Wednesday, 25 October 2017

वसुंधरा राजे सरकार का हिटलरी फरमान

सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों को अभयदान देने वाला जो अध्यादेश राजस्थान की वसुंधरा राजे सरकार लाई है उसका विरोध होना स्वाभाविक ही है। राजस्थान सरकार ने दंड प्रक्रिया संहिता और भारतीय दंड संहिता में संशोधन किया है, जिसके बाद जज, मजिस्ट्रेट एवं लोक सेवकों के खिलाफ परिवाद पर प्रसंज्ञान, पुलिस जांच या मामले की मीडिया रिपोर्टिंग से पहले सरकार से मंजूरी लेनी होगी। सोमवार को राजस्थान विधानसभा का सत्र शुरू होते ही गृहमंत्री गुलाब चन्द कटारिया ने यह विधेयक सदन में पेश किया। राजस्थान सरकार के इस विधेयक का समर्थन करना मुश्किल है। इसके बाद अब मौजूदा और पूर्व न्यायाधीशों, मजिस्ट्रेटों और सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ पुलिस या न्यायालय में शिकायत करने के लिए सरकार की अनुमति लेनी होगी। ड्यूटी के दौरान यदि सरकारी कर्मचारी या कर्मचारियों के खिलाफ कोई शिकायत की जाती है तो सरकार की अनुमति के बिना प्राथमिकी दर्ज नहीं हो सकती। इसके लिए छह महीने की समयसीमा है। सबसे आश्चर्यजनक तो यह है कि पाबंदी मीडिया पर भी लागू होगी। सरकार की अनुमति के बगैर अगर कोई इस बारे में कुछ प्रकाशित करता है या दिखाता है तो दो साल की सजा का प्रावधान है। इस अध्यादेश जिसे राजस्थान सरकार कानूनी रूप देना चाहती है पर कई सवाल खड़े होते हैं। एक तो यही है कि किसी कर्मचारी के खिलाफ शिकायत होने पर जांच के लिए छह महीने का समय क्यों मिलना चाहिए? इस दौरान तो आरोपी सरकारी अधिकारी अपने खिलाफ सारे सबूत मिटा डालेंगे। इससे तो भ्रष्ट कर्मचारियों के उलटे हितों की रक्षा ही होगी। चूंकि अगले साल राजस्थान में विधानसभा चुनाव होने हैं, ऐसे में इस तरह का अध्यादेश लागू करने का मकसद भ्रष्टाचार को संस्थागत रूप देना भी हो सकता है और अपनी छवि पाक-साफ बनाए रखना भी। जब भ्रष्टाचार के मामले सामने नहीं आएंगे तो वसुंधरा सरकार को स्वाभाविक ही उसका चुनावी लाभ मिलेगा। यही नहीं, इस आपराधिक कानून (राजस्थान संशोधन) अध्यादेश 2017 के अनुसार कोई भी मजिस्ट्रेट किसी भी ऐसे व्यक्ति के खिलाफ जांच का आदेश नहीं देगा जो एक जज या मजिस्ट्रेट या सरकारी कर्मचारी है या था। आखिर ऐसे अध्यादेश/विधेयक का औचित्य क्या है? सरकार का तर्क है कि इससे सरकारी कर्मी निर्भीक होकर अपने दायित्व का पालन कर सकेंगे। मुकदमों के भय से सरकारी अधिकारी-कर्मचारी प्राय निर्णय करने से बचते हैं। किन्तु सरकारी कर्मियों को उनके दायित्व पालन में निर्भीकता के लिए सरकार बनने के करीब चार साल बाद अध्यादेश की आवश्यकता आखिर क्यों पड़ी? कहा जा रहा है कि सरकारी अधिकारियों ने इसकी मांग मुख्यमंत्री के सामने रखी थी। क्या इसका मतलब है कि इन चार सालों में सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों ने अपने दायित्व का पालन ठीक से नहीं किया? ऐसे समय जब देश में यह वातावरण है कि जो सरकारी अधिकारी-कर्मचारी जनता की सेवा के अपने दायित्व का ठीक से पालन नहीं करते, समय पर अपना काम पूरा नहीं करते, साधारण काम के लिए भी कई अधिकारी अनुचित मांग करते हैं, उन्हें दंडित किया जाना चाहिए या उन्हें संरक्षण दिया जाना चाहिए? वसुंधरा राजे सरकार का यह कदम उलटी गंगा बहाने वाला है। पीयूसीएल (पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टाज) इस अध्यादेश के खिलाफ अदालत में जा रही है और एकाधिक विधि विशेषज्ञ मानते हैं कि यह कानून व विधेयक कानून की कसौटी पर नहीं टिकेगा। प्रेस की स्वतंत्रता का भी सवाल है। राजस्थान सरकार प्रेस को भी अपनी ड्यूटी करने से रोकना चाहती है। एडिटर्स गिल्ड ने भी इसकी कड़ी आलोचना की है। शिकायत लेकर मीडिया के पास जाने का भी कोई लाभ नहीं होगा। यह अध्यादेश किसी मामले में संबंधित अधिकारी-कर्मचारी के नाम, पता, तस्वीर और परिवार की जानकारी के प्रकाशन और प्रचार तक पर रोक लगाता है। इसका उल्लंघन करने वाले को दो साल की सजा हो सकती है। इसका मतलब यह हुआ कि अगर कोई अखबार किसी सरकारी कर्मी के बारे में कुछ छापता है या टीवी पर प्रसारित करता है तो वह दंड का भागी होगा। इतने व्यापक संरक्षण से तो वे और निरंकुश होंगे वैसे भी यह लोकतांत्रिक प्रणाली के खिलाफ है।

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