइंस में—कोर्ट जैसे ही जमानत दे आदेश की स्पॉट कॉपी ईं-मेल पर जेल सुपरिटेंडेंट को भेजें और उनके जरिये आरोपी को उसी दिन मिले। आरोपी जमानत आदेश के सात दिनों में रिहा नहीं किया गया तो जेल सुपरिटेंडेंट डीएलएसए के सैव््रोटरी को बताए। डीएलएसए पैरा वॉलंटियर या जेल विजिटिग एडवोकेट की नियुक्ति करेगा, जो जमानत की शर्त पूरी करवा रिहाईं करवाए। पीठ का विचार था कि ऐसे मामलों में जहां अंडर-ट्रायल या दोषी अनुरोध करता है कि वह रिहा होने के बाद जमानत बांड या जमानत दे सकता है, तो एक उपयुक्त मामले में अदालत अभियुक्त को एक निर्दिष्ट अवधि के लिए अस्थायी जमानत देने पर विचार कर सकती है ताकि वह जमानत बांड या जमानत राशि प्रास्तुत कर सके। यह बात भी विभिन्न अध्ययनों से सामने आती रही है कि जेलों में बंद लोगों का बड़ा हिस्सा ऐसा होता है जो ढंग का वकील रखने या अपने हक की लड़ाईं लड़ने में समर्थ नहीं होता। जाहिर है कि ऐसे तमाम लोगों के लिए अदालतें ही उम्मीद बन सकती हैं। बशत्रे वह इस सिद्धांत पर सख्ती से अमल करें कि आरोप साबित होने से पहले हर कोईं बेकसूर है।
——अनिल नरेन्द्र
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