Tuesday 10 April 2018

क्या हमें ऐसी संसद की जरूरत है भी?

सब सड़क मौन हो जाती हैं तो देश की संसद आवारा या बांझ हो जाती है, यह बात डाक्टर राम मनोहर लोहिया ने कोई छह दशक पहले कही थी, लेकिन देश के मौजूदा राजनीतिक माहौल और संसद की भूमिका पर आज भी सटीक रूप से लागू होती है। बीते पांच मार्च से शुरू हुए संसद के बजट सत्र का दूसरा चरण भी लगभग पूरी तरह हंगामे की भेंट चढ़ गया, सत्र के पहले चरण में भी राष्ट्रपति के अभिभाषण, उस पर हुई कर्परा बहस और उसके जवाब में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कटाक्षों से भरे भाषण के अलावा कुछ भी उल्लेखनीय नहीं हो पाया था। संसद में आरोपों-प्रत्यारोपों की राजनीति के चलते जनता की गाढ़ी कमाई के 451 करोड़ रुपए माननीयों ने पानी में बहा दिए। दोनों सदनों में 248 घंटे की कार्यवाही हंगामे की भेंट चढ़ गई। दोनों सदनों के एजेंडे में शामिल 65 विधेयक सदन का मुंह नहीं देख पाए। संसद की एक घंटे की कार्यवाही पर डेढ़ करोड़ रुपए खर्च होते हैं। यह बजट सत्र पिछले 20 सालों में सबसे खराब सत्र रहा है। केंद्र में सरकार चाहे जिस पार्टी की हो, उसकी कोशिश संसद में काम चलाने, उसकी उपेक्षा करने या उससे मुंह चुराने या उसका मनमाना इस्तेमाल करने की रही है। इसी प्रवृत्ति के चलते देश की सबसे बड़ी पंचायत में हंगामा और नारेबाजी अब हमारे लोकतंत्र का स्थायी भाव बन चुका है। पिछले कुछ दशकों के दौरान शायद ही कोई संसद का सत्र ऐसा रहा हो, जिसका आधे से ज्यादा समय हंगामे में जाया न हुआ हो। महज खानापूर्ति देश के 70 वर्ष के संसदीय इतिहास में यह पहला अवसर है जब देश का आम बजट और वित्त विधेयक बिना बहस के पारित हो गया। ऐसा ही एक इतिहास छह महीने पहले भी रचा गया था जब संसद का शीतकालीन सत्र सरकार ने बिना किसी जायज वजह से निर्धारित समय से लगभग डेढ़ महीने बाद आयोजित किया था, वह भी विपक्ष के दबाव में और महज खानापूर्ति के लिए बेहद संक्षिप्तöमहज 14 दिन का। लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति की ओर से भी इस सिलसिले में कोई संजीदा पहल नहीं की गई, जिससे सदन की कार्यवाही सुचारू रूप से चल सके। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के अलावा आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल आदि राज्यों की क्षेत्रीय पार्टियों के सांसद अपने-अपने सूबों से संबंधित मसलो पर बहस की मांग पर हंगामा करते रहे और पीठासीन अधिकारी सदन को स्थगित करते रहे। विपक्ष के सवालों का सामना, दोनों सदनों में हंगामा और कार्यवाही का बार-बार स्थगित होना सरकार के लिए मनमाफिक ही था। अगर यह स्थिति नहीं बनती और संसद सुचारू रूप से चलती तो सरकार कई मोर्चों पर घिर सकती थी। सरकार को गिरती अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी, नित नए उजागर हो रहे बैंक घोटालों में सत्तारूढ़ दल के शीर्ष नेतृत्व से करीबी लोगों की भूमिका और उनका विदेश भागना, लड़ाकू रॉफेल विमानों का विवादास्पद सौदा, देश के विभिन्न भागों में जातीय और सांप्रदायिक तनाव, चीनी घुसपैठ, कश्मीर के बिगड़ते हालात आदि सवालों पर विपक्ष के सवालों का सामना करना पड़ता, जो उसके लिए आसान नहीं था। इसके अलावा एससी/एसटी एक्ट के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर जो हंगामा देश की सड़कों पर हो रहा है क्या सदन में इतने बड़े मुद्दे पर बहस नहीं होनी चाहिए थी, बिल्कुल होनी चाहिए थी, लेकिन नहीं हुई। फिर विपक्ष की ओर से आया अविश्वास प्रस्ताव तथा सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग की चर्चा भी सरकार की मुसीबतों में इजाफा ही करता। जाहिर है कि सरकार भी नहीं चाहती थी कि संसद चले। इन सब बातों से यह सवाल उठता है कि क्या देश में संसद की जरूरत खत्म हो गई है?

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