Sunday 23 October 2011

हीरो से विलेन तक का गद्दाफी का लम्बा सफर

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 23rd October 2011
अनिल नरेन्द्र
लीबिया में 42 साल तक हुकूमत करने वाला 69 वर्षीय तानाशाह मुअम्मर गद्दाफी अंतत गुरुवार को मारा गया। उसकी मौत गृह नगर सिरते में सिर और पैर में गोली लगने से हुई। हमले में उसके बेटे मुतस्सिम और सेना प्रमुख अबु बकर यूसुफ जबर समेत कई साथी भी मारे गए। गद्दाफी के गढ़ सिरते पर विद्रोही सैनिकों ने कब्जा कर लिया था और नॉटो हमले भी हो रहे थे। गद्दाफी हवाई हमले में पहले ही बुरी तरह घायल हो चुका था। विद्रोही सैनिकों के मुताबिक वह एक पाइप में छिपकर बैठा था। सैनिकों को बढ़ते देख वह गिड़गिड़ाने लगा कि डोंट शूट-डोंट शूट...। लेकिन सैनिकों ने नहीं सुनी और उसके सिर और दोनों पैरों में गोली मार दी, जिससे उसकी मौत हो गई। विद्रोहियों के अनुसार उसके पास सोने की पिस्टल मिली और वह फौजी वर्दी में था। गद्दाफी हमेशा से एक विवादास्पद व्यक्ति रहे। कुछ लोगों की नजरों में जब 42 वर्ष पूर्व उन्होंने राजा इद्रीस का तख्ता पलट कर सत्ता हासिल की तो शुरू के वर्षों में उन्होंने कई अच्छे काम किए। उन्होंने अपना एक राजनीतिक चिंतन विकसित किया था, जिस पर उन्होंने एक किताब भी लिखी, जो उनकी नजर में इस क्षेत्र में प्लेटो, लॉक और मार्क्स के चिंतन से भी कहीं आगे थी। कई अरब और अंतर्राष्ट्रीय बैठकों में वो न सिर्प अपने अलग किस्म के लिबास की वजह से बल्कि अपने धारदार भाषण और अपरांगत रंग-ढंग से भी औरों से अलग दिखे। वर्ष 1969 में जब उन्होंने सैनिक तख्त पलटकर सत्ता हासिल की थी तो मुअम्मर गद्दाफी एक खूबसूरत और करिश्माई युवा फौजी अधिकारी थे। स्वयं को मिस्र के जमाल अब्दुल नासिर का शिष्य बताने वाले गद्दाफी ने सत्ता हासिल करने के बाद खुद को कर्नल के खिताब से नवाजा और देश के आर्थिक सुधारों की तरफ तवज्जो दी, जो वर्षों की विदेशी अधीनता के चलते जर्जर हालत में थी। अगर नासिर ने स्वेज नहर को मिस्र की बेहतरी का रास्ता बनाया था तो कर्नल गद्दाफी ने तेल के भंडार को इसके लिए चुना। लीबिया में 1950 के दशक में तेल के बड़े भंडार का पता चल गया था लेकिन उसके खनन का काम पूरी तरह से विदेशी कम्पनियों के हाथ में था जो उसकी ऐसी कीमत तय करते थे, जो लीबिया के लिए नहीं बल्कि खरीदारों को फायदा पहुंचाती थी। गद्दाफी ने तेल कम्पनियों से कहा कि वो पुराने करार पर पुनर्विचार करें नहीं तो उनके हाथ से खनन का काम वापस ले लिया जाएगा। लीबिया वो पहला विकासशील देश था, जिसने तेल के खनन से मिलने वाली आमदनी में बड़ा हिस्सा हासिल किया। दूसरे अरब देशों ने भी उसका अनुसरण किया और अरब देशों में 1970 के दशक की पेट्रो-बूम यानि तेल की बेहतर कीमतों से शुरू हुआ खुशहाली का दौर। गद्दाफी ने अपने आरम्भिक दौर में लीबियाई नागरिकों के लिए कई ऐसी स्कीमें चालू कीं कि वह हीरो बन गए पर फिर उन्होंने आतंकवादी तत्वों का समर्थन करना आरम्भ कर दिया और धीरे-धीरे एक तानाशाह बन गए जो अपने किसी भी विरोध को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं थे। जो भी उनके खिलाफ आवाज उठाता उसे गोली मार दी जाती। बर्लिन के एक नाइट क्लब पर साल 1986 में हुआ हमला गद्दाफी की मदद से चरमपंथियों ने किया। इस क्लब में अकसर अमेरिकी फौजी आया करते थे। घटना से नाराज अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने त्रिपोली और बेन गाजी पर हवाई हमले किए। दूसरी घटना जिसने दुनिया को हिला दिया था, वो थी लॉकर बी शहर के पास पैन अमेरिकन एयरलाइंस जहाज में बम विस्फोट, जिसमें 270 लोग मारे गए थे। कर्नल गद्दाफी ने हमले के दो संदिग्धों को स्कॉटलैंड के हवाले करने से मना कर दिया जिसके बाद लीबिया के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र ने आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए जो दोनों लोगों के आत्मसमर्पण के बाद 1999 में हटाया गया। 2010 में ट्यूनीशिया से अरब जगत में बदलाव की क्रांति का प्रारम्भ हुआ तो उस संदर्भ में जिन देशों का नाम लिया गया, उनमें लीबिया को पहली पंक्ति में नहीं रखा गया था। क्योंकि गद्दाफी को पश्चिमी देशों का पिट्ठू नहीं समझा जाता था, जो क्षेत्र में जनता की नाराजगी का सबसे बड़ा कारण समझा जाता था। उन्होंने तेल से मिले धन को भी दिल खोलकर बांटा। यह अलग बात है कि आखिरी कुछ सालों में उसने अपना ध्यान अपने और अपने परिवार को अमीर करने में लगा दिया। एक अनुमान के अनुसार गद्दाफी के पास सात बिलियन डालर (3.50 खरब रुपये) मूल्य का सोना था। कनाडा में 2.4 बिलियन डालर (1.19 खरब रुपये), आस्ट्रिया में 1.7 बिलियन डालर (84 अरब रुपये), ब्रिटेन में एक बिलियन डालर (49 अरब रुपये) तो लीबिया क्रांति के शुरू होने के बाद जब्त किए गए हैं। दुनियाभर के बैंकों में लीबिया की 168 अरब डालर की सम्पत्ति है। छह माह चले विद्रोह में लीबिया को 15 अरब डालर का नुकसान हुआ है।
मुअम्मर गद्दाफी अपनी जीवन शैली एवं जीने के तौर-तरीकों खासतौर पर अमेरिका के साथ संबंधों को लेकर हमेशा सुर्खियों में रहे। अकसर खबरें आती थीं कि उनकी सुरक्षाकर्मी महिलाएं थीं। एक बार जब वे अमेरिका गए तो किसी भवन में नहीं ठहरकर अपना शिविर लगाकर रहे। वर्ष 1942 में गद्दाफी का जन्म एक खानाबदोश परिवार में हुआ। 1961 में लीबिया की यूनिवर्सिटी में इतिहास का अध्ययन करने गए थे और उसके बाद वह बेनगाजी सैन्य अकादमी में शामिल हो गए। 1965 में ग्रेजुएट होने के बाद गद्दाफी लीबिया सेना में अपनी सेवा देने लगे। उन्हें 1966 में प्रशिक्षण देने के लिए ब्रिटेन की रॉयल सैन्य अकादमी स्टूअर्ट भेजा गया। एक अगस्त 1969 में गद्दाफी के नेतृत्व वाले सैन्य अधिकारियों के एक दल (फ्री ऑफिसर मूवमेंट) ने रक्तहीन क्रांति के जरिये तत्कालीन शासक इद्रीस को मार दिया और लीबिया में अरब गणराज्य की स्थापना की। गद्दाफी कभी भी भारत का दोस्त नहीं रहा। 1971 में युद्ध के बाद वह सार्वजनिक रूप से पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो के साथ मातम में शामिल हुआ था। यही नहीं, भुट्टो ने मुस्लिम देशों से इस्लामिक बैंक और इस्लामिक बम बनाने का आह्वान किया था तो तानाशाह गद्दाफी ने भुट्टो को सबसे ज्यादा प्रोत्साहन दिया था। भुट्टो भी गद्दाफी से इतने प्रभावित थे कि उसके नाम पर अपने देश के सबसे अच्छे स्टेडियम में से एक लाहौर स्थित स्टेडियम का नाम गद्दाफी स्टेडियम रखा। गद्दाफी ने एक बार भारत को उस समय भी कूटनीतिक असमंजस में डाल दिया था जब उन्होंने कश्मीर को एक स्वतंत्र देश बनाने का समर्थन किया और कहा कि यह भारत और पाकिस्तान के बीच एक बाथिस्ट देश होना चाहिए। वर्ष 2009 में संयुक्त राष्ट्र में अपने पहले सम्बोधन में कहा था कि भारत उन देशों में शामिल है जो सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट के लिए होड़ कर रहा है। कश्मीर स्वतंत्र देश होना चाहिए न भारतीय न पाकिस्तानी। हमें इस संघर्ष को खत्म करना चाहिए। यह पहली बार था जब भारतीय उपमहाद्वीप से बाहर किसी इस्लामिक नेता ने भारत और पाकिस्तान से कश्मीर की पूर्ण स्वतंत्रता की वकालत की थी।
गद्दाफी ने सद्दाम हुसैन के शिकंजे में फंसने के बाद पश्चिम देशों के सामने हथियार डाले और अमेरिका का दोस्त बन गया। लेकिन जब अरब क्रांति के शुरू होते ही उनके अन्दर का तानाशाह जाग गया। इस दौरान लोकतांत्रिक आंदोलन को दबाने के लिए उन्होंने सामूहिक बलात्कार जैसे अमानुषिक हथियार तक इस्तेमाल करने से परहेज नहीं किया। कर्नल गद्दाफी की यह नियति अलबत्ता कहीं न कहीं पश्चिम की दोहरी नीति का ही एक और उदाहरण है। यूरोप-अमेरिका ने अरब देशों का अधिक से अधिक दोहन भी किया और उन्हें उनके हाल पर छोड़ भी दिया। जाहिर है, पश्चिम के समर्थन के बगैर गद्दाफी चार दशकों तक अपना निरंकुश शासन नहीं चला सकता था और अब उनकी मौत के बाद लीबिया को लोकतंत्र के रास्ते पर ले जाने का रास्ता न तो राष्ट्रीय अंतरिम परिषद के पास है और न ही उनके आका यूरोप-अमेरिका के पास। जब अफगानिस्तान और इराक में ही शांति और स्थिरता का लक्ष्य पूरा नहीं हो पाया है तो लीबिया के जमीनी हालत तो इनसे भी जटिल हैं। अंतिम क्षणों तक गद्दाफी ने हथियार नहीं डाले और विदेशी सेना और नए शासन के लड़ाकों के खिलाफ घंटों मोर्चा सम्भाले रखा। सैनिकों ने बर्बरता से लात-घूंसों से पिटाई की और पैर-पीठ में गोली मार दी।
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