योजना आयोग पता नहीं कौन-सी दुनिया में रहता है। आयोग की गरीबी की नई परिभाषा तो गरीबों का मजाक उड़ाने जैसा है। योजना आयोग के अनुसार गांव में 22.42 रुपये और शहरों में 28.65 रुपये प्रतिदिन खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं है। अगर वह गरीब नहीं तो जाहिर-सी बात है कि वह अमीर है। पिछले साल सितम्बर में योजना आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल कर गरीबी का जो मानक पेश किए थे उसको लेकर काफी होहल्ला मचा था। उस वक्त गरीब का जो पैमाना तैयार किया गया था उसके अनुसार शहरों में 32 रुपये और गांव में 28 रुपये खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं माना गया था। आर्थिक विशेषज्ञों और राजनीतिक दलों के हंगामे पर सरकार गरीबी के नए मानक तैयार करने को राजी हो गई थी। लेकिन सोमवार को गरीबी के जो नए मानक पेश किए वह तो पिछली बार से भी ज्यादा बेतुका और अविश्वसनीय है। सवाल है कि जो व्यक्ति गरीब है उसे मानने में सरकार क्यों हिचकिचा रही है? संसद से लेकर सड़क तक योजना आयोग के उपाध्यक्ष और मनमोहन सिंह के चहेते मोंटेक सिंह आहलूवालिया (जिन्हें प्रधानमंत्री वित्त मंत्री बनाना चाहते थे) निशाने पर हैं। योजना आयोग के ताजे आंकड़े बता रहे हैं कि देश में गरीबों की संख्या घट गई है और शहरों में जिसकी जेब में 28 रुपये हैं तो वह गरीब नहीं है। इन अजीबोगरीब आंकड़ों पर संसद में भाजपा हो या वाम दल, सभी ने सरकार और मोंटेक सिंह को आड़े हाथों लिया। भाजपा के एसएस आहलूवालिया ने तो यहां तक कह दिया कि क्या प्रधानमंत्री या वित्त मंत्री रोजना 28 रुपये में गुजारा कर सकते हैं? उन्होंने कहा कि मैं नहीं जानता कौन-सी लाइन खींची जा रही है। 28 रुपये के रोजाना के खर्च को आधार मानकर गरीबी रेखा तय करना ठीक नहीं है। यह गरीबी रेखा नहीं, भुखमरी रेखा है। जद (यू) सांसद शिवानन्द तिवारी ने आरोप लगाया कि योजना आयोग, विश्व बैंक के इशारों पर काम कर रहा है। जद (यू) के शरद यादव ने बुधवार को उस विषय पर बोलते हुए कहा कि योजना आयोग के नए मानदंडों को देश के गरीबों का कूर मजाक है। आयोग के उपाध्यक्ष (मोंटेक सिंह आहलूवालिया) जब भी बोलते हैं तो देश में हाहाकार मच जाता है और महंगाई बढ़ जाती है। योजना आयोग में ऐसे व्यक्ति को बैठाया जाए जो वर्ल्ड बैंक का पूर्व कर्मचारी न होकर जमीनी हकीकत से वाकिफ हो। शरद यादव ने कहा कि मेरी सरकार से विनती है कि योजना आयोग को इस व्यक्ति (मोंटेक सिंह) से छुटकारा दिलाए या योजना आयोग को बन्द कर दें। सुषमा स्वराज ने कहा कि योजना आयोग को क्या दोष देना, दोष तो सरकार का है जो स्वीकार करती है रिपोर्ट। आयोग ने पहले भी उड़ाया था मजाक। रघुवंश प्रसाद सिंह की टिप्पणी भी इन्हीं लाइनों पर थी। गरीबों के साथ इस तरह का मजाक गरीबी उन्मूलन संबंधी योजनाओं पर खड़ा करता है सवाल। मुलायम सिंह यादव ने कहा, `लिखा-पढ़ा नहीं होगा वास्तविक आकलन, इसके लिए दूरदराज गांवों में जाकर देखनी होगी हकीकत।' अगर वास्तविकता तौर पर देखा जाए तो देश की आधी से ज्यादा आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रही है। सरकार ने जल्द ही नया खाद्य सुरक्षा कानून लागू करने की बात कही है। इस कानून के तहत देश के हर गरीब को दो रुपये प्रति किलो गेहूं और तीन रुपये प्रति किलो चावल दिया जाना है। ऐसे में देश की आधी से ज्यादा आबादी को रियायती दरों पर गेहूं-चावल मुहैया कराने से सरकार पर वित्तीय बोझ काफी बढ़ जाएगा। इसीलिए सरकार गरीबों की संख्या कम करके दिखाना चाहती है। इसके अलावा एक वजह यह भी हो सकती है कि सरकार अपने आर्थिक सुधारों की नीति की सार्थकता सिद्ध करने के लिए भी गरीबों की संख्या कम करके दिखाने का प्रयास कर रही है। जिस हिसाब से इस सरकार की आर्थिक नीतियां चल रही हैं उससे तो अगर खाद्य वस्तुओं की कीमतें सिर्प 10 फीसद बढ़ती हैं तो मेरे भारत महान में तीन करोड़ नए लोग गरीबी रेखा के नीचे आ जाएंगे। हमारा सुझाव है कि हमारे तथाकथित अर्थशास्त्राr मनमोहन सिंह, प्रणब मुखर्जी, मोंटेक सिंह और सी. रंगराजन जैसे दर्जनों इस सरकार के आर्थिक विशेषज्ञ देश के दूरदराज गांवों का दौरा करें और देखें कि आज गरीब आदमी किस परिस्थिति में जीने पर मजबूर है। ऐसा करने के बाद तय करें गरीबों की परिभाषा। ताजी परिभाषा बकवास है, गरीबी से जलों पर नमक छिड़कने समान है।
Anil Narendra, Daily Pratap, Manmohan Singh, Montek Singh Ahluwalia, Poverty, Pranab Mukherjee, Vir Arjun
No comments:
Post a Comment