Wednesday, 30 November 2011

सरकार को रिटेल में एफडीआई का फैसला टाल देना चाहिए



Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 30th November 2011
अनिल नरेन्द्र
रिटेल क्षेत्र में खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की मंजूरी का मुद्दा मनमोहन सिंह सरकार के लिए बड़ा राजनीतिक सिरदर्द बन गया है। संसद से लेकर सड़कों तक सरकार को एफडीआई को लेकर तीखे विरोध का सामना करना पड़ रहा है। यूपीए सरकार के मल्टी ब्रांड रिटेल में 57 फीसदी और सिंगल ब्रांड रिटेल में 100 फीसदी की इजाजत देकर कैबिनेट ने ऐसी मुसीबत मोल ले ली है कि कांग्रेस के विरोधी तो एक तरफ इस सरकार के कुछ सहयोगी भी इसके खिलाफ लामबंद हो गए हैं। हमें तो यह समझ नहीं आया कि ऐसे समय जब यह सरकार महंगाई, ब्लैक मनी, विदेशों में जमा पैसों को वापस लाने, जन लोकपाल की समस्याओं से घिरी हुई थी तो उसे इसी समय यह एफडीआई का मसला लाना था? सरकार की टाइमिंग पर हैरानी हो रही है। पहले से भ्रष्टाचार, घोटालों, महंगाई के मोर्चे पर संप्रग सरकार की नाकामियों का असर उसकी अगुवाई कर रही कांग्रेस की सेहत पर भी पड़ने लगा है। सरकार के फैसलों के चलते एक के बाद एक नई दिक्कत के पैदा होने से कांग्रेस पार्टी के माथे पर भी बल पड़ने लगा है। पार्टी के लिए सबसे बड़ी परेशानी अगले साल पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव हैं। पंजाब और उत्तराखंड में तो अगले दो-तीन महीने के भीतर चुनाव हैं। इसके बाद उत्तर प्रदेश जैसे देश के सबसे बड़े राज्य में चुनाव हैं, जिसमें पार्टी की हार-जीत पर महासचिव राहुल गांधी का बहुत कुछ दाव पर लगा हुआ है। हमें समझ नहीं आया कि प्रधानमंत्री ने यह कैसे सोच लिया कि बिना तैयारी के, होमवर्प किए इतने बड़े कदम को उठाया जाए? इसलिए अचरज फैसले पर नहीं बल्कि इस फैसले के टाइमिंग पर है कि विरोधियों की बारिश के बीच सरकार ने रिटेल की पतंग उड़ाने का जोखिम उठाया है। भारत का (संगठित व असंगठित) खुदरा कारोबार यकीनन बहुत बड़ा है। 2008-09 में कुल खुदरा बाजार 17,594 अरब रुपये का था। यह 2004-05 के बाद से औसतन 12 फीसदी सालाना बढ़ रहा है और 2020 तक 53,517 अरब रुपये का हो जाएगा। नाबार्ड की रिपोर्ट बताती है कि संगठित रिटेल करीब 855 अरब रुपये का है। इसमें 2000 फुट के छोटे स्टोर (सुमिक्षा मॉडल) से लेकर 25,000 फुट तक के मल्टी ब्रांड हाइपर मार्केट (बिग बाजार, स्पेंसर, ईजीडे, रिलायंस) आदि आते हैं। खुदरा कारोबार में तेज ग्रोथ के बावजूद संगठित रिटेल इस अरबों के बाजार में पिछले एक दशक में केवल पांच फीसदी हिस्सा ले पाया है। मगर इस पांच फीसदी हिस्से ने करीब एक करोड़ रोजगार पैदा किए हैं, जो 2020 तक बढ़कर 1.84 करोड़ हो जाएंगे। खुदरा बाजार में विदेशी कम्पनियों का खौफ पुराना है। छोटे देशों में, भीमकाय वॉलमार्ट, चतुर ट्रेस्को और आक्रामक कार्पू जैस रिटेल दिग्गजों के असर की कहानियों से यह डर और बढ़ जाता है क्योंकि संगठित रिटेल अगर उपभोक्ताओं की सुविधा और बेकारों को रोजगार के फूल देता है तो बदले में असंगठित व छोटे व्यापारियों के कारोबार को कांटों में घेर देता है। भारत के मामले में इस खतरे को कुछ तथ्यों के तहत रखने की जरूरत है। भारत में कुल रिटेल का करीब 61 फीसदी हिस्सा खाद्य उत्पादों (अनाज, दाल, फल-सब्जी, दूध, चाय, कॉफी, अण्डा, चिकन, मसाले) के खुदरा कारोबार का है। यह करीब 11,000 अरब रुपये बैठता है। इस कारोबार पर असंगठित क्षेत्र का राज है। रिटेल को लेकर उपभोक्ताओं के व्यवहार को नाबार्ड के एक ताजा सर्वेक्षण में करीब से पकड़ा गया है। देश के 23 शहरों में विभिन्न आयु व आय वर्ग के उपभोक्ताओं के बीच हुआ यह सर्वेक्षण बताता है कि महानगरों में करीब 68 फीसदी अनाज, दाल, मसाले (ग्रोसरी) और 80 से 90 फीसदी फल-सब्जियां, दूध, मीट, अण्डे आदि छोटी दुकानों से खरीदे जाते हैं। दूसरे दर्जे के शहरों में यह प्रतिशत 79 (ग्रोसरी) और 92 से 98 (फल-सब्जियां, दूध आदि) के बीच है अर्थात् रिलायंस, बिग बाजार, स्पेंसर ईजीडे जैसे बड़े विकेता खाद्य उत्पादों के मामले में उपभोक्ताओं का दिल नहीं जीत पाए हैं। खाद्य उत्पादों का कुल कारोबार में संगठित रिटेल दो फीसदी से भी कम है। नाबार्ड के सर्वे के मुताबिक असंगठित विकेता उपभोक्ताओं के घर से औसतन 280 मीटर की दूरी पर स्थित है जबकि संगठित क्षेत्र की दुकानों की पूरी औसतन डेढ़ किलोमीटर है। संगठित रिटेल से महंगाई घटेगी ऐसा भी नहीं लगता। बेशक कुछ मुल्कों में ऐसा हुआ हो पर हमें नहीं लगता कि भारत में इसका महंगाई पर कोई खास असर पड़ेगा। ज्यादातर रिटेलरों की खरीद स्थानीय मंडियों, थोक व्यापारियों, एजेंटों के जरिये होती है और यहां कीमतें कम करने की खास गुंजाइश नहीं होती। इसलिए खाद्य उत्पादों के मामले में संगठित व असंगठित क्षेत्र की कीमतों में कोई फर्प नहीं होता। यही वजह है कि भारतीय उपभोक्ताओं का 60 फीसदी उपयोग खर्च और इस खर्च पर हावी महंगाई को रिटेल क्रांति से कोई मदद नहीं मिली। किसानों को भी इसका कोई बड़ा फायदा नहीं हुआ, क्योंकि भंडारण व आपूर्ति का ढांचा गैर हाजिर है।
देश के मध्यम और छोटे शहरों में रेहड़ी-ठेला लगाने, फल-सब्जी बेचने वाले छोटे दुकानदार और किसान अपने भविष्य को लेकर अगर चिंतित हैं तो उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता। विशेषज्ञों का कहना है कि भारत के खुदरा कारोबार से करीब साढ़े तीन करोड़ लोगों को रोजगार मिलता है और अगर एक परिवार में पांच सदस्य को भी आधार माना जाए तो 18 करोड़ लोग इस खुदरा कारोबार पर आधारित हैं। सरकार के लिए इनकी वैकल्पिक व्यवस्था एक बहुत बड़ा सवाल है। इन प्रश्नों के बावजूद मनमोहन सिंह की संप्रग सरकार अपने फैसले पर अडिग है। सूत्रों के मुताबिक कांग्रेस के भीतर और बाहर तीखे विरोध के बावजूद सोमवार को प्रधानमंत्री निवास पर कांग्रेस कोर ग्रुप की बैठक में यह निर्णय लिया गया है कि सरकार एफडीआई पर कैबिनेट के फैसले को वापस नहीं लेगी। प्रधानमंत्री निवास पर हुई इस बैठक में सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, प्रणब मुखर्जी, आनन्द शर्मा और अहमद पटेल मौजूद थे। राजनीतिक विरोध के चलते रिटेल में विदेशी दुकानें खोलना आसान नहीं दिख रहा है। पश्चिम बंगाल, यूपी के बाद तमिलनाडु द्वारा विदेशी दुकानों की अनुमति नहीं देने की घोषणा से विरोधी राज्यों की संख्या 28 हो गई है। जिन राज्यों ने एफडीआई का खुलकर विरोध किया है उनमें प्रमुख हैंöउत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, तमिलनाडु, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़। भाजपा, अन्ना द्रमुक, द्रमुक, वाम दल, समाजवादी पार्टी व तृणमूल कांग्रेस सभी इसका विरोध कर रहे हैं। सरकार को चाहिए कि वह एफडीआई के मुद्दे को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनाए और अपने फैसले को टाल दे। अभी इस मुद्दे पर बहस बहुत जरूरी है। इसके फायदे-नुकसान का सही आंकलन होना चाहिए तभी यह स्वीकार्य होगा। केवल संसद में ही नहीं पूरे देश में इस पर सहमति होना जरूरी है।
Anil Narendra, Daily Pratap, FDI in Retail, Manmohan Singh, Pranab Mukherjee, Rahul Gandhi, Vir Arjun

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