भारतीय जनता पार्टी के लिए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव थोड़ी खुशी और ज्यादा गम लाए हैं। खुशी की वजह है गोवा परिणाम। गोवा में भाजपा और महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिल गया है। भाजपा ने पहली बार खूबसूरत तटों वाले इस राज्य में 21 सीटें जीतकर अकेले अपने दमखम से बहुमत हासिल किया। गोवा में भाजपा की इस जीत के असल नायक पूर्व मुख्यमंत्री पार्रिकर हैं। चुनावी कमान उन्हीं के हाथों में थी। गोवा में मेरी राय में एक बहुत बड़ी उपलब्धि भाजपा की यह है कि उसने अल्पसंख्यकों के समर्थन से सत्ता पाई। गोवा के ईसाइयों ने यह साबित कर दिया कि भाजपा अछूती नहीं है। दक्षिण गोवा की 17 में से 8 सीटें पार्टी उन क्षेत्रों से जीते हैं जहां ईसाई बहुमत है। भाजपा ने खुद 6 ईसाई उम्मीदवार खड़े किए थे और 2 निर्दलीयों का समर्थन किया था। सभी आठों जीते। पार्टी को सबसे बड़ा झटका उत्तर प्रदेश में लगा है। उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम भाजपा को 2014 में केंद्र में राजग सरकार बनाने की उम्मीदों पर बड़ा झटका साबित हुए। भाजपा उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में रोपे गए बीज से केंद्र में 2014 के लोकसभा चुनावों में सफलता का अनुमान लगा रही थी, लेकिन परिणाम आए उससे निराशा और चिन्ता ही हाथ लगी है। उत्तर प्रदेश फिर एक बार तमिलनाडु की राह पर चला गया है जहां राष्ट्रीय दल की भूमिका अप्रासंगिक-सी हो गई है। भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की चुनावी प्रयोगशाला बने यूपी चुनावों में जहां एक-एक करके सभी प्रयोगों को धराशायी कर दिया वहीं पार्टी के कई दिग्गजों को धूल चटाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। रूठे मतदाताओं को मनाने का जिम्मा राष्ट्रीय स्वयं संघ और अध्यक्ष नितिन गडकरी ने मिलकर उठाया। सबसे पहले गडकरी ने संघ के समर्थन की बदौलत पार्टी के कद्दावर नेता और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के विरोध के बावजूद संघ के प्रचार रहे पूर्व संगठन मंत्री संजय जोशी को यूपी के चुनावों में सक्रिय किया। दूसरा गडकरी ने सभी पार्टी नेताओ के विरोध के बावजूद बसपा से निष्कासित बाबू सिंह कुशवाहा और बादशाह सिंह को पार्टी में शामिल किया। बढ़ते विरोध के चलते कुशवाहा की सदस्यता को तो निलंबित कर दिया लेकिन भ्रष्टाचार के दूसरे आरोपी बादशाह सिंह को पार्टी में बनाए रखा बल्कि उनको महोबा से चुनाव मैदान में उतार दिया। पार्टी ने बुंदेलखंड को लेकर जितने भी प्रयोग किए सिवाय उसमें एकमात्र उमा भारती के अलावा कोई सफल नहीं हो सका। मुस्लिम मतों के ध्रुवीकरण को रोकने के लिए अपने सभी फायर ब्रांड नेताओं वरुण गांधी, योगी आदित्यनाथ को जहां अपने क्षेत्र तक सीमित कर दिया वहीं दूसरी तरफ हिन्दुवादी चेहरा माने जाने वाले नरेन्द्र मोदी को न्यौता तो भेजा लेकिन जब उनकी नाराजगी जाहिर हुई तो उन्हें मनाने का कोई प्रयास नहीं किया गया। पार्टी के सभी प्रयासों के बाद भी पार्टी मुस्लिम मतों का ध्रुवीकरण करने से तो न रोक सकी बल्कि वह अपने इस प्रयास में अपने परम्परागत मतदाताओं का भी वोट गंवा बैठे, जिसके चलते पार्टी 2007 के प्रदर्शन को दोहराना तो दूर रहा, उससे भी कम हो गई। अयोध्या में 6 दिसम्बर 1992 को विवादित ढांचे गिरने के बाद यह पहला मौका है जब भारतीय जनता पार्टी का प्रत्याशी लल्लू सिंह सपा के तेज नारायण पांडे उर्प पवन पांडे से हार गया। लल्लू सिंह 1991 से लगातार यह सीट जीतते आ रहे थे। उत्तर प्रदेश के लिए उम्मीदवारों का चयन भी संघ, गडकरी और संजय जोशी ने किया। इन्होंने ऐसे फिसड्डी उम्मीदवार खड़े किए जिन्होंने न केवल पार्टी की भद्द पिटवाई बल्कि यह संघर्ष में न आकर चौथे स्थान पर रहे जहां भी ज्यादातर ने जमानत तक गंवा दी। 122 ऐसे प्रत्याशी हारे हैं जो चतुष्कोणीय लड़ाई में भी जगह नहीं बना सके। भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने यूपी के अन्दर बदलाव के लिए लम्बी तैयारी की थी। पार्टी के अन्दर के पुराने परम्परावादी रवैये के बजाय कई नए प्रयोग किए और यही नहीं, गडकरी एण्ड कम्पनी ने अलग सर्वेक्षण कराया जिससे कि अव्वल प्रत्याशी चयन हो सके। चुनाव बाद जो स्थिति बनी है उसमें भाजपा के चौथे स्थान पर करीब 122 प्रत्याशी रहे जिनमें से ज्यादातर अपनी जमानत बचाने के लिए संघर्ष करते रहे। कई प्रत्याशी तो ऐसे थे जिनको 5000 वोट लाने के लाले पड़ गए। उत्तर प्रदेश में भाजपा हाशिये पर चली गई और इसके लिए जिम्मेदार हैं संघ, नितिन गडकरी और संजय जोशी सरीखे के नेता।
Anil Narendra, BJP, Daily Pratap, Elections, Goa, Nitin Gadkari, Punjab, RSS, Sanjay Joshi, State Elections, Uttar Pradesh, Uttara Khand, Vir Arjun
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