Saturday, 28 October 2017

सवाल सिनेमाघरों में राष्ट्रगान पर खड़े होने का

सिनेमा हॉलों में राष्ट्रगान बजाए जाने व खड़ा होने के सवाल पर सुप्रीम कोर्ट के रुख में बदलाव एक तरह से इस बात का सबूत है कि किसी लोकतांत्रिक देश में जिम्मेदार संस्थाएं भी अपनी गलती को सुधार सकती हैं। अभी मात्र 11 माह पूर्व यानि 30 नवम्बर 2016 को दिए अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि पूरे देश के सिनेमाघरों में फिल्म शुरू होने से पहले राष्ट्रगान बजाया जाए और इस दौरान वहां मौजूद सभी लोगों को राष्ट्रगान के सम्मान में खड़ा होना अनिवार्य होगा। इसी से जुड़ते एक मामले पर सुनवाई करते हुए चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस खानविलकर और जस्टिस चन्द्रचूड़ की खंडपीठ ने केंद्र सरकार की इस अपील को ठुकरा दिया कि उसे अपने पिछले फैसले में कोई फेरबदल नहीं करना चाहिए। अदालत ने साफ कर दिया कि राष्ट्रीय प्रतीकों से जुड़े कानून में कोई भी फेरबदल करने की जवाबदेही सरकार पर है और उसे अदालत के अंतरिम फैसले से प्रभावित हुए बगैर अपना यह दायित्व निभाना चाहिए। शीर्ष अदालत ने यह भी टिप्पणी की कि अगर कोई व्यक्ति राष्ट्रगान के लिए खड़ा नहीं होता है तो ऐसा नहीं माना जा सकता कि वह कम देशभक्त है। समाज को नैतिक पहरेदारी की आवश्यकता नहीं है, जैसी टिप्पणी करते हुए खंडपीठ ने कहा कि अगली बार सरकार चाहेगी कि लोग सिनेमाघरों में टी-शर्ट और शॉर्ट्स में नहीं आएं क्योंकि इसमें राष्ट्रगान का अपमान होगा। पीठ ने कहा कि वह सरकार को अपने कंधे पर रखकर बंदूक चलाने की अनुमति नहीं देगी। सुप्रीम कोर्ट का यह ताजा विचार अपने पहले के फैसले से ज्यादा बुद्धिमतापूर्ण और विवेकशील है। दरअसल सिनेमाघर मनोरंजन स्थल होते हैं और यहां लोग किसी से गंभीर संवाद करने नहीं आते हैं। यहां आने वाले सिर्फ मौज-मस्ती, आनंद लेने और समय बिताने के लिए अपने मनोरंजन और फिल्म का मजा उठाने आते हैं। इसलिए ऐसे हल्के-फुल्के स्थलों पर राष्ट्रगान बजाने और उसके सम्मान में दर्शकों को खड़ा करने के लिए किसी भी प्रकार की कानूनी बाध्यता राष्ट्रगान में निहित गंभीरता को प्रभावित करने के समान है। वैसे भी इस बात को देखने वाला कौन है, क्या मशीनरी है कि राष्ट्रगान के दौरान हॉल में मौजूद सभी दर्शक खड़े हो रहे हैं? सभ्य समाज राज्य को उसके अधिकारों को सीमित करने का अधिकार देता है। अलबत्ता राज्य को इतना विवेकशील तो होना ही पड़ेगा कि वह इस बात को देखे कि मनुष्य की स्वतंत्रता के अधिकार को सीमित करने का औचित्य क्या है? अदालत ने अब गेंद केंद्र सरकार के पाले में डाल दी है। देखना होगा कि सरकार अब इस मामले में आगे क्या करती है।

-अनिल नरेन्द्र

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