Thursday 26 October 2017

गुजरात में भाजपा अपने तरकश से सारे तीर आजमाने पर मजबूर

 प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जिस तरह से बार-बार गुजरात में तूफानी दौरे कर रहे हैं और ताबड़तोड़ परियोजनाओं का उद्घाटन कर रहे हैं उससे साफ लग रहा है कि भारतीय जनता पार्टी गुजरात विधानसभा चुनाव परिणामों को लेकर चिंतित जरूर है। इससे यह भी जाहिर होता है कि भाजपा अपना गढ़ बचाने के लिए अपने तरकश से सारे तीर चलाने पर उतारू है। गुजरात विधानसभा चुनाव की तारीखें किसी भी समय घोषित हो सकती हैं। कायदे से तो हिमाचल प्रदेश के चुनावों के साथ ही वहां की भी तारीखें घोषित हो जानी चाहिए थीं, पर ऐसा नहीं हुआ। कयास लगाए जा रहे हैं कि निर्वाचन आयोग पर दबाव बना कर सरकार ने गुजरात विधानसभा चुनाव की तारीखें टलवाईं, क्योंकि आचार संहिता लागू हो जाने के बाद परियोजनाओं के उद्घाटन आदि पर विराम लग जाता। गुजरात में पिछले बीस वर्षों से भाजपा सत्ता में है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि कांग्रेस को मिल रहे रिसपांस और पाटीदार, दलितों व ओबीसी व मुस्लिम मिलाकर इस बार वहां बदलाव की सुगबुगाहट की झलक दे रहे हैं। स्वाभाविक ही है कि इससे भाजपा की बेचैनी बढ़ी है। भाजपा अभी तक विकासवाद के नारे के साथ गुजरात की सत्ता में काबिज थी पर जिस तरह से पाटीदार, दलित, मुस्लिम व अन्य पिछड़े समुदाय के लोगों ने नाराजगी जाहिर की है उससे लग रहा है कि 2017 का विधानसभा चुनाव विकास की बजाय जातीय समीकरणों पर ज्यादा निर्भर रहेगा। नोटबंदी और जीएसटी भी बड़े मुद्दे हैं। जीएसटी लागू होने के बाद सबसे अधिक विरोध का स्वर सूरत के व्यापारियें की  तरफ से उभरा है इसलिए भाजपा का जनाधार माने जाने वाले व्यापारी वर्ग में भी सेंध लगने की आशंका है। जिस तरह से कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को गुजरात में रिसपांस मिल रहा है उससे लगता है कि गुजरात में पिछड़ी हुई कांग्रेस में फिर से जान आ रही है। राहुल ने लगता है कि अपनी शैली और भाषण का मजमून दोनों बदले हैं। उनका यह जुमला कि जीएसटी का मतलब गब्बर सिंह टैक्स जनता को बहुत पसंद आ रहा है। जिस राहुल गांधी को सबसे कमजोर नेता माना जा रहा था, उनकी रैलियों और भाषणों में लोग दिलचस्पी लेने लगे है। बीजेपी गुजरात मॉडल को दुनियाभर में प्रचारित करती रही हैं लेकिन विपक्षी जिस तरह से गुजरात मॉडल को दरकिनार करने में लगे हुए हैं उससे भाजपा के लिए चुनौती बढ़ती नजर आ रही है। दूसरा कुछ चेहरों के सामने आने से चुनाव के समीकरण और दिलचस्प होने वाले हैं। जहां पाटीदारों पर दांव खेलने की कोशिश होगी वहीं दलित आबादी में भी सेंध लगाने का प्रयास होना स्वाभाविक ही है। असल में पाटीदारों के अलावा गुजरात में दलित आबादी की भी संख्या सात फीसदी के आसपास है, जो चुनाव के दौरान हर पार्टी के लिए महत्व रखेगी। इसके अलावा गुजरात में जिस तरह आरक्षण, शराबबंदी, बेरोजगारी और दलित  उत्पीड़न का मामला जोर पकड़ रहा है, उससे तो यही लगता है कि गुजरात में अभी मौलिक सुविधाओं का अभाव है। उधर मौलिक सुविधाओं को लेकर चुनाव होगा तो निश्चित तौर पर बीजेपी  यहां कटघरे में नजर आएगी, क्योंकि मौलिक सुविधाओं के अलावा गुजरात मॉडल को मुद्दा नहीं बनाया जा सकता है। इस बीच पाटीदार नेता हार्दिक पटेल, दलित  नेता जिग्नेश मेवाणी और ओबीसी नेता अल्पेश ठाकोर के कांग्रेस से जुड़ने की खबरों से भाजपा की परेशानी बढ़ गई है। अल्पेश ठाकोर ने कांग्रेस से हाथ मिला लिया है। गुजरात में अब तक के चुनावों का समीकरण तो यही बताता है कि जिधर पटेल, दलित और अन्य पिछड़ी जातियों का झुकाव होता है चुनाव में जीत उसी पार्टी की होती है पर दूसरी ओर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गुजरात चुनाव को अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया है। वह इतनी आसानी से तो गुजरात  अपने हाथों से जाने नहीं देंगे। वह मौजूदा माहौल को अपने पक्ष में पलटने में कितने सफल होते हैं यह तो 18 दिसंबर के बाद ही पता चलेगा।

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