Tuesday 2 May 2023

आनंद मोहन की रिहाईं पर बवाल

पूर्व सांसद और बिहार के बाहुबली नेता आनंद मोहन की 15 साल बाद जेल से रिहाईं पर न केवल बिहार बल्कि पूरे देशभर में हंगामा हो गया है। गोपाल गंज डीएम जी वृष्णैया हत्याकांड में तय सजा (14 साल) से डेढ़ साल ज्यादा जेल में गुजार कर गत गुरुवार की सुबह सहरसा जेल से बाहर निकले पूर्व सांसद आनंद मोहन ने इस बात को सिरे से नकारा कि सत्ताधारी जमात ने चुनावी फायदे के लिए कानून बदलकर उनको जेल से छुड़ाया? उन्होंने कहा—यह बिल्वुल गलत बात है। मेरी रिहाईं का विरोध करने वाले दरअसल संविधान और कोर्ट को नकार रहे हैं, उसका अपमान-अवमानना कर रहे हैं। ध्यान रहे कि भाजपा व जी वृष्णैया का परिवार आनंद की रिहाईं की यही वजह बता रहे हैं। उन्होंने कहा—संविधान की मूल आत्मा, समानता के अधिकार पर आधारित है। यह आम और खास में कोईं अंतर नहीं करती। हर आदमी का, चाहे वह जो हो, की जान की कीमत को एक मानती है। सबके लिए एक तरह के न्याय व कानून की बात करती है। लेकिन व्यवहारिक रूप में ऐसा था नहीं, किसी राज्य में कोईं नौ साल की सजा के बाद छूटा, तो कहीं 11 या 16 साल में छूटता रहा है। यह एकरूपता नहीं है। सुप्रीम कोर्ट लगातार राज्यों को इसमें एकरूपता लाने की बात कहती रही है। दरअसल गोपाल गंज के जिलाधिकारी जी. वृष्णैया की हत्या में पहले फांसी, फिर उम्रवैद की सजा काट रहे आनंद मोहन को बिहार सरकार ने जेल मैनुअल में बदलाव कर रिहा किया है। सरकार ने सरकारी कर्मचारी की हत्या करने वाली धारा हटा दी, जिससे मोहन की रिहाईं संभव हो सकी। सरकार लाख दलील दे कि किसी भी शख्स की रिहाईं जेल में उसका आचरण और अनुशासन के आधार पर तय होती है। मगर आनंद मोहन की छवि राज्य में वैसी रही है यह तथ्य जगजाहिर है। यही वजह है कि राज्य में इस मसले पर राजनीति भी जमकर हो रही है। आलोचकों का तर्व है कि गैंगस्टर से राजनेता बने आनंद मोहन की रिहाईं राजपूत समुदाय को खुश करने का प्रायास है, जो वर्षो से उनकी रिहाईं की मांग कर रहा है। दूसरी ओर विपक्षी दलों विशेष रूप से दलित हितों का प्रातिनिधित्व करने वालों ने इस पैसले की कड़ी निंदा की है। उनका दावा है कि यह न्याय को कमजोर करता है और जाति आधारित हिसा के अपरधियों को एक खतरनाक संदेश भेजता है। आनंद मोहन की रिहाईं ने बिहार में भी जनमत को विभाजित कर दिया है। यह समाज के वुछ वर्ग इसे सुलह और माफी की दिशा में एक कदम मानते हुए उनकी रिहाईं का समर्थन कर रहे हैं, वहीं अन्य इसे न्याय के साथ विश्वासघात और दलित, संप्रादाय के अधिकारों की अवहेलना के रूप में देखते हैं। यह मुद्दा अत्याधिक ध्रुवीवृत हो गया है, जिसमें सभी के राजनीतिक तेवर उलझे हुए हैं।

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