Thursday, 14 April 2022

भारत-अमेरिका संबंधों की अहमियत

भारत और अमेरिका के संबंधों की अहमियत आज जितनी है, उतनी कभी नहीं थी। इतिहास तो संबंधों की दृष्टि से खट्टा-मीठा रहा किंतु चीन की वजह से भारत के लिए जितना अमेरिका महत्वपूर्ण हो चुका है, अमेरिका के लिए उतना ही भारत। यह गलतफहमी हमें अपने दिल और दिमाग से निकाल देनी चाहिए कि हमारे संबंध रूस से बहुत अच्छे हैं तो वह चीन के मामले में हमारा साथ देगा। ऐसा पहले भी हुआ है। 1962 के युद्ध में भारत ने सोवियत संघ के राष्ट्रपति से गुहार लगाई थी कि वह चीन के खिलाफ कार्रवाई करे किंतु सोवियत सरकार ने टका-सा जवाब देते हुए कहा, ‘आप हमारे दोस्त हैं और चीन हमारा भाई, इसलिए हम आप व चीन के मामले में तटस्थ ही रहना उचित समझते हैं।’ लेकिन अमेरिका ने ऐसा नहीं किया। अमेरिका ने पहले ही कूटनीतिक चैनल से भारत को आगाह कर दिया था कि चीन हमले की तैयारी में है। सोवियत संघ से जवाब मिलने के बाद हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने भारत-अमेरिका के राजदूत जेके गालब्रेथ की पहल पर राष्ट्रपति जान एफ केनेडी से मदद की गुहार लगाई थी। केनेडी ने मना नहीं किया। तत्कालीन पाक सरकार को भनक लगी कि अमेरिका भारत की मदद के लिए पं. नेहरू को वचन दे चुका है तो भी टांग अड़ाने की कोशिश की थी किंतु केनेडी प्रशासन ने पाकिस्तान को दो टूक कह दिया कि अमेरिका भारत की जो भी सामरिक सहायता कर रहा है उसका इस्लामाबाद से कोई मतलब नहीं है। इसलिए पाकिस्तान फटे में टांग न अड़ाए। अमेरिका ने सिर्फ आश्वासन ही नहीं दिया पंडित नेहरू को बल्कि अमेfिरकी एयरफोर्स जैसे ही चुसूल हवाई अ़ड्डे पर पहुंची चीन ने एकतरफा युद्धबंदी की घोषणा कर दी। इसलिए हमारी चीन के मामले में अमेरिका जितनी मदद कर सकता है, उतनी रूस कभी भी नहीं कर पाएगा। यद्यपि रूस इस वास्तविकता को जानता है कि आज से पांच दशक बाद रूस और चीन की आपस में ही भिड़ंत होनी है। बहरहाल भारत और अमेरिका के बीच संबंध जितने अच्छे आज हैं, उतने इतिहास में कभी भी नहीं रहे। इसका कारण है कि शीत युद्ध के दौरान भारत ने खुलकर अमेरिका का विरोध किया था और सोवियत संघ का समर्थन किया था। गुटनिरपेक्ष आंदोलन की वास्तविकता इसी बात से आंकी जा सकती है। भारत ने 1971 में सोवियत संघ से बीस वर्षों के लिए मैत्री संबंधों पर हस्ताक्षर किए थे। सोवियत संघ के विघटन के बाद भारत को दुनिया में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए अमेरिका, यूरोपियन एवं अफ्रीकी देशों में पैठ बढ़ाने की जरूरत पड़ी। ऐसा तभी संभव था जब भारत रूस को नाराज किए बिना अमेरिका के साथ अच्छे संबंध बनाए। दूसरी तरफ अमेरिका को लगा कि चीन को एशिया में ही नहीं घेरा गया तो वह अफ्रीका और यूरोपीय देशों में उसके लिए सिर दर्द बन जाएगा। इसीलिए राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने भारत के साथ संबंधों को सामरिक एवं व्यापारिक बनाने की शुरुआत की। आज की तारीख में भले ही ब्रिक्स (भारत, ब्राजील, चीन, साउथ अफ्रीका), इरिक (भारत, रूस, चीन) शंघाई सहयोग संगठन का सदस्य है किंतु अमेरिका के साथ क्वाड (अमेरिका, आस्ट्रेलिया, भारत और जापान) में मिलकर चीन के खिलाफ रणनीति बनाने वालों में भी शामिल है। जी-23 का अहम सदस्य होने के कारण वह अमेरिका एवं यूरोपीय देशों में सम्मानपूर्वक अपनी भूमिका निभाता है। भारत को पहले सिर्फ पाकिस्तान की खुराफातों से ही डर था किंतु अब पाकिस्तान और चीन दोनों से ही एक साथ डर है। भारत और अमेरिका के रक्षा एवं विदेश मंत्रियों के साथ हुई बैठकों में दोनों देशों के बीच कूटनीतिक एवं सामरिक संबंधों के बीच व्यावहारिक अड़चनों पर विचार-विमर्श होता रहता है। इस बार हमारे रक्षा और विदेश मंत्री वाशिंगटन डीसी गए थे जबकि इससे पहले अमेरिका के दोनों मंत्री नई दिल्ली आए थे। अब अगली बैठक जब भी होगी तो फिर अमेरिका के दोनों मंत्री नई दिल्ली आएंगे। संबंधों में इतनी परिपक्वता आ चुकी है कि भारत के साथ रूस के संबंधों पर अमेरिकी सांसदों की टिप्पणी का जवाब खुद राष्ट्रपति बिडेन, रक्षामंत्री और वहां के प्रवक्ताओं ने यह कह कर दिया कि रूस के साथ भारत के पुराने रिश्ते हैं और कुछ भारत की मजबूरी है। किंतु उसके संबंध अमेरिका से बहुत अच्छे हैं। जो बात भारत नहीं कह सकता, वह अमेरिकी प्रशासन भारत की तरफ से सफाई देते हुए कहता है। अमेरिका ने भारत द्वारा रूस से कच्चे तेल पर उठे बवंडर को शांत करने के उद्देश्य से ही कहा कि जितना भारत ने रूस से पूरे महीने में तेल लिया उससे ज्यादा अमेरिका ने सिर्फ दो दिनों में ले लिया। भारत सिर्फ 2 प्रतिशत तेल लेता है जबकि अमेरिका 43 प्रतिशत तेल रूस से ले रहा है, इसी तरह एस-400 मिसाइल को लेकर अमेरिका के सेनेटर और कांग्रेस मैन खुलकर अपने राष्ट्रपति से आग्रह कर चुके हैं कि भारत जो भी अपनी सुरक्षा सामग्री रूस से ले रहा है, वह चीन के खिलाफ ही तैयारी के लिए ले रहा है। इसलिए अमेरिका काटसा के तहत भारत के खिलाफ प्रतिबंध न लगाए। लब्बोलुआब यह है कि भारत के लिए रूस की मित्रता महत्वपूर्ण है किंतु भारत अपनी सुरक्षा जरूरतों की वजह से अमेरिका के साथ संबंध प्रगाढ़ बनाए बिना नहीं रह सकता। यही कारण है कि दशकों से भारत और अमेरिका के बीच बाधा बनी अविश्वास की खाई अब पूरी तरह पट चुकी है और दोनों देशों के बीच मजबूत कूटनीतिक, खुफिया सूचनाओं के आदान-प्रदान एवं रक्षा के क्षेत्र में संबंध स्थापित हो चुके हैं। जरूरत है अमेरिका और रूस के साथ अपने संबंधों को जारी रखते हुए संतुलन बनाए रखने की।

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