Thursday, 12 October 2017

लोकसभा-विधानसभा चुनाव एक साथ कराने की वकालत

एक राष्ट्र, एक चुनाव की मांग ने एक बार फिर जोड़ पकड़ लिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो कई मौकों पर इसकी वकालत कर चुके हैं। अब चुनाव आयोग ने भी लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की वकालत की है। देश के चुनाव आयुक्त ओपी रावत के ताजा बयान से यह बहस तेज हो गई है कि क्या अगले आम चुनाव के साथ ही विधानसभा चुनाव कराए जाएंगे? मुख्य चुनाव आयुक्त ने कहा कि आयोग का काम चुनावी प्रक्रिया और उसकी तैयारियों का है। केंद्र सरकार की दिलचस्पी के कारण निर्वाचन आयोग को भी इस पर अपना रुख बताना पड़ा है। केंद्र ने जानना चाहा था कि लोकसभा और सारी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के सुझाव पर उसकी क्या राय है और क्या एक साथ चुनाव कराने में आयोग सक्षम है? आयोग ने अपनी रजामंदी जता दी है, साथ ही बताया है कि वैसी सूरत में कितने अतिरिक्त संसाधनों की जरूरत पड़ेगी। पर साथ-साथ निर्वाचन आयोग ने यह भी कहा है कि एक साथ चुनाव कराने के लिए सभी राजनीतिक दलों की सहमति जरूरी है। आयोग से 2015 में भी इस बारे में राय मांगी गई थी और तब भी उसने यही कहा था। दरअसल यह सिर्फ राजनीतिक या नैतिक तकाजा-भर नहीं है। अगर लोकसभा और सारी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने हों तो जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन के बगैर यह नहीं हो सकता। संवैधानिक संशोधन पारित कराने तथा एक साथ चुनाव की मंशा को विवाद-रहित बनाने के लिए राजनैतिक सर्वसम्मति अपरिहार्य है। इसे संभव बनाने के लिए इस पर व्यापक चर्चा जरूरी है कि एक साथ चुनाव के क्या फायदे-नुकसान हो सकते हैं। यह सही है एक साथ चुनाव कराने के कई फायदे हैं। चूंकि भारत में चुनाव वार्षिक और वर्षभर चलने वाले अनवरत कार्यक्रम की तरह होते हैं और यह अनथक कवायद हैं। अगर इस प्रक्रिया में पंचायत चुनाव को शामिल कर दें तो यह दायरा और ज्यादा व्यापक हो जाता है। सो इन सबसे बचने के लिए यह विचार सही है। वैसे भी 1967 तक देश में लोकसभा-विधानसभा चुनाव साथ-साथ हुए हैं। जहां तक बात इसके फायदे की है तो निश्चित रूप से अर्थव्यवस्था पर खर्च का बोझ कम होगा। साथ ही चुनाव के दौरान बार-बार लगने वाली आचार संहिता के लिए पॉलिसी पैरालिसिस की स्थिति से बचा जा सकेगा। वहीं राज्यों के लिए लोक-लुभावन वादों के ऐलान से चुनाव को प्रभावित करने के आरोप से भी केंद्र सरकार बचेगी। पार्टियों को भी बार-बार प्रचार अभियान के लिए धन जुटाना पड़ता है, चुनाव आयोग एक चुनाव से निपट नहीं पाता कि उसे दूसरे चुनाव की तैयारी में जुट जाना पड़ता है। प्रशासन की भी काफी ऊर्जा और समय जाया होता है। शैक्षणिक कार्य पर बुरा असर पड़ता है, क्योंकि चुनाव आयोग चुनाव में सबसे ज्यादा टीचरों की ही ड्यूटी लगाता है। पर सवाल यह है कि यह हो कैसे, यानि इसके लिए कानून में आवश्यक संशोधन तथा अपेक्षित राजनैतिक आम सहमति की शर्त कैसे पूरी हो? अभी तक विपक्षी दलों में सिर्फ कांग्रेस ने खुलकर कहा है कि वह जल्दी या एक साथ चुनाव कराए जाने के लिए तैयार है। पर वामदलों का रुख इसके विपरीत है। उनकी दलील है कि केंद्र सरकार लोकसभा चुनाव के साथ विधानसभा चुनाव कराने के लिए राज्यों को विवश नहीं कर सकती। विपक्ष की कई पार्टियों की निगाह में एक साथ चुनाव कराने का विचार अव्यवहारिक है तो कई इसे संघीय ढांचे को चोट पहुंचाने वाला तथा खतरनाक विचार भी मानते हैं। वैसे एक साथ चुनाव थोड़ी-बहुत दिक्कतों के बावजूद देश के लिए लाभदायक हो सकता है पर यह तभी संभव होगा जब सभी दलों की इस मसले पर आम सहमति बने।

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