Sunday, 30 July 2017

यूपी के शिक्षामित्रों को सुप्रीम कोर्ट का झटका

उत्तर प्रदेश अस्सिटेंट टीचर के पद पर शिक्षामित्रों के संयोजन को लेकर मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने बड़ा फैसला सुनाया। कोर्ट ने कहाöएक लाख 72 हजार शिक्षामित्रों में से समायोजित हुए एक लाख 36 हजार शिक्षामित्र अस्सिटेंट टीचर के पद पर बने रहेंगे। वहीं सभी एक लाख 72 हजार शिक्षामित्रों को दो साल के अंदर टीईटी (टीचर्स एलिजबिलिटी टेस्ट) पास करना होगा। इस फैसले से 1.72 लाख शिक्षामित्रों को जोर का झटका तो लगा है पर अदालत ने मानवीय, सामाजिक और शिक्षण को भी अपने फैसले में समाहित किया है। यही वजह है कि कोर्ट ने यह आदेश पारित किया कि शिक्षामित्र तत्काल नहीं हटाए जाएंगे। साथ ही 72 हजार सहायक शिक्षक जो पूर्ण रूप से शिक्षक बन गए, उन्हें सही भी ठहराया है। इसके अलावा कोर्ट के फैसले के कई और अर्थ हैं, जिन्हें संजीदगी के साथ उत्तर प्रदेश के साथ-साथ बाकी राज्यों को भी आत्मसात करने की जरूरत है। हालांकि शिक्षामित्रों को जरूरी योग्यता हासिल कर दो भर्तियों में भाग लेने का मौका दिया जाएगा। भर्ती में उनके अनुभव को भी प्राथमिकता दी जाएगी। यह फैसला न्यायमूर्ति आदर्श कुमार गोयल व न्यायमूर्ति ललित की पीठ ने हाई कोर्ट के विभिन्न आदेशों को चुनौती देने वाली याचिकाओं का निपटारा करते हुए सुनाया है। चूंकि शिक्षा अनिवार्य विषय है और यह सभी के विमर्श से होती है लेकिन इसके उलट ज्यादातर सरकारों ने इसे वोट बैंक और सस्ती लोकप्रियता के पैमाने पर ही रखा है। शिक्षामित्रों की नियुक्ति के मामले में भी उत्तर प्रदेश की पूर्ववर्ती समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की सरकार ने सतही सोच का परिचय दिया। सर्वशिक्षा अभियान के तहत शिक्षकों की नियुक्ति को जरूरी बताकर उन लोगों को भी इस जिम्मेदारी वाले क्षेत्र में शामिल कर लिया गया जिनसे फायदा कम और शिक्षा को नुकसान ज्यादा हुआ। कोर्ट ने राज्य सरकार से कहा भीöशिक्षकों की कमी का बहाना बनाकर की गई नियुक्तियों को वैध नहीं ठहराया जा सकता। आपने बाजार में उपलब्ध प्रतिभाओं को इज्जत नहीं बख्शी है। जो कानूनन शिक्षक नहीं थे, योग्य थे या नहीं, उन्हें योग्यता में रियायत देकर शिक्षामित्र बनाया गया वरना प्रशिक्षित शिक्षक की अहमियत क्या होती है, इस बात को नजरंदाज नहीं करते। इस लिहाज से शिक्षामित्रों के मामले में पारित यह फैसला दूरगामी परिणाम वाला एक ऐतिहासिक फैसला कहा जाए तो गलत न होगा। इस फैसले से सुप्रीम कोर्ट ने यह भी जता दिया कि नियम-कानून से नहीं चलने पर अदालत इसी तरह हस्तक्षेप करती रहेगी। इस फैसले से शिक्षामित्रों में रोष पैदा होना स्वाभाविक ही है। मथुरा में महिला शिक्षामित्र ने जहर खाकर जान दे दी। कई अन्य जिलों में शिक्षामित्रों ने सड़कों पर प्रदर्शन किए और तोड़फोड़ के बाद फाइलें भी जला दीं। अब देखना यह है कि योगी सरकार पूरे मसले को कैसे हैंडिल करती है?

-अनिल नरेन्द्र

गो नवाज गो से शुरू, गॉन नवाज गॉन पर खत्म

आखिरकार पनामा पेपर्स के खुलासे ने एक और प्रधानमंत्री की बलि ले ली। सबसे पहले आइसलैंड के प्रधानमंत्री को पद छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा था, जिन पर आरोप था कि वे और उनकी पत्नी ने देश के बाहर की कंपनियों में करोड़ों डॉलर के निवेश की जानकारी देश से छिपाई। अब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ दूसरे प्रधानमंत्री हैं जिनको पनामा पेपर्स ने पद छोड़ने को विवश किया। पिछले साल अप्रैल में खुलासा हुआ था कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के तीन बच्चों ने विदेश में कंपनियां खोलीं और इनके जरिये देश से बाहर बेशकीमती सम्पत्तियां जुटाईं पर यह तथ्य परिवार के सम्पत्ति विवरण में शामिल नहीं किया गया। इसकी जांच के लिए पाक सुप्रीम कोर्ट ने छह सदस्यीय जांच दल का गठन किया था। पिछले 10 जुलाई को इस दल ने अपनी रिपोर्ट शीर्ष अदालत को सौंपी थी, जिसमें उनके परिवार पर आय से अधिक सम्पत्ति रखने, आय के स्रोत को छिपाना, धोखाधड़ी करना और फर्जी दस्तावेज बनाने जैसे गंभीर आरोप लगाए थे। इसी रिपोर्ट के आधार पर उन्हें और वित्तमंत्री इशाक डार को शुक्रवार को अयोग्य करार दिया गया। कोर्ट ने नवाज के आजीवन चुनाव लड़ने पर रोक लगाते हुए कहा कि वह संसद और अदालत के प्रति ईमानदार नहीं रहे, इसलिए प्रधानमंत्री पद पर बने रहने के योग्य नहीं हैं। नवाज शरीफ पर प्रधानमंत्री पद पर रहने के दौरान लंदन में बेनामी सम्पत्ति बनाने का आरोप है। पिछले साल पनामा पेपर्स लीक की जांच रिपोर्ट में नवाज, उनके दो बेटे और बेटी पर आय के स्रोत छिपाने, कमाई से ज्यादा आलीशान जिन्दगी जीने, फर्जी कागजात बनवाने जैसे आरोप लगाए थे। बचाव में दाखिल कुछ दस्तावेज भी फर्जी साबित हुए। महज एक फॉन्ट के कारण नवाज का फर्जीवाड़ा पकड़ा गया। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तुरन्त बाद नवाज शरीफ ने अपने इस्तीफे की घोषणा कर दी। नवाज का राजनीतिक भविष्य एक तरह से खत्म होने के बाद पाकिस्तान की सत्तारूढ़ पार्टी पीएमएल-एन की बैठक में नवाज शरीफ के छोटे भाई शाहबाज शरीफ को अगले पीएम के लिए नॉमिनेट किया गया। शाहबाज फिलहाल पंजाब के सीएम हैं। उन्हें पीएम बनाने के लिए नेशनल असैम्बली की मंजूरी लेनी होगी। हालांकि वहां पार्टी का बहुमत होने से दिक्कत तो नहीं आनी चाहिए। शाहबाज को नवाज से ज्यादा तेज-तर्रार समझा जाता है। जानकार मानते हैं कि नवाज के सत्ता में रहने या न रहने से भारत-पाक रिश्तों में बड़ा बदलाव नहीं आने वाला है। वे पहले भी बुरे थे और आगे भी हालात शायद ही बदलें। पाकिस्तानी रुख में कश्मीर जैसी कुछ बुनियादी बातें हैं जो भारत के मामले में हमेशा एक जैसी रही हैं। इस फैसले से बहरहाल पाकिस्तानी सेना जो पहले भी मजबूत थी अब और ज्यादा मजबूत हो जाएगी। पनामा पेपर्स क्या है यह भी बता दें। पनामा की विधि फर्म मोनेक फासेंस्को के लीक हुए टैक्स दस्तावेजों में दुनिया की कई प्रमुख हस्तियों के नाम हैं। इनमें रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन के करीबियों, पाकिस्तान के पीएम नवाज शरीफ (दोषी करार), मिस्र के पूर्व राष्ट्रपति हुसैनी मुबारक, सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल असद, पाक की पूर्व प्रधानमंत्री दिवंगत बेनजीर भुट्टो, लीबिया के पूर्व शासक कर्नल गद्दाफी समेत कई हस्तियों के नाम हैं। चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के परिवार का ऑफ शोर खातों से संबंध है। इसके अलावा करीब 500 भारतीय हस्तियों के नाम भी पनामा पेपर्स में हैं। नवाज शरीफ और उनका परिवार एक घातक मिश्रण के प्रतीक बन गए थे, राजनीति और सत्ता के साथ-साथ कारोबार में वर्चस्व तथा सही-गलत तरीकों से अपार धन जुटाने की हवस। ऐसे में अपने बारे में तथ्यों को छिपाना, पारदर्शिता की परवाह न करना नवाज को भारी पड़ी। सत्ता में बैठे लोग सारी जांच एजेंसियों को अपनी सुविधा अनुसार चलाते रहते हैं वरना शरीफ परिवार का भांडा बहुत पहले फूट चुका होता। पनामा पेपर्स के खुलासे का दायरा कई देशों तक फैला हुआ है और इसमें भारत भी शामिल है। पाकिस्तानी अवाम ने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का जोरदार स्वागत किया है। एक पाकिस्तानी ने लिखाöमुझे पाकिस्तान पर गर्व है और यह एक नए पाकिस्तान की शुरुआत है।

Saturday, 29 July 2017

बिहार में सियासी भूकंप के वो तीन घंटे

बिहार में जो राजनीतिक भूकंप आया वह किसी हिन्दी फिल्म से कम नहीं था। महज तीन घंटे में बिहार का राजनीतिक परिदृश्य बदल गया। नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने जा रहे हैं, यह खबर बुधवार साढ़े छह बजे के आसपास से आनी शुरू हो गई थी। जनता दल यूनाइटेड के विधायक दल के नेताओं के साथ बैठक के बाद नीतीश कुमार मीडिया से बात करते दिखे पर इससे पहले उन्होंने सीधा राजभवन का रुख किया। कयासों का दौर लंबा नहीं चल पाया क्योंकि महज आधे घंटे के अंदर मीडिया को नीतीश ने जानकारी दी कि मैंने इस्तीफा दे दिया है। नीतीश कुमार ने अपने इस्तीफे के ऐलान में लालू प्रसाद यादव को निशाने पर लिया। उन्होंने कहा कि धन-सम्पत्ति गलत तरीके से अर्जित करने का कोई मतलब नहीं है। कफन में कोई जेब नहीं होती है। कोई लेकर नहीं जाता है। जाहिर है कि लालू यादव पर जिस तरह से भ्रष्टाचार के मामले चल रहे हैं, आय से ज्यादा सम्पत्ति जमा करने का आरोप लगते रहे हैं, उसे नीतीश ने जोरदार तरीके से जनता के सामने रखा। नीतीश ने इन सबके बीच नरेंद्र मोदी सरकार के समर्थन का मसला, चाहे वो नोटबंदी हो, चाहे राष्ट्रपति चुनाव हो उस पर अपनी रणनीति को भी सही ठहराया। रणनीति की बात करें तो मास्टर स्ट्रोक तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का था। मोदी ने बिहार में जदयू-राजद गठबंधन को समाप्त करने के साथ ही विपक्ष के राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन खड़ा करने की संभावनाओं को भी तगड़ा झटका दिया है। मोदी कई दिनों से नीतीश कुमार के आगे चारा डाल रहे थे। आखिर बुधवार को उनकी कोशिश सफल हुई जब नीतीश ने राजद गठबंधन से बाहर निकलते हुए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफे दे दिया और अगले दिन ही भाजपा के सहयोग से नई सरकार बना ली। नरेंद्र मोदी का कांग्रेसमुक्त भारत और पूरे देश को भगवामय करने का सपना काफी हद तक सफल होते दिख रहा है। इस वक्त पूरे देश में भाजपा और उसके समर्थन से 13 राज्यों में सरकार है। जबकि कांग्रेस महज पांच राज्यों में सिमट कर रह गई है। बिहार में गठबंधन टूटने के बाद कांग्रेस घटकर चार राज्यों में रह जाएगी और भाजपा का आंकड़ा बढ़कर 14 राज्यों में बढ़ जाएगा। राजद प्रमुख लालू यादव का आरोप तो है ही, सियासी जानकारों के मुताबिक बुधवार के घटनाक्रम की पूरी क्रिप्ट तय थी। पूर्व राज्यपाल रामनाथ कोविंद के इस्तीफे के बाद बिहार का अतिरिक्त भार पश्चिम बंगाल के राज्यपाल केसरीनाथ त्रिपाठी के पास है। उन्हें बुधवार को पटना में नहीं रहना था। वे खासतौर पर दोपहर वहां पहुंचे। विधायक दल की बैठक के बाद नीतीश ने जब उन्हें अपना इस्तीफा सौंपा तो उन्होंने तत्काल स्वीकार कर लिया। उन्होंने जदयू विधायकों की बैठक से पहले ही राज्यपाल से समय लिया था। इसके चन्द मिनट बाद पीएम मोदी ने बधाई का ट्वीट कर नीतीश को साथ आने का न्यौता दिया। माना जा रहा है कि नीतीश का कद बढ़ाने के लिए ऐसा किया गया। गठबंधन सरकार में उपमुख्यमंत्री रहे तेजस्वी यादव ने पूरे घटनाक्रम पर सवाल उठाते हुए गुरुवार रात 1.20 पर ट्वीट किया कि राज्यपाल ने हमें सुबह 11 बजे का समय दिया था और अचानक एनडीए को 10 बजे शपथ ग्रहण के लिए कह दिया गया। इतनी जल्दी क्या है श्री ईमानदार और नैतिक जी? तो क्या लालू का आरोप सही है कि नीतीश और भाजपा की साठगांठ पहले से थी? भाजपा नीतीश के साथ किसी डील के तहत महागठबंधन को न केवल बिहार ही में तोड़ना चाहती थी बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन के विस्तार को रोकना भी चाह रही है। नीतीश को मोहरा बना भाजपा ने अपनी रणनीति को सफलता दिला दी। भाजपा-जदयू द्वारा सरकार बनाने से साफ है कि ये सब अचानक नहीं, बल्कि एक पूर्व नियोजित रणनीति के तहत हुआ। राजनीतिज्ञ वही होता है जो आने वाले खतरे की आहट समझ ले। ज्यादा सीट मिलने के बावजूद राजद जदयू के साथ छोटा भाई वाले बर्ताव से आहत था। नीतीश ने सफाई देते हुए कहा कि मौजूदा परिस्थिति में मेरे लिए काम करना मुश्किल था। राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव चाहते थे कि मैं उन्हें संकट से निकालूं, लेकिन यह संकट उनके खुद का लाया गाया था। राजद मंत्री मेरी कोई बात नहीं सुनते थे वह लालू को रिपोर्ट करते थे। उधर  लालू ने नीतीश पर कई आरोप लगाए हैं। नीतीश हत्या के आरोपी हैं, लालू का कहना है। जीरो टालरेंस वाले पर 302 का केस है। 1991 में हत्या का केस लगा। यह नीतीश के चुनाव आयोग में दिए हलफनामे में है। भ्रष्टाचार से बड़ा है अत्याचार केस को स्टे कराया गया है। अब हाई कोर्ट में चल रहा है। इसमें उन्हें उम्रकैद या फांसी की सजा हो सकती है इसीलिए नीतीश ने भाजपा के साथ साठगांठ कर महागठबंधन तोड़ा। ताजा घटनाक्रम के बाद लालू और तेजस्वी यादव का राजनीतिक भविष्य क्या होगा? नीतीश के भाजपा के साथ हाथ मिलाने के बाद लालू के लिए बिहार सहित राष्ट्रीय राजनीति में खुद को प्रासंगिक बनाए रखना आसान नहीं होगा। तमाम भ्रष्टाचार के केसों में घिरने के बाद लालू के सामने अधिक राजनीतिक विकल्प भी नहीं हैं। ऐसे में अब यह तय होगा कि लालू 27 अगस्त की रैली कर पाते हैं या नहीं? इस रैली में उन्होंने तमाम विपक्षी दलों के नेताओं को बुलाया है। फिर इस बात की भी अटकलें लगाई जा रही हैं कि वर्तमान परिस्थिति में कांग्रेस का क्या रुख होता है। राहुल गांधी नीतीश पर बड़ा भरोसा करते थे। मोदी की भाजपा के खिलाफ 2019 की तैयारी में वह विपक्ष की तरफ से नीतीश को प्रमुख भूमिका में रखना चाहते थे। कांग्रेस अभी इस प्रश्न का जवाब नहीं दे रही है कि उसकी भविष्य की क्या रणनीति है? बिहार का यह घटनाक्रम 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले विपक्षी एकता को बड़ा झटका तो है ही, भ्रष्टाचार के खिलाफ महागठबंधन को तोड़कर नीतीश ने अपने राजनीतिक जीवन का एक बड़ा दाव भी खेला है। महागठबंधन से अलग होने के लिए नीतीश ने अंतरात्मा की आवाज और नैतिकता की दलील दी। ऐसा करके उन्होंने उस सहानुभूति को भी पा लिया जिसे लालू अपने बेटे का इस्तीफा दिलाकर हासिल कर सकते थे। यह इसलिए भी उनका राजनीतिक कौशल कहा जाएगा क्योंकि उन्होंने सत्ता भी नहीं गंवाई और राष्ट्रीय फलक पर अपना कद भी बढ़ा लिया। वह खुद को ऐसे नेता के तौर पर पेश करने में भी सफल रहे जो भ्रष्टाचार को लेकर संजीदा नजर आता है। दूसरी तरफ लालू यादव एक बार फिर खुद को सत्ता के गलियारों से बाहर पा रहे हैं। जहां तक बिहार की जनता का सवाल है उसे लगता है कि लालू फैक्टर के हटने से बिहार को स्वच्छ प्रशासन मिलेगा, भ्रष्टाचार और जंगलराज से मुक्ति मिलेगी। याद रहे कि नीतीश ने भाजपा के साथ न केवल कहीं अधिक सहज होकर सरकार ही चलाई बल्कि बिहार को दुर्दशा से बाहर निकालने में भी सफलता पाई थी। हालांकि इस घटनाक्रम से तथाकथित धर्मनिरपेक्ष ताकतें, तमाम विपक्ष असहज होगा पर सच तो यह है कि वह और ज्यादा दिशाहीन एवं दुर्बल दिखने लगा है।

-अनिल नरेन्द्र

RTI discloser : tempering with EVM

With the outcome of elections in 5 states, various political parties began to allege the tempering with Electronic Voting Machine (EVM).with this disclosure  EVM tempering is becoming a big issue. AamAadmi Party have once again raised questions regarding the tempering of the  EVM. AamAadmi Party said on Sunday that now the Election Officer has admitted under the Right to Information that tempering happened in the elections, the vote of the Independent candidate had gone to the BJP. AAP said that now the BJP should admit it was not Modi wave, but the cheating wave. BJP has been winning all the elections with dishonesty by pre-planned setting of EVMs on a large scale and now the Election Commission should go for a high level inquiry setting aside all the pleas. Main spokesperson of AAP Saurabh Bhardwaj said in a tweet on bye-election in Maharashtra that it has been told in the reply to RTI that the votes polled by the Independent candidate had gone to the BJP. The case relates to BuldhanaZilaParishad elections. It has been confirmed by the Returning Officer. Contrary to the claims of the Election Commission, the tempering with EVMs in Maharashtra has been proved. RTI activist Anil Galgali said that EVM tempering has come to be known during the polling in Sultanpur village of Logar during recently held Parishad elections in Buldhana district of Maharashtra. Galgali said that whenever the voters pressed the Coconut button allotted to a candidate, the LED against the Lotus symbol of BJP used to blink. The Election Officer reported this to the District Magistrate, which was disclosed from the information from the RTI. After the complaints to the DM by many Election Officers from the constituency, polling at the polling was cancelled, and the polling booth was closed, the tempered EVM was sealed. Later on there was re-polling after five days on 21stfebruary after cancelling the voting totally. Is the tempering in the EVM really possible? Why have the developed countries of the world not adopted it? It is well known at international level that the EVM is effected with discrepancies and it may be easily tempered with and the rocket science is not needed for it. In the round of advanced technology it has become much more sensitive issue. Europe and North America have already rejected it. Netherlands had banned the EVM referring the lack of transparency. Spending 51 million over its research, Ireland banned it for the sake of transparency. Germany also declared it as unconstitutional referring transparency in it and banning it said that tempering with it is easy. California in the US banned it for lacking paper trail. It will not be used in France and England too. On the other hand It is also true that no political party has so far not been able to produce a solid proof of EVM hacking. The Election Commission has always said that the machine is checked twice. It is checked and sealed before the candidate. Even before the counting the EVM is opened before the candidate. It may be noted that Supreme Court and High Court have earlier dismissed the complaints of tempering. The Election Commission had claimed that these machines are totally secured and there is no possibility of being tempered with. The Supreme Court has refused to give any order regarding the CBI inquiry in this case. Since the RTI has made a new disclosure, a new debate has begun on the EVM. The best option is to give Paper trail with the EVM. The Election Commission should give up its rudeness and manage all the elections with VVPAT in future to bring in transparency.Untamoerproof voting is the essence of democracy.

-          Anil Narendra

Friday, 28 July 2017

मामला सियासी चन्दे का ः इस हमाम में सभी दल नंगे हैं

राजनीतिक दलों को मिलने वाले चन्दे को लेकर पिछले दिनों से चली आ रही बहस के बीच वित्तमंत्री अरुण जेटली का यह कथन हैरान करने वाला है कि राजनीतिक चन्दे को पारदर्शी बनाने के मामले में सियासी दलों के सुझाव आगे नहीं आ रहे हैं। मौजूदा व्यवस्था में अगर राजनीतिक पार्टियां बदलाव नहीं चाहतीं तो इससे हैरानी की बात नहीं। अब तक किसी भी राजनीतिक दल ने इस पर कोई सुझाव नहीं दिया है। वित्तमंत्री ने कहा कि वह जब है जब उसके लिए वह मौखिक और लिखित अनुरोध भी कर चुके हैं। मतलब साफ है कि कोई भी राजनीतिक दल भ्रष्टाचार के इस सबसे बड़े मुद्दे पर परिवर्तन नहीं चाहता यानि चुनावी सुधार को लेकर राजनीतिक दलों की ओर से दिए जाने वाले बयान केवल दिखावे के लिए हैंöहाथी के दांत की तरह। राजनीतिक दल चुनाव लड़ने के लिए और दैनदिन खर्च के लिए व्यावसायिक घरानों से बड़ी मात्रा में चन्दा लेते हैं। 1951 के लोक प्रतिनिधित्व कानून की धारा 29सी के अनुसार इन चन्दों पर शत-प्रतिशत छूट के लिए दलों को 20,000 से ऊपर की राशि को चुनाव आयोग के समक्ष घोषित करना होता है। 303.42 करोड़ के ऐसे चन्दे हैं जिनके दाता या उनके पते को विभिन्न राजनीतिक दलों ने नहीं बताया। 183.915 लाख रुपए चन्दा देने वाले 20 दानदाताओं के पैन, पता आदि का कोई उल्लेख भाजपा ने नहीं दिया है। भाजपा ने केवल दानदाता के नाम और राशि का उल्लेख किया है। 55.88 लाख रुपए कांग्रेस ने नकद प्राप्त किए जबकि 11 ऐसे दानदाताओं का पैन का ब्यौरा नहीं है। कांग्रेस ने चुनाव आयोग के विदित प्रपत्र में चन्दे के ब्यौरे में चेक का विवरण नहीं डाला। 4.49 लाख रुपए आठ दानदाताओं से सीपीआई ने लिए पर ब्यौरा नहीं दिया। सीपीएम ने भी दानदाताओं के पते नहीं दिए और अधूरा विवरण दिया है। सभी राजनीतिक दल चुनाव सुधारों के बारे में बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, लेकिन जब किसी नतीजे-निर्णय पर पहुंचने की बारी आती है तो कन्नी काट जाते हैं। ऐसे मामलों में कमाल की सहमति नजर आती है सभी दलों में। वित्तमंत्री बेशक जितने सुझाव मांगें कोई भी दल इसमें सामने आने वाला नहीं। इस हमाम में सभी नंगे हैं। अगर मोदी सरकार सही मायनों में चुनावी सुधार चाहती है तो उचित यही होगा कि सरकार अपने स्तर पर फैसला ले और आगे बढ़े। अगर इस देश में भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना है तो सबसे ज्यादा जरूरी है चुनावी चन्दों में पारदर्शिता लाना और सही हिसाब-किताब जनता के समक्ष पेश करना।

-अनिल नरेन्द्र

घाटी में टेरर फंडिंग पर एनआईए का शिकंजा

कश्मीर घाटी में आतंकी घटनाओं और विध्वंसक गतिविधियों को अंजाम देने के लिए पाकिस्तान से वित्तीय मदद लेने के मामले में राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने एक ठोस कदम उठाते हुए कुछ हुर्रियत नेताओं को गिरफ्तार करना एक बड़ा कदम बताया है। गिरफ्तार लोगों में हुर्रियत कांफ्रेंस के कट्टरपंथी अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी का दामाद अल्ताफ अहमद शाह उर्फ अल्ताफ फंटूश तथा हुर्रियत के मीरवाइज गुट के प्रवक्ता एजाज अकबर वगैरह शामिल हैं। एनआईए घाटी में हिंसा फैलाने के लिए जारी टेरर फंडिंग को रोकने के लिए सक्रिय है। इसी महीने की पांच तारीख को जम्मू-कश्मीर पुलिस ने अलगाववादी नेता मीरवाइज उमर फारुख की सुरक्षा में कटौती करते हुए उसकी संख्या आधी कर दी थी। अब मीरवाइज की सुरक्षा में पहले से तैनात 16 जवानों की जगह सिर्फ आठ जवान हैं। जून में अलगाववादी नेताओं के श्रीनगर में कई ठिकानों पर छापेमारी हुई थी। इसके अलावा दिल्ली में बल्लीमारान, चांदनी चौक, रोहिणी तथा ग्रेटर कैलाश-2 इलाकों के साथ हरियाणा के सोनीपत स्थित एक कोल्ड स्टोरेज में भी छापेमारी की गई थी। इस छापेमारी में एक करोड़ रुपए नकद, प्रतिबंधित आतंकी संगठन लश्कर--तैयबा के लैटर हैड तथा आपत्तिजनक दस्तावेज बरामद किए गए थे। एजाज के बारे में कहा जाता है कि उसके संबंध हिजबुल मुजाहिद्दीन के सरगना सलाहुद्दीन से हैं। एजेंसी का दावा है कि ये लोग हवाला के जरिये पाकिस्तान के आतंकी संगठनों और कुछ लोगों से हरियाणा, हिमाचल और दिल्ली के कुछ व्यापारियों के माध्यम से पैसे लेते थे। इस पैसे का इस्तेमाल आम कश्मीरियों और खासकर छात्रों को भड़का कर सुरक्षाबलों पर पत्थरबाजी कराना, स्कूलों और सरकारी प्रतिष्ठानों को जलाने और अन्य तरीकों से क्षति पहुंचाने के लिए किया जाता था। 90 के दशक के बाद पहली बार ऐसा हुआ है कि किसी केंद्रीय एजेंसी को अलगाववादियों के वित्त-पोषण के सिलसिले में छापेमारी करनी पड़ी। आतंकी गतिविधियों को बढ़ावा देने के आरोपियों की संलिप्तता का खुलासा पिछले महीने एक निजी चैनल के स्टिंग आपरेशन में हुआ था। पाकिस्तान के शासक शुरू से ही भारत विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए अनेक आतंकवादी और अलगाववादी गिरोहों को लगातार शरण, प्रोत्साहन और आर्थिक सहायता देते आ रहे हैं। एक ओर पाकिस्तान सरकार कश्मीर घाटी में सक्रिय अलगाववादियों और आतंकी समूहों को सहायता देकर यहां रक्तपात और खूनखराबा करवा रही है तो दूसरी ओर पाकिस्तानी सेनाएं भी लगातार युद्धविराम का उल्लंघन कर रही हैं। केवल इसी वर्ष 22 जुलाई तक वह 250 से अधिक बार युद्धविराम उल्लंघन कर चुकी हैं। अलगाववादी नेता मीरवाइज की संस्था अंजुमन--नुसलत उल (इस्लामिया स्कूल) को लेकर लश्कर--तैयबा के मुखौटा संगठन जमात-उद-दावा से धन प्राप्त होने के सबूत मिले हैं। गौरतलब है कि कश्मीर घाटी में करीब एक साल से आतंकी घटनाओं और सुरक्षाबलों पर हमलों में तेजी आई है। इसके अलावा आम नागरिकों को भड़का कर उनसे पत्थरबाजी कराने की घटनाएं तो हफ्तों तक जारी रही हैं। कहा जा रहा है कि कुछ लोग युवाओं, ग्रामीणों और मजदूरों के लिए पैसा मुहैया करवाते हैं। इन गिरफ्तारियों से ऐसे लोगों का नकाब उतरने की उम्मीद बंधी है। इन सबूतों का इस्तेमाल भारत दुनिया को यह बताने के लिए कर सकता है कि कश्मीर घाटी में अशांति का असल कारण क्या है और कौन इसके पीछे है। इससे हाल ही में पाकिस्तान को अमेरिका द्वारा आतंकवाद का पनाहगाह कहने को भी बल मिलता है। अमेरिका ने पाकिस्तान को आतंकवाद को पनाहगाह देशों की सूची में डालते हुए यह आरोप लगाया है कि वह लश्कर और जैश जैसे आतंकी संगठनों को फलने-फूलने का मौका देकर उन्हें विश्व भर में आतंक मचाने में सहायता दे रहा है। उम्मीद है कि गिरफ्तार नेताओं से और कई महत्वपूर्ण जानकारियां मिलेंगी और पूरे खेल का पर्दाफाश होगा।

Thursday, 27 July 2017

12 per cent GST... on essential items like sanitary napkin?

Sanitary napkin is treated as a health product in the developed nations across the world. It has been treated as medical device in the US. US Food and Drug Administration monitors it. It has to undergo various quality tests. While it has been included in the category of miscellaneous items like towels and pencils in our country.  There are about 43 crore women in our country. This sanitary napkin is the most essential item for them, but the government is levying 12 per cent GST placing it in Miscellaneous category. protests across the nation is natural. VanashriVankar, who first of all sent a video to the Prime Minister NarendraModi and Finance Minister ArunJaitley against itsays that even today the women and girls in the rural areas are not habitual of using the sanitary pads. They need free supply of pads if they are to be awakened. As such the levy of 12 per cent is totally wrong. If the government can’t supply it for free, it may atleast provide subsidy for it. GST on sanitary pads should be rolled back. In this regard LalitaKumarmanglam, Chairperson of Nation Commission for Women says that there should be no GST at all on pads manufactured by Self Help Groups. Even though they too are using the cotton but the reduction or concession for the multinationals should be subject to some conditions. They should provide free napkins and also awaken the women in the villages. Besides it the quality of the product should also be checked. Sushmita Deb, an MP from Assam says levying so much GST on sanitary napkins implies discouraging  women about its use. The scheme running under the National Health Scheme should be strengthened. This decision of the government is completely wrong. Union Minister Maneka Gandhi herself also favours such demand of the women. She said that she has written many times to the Finance Minister regarding the sanitary napkin. Not only this, she also supported the campaign against it. Such step of the government has also been challenged in the court by an NGO “She Says”, working under the Shetty Women Organisation. It says that it needs to be placed in the Basic essential items’ list, removing it from the miscellaneous category.  As per this society, about 88% women (about 43.7 crore) can’t use the sanitary pads. They use torn cloths, hay, sand, newspaper and plastic etc. GST on sanitary napkins should be completely pulled back.

-          Anil Narendra

चीनी उत्पादों को भारत से भगाओ

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र पांचजन्य में एक लेख छपा है जिसका शीर्षक है ः `बोल गलत तोल गलत'। इस लेख में चीन को लेकर भारत की विदेश नीति और आर्थिक नीति पर सवाल उठाए गए हैं। साथ ही भारत में अपना माल खपाने के लिए मूल्य से भी कम लागत पर अपना माल खपाने व डंप करने की नीतियों की भी बखियां उखेड़ी गई हैं। चीन के साथ भारत-भूटान सीमा पर हो रही तनातनी, चीन के सरकारी मीडिया द्वारा रोजना दिए जा रहे भड़काउ बयानों के मद्देनजर स्वदेशी जागरण मंच ने चीन को शत्रु देश की सूची में डालने की वकालत की है। साथ ही चीन के साथ पूरी तरह से व्यापार पर प्रतिबंध लगाने को भी कहा है। सेवा भारती में भारत-चीन के द्विपक्षीय संबंधों को लेकर एक संगोष्ठी में स्वदेशी जागरण मंच के राष्ट्रीय सह संयोजक अश्विनी महाजन ने चीन की नीतियों और भारत के साथ उसके संबंधों पर अपनी बात रखी, अश्विनी महाजन का कहना है कि ऐसा नहीं होता है कि कोई हमारे साथ शत्रुतापूर्ण व्यवहार करे और हम उस देश से 42 हजार करोड़ रुपए का माल आयात कर रहे हों। इतनी ही नहीं बल्कि उस देश की कंपनियों को अपने यहां रेल, सड़क, टेलीकॉम समेत तमाम कंपनियों को निर्माण के ठेके भी दे रहे हें। उन्होंने चीन का दौरा करने वाले नीति-निर्माताओं पर भी सवाल उठाए। महाजन ने कहा कि नीति-निर्माता चीन का दौरा करते हुए पलक-पांवड़े बिछाए बैठे हैं जबकि संवेदनशील और सामरिक महत्व के ठिकानों पर चीन की सरकारी कंपनियां काबिज हैं। कई राज्यों के मुख्यमंत्री तो यह भी कहते पाए गए हैं कि चीन से आयात तो नहीं लेकिन निवेश का स्वागत है। चीन द्वारा मसूद अजहर को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आतंकी घोषित करने को लेकर और भारत की परमाणु सप्लायर ग्रुप (एनएसजी) में सदस्यता पर अड़ंगा लगाना, उसकी भारत के खिलाफ शत्रुतापूर्ण सोच, चीन का हर मामले में आंख बंद कर पाकिस्तान का समर्थन करना उसकी यह सोच दर्शाती है। पिछले साल दीपावली के अवसर पर चीनी माल के बहिष्कार के चलते भारतीय बाजारों में चीनी सामान की मांग 50 प्रतिशत तक कम हो गई थी। इस पर चीन के माल का बहिष्कार किया जाना चाहिए। स्वदेशी जागरण मंच ने चीन के उत्पादों के बहिष्कार की मुहिम आम लोगों के साथ दिल्ली के बाजारों को भी जोड़ने की तैयारी की है। जिसके तहत एक से 15 अगस्त तक दिल्ली के बाजारों में विशेष अभियान चलाया जाएगा। दुकानदारों को चीन के उत्पादों से तौबा करने के लिए प्रेरित करते हुए उनसे बहिष्कार का शपथ पत्र भी भरवाया जाएगा। चीन सिर्फ पैसों की मार समझता है। हम स्वदेशी जागरण मंच की मांग से सहमत हैं। भारत से चीनी उत्पादों को भगाओ।

-अनिल नरेन्द्र

आरटीआई से खुलासा ः ईवीएम में गड़बड़ी हुई

5 राज्यों में हुए चुनाव के परिणाम सामने आते ही विभिन्न राजनीतिक दलों की तरफ से इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) में गड़बड़ी के आरोप लगने शुरू हुए। अब ईवीएम मशीन में गड़बड़ी एक बड़ा मुद्दा बनता जा रहा है। आज आम आदमी पार्टी ने ईवीएम को लेकर एक बार फिर सवाल उठाए हैं। आम आदमी पार्टी ने रविवार को कहा कि अब तो  चुनाव अधिकारी ने सूचना के अधिकार के तहत मान लिया है कि चुनाव में गड़बड़ी हुई थी, निर्दलीय उम्मीदवार का वोट भाजपा को गया। आप ने कहा कि भाजपा को अब यह मान लेना चाहिए कि यह मोदी लहर नहीं, बेइमानी की लहर थी। भाजपा ईवीएम में बड़े स्तर पर पूर्व नियोजित सेटिंग कर सभी चुनावों को बेइमानी से जीतती आई है और अब चुनाव आयोग को सभी दलीलें किनारे कर उच्च स्तरीय जांच करनी चाहिए। आप के मुख्य प्रवक्ता सौरभ भारद्वाज ने महाराष्ट्र में हुए उपचुनाव को लेकर ट्वीट कर कहा कि आरटीआई के जवाब में कहा गया है कि निर्दलीय उम्मीदवार को मिले वोट भाजपा को चले गए। यह मामला बुलढाणा जिला चुनाव परिषद का है। रिटर्निंग आफिसर ने इस मामले की पुष्टि की है। चुनाव आयोग के दावों के विपरीत महाराष्ट्र में ईवीएम से छेड़छाड़ की बात साबित हुई है। सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी से यह खुलासा हुआ है। आरटीआई कार्यकर्ता अनिल गलगली ने बताया कि महाराष्ट्र के बुलढाणा जिले में हाल ही में हुए परिषदीय चुनाव के दौरान लोगार के सुल्तानपुर गांव में मतदान के दौरान ईवीएम से छेड़छाड़ की बात सामने आई है। गलगली ने कहा, मतदाता जब भी एक प्रत्याशी को आवंटित चुनाव चिन्ह नारियल का बटन दबाते तो बीजेपी के चुनाव चिन्ह कमल के सामने वाला एलईडी जल उठता। निर्वाचन अधिकारी ने इसकी जानकारी जिलाधिकारी को दी, जिसका खुलासा आरटीआई से मिली जानकारी से हुआ। निर्वाचन क्षेत्र से कई निर्वाचन अधिकारियों द्वारा जिलाधिकारी के पास शिकायत करने के बाद उस मतदान केंद्र पर मतदान रद्द कर दिया गया, मतदान केंद्र को बंद कर दिया गया, गड़बड़ ईवीएम मशीन को सील कर दिया गया। बाद में मतदान पूरी तरह रद्द कर पांच दिन बाद 21 फरवरी को पुनर्मतदान करवाया गया। क्या वाकई में ईवीएम मशीन में गड़बड़ संभव है? क्यों दुनिया के विकसित देशों ने इस तकनीक को नहीं अपनाया है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ये सर्वविदित है की ईवीएम विसंगतियों से ग्रस्त है और इसके साथ आसानी से छेड़छाड़ की जा सकती है और इसके लिए रॉकेट साइंस की जरूरत नहीं है। उन्नत टेक्नोलॉजी के दौर में तो ये और भी संवेदनशील मुद्दा बन गया है। यूरोप और उत्तरी अमेरिका इससे पहले ही तौबा कर चुके हैं। नीदरलैंड ने ईवीएम मशीन से पारदर्शिता की कमी का हवाला देते हुए पाबंदी लगा दी थी। आयरलैंड ने 51 मिलियन इसके अनुसंधान पर खर्च करने के बाद पारदर्शिता का हवाला देते हुए पाबंदी लगा दी। जर्मनी ने भी इसमें पारदर्शिता न होने का हवाला देकर इसको असंवैधानिक करार दिया और पाबंदी के साथ यह भी कहा कि इसके साथ छेड़छाड़ करना आसान है। अमेरिका के कैलीफोर्निया ने इसमें पेपरट्रेल न होने की वजह से बैन कर दिया। फ्रांस व इंग्लैंड में भी इसका प्रयोग नहीं किया जाएगा। वहीं यह भी सच है कि आज तक भारत में कोई भी राजनीतिक दल ईवीएम की हैकिंग का पुख्ता सुबूत नहीं दे पाया है। चुनाव आयोग का हमेशा से यह स्टैंड रहा है कि मशीन को दो बार चैक किया जाता है। उसे उम्मीदवार के सामने जांचा और सील किया जाता है। काउंटिंग से पहले भी ई&वीएम को उम्मीदवार के सामने खोला जाता है। बता दें कि इससे पहले  भी छेड़छाड़ की शिकायतों को सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट खारिज कर चुकी है। चुनाव आयोग ने दावा किया था कि ये मशीनें पूरी तरह सुरक्षित हैं और इसमें किसी भी तरह की गड़बड़ी किए जाने की गुंजाइश नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में सीबीआई जांच की मांग को लेकर फिलहाल कोई आदेश देने से इंकार कर दिया है। चूंकि अब आरटीआई ने नया खुलासा किया  है इसलिए ईवीएम पर नई बहस शुरू हो गई है। सबसे बेहतर विकल्प है ईवीएम में पेपर ट्रेल देने का। चुनाव आयोग को अपनी हठ छोड़नी चाहिए और पारदर्शिता लाने के लिए वीवीपेट के साथ भविष्य में सभी चुनाव करवाने चाहिए।

Wednesday, 26 July 2017

सैनेटरी नैपकिन जैसी जरूरी चीज पर 12… जीएसटी?

दुनियाभर के विकसित देशों में सैनेटरी पैड को हेल्थ प्रॉडक्ट माना जाता है। अमेरिका में तो इसे मेडिकल डिवाइस माना गया है। यूएस फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन इस पर निगरानी रखता है। इसे कई क्वालिटी टेस्ट पास करने पड़ते हैं। जबकि भारत में इसे तौलिये और पेन्सिल की तरह मिसलेनियस आइटम की श्रेणी में रखा गया है। हमारे देश में करीब 43 करोड़ महिलाएं हैं। यह सैनेटरी नैपकिन उनके लिए सबसे जरूरी चीज है, लेकिन सरकार इसे मिसलेनियस (विविध) की श्रेणी में रखकर 12… जीएसटी लगा रही है। इसका देशभर में विरोध होना स्वाभाविक ही है। सबसे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वित्तमंत्री अरुण जेटली को इसके विरोध में वीडियो भेजने वाली वनश्री वनकर का कहना है कि आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं और लड़कियों में सैनेटरी पैड इस्तेमाल करने की आदत नहीं है। ऐसे में उन्हें जागरूक करना है तो फ्री में पैड उपलब्ध कराना होगा। ऐसे में 12… टैक्स देना तो पूरी तरह गलत है। अगर सरकार फ्री नहीं दे सकती तो कम से कम इस पर सब्सिडी तो दे सकती है। सैनेटरी पैड पर जीएसटी वापस करना चाहिए। इस मामले में राष्ट्रीय महिला आयोग की चेयरमैन ललित कुमार मंगलम कहती हैं कि सेल्फ हैल्प गुप्स के बनाए पैड पर जीएसटी बिल्कुल भी नहीं होना चाहिए। वे यूं भी कॉटन का ही इस्तेमाल कर रहे हैं, लेकिन मल्टीनेशनल कंपनियों के लिए कमी या छूट कुछ शर्तों के साथ ही होनी चाहिए। वह गांवों में मुफ्त नैपकिन उपलब्ध कराएं और महिलाओं को जागरूक भी करें। इसके साथ ही प्रॉडक्ट की क्वालिटी भी चैक होना चाहिए। असम से सांसद सुष्मिता देव कहती हैं कि सैनेटरी नैपकिन पर इतना ज्यादा जीएसटी लगाने का अर्थ है कि महिलाओं को इसका इस्तेमाल करने के प्रति हतोत्साहित करना। नेशनल हैल्थ मिशन के तहत चल रही स्कीम को मजबूत किया जाना चाहिए। सरकार का यह फैसला बिल्कुल गलत है। महिलाओं की इस मांग से खुद केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी भी इत्तेफाक रखती हैं। उन्होंने कहा कि हमने सैनेटरी नैपकिन को लेकर वित्तमंत्री को कई बार लिखा है। यही नहीं, इसके खिलाफ चल रहे कैंपेन का भी समर्थन किया। सरकार के इस कदम को शेट्टी वुमन आर्गेनाइजेशन के तहत काम करने वाले एनजीओ `शी सेज' ने कोर्ट में भी चुनौती दी है। उसका कहना है कि उसे मिसलेनियस की कैटेगरी से निकालकर बेसिक जरूरतों वाली लिस्ट में रखने की जरूरत है। इसकी अगली सुनवाई 24 जुलाई को होने वाली है। इस संस्था के अनुसार देश की 49.7 करोड़ महिलाओं में से करीब 88… महिलाएं (करीब 43.7 करोड़) सैनेटरी पैड का इस्तेमाल नहीं कर पाती हैं। वे इसकी जगह फटे-पुराने कपड़ों, फूस, रेत, अखबार तथा प्लास्टिक आदि का इस्तेमाल करती हैं। सैनेटरी नैपकिन से जीएसटी पूरी तरह हटना चाहिए।

-अनिल नरेन्द्र

क्लाइमैक्स की ओर बढ़ती बिहार की पटकथा का अंतिम अध्याय

बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद यादव के परिजनों के घरों पर सीबीआई के छापे से आई अनिश्चितता थमने का नाम नहीं ले रही। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार विरोधाभासी संकेत दे रहे हैं। कभी कहते हैं कि महागठबंधन कायम रखने के लिए आरोपों से घिरे लालू यादव के बेटे और उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव का इस्तीफा जरूरी है तो इस सियासी संकट को सुलझाने के लिए कभी कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी से मिल रहे हैं तो कभी उनके सिपहसालार बयानबाजी कर रहे हैं और पोस्टर वार शुरू कर रहे हैं। पटना में राजद और जदयू के बीच छिड़ी तकरार अब पोस्टर वार में बदल गई है। राजधानी के आयकर गोलंबर और विधानसभा के निकट लगाए गए पोस्टरों पर जदयू प्रवक्ताओं पर भाजपा के इशारे पर काम करने का आरोप लगाया गया है। पोस्टर के नीचे लिखा है कि नीतीश जी के मना करने के बाद भी यह लोग बाज नहीं आ रहे हैं। यह सब सुशील मोदी के इशारे पर हो रहा है। इस मामले में संजय सिंह ने कहा कि होर्डिंग्स लगाने से कोई सच को दबा नहीं सकता है। जदयू सच को सामने लाने के लिए आवाज उठाता रहेगा। सच के लिए हमें सौ बार भी गर्दन कटानी पड़े तो हम कुर्बानी देने से पीछे नहीं हटेंगे। मैं अपनी पार्टी का प्रवक्ता हूं, सच बोलता रहूंगा। इधर नई दिल्ली में जब नीतीश कुमार राहुल गांधी से मिले तो दोनों के बीच कोई तीसरा नहीं था। मतलब साफ था कि नीतीश और राहुल आपस में तमाम मुद्दों पर खुलकर बात करना चाहते थे। सूत्रों के अनुसार नीतीश ने राहुल से साफ कहा कि वह गठबंधन के साथ रहना चाहते हैं और 2019 में विपक्षी एकता को मजबूत रखना चाहते हैं। लेकिन उन्होंने राहुल को समझाने की कोशिश की कि इन कोशिशों के बीच मोदी के मुकाबले की धारणा पर भी कमजोर होने की जरूरत नहीं है। सूत्रों के अनुसार राहुल और नीतीश के बीच यह आम राय बनी कि भले ही तेजस्वी इस्तीफा देने की हड़बड़ी न दिखाएं लेकिन उन पर लगे आरोपों का वह बिन्दुवार जवाब दें और ऐलान कर दें कि अगर उनके खिलाफ सबूत सामने आते हैं या चार्जशीट होती है तो वे खुद पद छोड़ देंगे। लेकिन अब लालू प्रसाद और तेजस्वी से बात करने की जिम्मेदारी कांग्रेस की होगी। नीतीश बुरे फंसे हैं। उनकी मुश्किल यह है कि अगर वह तेजस्वी और तेज प्रताप को मंत्रिमंडल से बाहर करते हैं तो उनका मुख्य सहयोगी राष्ट्रीय जनता दल उनसे अलग हो सकता है। इस तरह न सिर्फ उनकी सरकार अल्पमत में आ जाएगी, बल्कि जिन सिद्धांतों पर उन्होंने राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के साथ मिलकर गठबंधन बनाया था और भाजपा को सत्ता से बाहर रखने में कामयाबी हासिल की थी, वह कहीं हाशिये पर न चली जाए। राजद के 80 विधायक नीतीश के साथ हैं। हालांकि सुशील मोदी बहुत पहले ऐलान कर चुके हैं कि नीतीश कुमार पर संकट नहीं आने देंगे। सरकार चलाने में उनकी मदद करेंगे। इशारा साफ है कि उन्हें भाजपा के साथ मिलकर सरकार चलानी होगी। भाजपा ने यह भी साफ-साफ चेतावनी दी है कि अगर नीतीश ने तेजस्वी और तेज प्रताप का इस्तीफा नहीं लिया तो वह आगामी विधानसभा की कार्यवाही नहीं चलने देंगे। अगर तेजस्वी यादव अपनी बेगुनाही के सबूत को सार्वजनिक नहीं कर पाए तो 28 जुलाई से हफ्तेभर चलने वाले विधानसभा के मानसून सत्र में पक्ष-प्रतिपक्ष की अग्नि-परीक्षा तय है। लालू परिवार पर संकट के बाद बिहार के सियासी हालात बता रहे हैं कि सदन के अंदर और बाहर महासंग्राम की पटकथा अंतिम अध्याय तक पहुंच चुकी है। तेजस्वी के पास खुद को बेगुनाह साबित करने के लिए वक्त काफी कम है।

Tuesday, 25 July 2017

टेलीकॉम सेक्टर में घमासान तय है

बीते साल सितम्बर में मुफ्त कॉलिंग और डाटा की सुविधा देकर 12.5 करोड़ ग्राहकों का विशाल परिवार बनाने के बाद अब रिलायंस जियो ने हैंडसेट के बाजार को भी अपनी जेब में करने के लिए इंटेलिजेंस स्मार्ट फोन लांच करने की घोषणा की है वह भी ग्राहकों को मुफ्त मिलेगा और कॉलिंग भी फ्री होगी। 15 अगस्त से यह फोन प्रशिक्षण के लिए उपलब्ध होगा। 24 अगस्त से बुकिंग शुरू होगी। `पहले आओ-पहले पाओ' के आधार पर सितम्बर में डिलीवरी होगी। 50 लाख लोगों तक फोन पहुंचाने का लक्ष्य हर हफ्ते रखा गया है। स्कीम के तहत अनलिमिटेड डाटा मिलेगा और जियो अनलिमिटेड धन धना धन प्लान सिर्फ 153 रुपए में उपलब्ध होगा। शुक्रवार को मुफ्त में 4जी मोबाइल फोन के ऐलान के साथ ही जिस तरह के एयरटेल और वोडाफोन जैसी बड़ी मोबाइल सेवा प्रदाता कंपनियों के शेयर गिरे हैं, उससे भविष्य में इस सेक्टर में मचने वाली उथल-पुथल की झलक साफ मिल रही है। सिर्फ मोबाइल सेवा देने वाली कंपनियां ही नहीं, बल्कि केबल टीवी के क्षेत्र में सक्रिय टाटा स्काई, डिश और अन्य टीवी जैसे खिलाड़ियों के भी शेयर गिरे हैं क्योंकि रिलायंस जिओ अपने फीचर फोन के साथ एक केबल भी दे रहा है जिससे टीवी से जोड़कर वीडियो प्रोग्रामिंग का मजा भी लिया जा सकता है। इससे पहले एयरटेल और वोडाफोन ने जियो के खिलाफ ट्राई में शिकायत दर्ज कराई, लेकिन रिलायंस अपनी राह चलती रही क्योंकि एक तो उसे ग्राहकों का समर्थन हासिल था और दूसरा उसे सरकार द्वारा संरक्षण मिलने का भरोसा। नतीजा यह हुआ कि बाकी कंपनियों को भी अपनी कॉल व डाटा दरों में संशोधन करना पड़ा। भारत के संचार बाजार के बारे में यह माना जाता है कि इसमें आगे विस्तार की संभावना काफी सीमित हो चुकी है। देश में इस समय एक अरब से ज्यादा मोबाइल फोन कनैक्शन हैं यानि औसतन हर वयस्क के पास एक मोबाइल फोन है। रिलायंस जियो का असली लक्ष्य फिक्सड लाइन सर्विस है। मुकेश अंबानी ने शेयरधारकों के सवाल का जवाब देते हुए कहाöअब घर और उद्यम, दोनों को फिक्सड लाइन कनेक्टिविटी देने की योजना है। जहां एयरटेल, वोडाफोन व अन्य सर्विस प्रोवाइडर के लिए आगे का समय बहुत चुनौतीपूर्ण हो गया है वहीं रिलायंस ने लगता है तय कर लिया है कि वह इन कंपनियों को तबाह करके छोड़ेगी। रहा सवाल ग्राहकों का तो उनके दोनों हाथों में लड्डू होंगे। मोबाइल और इंटरसेट सेवाएं सस्ती होंगी। बाजार में इस नई स्पर्द्धा से संचार क्षेत्र का यह संकट और गहरा सकता है। कुछ कंपनियों का तो भविष्य ही दाव पर लग गया है।

-अनिल नरेन्द्र

राइट टू प्राइवेसी संविधान के तहत मूल अधिकार है?

निजता मौलिक अधिकार है या नहीं, इस महत्वपूर्ण सवाल का जवाब हमें जल्द मिल जाएगा। देश के सुप्रीम कोर्ट का ध्यान इस ओर गया, जब मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जगदीश सिंह खेहर की अध्यक्षता वाली खंडपीठ इस मुद्दे पर सुनवाई कर रही थी। अब सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों की संविधान बेंच तय करेगी कि राइट टू प्राइवेसी संविधान के तहत मूल अधिकार है या नहीं? सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने इस मामले को नौ जजों की बेंच को रेफर कर दिया। अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने कहा कि खटग सिंह और एमपी शर्मा से संबंधित मामले में सुप्रीम कोर्ट की दो बेंच ने कहा हुआ है कि राइट टू प्राइवेसी मौलिक अधिकार नहीं है। 1950 में आठ जजों की संविधान बेंच ने एमपी शर्मा से संबंधित केस में कहा था कि राइट टू प्राइवेसी मौलिक अधिकार नहीं है। वहीं 1961 में खटग सिंह से संबंधित केस में सुप्रीम कोर्ट की छह जजों की बेंच ने भी राइट टू प्राइवेसी को मौलिक अधिकार के दायरे में नहीं माना। सारा मामला आधार कार्ड को लेकर शुरू हुआ। आधार के लिए जाने वाला डेटा राइट टू प्राइवेसी का उल्लंघन करता है या नहीं, इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान बेंच के सामने यह सवाल आया कि क्या राइट टू प्राइवेसी मूल अधिकार है या नहीं? गौरतलब है कि 23 जुलाई 2015 को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि राइट टू प्राइवेसी संविधान के तहत मूल अधिकार नहीं है, केंद्र सरकार की ओर से पेश तत्कालीन अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने दलील दी थी कि संविधान में पब्लिक के लिए राइट टू प्राइवेसी का प्रावधान नहीं है। उन्होंने कहा कि राइट टू प्राइवेसी से संबंधित कानून अस्पष्ट है। सुप्रीम कोर्ट में इस मुद्दे पर सुनवाई के दौरान याचियों के वकीलों ने दूसरी ओर जोरदार दलीलें पेश कीं। याचियों की ओर से पेश चारों वकीलों का कहना था कि संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों में ही निजता का अधिकार निहित है। अगर निजता को मौलिक अधिकार करार नहीं दिया गया तो बाकी मौलिक अधिकार बेमतलब हो जाएंगे। जीने और स्वतंत्रता के अधिकार प्राकृतिक अधिकारों की श्रेणी में आते हैं और किसी संवैधानिक व्यवस्था के कायम होने के पहले से अस्तित्व में है। संविधान प्रदत्त सभी मौलिक अधिकारों के सन्दर्भ में निजता के अधिकार के बिना जीने के अधिकार का अनुभव नहीं किया जा सकता है। याचियों की ओर से पेश गोपाल सुब्रह्मण्यम ने कहा कि निजता सिर्फ बैडरूम तक सीमित नहीं है बल्कि यह व्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार में अंतर्निहित है। स्वाधीनता के अधिकार का मतलब निजी पसंद है और इसके लिए निजता का अधिकार जरूरी है। सोली सोराबजी के अनुसार संविधान में प्रेस की आजादी का भी जिक्र नहीं है। यह तर्क के द्वारा निकाला गया है। निजता के अधिकार की भी वही स्थिति है। यह अंतर्निहित है। श्याम दीवान की दलील थी कि निजता में शारीरिक अखंडता भी शामिल है। सिर्फ निरंकुश शासन में ही नागरिक का शरीर उनका अपना नहीं रहता। भारत सरकार की ओर से आधार कार्ड को अनिवार्य किए जाने के बाद तमाम लोगों ने शीर्ष अदालत में याचिकाएं दाखिल की थीं। याचिकाओं में कहा गया है कि आधार के लिए बायोमैट्रिक पहचान एकत्र किया जाना और सभी चीजों को आधार से जोड़ना नागरिक की निजता के मौलिक अधिकार का हनन है। सुनवाई के दौरान अदालत ने भी माना कि इस मामले में सबसे पहले यह तय होना चाहिए कि संविधान में निजता को मौलिक अधिकार माना गया है या नहीं? मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणी थी, पहले इसे तय करने की जरूरत है। नहीं तो हम आगे नहीं बढ़ पाएंगे। संविधान बनने के समय राज्य की संस्था इतनी ताकतवर नहीं थी जितनी आज हो गई है, बल्कि आज राज्य से भी आगे बढ़कर बाजार की (मीडिया जैसी) संस्थाएं भी बहुत ताकतवर हो गई हैं। राज्य और बाजार से इतर तमाम संस्थाएं ऐसी हैं जो इन दोनों के इशारों पर काम करती हैं और वे व्यक्ति के निजी जीवन में झांकने और हस्तक्षेप करने की भरपूर शक्ति रखती हैं। इसलिए निजता की रक्षा सिर्फ आधार पर नहीं हो सकती कि भारतीय दंड संहिता और संविधान में तमाम अधिकार दिए गए हैं। हालांकि संविधान निर्माताओं ने निजता को मौलिक अधिकार नहीं माना था तब शायद उन्हें यह आभास नहीं था कि एक दिन राज्य इतना ताकतवर हो जाएगा और व्यक्ति इतना कमजोर। हालांकि महात्मा गांधी राज्य को कमजोर करने और नागरिक को ताकतवर बनाने के पक्षधर थे। महात्मा गांधी समझते थे कि राज्य विकसित होंगे तो हिंसा बहुत कम होगी। लेकिन आज हिंसा से न सिर्फ राज्य की संस्थाएं ही असुरक्षित हैं बल्कि नागरिक भी बेहद असुरक्षित हैं। राज्य ने इसी असुरक्षा को घटाने और सामाजिक न्याय प्रदान करने के लिए अपने पास असीमित अधिकार ले रखे हैं। यह बहस चलनी चाहिए कि सामाजिक सुरक्षा सामाजिक न्याय देने से बढ़ेगी या कड़े कानून बनने से। प्रधान न्यायाधीश जेएस खेहर की अध्यक्षता वाली नौ न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने कहाöनिजता का अधिकार अस्पष्ट तौर पर परिभाषित अधिकार है और यह पूरी तरह नहीं मिल सकता। यह स्वतंत्रता का एक छोटा-सा हिस्सा है। पीठ ने उदाहरण देकर समझाया कि बच्चे को जन्म देना निजता के अधिकार के दायरे में आ सकता है और माता-पिता यह नहीं कह सकते कि सरकार के पास यह अधिकार नहीं है कि वह हर बच्चे को स्कूल भेजने का निर्देश दे।

Sunday, 23 July 2017

आतंकियों की सुरक्षित पनाहगाह पाकिस्तान

आतंकवाद के मुद्दे पर पाकिस्तान को घेरने की भारत की मुहिम को बुधवार को बड़ी सफलता मिली। अमेरिका ने आखिरकार पाकिस्तान को आतंकवाद का संरक्षक देश घोषित कर ही दिया। अमेरिकी विदेश मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्टö`कंट्री रिपोर्ट ऑन टेरेरिज्म' में कहा गया है कि लश्कर--तैयबा, जैश--मोहम्मद जैसे आतंकी संगठन पाकिस्तान से अपनी गतिविधियां चला रहे हैं। यह संगठन वहां आतंकवादियों को प्रशिक्षण देते हैं, हमले संचालित कराते हैं और खुलेआम चन्दा जुटाते हैं। यही आरोप भारत बार-बार लगाता रहा है और अब अमेरिका ने इनकी पुष्टि कर दी है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में लगातार आतंकी हमले हो रहे हैं। इनमें पाक स्थित आतंकी संगठनों और नक्सलियों द्वारा किए जाने वाले हमले शामिल हैं। भारत जम्मू-कश्मीर में होने वाले आतंकी हमलों के लिए पाकिस्तान को जिम्मेदार बताता रहा है। जनवरी में भारत के पठानकोट स्थित सैन्य ठिकाने पर आतंकी हमला हुआ था। भारत ने इसका आरोप जैश--मोहम्मद पर लगाया। 2016 में भारत सरकार ने अमेरिका के साथ आतंकवाद रोधी सहयोग को गहरा बनाने और सूचनाएं साझा करने का प्रयास किया है। भारत सरकार आईएसआईएस जैसे आतंकी संगठन और भारतीय उपमहाद्वीप में अलकायदा के खतरे पर भी करीबी नजर रख रही है। यह संगठन अपने आतंकी प्रोपेगंडा के जरिये भारत को धमकी देते रहे हैं। भारत में आईएसआईएस से जुड़े और हमले की साजिश रचने के आरोप में कई गिरफ्तारियां भी हुई हैं। मुंबई आतंकी हमले का मास्टर माइंड और संयुक्त राष्ट्र द्वारा आतंकी घोषित हाफिज सईद पाक में अब भी रैलियां कर रहा है। जबकि फरवरी 2017 में पाकिस्तान ने आतंकवाद निरोधक कानून के तहत उसे प्रतिबंधित कर रखा है। अमेरिका द्वारा आतंक के पनाहगाह देशों की सूची में शामिल होने वाला पाक 13वां देश है। इस सूची में अफगानिस्तान, सोमालियाद ट्रांस सहारा, सुल-सुलवेसी सीस लिटाराल, दक्षिण फिलीपींस, मिस्र, इराक, लेबनान, लीबिया, यमन, कोलंबिया और वेनेजुएला शामिल हैं। हालांकि अमेरिकी कदम से पाकिस्तान पर आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई का दबाव जरूर बढ़ेगा। लेकिन इससे पाक पूरी तरह आतंकवाद पर नकेल कस देगा, इसमें संदेह है। दरअसल अमेरिकी कांग्रेस पाकिस्तान को आतंकवादी देश घोषित करने के पक्ष में थी, लेकिन ट्रंप सरकार ने दो कदम आगे और एक कदम पीछे का कूटनीतिक संकेत दिया है। अब यह देखना होगा कि पाक अमेरिका के दबाव में कितना आता है। पाक को आतंक की पनाहगाह घोषित करके अमेरिका ने राजनयिक व कूटनीतिक रिश्तों का रास्ता खोले रखा है ताकि तालिबान और हक्कानी नेटवर्क पर कार्रवाई की गुंजाइश बनी रहे। देखना होगा कि पाक अब लश्कर व जैश पर कितनी विश्वसनीय कार्रवाई करता है?

-अनिल नरेन्द्र

Saturday, 22 July 2017

रायसीना हिल पर राम

बेशक भाजपा के रामनाथ कोविंद देश के चौदहवें राष्ट्रपति चुन लिए गए हैं और उनकी जीत निश्चित भी थी पर उन्हें सिर्फ 65.65 प्रतिशत वोट ही मिले। यह 44 साल में किसी राष्ट्रपति को मिला सबसे कम वोट शेयर भी है। इससे पहले 1974 में कांग्रेस के फखरुद्दीन अहमद को 56.23 प्रतिशत वोट मिले थे। कोविंद 25 जुलाई को राष्ट्रपति पद की शपथ लेंगे। उनको जीत भले ही कम वोट से मिली हो पर वेंकैया नायडू के उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार चुन लिए जाने के बाद भाजपा को पहली बार अपना राष्ट्रपति मिला है और भाजपा 33 साल पहले कांग्रेस जितनी मजबूत हो जाएगी। यह पहला मौका होगा जब राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति भाजपा के होंगे। लोकसभा में बहुमत भी है और 17 राज्यों में उसकी सरकार भी है। 1984 में 404 सीटें जीतकर राजीव गांधी ने कांग्रेस की सरकार बनाई थी। तब 17 राज्यों में कांग्रेस की सरकार थी। राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह और उपराष्ट्रपति वेंकटरमण भी कांग्रेसी थे। रामनाथ कोविंद उत्तर प्रदेश मूल के पहले राष्ट्रपति हैं। इसके पहले देश में 13 राष्ट्रपति हुए। इनमें तीसरे राष्ट्रपति जाकिर हुसैन जरूर उत्तर प्रदेश के थे लेकिन मूल रूप से वह आंध्रप्रदेश के हैदराबाद में एक बड़े जमींदार परिवार में जन्मे थे। अखबार पढ़ने वालों या टीवी देखने वालों के लिए भले ही रामनाथ कोविंद का नाम ज्यादा परिचित न रहा हो, पर भाजपा के विश्वासपात्र को खबरों में रहना पसंद नहीं और वह लो-प्रोफाइल व्यक्ति रहे हैं। उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात के फारुख गांव स्थित उनके पैतृक आवास में जश्न का माहौल होना स्वाभाविक है। कोविंद 71 वर्षीय राष्ट्रपति निर्वाचित होने वाले भाजपा के प्रथम सदस्य और दूसरे दलित नेता हैं। यूपी के दलित समुदाय से आने वाले रामनाथ कोविंद को देश के सर्वोच्च पद पर पहुंचाकर भाजपा ने 2019 के आम चुनाव के लिए सामाजिक समीकरणों की जमीन भी तैयार करने का प्रयास किया है। नवनिर्वाचित राष्ट्रपति कोविंद अब भले ही भाजपा के सक्रिय नेता न रहे हों, लेकिन वह परोक्ष रूप से भाजपा के सबसे बड़े दलित चेहरा बन गए हैं। भाजपा की चुनावी रणनीति में दलित व पिछड़ा समीकरण सबसे ऊपर है। दोनों सर्वोच्च पदों पर दलित व पिछड़े वर्ग के नेता उनकी नई पहचान बनते जा रहे हैं। रामनाथ कोविंद के लिए बेशक यह जीत आसान थी पर आगे की चुनौतियां निश्चित तौर पर उतनी आसान नहीं होंगी। सबसे बड़ी चुनौती तो यही है कि उन्हें राजनीति के मंजे हुए विद्वान नेता प्रणब मुखर्जी की जगह लेनी है। पांच साल के पूरे कार्यकाल में ऐसा मौका शायद नहीं ही आया, जब प्रणब मुखर्जी के किसी फैसले पर अंगुली उठाने का मौका मिला हो, जबकि वह एक ऐसे दौर में राष्ट्रपति रहे, जब देश में एक बहुत बड़ा सत्ता परिवर्तन हुआ। इस पूरे दौर में उन्होंने न सिर्फ एक आदर्श राष्ट्रपति की छवि पेश की बल्कि जहां जरूरत पड़ी, सरकार को चेताने का काम भी किया। लेकिन रामनाथ कोविंद का पूरा राजनीतिक सफर जिस तरह से निर्विवाद रहा है, उसे देखते हुए इसमें कोई संदेह नहीं कि वह इन चुनौतियों पर खरे उतरेंगे और चुनौतियां कोविंद के लिए भी कम नहीं होंगी। सबसे अहम मुद्दा जो निकट भविष्य में सामने आएगा वह है अयोध्या में राम मंदिर का मुद्दा। मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में है। अदालत कह चुकी है कि दोनों पक्षों को कोर्ट से बाहर समझौता कर लेना चाहिए। हालांकि फिलहाल तो इसकी कोई संभावना नजर नहीं आ रही। अयोध्या विवाद में सुप्रीम कोर्ट ने अगर भाजपा की उम्मीदों के पलट कोई फैसला दिया तो सरकार उसके अनुसार कोई संवैधानिक कदम उठा सकती है। ऐसे में राष्ट्रपति भवन बड़ा सहारा होगा। भाजपा धर्म के आधार पर सिविल कोड का शुरू से ही विरोध करती आ रही है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान ट्रिपल तलाक बड़ा मुद्दा बना था। इस मामले में 2019 के चुनाव से पहले कोई बिल लाया जा सकता है। लोकसभा में भाजपा का बहुमत है पर राज्यसभा में 49 वोट कम पड़ेंगे। अगर राज्यसभा में वेंकैया सहयोगी दलों के समर्थन से बिल पास करवाने में सक्षम हुए तो राष्ट्रपति भी कोई अड़चन पैदा नहीं करेंगे। हालांकि राष्ट्रपति चुनाव के मामले में कोई मुद्दा नहीं होता पर इस पद के लिए दोनों उम्मीदवारों का दलित वर्ग से होने से दलितों की उम्मीदें बढ़ गई हैं। पर राष्ट्रपति कोविंद पूरे देश के मुखिया हैं, किसी वर्ग विशेष के नहीं इसलिए उन्हें सिर्फ दलित वर्ग के नेता के रूप में अब नहीं देखा जा सकता। लेकिन फिर भी उनके राष्ट्रपति बनने से एक फर्क तो पड़ेगा ही, देश का दलित वर्ग इसमें अपनी सशक्तिकरण की झलक देखेगा। उसका भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर विश्वास और पुख्ता जरूर होगा। ग्रामीण आंचल से एक गरीब परिवार व दलित वर्ग का व्यक्ति देश के सर्वोच्च पद पर पहुंच जाए यह भारत जैसे मजबूत लोकतंत्र में ही संभव है। उम्मीद की जानी चाहिए कि श्री रामनाथ कोविंद अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह पद की गरिमा और संवैधानिक तकाजों के अनुरूप ही करेंगे। हम श्री कोविंद को भारत के चौदहवें राष्ट्रपति बनने पर हार्दिक बधाई देते हैं।

अब पाक स्कूली बच्चों को निशाना बना रहा है

पाकिस्तानी सेना ने अब सारी हदें पार कर दी हैं। अब वह हमारे बच्चों पर भी निशाना साधने लगे है। सोमवार को एक बार फिर पाक सेना ने पुंछ और राजौरी जिलों में गोलाबारी की, जिसमें एक छह साल की बच्ची साजिदा कफील की जान चली गई और एक भारतीय जवान मुदस्सर अहमद शहीद हो गए। पाक फायरिंग में जिला राजौरी के नौशेरा सब-डिवीजन में एलओसी से सटे दो स्कूलों के 217 बच्चे 10 घंटे तक फंसे रहे। 15 शिक्षक भी स्कूल में ही बंद रहे। पाकिस्तानी सेना ने फिर मंगलवार को भारी गोलाबारी कर स्कूल के बच्चों को निशाना बनाया। डीसी राजौरी
डॉ. शाहिद इकबाल चौधरी के अनुसार भवानी स्कूल में 150 बच्चे व सैर स्कूल में 55 बच्चे करीब 10 घंटे तक पाक गोलाबारी के चलते स्कूल के कमरे में ही बंदी बने रहे। घंटों बाद जब फायरिंग थोड़ी कम हुई तो बच्चों का स्कूलों से निकालना शुरू हुआ। रेस्क्यू टीम ने सभी 217 बच्चों व 15 शिक्षकों को सुरक्षित निकाला। गर्मियों की छुट्टी के बाद सभी बच्चे सीजन में पहली बार स्कूल पहुंचे थे। स्कूल काफी ऊंचाई पर स्थित होने की वजह से छात्रों को सुरक्षित बाहर निकालने का काम काफी मुश्किल हो गया। पाक की अंधाधुंध फायरिंग के दौरान बुलेटप्रूफ वाहनों में छात्रों को स्कूल से बाहर निकाला गया। बच्चों के माता-पिता ने बताया कि जब खबर मिली कि बच्चों के स्कूलों पर मोर्टार शेल पड़ रहे हैं तो सांसें अटक गईं। न बाहर निकलना संभव था और न ही घर बैठना पर बच्चों का हाल जानना जरूरी था। शाम छह बजे बच्चों को अपनी आंखों से सलामत देखा तो उनके मुंह में कुछ डालकर खुद भी खाया। अभिभावकों ने रोष प्रकट करते हुए कहा कि अब हम कब तक यूं ही मौत के साये में जीते रहेंगे? सवाल यह है कि पाकिस्तान इतनी ओछी हरकत आखिर कर क्यों रहा है? उसे मालूम होगा कि वह स्कूलों पर गोलाबारी कर रहा है और इसमें बच्चे मारे जा सकते हैं। क्या पाकिस्तान अब अपनी दुश्मनी नन्हें बच्चों से निकालेगा? उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय सेना उसकी इस गिरी हुई हरकत का माकूल जवाब दे सकती है। पर भारतीय सेना ऐसी ओछी हरकतों पर विश्वास नहीं करती। ऐसी हरकतें करने से पाकिस्तान खुद ही अपने पांव पर कुल्हाड़ी मार रहा है। जब सारी दुनिया को पता चलेगा कि जानबूझ कर, सोची-समझी रणनीति के तहत पाकिस्तानी सेना स्कूली बच्चों को निशाना बना रही है तो उसकी पहले से गिरती छवि को और बट्टा लगेगा। पाकिस्तानी सेना में अगर थोड़ी-सी भी इंसानियत बची है तो बच्चों को निशाना न बनाए। लड़ना है तो उनसे लड़े जो माकूल जवाब देने में सक्षम हैं।


-अनिल नरेन्द्र

खोई जमीन पाने के लिए बहन जी का सियासी दांव

मायावती ने जिस तरह से राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा दिया उससे तो यही लगता है कि वह ऐसा करने का मन बनाकर आई थीं। हमें यह समझ अब तक नहीं आया कि बहन जी ने उपसभापति (कांग्रेसी) कुरियन से नाराज होकर इस्तीफा दिया है या मोदी सरकार से खफा होकर? मैं उस समय राज्यसभा की कार्रवाई इत्तेफाक से देख रहा था, जब मायावती उत्तर प्रदेश के दलितों के कथित उत्पीड़न का मुद्दा उठा रही थीं। उन्हें बोलने से उपसभापति पीजे कुरियन जो कांग्रेस के सदस्य हैं, रोकने का प्रयास कर रहे थे। उन्होंने यह भी कहा कि आपने अपनी बात रख दी है, भाषण देने का समय नहीं है। शरद यादव ने भी उनसे विनती की थी कि मायावती को बोलने दिया जाए, लेकिन उपसभापति महोदय ने इसकी इजाजत नहीं दी। फिर मायावती नाराज होकर सदन से चली गईं। मायावती को स्पष्ट करना चाहिए कि उनकी नाराजगी की असली वजह भाजपा की मोदी सरकार है या कांग्रेस के सांसद उपसभापति पीजे कुरियन? दलितों पर हमले की घटनाओं और खासकर सहारनपुर की हिंसा पर बोलने के दौरान उन्होंने इतने मात्र से आपा खो दिया कि तीन मिनट होते ही कुरियन ने घंटी बजा दी। यह कोई नई-अनोखी बात नहीं। राज्यसभा में अच्छा-खासा समय बिता चुकी मायावती को अच्छे से पता है कि इस तरह की घंटी बजती ही रहती है। मायावती ने कहा कि वह दलित वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं और यदि उनके मुद्दे को वह राज्यसभा में नहीं उठा सकतीं, तो उन्हें वहां रहने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है। ऐसा लग सकता है कि मायावती ने कुछ हड़बड़ी में यह कदम उठाया है, मगर वही जानती होंगी कि उनके इस कदम के पीछे सिर्फ तात्कालिक भावुकता नहीं, बल्कि सोची-समझी राजनीतिक रणनीति है। अभी सत्र का दूसरा दिन ही था और उनके पास राज्यसभा के नियम 267 के तहत दलितों के उत्पीड़न के मुद्दे पर बहस कराने का नोटिस देने का अधिकार था। दलितों के बीच खिसकते जनाधार से मायावती का परेशान होना स्वाभाविक है। वास्तव में 2012 से उत्तर प्रदेश में उनके जनाधार को जो धक्का पहुंचना शुरू हुआ उसकी परिणति हाल के विधानसभा चुनाव में नजर आई, जब 403 सदस्यीय विधानसभा में बसपा की सिर्फ 19 सीटें रह गईं। वैसे भी मायावती का राज्यसभा का कार्यकाल अगले वर्ष अप्रैल में खत्म होना था और उन्हें अहसास होगा कि वह अब सिर्फ बसपा के बूते दोबारा वहां नहीं पहुंच सकतीं। देखना तो यह होगा कि उनका त्याग क्या उन्हें नए सिरे से पहले जैसी सियासी ताकत देगा?

Friday, 21 July 2017

हर स्थिति के अनुकूल वेंकैया नायडू

नामांकन की आखिरी तारीख के एक दिन पहले राजग ने उपराष्ट्रपति पद के लिए केंद्रीय मंत्री वेंकैया नायडू का चयन कर इस बार विपक्ष को चौंकाया तो नहीं, लेकिन उसकी ओर से पेश चुनौती को आसानी से पार करने का संदेश अवश्य दे दिया। वैसे भाजपा नेतृत्व ने इस बार राष्ट्रपति चुनाव की तरह चौंकाने वाला नाम देने के बजाय पहले से ही चर्चा में रहे वेंकैया नायडू को उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित किया। नायडू का 25 साल लंबा संसदीय इतिहास व अनुभव उनके पक्ष में गया। दरअसल राज्यसभा के चार बार सांसद व संसदीय कार्यमंत्री रहे वेंकैया नायडू को संसदीय अनुभव व सदन चलाने की बारीकियों का पता है। चूंकि राज्यसभा में राजग का बहुमत नहीं है और अक्सर विपक्ष सरकार के लिए सदन चलाने से लेकर सरकारी कामकाज में बाधा डालता है। ऐसे में उपराष्ट्रपति के पदेन राज्यसभा सभापति होने से सरकार को सदन चलाने में आसानी होगी। उपराष्ट्रपति उम्मीदवार के लिए भाजपा को दक्षिण का चेहरा, संविधान की जानकारी और हिन्दुत्व से जुड़ाव को भी पैमाना बनाना था। दक्षिण राज्यों से चेहरा बनाने पर सहमति के बाद नायडू इस खांचे में पूरी तरह फिट बैठे। उपराष्ट्रपति पद के लिए भाजपा में जिन तीन नामों पर चर्चा हुई वे सभी दक्षिण भारत से थे। इसमें वेंकैया आंध्रप्रदेश से हैं। उनके उपराष्ट्रपति बनने से पार्टी को तेलंगाना, कर्नाटक, आंध्र और तमिलनाडु में फायदा होगा। अगले दो साल में कर्नाटक, आंध्र और तेलंगाना में चुनाव हैं। 2019 आम चुनाव के लिए भी एक रास्ता तैयार होगा। वेंकैया के उपराष्ट्रपति बनने से कई मंत्रालय खाली हो गए हैं। वेंकैया के पास शहरी विकास और सूचना प्रसारण मंत्रालय थे। मनोहर पर्रिकर के सीएम बनने के बाद से जेटली के पास रक्षा मंत्रालय का प्रभार है। अनिल माधव के निधन के बाद हर्षवर्धन पर्यावरण मंत्रालय भी संभाल रहे हैं। नायडू दक्षिण भारत के उन चन्द चुनिन्दा नेताओं में हैं जो अपनी मातृभाषा के साथ-साथ अंग्रेजी और हिन्दी में समान रूप से दक्ष हैं। वह अपनी खास भाषण शैली के लिए तो जाने ही जाते हैं। देशभर में अपनी पहचान भी रखते हैं। वेंकैया नायडू की एक खासियत यह भी है कि उनके सभी राजनीतिक दलों से दोस्ताना संबंध हैं। ऐसे संबंध राज्यसभा को सुचारू रूप से चलाने में मदद करेंगे। हालांकि यह कहना मुश्किल है कि खुद वेंकैया इस फैसले से कितने प्रसन्न होंगे। क्योंकि सक्रिय राजनीति से अब उन्हें हटना पड़ेगा। विपक्ष ने गोपाल गांधी को अपना उम्मीदवार पहले ही चुन लिया था। पूर्व नौकरशाह, राजनयिक और राज्यपाल के रूप में उनकी बेशक अपनी प्रतिष्ठा है, छवि है पर वेंकैया नायडू कहीं अधिक फिट हैं।

-अनिल नरेन्द्र

गौरक्षा के नाम पर यह गुंडागर्दी रुकनी चाहिए

गौरक्षा के नाम पर कानून हाथ में लेने वालों पर देश में हो रही हिंसा की कड़े शब्दों में निन्दा होनी चाहिए। गौरक्षा होनी चाहिए पर इस तरीके से नहीं जिस तरीके से कुछ अराजक तत्व कर रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी दो टूक कहा कि गौरक्षा के नाम पर हो रही हिंसा को कतई बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। उन्होंने सभी राज्यों की सरकारों से भी कहा है कि कानून हाथ में लेने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करें। इससे पहले भी प्रधानमंत्री कई बार यह राय जाहिर कर चुके हैं। किन्तु इसका कोई खास असर होता नहीं दिख रहा है। बार-बार चेतावनी दर्शाता है कि स्थिति कितनी गंभीर है। प्रधानमंत्री की चेतावनी के बावजूद देश में कुछ लोग गौरक्षा के नाम पर मार-पिटाई कर रहे हैं। गौरक्षा को राजनीतिक व सांप्रदायिक रंग देकर राजनीतिक लाभ उठाने की होड़-सी शुरू हो गई है। इससे न तो भारतीय जनता पार्टी को कोई लाभ होगा और न ही हिन्दुत्व को बढ़ावा मिलेगा। उल्टा इससे माहौल खराब हो रहा है। देश में गौमाता की रक्षा की भावना होनी चाहिए पर कानूनी दायरे में। अगर कानून अपने हाथ में लेकर गौरक्षा की जाती है तो देश की कानून व्यवस्था पर इसका दुप्रभाव पड़ता है। प्रधानमंत्री ने याद दिलाया कि गाय की रक्षा के लिए कानून है और किसी को कानून अपने हाथ में लेने का हक नहीं है। यह भी देखना जरूरी है कि कहीं कुछ तत्व इस बहाने अपनी व्यक्तिगत दुश्मनी तो नहीं निकाल रहे? कोई ट्रक से गायों और बछड़ों को सामान्य व्यापार के तहत ले जा रहा है तो उसकी घेरकर पिटाई होती है तो कहीं किसी मांस व्यापारी के साथ बदसलूकी होती है। यह सब एक डरावना दृश्य प्रस्तुत करता है। सर्वदलीय बैठक के बाद जो कुछ संसदीय कार्यमंत्री अनंत कुमार ने कहा उसके अनुसार पहली बार इस विषय पर राज्यों को एडवाइजरी भी जारी की गई है। इसमें राज्यों से कार्रवाई करने की वही बाते हैं जो प्रधानमंत्री अपने वक्तव्यों में पहले कह चुके हैं। निश्चय ही कानून व्यवस्था राज्यों का विषय है और ऐसे मामलों में कानून हाथ में लेने वालों के खिलाफ कार्रवाई राज्यों के स्तर पर ही हो सकती है। तो क्या राज्यों के स्तर पर कार्रवाई में कोताही बरती जा रही है? गायों की रक्षा करना कानूनी एजेंसियों का काम है और उन्हें अपनी ड्यूटी पर कोताही नहीं करनी चाहिए। पुलिस व प्रशासन को दरअसल इस बात का डर होता है कि सरकार की गाज उन पर ही उल्टा न गिर जाए? इसलिए वह ऐसे मामलों को रफा-दफा करने में ज्यादा दिलचस्पी रखते हैं। भारतीय जनता पार्टी और भाजपा सरकारों को स्पष्ट दिशानिर्देश देने चाहिए कि वह इस प्रकार की गुंडागर्दी को कतई बर्दाश्त नहीं करेंगे और न ही वह वोट बैंक के चलते ऐसी गतिविधियों का समर्थन करते हैं।

Wednesday, 19 July 2017

प्रधानमंत्री की ऐतिहासिक इजरायल यात्रा

हाल ही में भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की इजरायल की यात्रा कई मायनों में महत्वपूर्ण रही। जिस गर्मजोशी से इजरायल के प्रधानमंत्री बेन्थामिन नेतन्याहू ने मोदी का स्वागत किया उससे ऐसा लगा कि जैसे दो प्रधानमंत्री नहीं बल्कि वर्षों से बिछड़े हुए दो भाई गले मिल रहे हों। पिछले 70 सालों में बेशक भारत और इजरायल की दोस्ती रही हो पर इतने खुले रूप में पहली बार नजर आई। भारत और इजरायल का मिलन दरअसल दो संस्कृतियों का मिलन है। वह संस्कृतियां जो पुरातन हैं, जड़ों से जुड़ी हैं और जिन्हें मिटाने के लिए सदियां भी कम पड़ गई हैं। यह दो विचारों का मिलन है और आज के हालात में निहायत लाभदायक भी है। मुस्लिमों व अरबों की निगाह में अच्छा बने रहने के लिए कांग्रेस सरकारें अरब देशों का समर्थन करती रही हैं और ऊपरी तौर से इजरायल का विरोध जाहिर करती रही हैं। इजरायल को भी इस पर कोई आपत्ति नहीं हुई क्योंकि भारत उससे अरबों रुपयों के हथियार खरीदता रहा है। 70 वर्षों के बाद किसी भारतीय प्रधानमंत्री की इजरायल यात्रा यह दर्शाती है कि हमारी राजनीतिक इच्छाशक्ति कितनी कमजोर है, जो हमारे घरों में बम बरसाते रहे, सीमा पर आए दिन कायराना हरकतें करते रहे, उनके लिए हम लाल कालीन बिछाते हैं, क्रिकेट खेलते रह़े, किंतु सुदूर एकांत में खड़ा प्रगतिशील और वैधानिक प्रगति के शिखर छू रहा एक देश हमें चाहता रहा, दोस्ती के हाथ बढ़ाए खड़ा रहा पर हम संकोच से भरे रहे। अब तक इजरायल से दूरी रखने के पीछे दो तर्क काम कर रहे थे। पहला, भारत के मुसलमानों का नाराज होना और दूसरा अरब देशों से भारत के रिश्तों में तनाव पैदा होना। लेकिन इन दोनों बातों में कोई दम नहीं है क्योंकि न तो भारत के मुसलमानों को इजरायल से कुछ लेना-देना हैन ही अरब देशों को इससे कोई मतलब है कि भारत किस-किस से दोस्ती  रखता है। मोदी के इस ऐतिहासिक दौरे के बाद भी भारत-अरब देशों के रिश्तों की स्थिति वही रहेगी जो कांग्रेस शासन में रही। वैसे तो इजरायल का क्षेत्रफल भारत का मात्र 160वां हिस्सा ही है। मगर कुछ तकनीकी क्षेत्रों में वह अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, जर्मनी और फ्रांस से भी आगे है। डिफेंस टेक्नोलाजी के कुछ पहलुओं में इजरायल अमेरिका से भी सक्षम है। वह कृषि के क्षेत्र में नई-नई खोज कर सबसे उन्नत देशों में शुमार हो गया है। भारत को इससे लाभ मिल सकता है। वह खारे अथवा गंदे पानी को साफ करके खेती के काम में लाने, यहां तक कि पेयजल बनाने की तकनीक में माहिर है। भारत के खेतों में 90 प्रतिशत साफ-सुथरा पानी जाता है, जबकि इजरायल में पानी की जबरदस्त कमी है। भारत को हालांकि इस बात पर ध्यान देना होगा कि इजरायल की घनिष्ठता से अरब मुल्क हमसे दूर न हो जाएं।

-अनिल नरेन्द्र

क्या लोकसभा और विधानसभाएं आधी संख्या में काम कर सकती हैं

कोलकाता हाई कोर्ट ने न्यायाधीशों की नियुक्ति में हो रही देरी पर केंद्र सरकार को कड़ी फटकार लगाते हुए चेतावनी दी है कि इस बाबत अगर जरूरी कदम नहीं उठाया गया तो उपयुक्त कार्रवाई की जाएगी। अदालत ने इस परिप्रेक्ष्य में सवाल किया कि क्या लोकसभा व विधानसभाओं के आधी   संख्या पर काम करने के बारे में सोचा जा सकता है? जस्टिस डीपी डे की पीठ ने कहा कि इस कोर्ट के लिए अनुमोदित न्यायाधीशों की संख्या 72 है जबकि वर्तमान में 34 न्यायाधीश हैं, जो कि अनुमोदित संख्या के 50 फीसदी से भी कम है। माननीय न्यायाधीशों ने सही सवाल उठाया है। संसद में इन सांसदों की उपस्थिति का कितना बुरा हाल है यह किसी से छिपा नहीं। संसद सत्र के दौरान सांसदों की अनुपस्थिति रहने की प्रवृत्ति पुरानी है। यहां तक कि कई मंत्री भी उपस्थित रहना जरूरी नहीं समझते। इसके चलते सदन में पूछे जाने वाले सवाल अनुत्तरित रह जाते हैं। कई बार तो कोरम भी पूरा न हो पाने पर चलते सदन की कार्रवाई में बाधा उपस्थित होती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संसदीय दल की बैठक में कई बार इन जनप्रतिनिधियों को आड़े हाथ लेते हुए सदन में उपस्थित होने की कड़ी नसहीत तक दी है। उन्होंने तो यहां तक कहा कि वे किसी भी सांसद को अचानक बुला सकते हैं। अगर वे देश के बाहर हैं तब भी किसी अधिकारी के मार्फत किसी भी सांसद से बात कर सकते हैं। यह ठीक है कि जनप्रतिनिधयों, मंत्रियों के जिम्मे बहुत सारे काम होते हैं, पर इस आधार पर उन्हें सदन की कार्यवाही से बाहर रहने की छूट नहीं मिल सकती। जनप्रतिनिधियों का काम सदन को अपने क्षेत्र की समस्याओं से अवगत कराना, उनके हल के लिए उपाय, सुझाव और दूसरे सांसदों की तरफ से उठाए गए प्रश्नों, समस्याओं आदि के संबंध में सरकार की तरफ से की गई कार्यवाही आदि को जानना, समझना, उस पर टिप्पणी करना भी है। मगर बहुत सारे सांसद सदन में चर्चा में शामिल होना तो दूर, अपने क्षेत्र  की समस्याओं को भी सदन के समक्ष रखना जरूरी नहीं समझते। सत्ता पक्ष के प्रतिनिधि अक्सर इसलिए चुप्पी साधे रखते हैं कि कहीं उनके सवालों से सरकार के सामने असहज स्थिति पैदा न हो जाए या फिर उनकी कोई बात उनके वरिष्ठ नेताओं को नागवार गुजरे। कोलकाता हाई कोर्ट ने सही प्रश्न उठाया है जब संसद में आप सभी सांसदों की उपस्थिति चाहते हैं तो अदालतों में पूरी संख्या में जजों की क्यों नहीं? उम्मीद की जाती है कि जजों की नियुक्ति जल्द से जल्द की जाएगी और इस समस्या का समाधान होगा।


नवाज शरीफ पर इस्तीफा देने का चौतरफा दबाव

पनामा पेपर लीक मामले में संयुक्त जांच दल की रिपोर्ट सामने आने के बाद पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ पर इस्तीफे का दबाव बढ़ने लगा है। विपक्षी दलों के बाद अब पाकिस्तानी मीडिया ने लोकतंत्र का हवाला देते हुए शरीफ से पद छोड़ने को कहा है। पनामा पेपर लीक में नवाज शरीफ और उनके परिवार का नाम सामने आने के बाद पाक सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर संयुक्त जांच दल (जेआईटी) गठित किया गया था। समिति ने अपनी रिपोर्ट में शरीफ पर भ्रष्टाचार से जुड़े कई संगीन आरोप लगाए हैं। उनकी पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज) जेआईटी की रिपोर्ट अस्वीकार कर चुकी है। द डॉन समाचार पत्र ने संपादकीय के जरिये नवाज शरीफ को अस्थायी तौर पर ही सही, लेकिन प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़ने को कहा है। इधर पनामा पेपर लीक कांड के बाद नवाज शरीफ के परिवार की लंदन स्थित सम्पत्ति की जांच करने वाली जेआईटी ने शरीफ के खिलाफ 15 मामलों को फिर से खोलने की सिफारिश की है। मीडिया में रविवार को एक खबर में कहा गया है कि जेआईटी ने अदालत से 15 पुराने मामलों को फिर से खोलने का अनुरोध करके नवाज शरीफ की मुश्किलें और बढ़ा दी हैं। यह हाई-प्रोफाइल मामला 1990 के दशक में शरीफ द्वारा कथित धनशोधन किए जाने का है, जब उन्होंने प्रधानमंत्री रहने के दौरान लंदन में सम्पत्ति खरीदी थी। पनामा पेपर लीक से पिछले साल इस बात का खुलासा हुआ था। इस मुद्दे पर जांच करने वाली छह सदस्यीय जेआईटी ने 10 जुलाई को अपनी अंतिम रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सौंप दी। इसने कहा है कि शरीफ और उनके बच्चों की जीवनशैली उनकी आय से ज्ञात स्रोत से अधिक है। इसने उनके खिलाफ भ्रष्टाचार का एक नया मामला दर्ज करने की सिफारिश की। नवाज शरीफ ने इस रिपोर्ट को बेबुनियाद आरोपों का पुलिंदा बताते हुए खारिज कर दिया है। नवाज शरीफ ने अपने पद से इस्तीफा देने से इंकार कर दिया है। डॉन ऑनलाइन की रिपोर्ट के मुताबिक इस्लामाबाद में बुलाई गई एक आपातकालीन कैबिनेट की बैठक में शरीफ (67) ने संयुक्त जांच दल (जेआईटी) की रिपोर्ट को आरोपों और कयासों का पुलिंदा बताया। रिपोर्ट के जारी होने के बाद से ही प्रधानमंत्री का इस्तीफा मांग रहे विपक्षी दलों पर निशाना साधते हुए शरीफ ने कहाöमुझे पाकिस्तान के लोगों ने निर्वाचित किया है और सिर्फ वह मुझे पद से हटा सकते हैं। शरीफ ने दावा किया कि उनके परिवार ने राजनीति में आने के बाद कमाया कुछ नहीं, गंवाया बहुत कुछ। उन्होंने कहा कि जेआईटी की रिपोर्ट में इस्तेमाल भाषा दुर्भाग्यपूर्ण इरादे दिखाती है। जो लोग अनावश्यक और झूठे दावों पर मेरा इस्तीफा मांग रहे हैं उन्हें पहले अपने गिरेबां में झांककर देखना चाहिए।

-अनिल नरेन्द्र

जीएसटी की वजह से परेशान मरीज व ग्राहक

जीएसटी लागू होने के बाद पैदा हुई सप्लाई का संकट व्यापारियों के साथ ही अब आम ग्राहकों को भी सताने लगा है। दवा जैसी जरूरी चीज से लेकर कम्प्यूटर और डिजिटल गैजेट्स के बाजारों में ग्राहक खाली हाथ लौट रहे हैं। ट्रेडर्स का कहना है कि जीएसटी रेट और एचएसएन कोड को लेकर जारी कंफ्यूजन के चलते मैन्युफैक्चरर और डिस्ट्रीब्यूटर माल आगे नहीं बढ़ा रहे हैं। कुछ जगहों पर जीएसटी रेट के अनुसार एमआरपी में बदलाव के चलते भी देरी हो रही है। कपड़ा व्यापारियों की हड़ताल के चलते कपड़े की कमी भी बताई जा रही है जिससे कई जगहों पर ग्राहकों को पहले से ज्यादा कीमत चुकानी पड़ रही है। जीएसटी पर भ्रम के कारण देश के कई हिस्सों में मधुमेह और दिल की बीमारी के इलाज के लिए जरूरी दवाओं की किल्लत हो गई है। दवा कंपनियों ने पुराने स्टॉक रोक लिए हैं। इससे दिल्ली, यूपी, बिहार, उत्तराखंड आदि राज्यों के कई शहरों में दवा की आपूर्ति ठप हो गई है। वित्त मंत्रालय का कहना है कि उसे दवाओं की कमी की कोई सूचना नहीं मिली है। दिल्ली के एक बड़े दवा डिस्ट्रीब्यूटर के अनुसार मल्टीनेशनल कंपनियों के दवाओं का स्टॉक 60 फीसदी तक कम हो गया है। जबकि दवा कंपनियों के कई सौ करोड़ रुपए के स्टॉक गोदामों में भरे पड़े है जिसे जीएसटी लागू होने के बाद से वे बाजार में नहीं उतार रहे हैं। कंपनियों को पुराने स्टॉक पर घाटा हो रहा है, इससे वे इसे बाजार में नहीं निकाल रहे हैं। दवा कंपनियों को पुराने स्टॉक में केवल उत्पाद कर और वैट पर ही छूट मिली हुई है। ट्रेडर्स को अभी एचएसएन कोड भी नहीं मिले हैं। बहुत से मेडिकल और सर्जिकल सामान के रेट में भी अंतर आ गया है जिससे कंपनियों और डिस्ट्रीब्यूटरों को ढर्रे पर आने में समय लगेगा। मार्केट सूत्रों का कहना है कि जहां स्टॉक है वहां ट्रेडर भारी डिमांड को देखते हुए जीएसटी एनवाइस की जगह बिल ऑफ सप्लाई जारी कर रहे हैं। जीएसटी में उलझे रहे टेडर्स की दिक्कतों को देखते हुए दिल्ली वैट विभाग पहली तिमाही की वैट रिटर्न भरने की आखिरी तारीख 28 जुलाई से आगे बढ़ा सकते हैं। मार्केट में इस समय जिन दवाओं की किल्लत है उनमें प्रमुख हैंöहैपेटाइटिस बी का इंजैक्शन, डायलिसिस, ब्लड प्रेशर की दवाएं, गंभीर रोगियों की जान बचाने वाले सेफ्टेक्साम, सिरोटैकिज्म, टेमानिक एसिड व मेरोफेनम इंजैक्शन। मल्टी विटामिन, मल्टी फूड विटामिन, कुत्ते के काटने की दवा रेबीज, फैंसिड्रिल कफ सीरप, गुर्दा रोगियों की दवा एल्बुमिन, आई ड्रॉप्स, टेरामाइसीन, टीबी, डायरिया, मधुमेह की दवा अमरिल-एन, जेनीविचा, लीपेज इमरजेंसी ड्रग, गैस के लिए लूज व ब्लड प्रेशर की दवा लेसिक।

Tuesday, 18 July 2017

डोकलाम में भारतीय-चीनी सेना आमने-सामने

चूंबी घाटी के डोकलाम पठार पर भारत और चीन के बीच शीर्ष स्तर पर पहुंच चुकी तनातनी बढ़ गई है। भारत और चीन के बीच विवाद की जड़ बने डोकलाम क्षेत्र में चीन की सेना ने लंबे समय तक तैनाती की तैयारी कर ली है। जवाब में भारतीय सेना ने भी डोकलाम इलाके में अपनी पोजीशन पर लंबे समय तक डटे रहने की तैयारी कर ली है। भारत, चीन और भूटान से सटे इलाके में भारतीय सैनिकों को हटाने के लिए चीन लगातार दबाव बना रहा है। लेकिन वहां तैनात भारतीय सैनिकों ने भी तंबू गाड़ लिए हैं। सूत्रों ने बताया कि डोकलाम में तैनात सैनिकों को सभी जरूरी सामान लगातार सप्लाई किया जा रहा है। यह चीन को स्पष्ट संकेत है कि भारतीय सेना उसके किसी भी दबाव के आगे नहीं झुकेगी। जब तक उसकी पीपल्स लिबरेशन आर्मी के सैनिक वापस नहीं लौटते, भारतीय सैनिक भी पीछे नहीं हटेंगे। इन हालात में सिक्किम सेक्टर में करीब 10 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित इस क्षेत्र में भारत-चीन की सेनाओं के बीच तनाव और लंबा खिंचने के आसार हैं। गतिरोध को तीन हफ्ते से ज्यादा समय हो चुका है। विवाद वाले इलाके में भारत और चीन की सेनाएं 300-300 की संख्या में बताई गई हैं और दोनों सेनाओं के बीच महज 120 मीटर की दूरी है। कर्नल लेवल के अधिकारी दोनों तरफ की सेनाओं की अगुवाई कर रहे हैं। बताया गया है कि भारत के मुकाबले चीन के सैनिक इस इलाके में ज्यादा सहज नहीं हैं। भारतीय सेनाओं के लिए ग्राउंड जीरो से सप्लाई प्वाइंट महज आठ से 10 किलोमीटर दूर है, जबकि चीन की सेनाओं के लिए यह 60 से 70 किलोमीटर दूर है। चीन की सेना इस इलाके में नहीं रहती है। वह करीब 60-70 किलोमीटर दूर खांबोजोंग में रहती है, लेकिन विवादित इलाके में उसका लगातार आना-जाना लगा रहता है। भारतीय सेना की इस इलाके में हमेशा मौजूदगी रही है। वह दिसम्बर तक सहजता से टिके रहने की तैयारी में हैं। दोनों तरफ की सेनाओं के बीच कोई फ्लैग मीटिंग नहीं हो रही है, क्योंकि यह माना जा रहा है कि फैसला अब राजनीतिक स्तर पर होना है। इस मुद्दे पर भारत सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि वह किसी भी सूरत में कदम पीछे खींचने को तैयार नहीं है। सरकार की ओर से कहा गया है कि अंतर्राष्ट्रीय सीमा के निकट चीन के सड़क निर्माण करने से भारत के सामरिक हित प्रभावित हो रहे हैं। उधर कांग्रेस के प्रवक्ता आनंद शर्मा ने कहा कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में कांग्रेस सरकार के साथ है। मगर पार्टी इन मामलों को संसद में उठाएगी। भारत और चीन आमने-सामने हैं देखें कौन झुकता है?

-अनिल नरेन्द्र

यूपी विधानसभा में विस्फोटक ः सुरक्षा में बड़ी चूक

उत्तर प्रदेश विधानसभा को दहलाने की बड़ी आतंकी साजिश बेशक नाकाम हो गई हो पर विधानसभा में नेता विपक्ष की सीट के नीचे 150 ग्राम पीईटीएन (पेंटाएरीथ्रिटोल टेट्रा नाइट्रेट) नामक विस्फोटक मिलना चौंकाने वाला है। इससे पूरी सुरक्षा व्यवस्था पर सवाल खड़ा होना स्वाभाविक ही है। सफेद रंग के इसी प्रकार के पाउडर से छह साल पहले दिल्ली हाई कोर्ट की कैंटीन में धमाका हुआ था। सीएम योगी आदित्यनाथ ने शुक्रवार को विधानसभा में इसका खुलासा करते हुए इसे बड़ी आतंकी साजिश करार दिया। उन्होंने सदन में कहाöसदन में विधायक, मार्शल, विधानसभा के कर्मी को छोड़कर कोई और नहीं आ सकता। इसके बावजूद विस्फोटक मिला। सवाल यह है कि वे कौन लोग हैं जो विस्फोटक लेकर विधानसभा में आए। इसका पर्दाफाश जरूर होना चाहिए। क्या जनप्रतिनिधियों को विशेष प्रावधान के नाम पर सुरक्षा की छूट दे देंगे? क्या किसी को छूट दी जा सकती है कि वह विधानसभा व विधान परिषद के 503 सदस्यों की सुरक्षा की चुनौती खड़ी करें? उत्तर प्रदेश विधानसभा में जो हुआ, वह कोई सुरक्षा अभ्यास नहीं था, वह सचमुच का विस्फोटक था और विशेषज्ञों का कहना है कि इसकी इतनी मात्रा थी कि विधानसभा भवन का एक-तिहाई हिस्सा तो उड़ाया जा सकता था। इससे हम यह आसानी से समझ सकते हैं कि विधानसभा के सभी सुरक्षा चक्रों को पार करते हुए कितना बड़ा खतरा सदन तक पहुंच गया, जहां यह विस्फोटक सफाई के दौरान नेता विपक्ष की कुर्सी के करीब पड़ा मिला। यह सचमुच गंभीर होकर ठोस कदम उठाने का समय है, इसे केवल सुरक्षा की चूक कहकर नजरंदाज नहीं किया जा सकता है। इस विस्फोटक का प्रयोग आतंकी संगठन करते हैं और अगर इसकी मात्रा पांच सौ ग्राम तक होती तो यह सदन को ध्वस्त करने के लिए काफी होती। इसलिए अगर इसकी जांच एनआईए करे तो इसके लक्ष्य और साजिश करने वालों के बारे में जानकारी मिल सकती है। लेकिन रिपोर्ट आने से पहले उसे राजनीतिक कोण देने से उन्हीं का मकसद पूरा होगा, जो उत्तर प्रदेश को अस्थिर बनाना चाहते हैं। सुरक्षा किसी भी राज्य व्यवस्था का पहला कर्तव्य है और अगर वह कानून वालों और सरकार चलाने वालों की सुरक्षा नहीं कर पाएंगे तो उन नागरिकों की सुरक्षा कैसे करेगी जिन्होंने यह काम उन्हें दिया है। जाहिर है कि अचूक सुरक्षा की जरूरत हमें एक-दो जगह या कुछ इमारतों पर ही नहीं बल्कि सभी जगह है। किसी भी एक जगह की चूक किसी भी दूसरी जगह या सभी जगहों के लिए बड़ा खतरा साबित हो सकती है। इसलिए मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के अल्पकालिक सुझावों को मानने के साथ दीर्घकालिक उपायों पर भी विचार होना चाहिए।

Sunday, 16 July 2017

दोषी नेताओं के चुनाव लड़ने के प्रतिबंध पर सुप्रीम कोर्ट सख्त

किसी अपराध में अदालत से दोषी ठहराए गए व्यक्ति के चुनाव लड़ने पर आजीवन रोक लगाने के मसले पर रुख साफ न करने पर सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को बुधवार को कड़ी फटकार लगाई। आयोग को आड़े हाथों लेते हुए अदालत ने कहा कि उसे अपना रुख स्पष्ट करना चाहिए। वह ऐसे संवेदनशील मुद्दे पर खामोश कैसे रह सकता है? न्यायमूर्ति रंजन गोगोई व न्यायमूर्ति नवीन सिन्हा की पीठ ने वकील अश्वनी कुमार उपाध्याय की ओर से दाखिल जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की। उपाध्याय ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दाखिल कर दोषी व्यक्ति को चुनाव लड़ने पर आजीवन रोक लगाए जाने की मांग की है। पीठ ने चुनाव आयोग की ओर से पेश वकील से कहा कि वह इस पर अपना रुख साफ क्यों नहीं करते कि वे दो वर्ष या उससे अधिक की सजा पाए दोषी के चुनाव लड़ने पर आजीवन रोक लगाए जाने का समर्थन करते हैं कि नहीं? वकील ने कहा कि चुनाव आयोग याचिका में राजनीति के अपराधीकरण को समाप्त किए जाने की बात का समर्थन करता है। जस्टिस रंजन गोगोई और नवीन सिन्हा की बैंच ने पूछाöक्या आप विधायिका के सामने लाचार महसूस कर रहे हैं? अगर हां तो साफ बता दें। आयोग स्पष्ट बताए कि वह इस मांग के समर्थन में है या नहीं? सरकार ने अपने जवाब में कह दिया है कि इसमें न्यायालय को दखल देने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि जनप्रतिनिधित्व कानून में इसका प्रावधान है। किन्तु आयोग ने इस पर कुछ कहने से परहेज किया। उसने केवल यह कहा कि राजनीति के अपराधीकरण को खत्म करने के वह पक्ष में है। चुनाव आयोग को हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने एक प्रकार से विवश करने की कोशिश भी की। देखते हैं कि अगली सुनवाई में चुनाव आयोग क्या जवाब देता है? किन्तु यह प्रश्न गंभीर है। सजा प्राप्त जनप्रतिनिधियों के अभी कैद की अवधि समाप्त होने के छह साल तक चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध है। याचिका में इसे ही आजीवन प्रतिबंध में बदलने की मांग की गई है। हमारी राय में राजनीति को अपराधियों से मुक्त करना है तो कानून में ऐसे संशोधन करने ही चाहिए। अगर आज इस मुद्दे पर जनता में सर्वेक्षण करा लिया जाए तो इसके पक्ष में निश्चित रूप से बहुमत खड़ा होगा। पर जहां तक राजनेताओं और पार्टियों का सवाल है वह ऐसा संशोधन नहीं चाहेंगे। दरअसल इस हमाम में सभी नंगे हैं। कोई भी पार्टी अपराधियों से अछूत नहीं है। उनका प्रमुख मकसद सीट जीतना होता है और इसके लिए जो भी उम्मीदवार उन्हें सबसे ज्यादा मजबूत दिखे उसे टिकट देने में हिचकिचाते नहीं भले ही वह क्रिमिनल क्यों न हो? हम सुप्रीम कोर्ट के प्रयासों की सराहना करते हैं पर संदेह है कि वह अदालत की बात मानें।

-अनिल नरेन्द्र

हजारों करोड़ खर्च करने के बावजूद गंगा की सफाई नहीं हो सकी

मोदी सरकार के तीन साल पूरे होने के बाद जनता जानना चाहती है कि जोरशोर से शुरू हुई नमामि गंगे योजना का आखिर क्या हुआ? कितनी साफ हुई गंगा? सरकार के खुद तथ्य, आंकड़े हों या फिर जमीनी हकीकत, सब कह रहे हैं कि गंगा पहले से भी ज्यादा गंदी हुई है। योजना के तहत नए घाट और शमशान घाट तो बने हैं, लेकिन सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) बनाने को लेकर काम बहुत सुस्त है। सुस्ती का आलम यह है कि नमामि गंगे योजना के तहत 4031.41 किलोमीटर तक एसटीपी बिछाने का प्रस्ताव था जिसमें से सिर्फ 1147.75 किलोमीटर का नेटवर्क ही बिछ पाया है। रोजाना सिर्फ 19 करोड़ 81 लाख तीन हजार लीटर पानी को साफ करने की क्षमता तैयार हुई है। वाराणसी शहर में आज भी रोजाना निकलने वाले करीब 3000 लाख लीटर पानी सीवेज में, 2000 लाख लीटर सीवेज 32 नालों के जरिये सीधे गंगा में गिर रहे हैं। गंगा में कचरा फेंकने पर रोक है, लेकिन अब भी कचरा फेंका जा रहा है और पशुओं को नहलाया जा रहा है। नतीजतन गंगा दूषित होती जा रही है। राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) ने गंगा को स्वच्छ बनाने के लिए गुरुवार को कई सख्त आदेश जारी किए। अधिकरण ने कहा कि गंगा में किसी भी तरह का कचरा फेंकने पर 50 हजार रुपए का जुर्माना लगाया जाएगा। एनजीटी ने हरिद्वार और उन्नाव के बीच (500 किलोमीटर) गंगा नदी के तट से 100 मीटर के दायरे को गैर-निर्माण जोन घोषित किया है। फैसले के बाद इस दायरे में किसी भी प्रकार का निर्माण या विकास कार्य नहीं किया जा सकेगा। ऐसा करने वालों पर सख्त कार्रवाई की जाएगी। एनजीटी अध्यक्ष न्यायमूर्ति स्वतंत्र कुमार के नेतृत्व वाली पीठ ने गंगा सफाई के मुद्दे पर दूसरे चरण में कहा कि गंगा में किसी प्रकार का कचरा डंप करने वाले को 50 हजार रुपए पर्यावरण हर्जाना देना होगा। साथ ही कचरा निस्तारण संयंत्र के निर्माण और दो वर्ष के भीतर नालियों की सफाई सहित सभी संबंधित विभागों से विभिन्न योजनाओं को पूरा करने के निर्देश दिए। लाखों लोगों को जीवन दे रही है गंगा। 40 प्रतिशत भारतीय आबादी को पानी उपलब्ध कराती है गंगा। पर सुप्रीम कोर्ट में इस मुद्दे पर 108 बार सुनवाई हो चुकी है लेकिन अंतिम फैसला अभी तक नहीं हो सका। सवाल यह है कि आखिर हम क्यों नहीं सुधर रहे? 760 से अधिक औद्योगिक ईकाइयों का कचरा जब तक गंगा में गिरता रहेगा, तब तक सुधार नहीं हो सकता। छह हजार हैक्टेयर से अधिक भूमि का अतिक्रमण कर अवैध निर्माण किए गए हैं अकेले उत्तर प्रदेश में। एनजीटी ने कहाöयूपी सरकार को अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए। उसे चमड़े के कारखानों को जाजमऊ से उन्नाव के बीच चमड़ा पार्कों या किसी भी अन्य स्थान पर छह सप्ताह के भीतर स्थानांतरित करना चाहिए। एनजीटी ने यूपी और उत्तराखंड सरकार को गंगा और उसकी सहायक नदियों के घाटों पर धार्मिक क्रियाकलापों के लिए दिशानिर्देश बनाने को भी कहा है। औद्योगिक ईकाइयों पर शून्य तरल रिसाव और सहायक नदियों की ऑनलाइन निगरानी के आदेश भी दिए हैं। राष्ट्रीय हरित अधिकरण ने गुरुवार को कहा कि सरकार ने गंगा नदी की साफ-सफाई पर पिछले दो साल में सात हजार करोड़ रुपए खर्च कर दिए बावजूद इसके यह गंभीर पर्यावरणीय मुद्दा बना हुआ है। एनजीटी ने कहा कि केंद्र सरकार, यूपी सरकार और राज्य के स्थानीय निकायों ने मार्च 2017 तक 7304.64 करोड़ रुपए खर्च किए लेकिन नदी की हालत बद से बदत्तर हुई है। गंगा की सफाई पर संबंधित सरकारें अभी भी गंभीर नहीं। हरित अधिकरण बेशक निर्देश-आदेश दे दे पर उन पर अमल तो सरकारों को ही करना है। अवैध निर्माण, औद्योगिक कचरा और चमड़ा उद्योग द्वारा गंगा के दुरुपयोग पर जब तक सख्ती से रोक नहीं लगती तब तक गंगा साफ होने वाली नहीं। गंगा की सफाई केवल पर्यावरण से ही नहीं जुड़ी, यह हमारे जीवन की लाइफ लाइन भी है।