Wednesday 2 November 2011

मीडिया का गला घोंटने की तैयारी

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 2nd November 2011
अनिल नरेन्द्र
जब हमारे दादा जी स्वर्गीय महाशय कृष्ण जी ने प्रताप अखबार शुरू किया था तो उस समय पत्रकारिता एक मिशन थी। उस समय मिशन था भारत की आजादी। इस मिशन को लेकर उन्होंने अपना तन-मन-धन सब कुछ लगा दिया पर आज मैं देखता हूं कि पत्रकारिता एक मिशन नहीं बल्कि एक पेशा बन गई है। खासतौर पर इन इलैक्ट्रॉनिक चैनलों के आने से। आज वह अधिकांशत एक व्यावसायिक गतिविधि है। लेकिन हर पेशे या व्यवसाय के कुछ कायदे और मानदंड होते हैं। इसी बात को ध्यान में रखकर भारतीय प्रेस परिषद की स्थापना हुई थी। उसने डेढ़ दशक पहले पत्र-पत्रकारिताओं और समाचार एजेंसियों के लिए आचार संहिता तैयार की और कुछ साल बाद उसे संशोधित भी किया। इस संहिता में दी गई हिदायतें व्यापक जनहित से प्रेरित रही हैं। उदाहरण के तौर पर सांप्रदायिक घटनाओं की खबर देते समय किस तरह की सावधानी बरती जाए, हिंसा को किसी भी सूरत में महिमामंडित न किया जाए, किसी की निजता में दखल देने से बचा जाए, खबर या आरोप से प्रभावित व्यक्ति के स्पष्टीकरण को जगह दी जाए, बलात्कार का निशाना बनी युवती का असल नाम, पता न दिया जाए इत्यादि इत्यादि। इन मानदंडों को प्रिन्ट जगत ने सहजता से स्वीकार भी किया पर इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के आने से यह तस्वीर बदल गई। टीआरपी की होड़ में एक चैनल दूसरे को मात देने के चक्कर में फंस गए और कई बार स्वीकार्य मानदंडों की सीमा लांघ गए। फिर जब घोटालों का दौर आया तो इलैक्ट्रॉनिक चैनलों ने एक के बाद एक घोटाले को हाई लाइट किया और प्रभावित पार्टियां रोज-रोज के नए रहस्योद्घाटनों से परेशान हो गई। इनमें सरकार सबसे ज्यादा प्रभावित हुई। अचानक प्रेस परिषद ने ऐसी राय जाहिर की है जिससे उसके और मीडिया के बीच खटास पैदा हो सकती है। गौरतलब है कि परिषद के अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू ने पिछले दिनों कहा कि सरकार, निजी क्षेत्र और बौद्धिक तबके में यह धारणा दृढ़ होती जा रही है कि मीडिया का एक हिस्सा बेहद गैर जिम्मेदाराना ढंग से काम कर रहा है। गलत और भ्रामक रिपोर्टिंग करने, घटनाओं को अतरंजित ढंग से पेश करने और सनसनी पैदा करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। इसे गम्भीरता से लेने और दोषियों पर लगाम लगाने की जरूरत है। एक टीवी चैनल को कुछ दिन पहले दिए एक साक्षात्कार में जस्टिस काटजू ने बताया कि उन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा है कि इलैक्ट्रॉनिक मीडिया को प्रेस काउंसिल के दायरे में लाना चाहिए। उन्होंने प्रेस काउंसिल का नाम बदलकर मीडिया काउंसिल करने की सलाह देते हुए कहा है कि उसे ज्यादा अधिकार देने चाहिए। उन्होंने बताया कि प्रधानमंत्री का उत्तर भी मिल गया है जिसमें उन्होंने कहा है कि इस पर विचार कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि वह इस सिलसिले में लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज से भी मिले हैं और सुषमा जी ने उनसे कहा कि सम्भवत इस बारे में सहमति बन जाएगी। उन्होंने कहा कि प्रेस काउंसिल को गैर जिम्मेदाराना ढंग से आचरण करने वाले मीडिया संस्थान का लाइसेंस रद्द करने और उसे मिलने वाले सरकारी विज्ञापन बन्द करने का अधिकार दिया जाना चाहिए। यह पूछे जाने पर कि मीडिया की स्वतंत्रता पर इससे आंच नहीं आएगी, जस्टिस काटजू ने कहा कि लोकतंत्र के प्रति हर कोई जवाबदेह है। कोई भी आजादी बेलगाम नहीं होती है। मैं भी जवाबदेह हूं, आप भी जवाबदेह हैं। हम सभी जनता के प्रति जवाबदेह हैं। उन्होंने कहा कि टीवी चैनलों पर होने वाली चर्चाएं बेतुकी हैं। यह कोई शोर मचाने की स्पर्धा नहीं है। उन्होंने तुलसीदास की चौपाई `भय बिन होय न प्रीत' का उल्लेख करते हुए कहा कि मीडिया को भी कुछ डर तो होना चाहिए। उन्होंने कहा की मीडिया कभी-कभी जनहित के खिलाफ काम करने लग जाती है। उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि जब कभी मुंबई, दिल्ली, बेंगलुरु में कहीं भी बम विस्फोट होता है तो कुछ ही घंटों में हर चैनल यह दिखाने में लग जाता है कि उन्हें ईमेल या एसएमएस मिला है जिसमें इंडियन मुजाहिद्दीन, जैश-ए-मोहम्मद या हरकत-उल-अंसार या मुस्लिम नाम वाले किसी अन्य संगठन ने इस विस्फोट की जिम्मेदारी ली है। उन्होंने कहा कि आपको जो ईमेल या एसएमएस मिलता है, वह किसी शरारती तत्व का काम भी हो सकता है लेकिन टीवी चैनल पर इस तरह से दिखाया जाने लगता है जैसे कि सारे मुसलमान आतंकी हों या बम फेंकने वाले हों। न्यायमूर्ति काटजू ने आशंका जताई कि यह सब जानबूझ कर जनता में दरार पैदा करने के लिए किया जाता है और यह कृत्य पूरी तरह राष्ट्र विरोधी है।

हम जस्टिस काटजू का बहुत सम्मान करते हैं पर उनसे माफी मांगें कि हम उनके विचारों व टिप्पणियों से सहमत नहीं हैं। मीडिया का काम है सच्चाई दिखाना, चाहे वह कितनी कड़वी ही क्यों न हो। यह कहना कि मीडिया जानबूझ कर सांप्रदायिकता को बढ़ावा दे रहा है सरासर गलत और दुर्भाग्यपूर्ण है। हम बताना चाहेंगे कि प्रेस परिषद को सरकार का भोंपू नहीं बनना चाहिए। उसकी चिन्ता वही नहीं होनी चाहिए जो सरकार की है। यह संतोष करने की बात है कि दोनों की भाषा और लहजे में काफी साम्य दिखता है। फर्प यह है कि सरकार को जहां पूरा मीडिया गैर जिम्मेदार दिखता है वहीं जस्टिस काटजू ने मीडिया के एक हिस्से (इलैक्ट्रॉनिक) को कठघरे में खड़ा किया है। काटजू ऐसे उपाय सुझा रहे हैं जो मीडिया की स्वतंत्रता के लिए घातक साबित हो सकते हैं। क्या अब सरकार हर अखबार, हर चैनल को उसके हिसाब से चलाएगी? अगर ऐसा नहीं होता तो उसको नुकसान पहुंचाने के लिए विज्ञापन रोकने की धमकी दी जाएगी? न्यायमूर्ति भी मानते हैं कि मीडिया को हांका नहीं जा सकता। मगर वे जो सुझाव दे रहे हैं वे अगर कानूनी प्रावधान के रूप में आ गए तो मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार उनका डंडे की तरह इस्तेमाल करने में हिचकिचाएगी नहीं। पत्रकारिता के मानदंडों का पालन हर समाचार पत्र और चैनल को सुनिश्चित करना होगा, मगर ऐसे किसी भी प्रयास के बारे में न सोचा जाए जो सरकार के लिए मीडिया पर अपनी मर्जी थोपने का एक जरिया हो। सरकार को मीडिया का गला घोंटने से बचना चाहिए। बेहतर हो कि वह इतिहास से कुछ सबक ले। पहले भी ऐसा करने का विफल प्रयास किया जा चुका है।
Anil Narendra, Daily Pratap, Justice Katju, Press Council of India, Role of Media, Vir Arjun

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