Monday, 14 November 2011

क्या शहीदों के मानवाधिकार नहीं हैं?



Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 14th November 2011
अनिल नरेन्द्र
सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि हम उनके मानवाधिकारों की बात नहीं करते जो दूसरों की सुरक्षा करते हुए आतंकी हमले में मारे जाते हैं। क्या कभी हमने उनके मानस को समझने की भी कोशिश की है। संसद पर हुए हमले में भी पांच सिपाही मारे गए थे। लेकिन हम उनके मानवाधिकारों को भूल गए हैं। कोर्ट ने कहा कि इस मुद्दे पर आवश्यक रूप से शोध होना चाहिए और जानना चाहिए कि पीड़ितों की क्या हालत है। जस्टिस जीएस सिंघवी और एसजे मुखोपाध्याय की खंडपीठ ने यह सवाल खालिस्तान आतंकी देवेन्द्रपाल सिंह भुल्लर के वकील से किए। भुल्लर के वकील ने भुल्लर की दया याचिका में हुई देरी की उसके मानवाधिकारों का उल्लंघन बताकर फांसी के बदले उम्र कैद की मांग कर रहे थे। देवेन्द्रपाल सिंह भुल्लर के नई दिल्ली में किए एक बम हमले में नौ सुरक्षाकर्मियों की मौत हो गई थी और 29 लोग घायल हुए थे। कानून तोड़ने वालों के मानवाधिकारों की वकालत बढ़ने की खबरों के बीच सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी और ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कोई भी भुखमरी, किसानों की आत्महत्या और आतंकी कार्रवाई में मारे गए जवानों के मानवाधिकारों की बात कोई क्यों नहीं करता? सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी पर मानवाधिकार संगठनों, समर्थकों के साथ-साथ सरकारों को भी गौर करना चाहिए कि आखिर आतंकी हिंसा में मारे गए आम लोगों, एक सुरक्षाकर्मियों के मानवाधिकारों की चिन्ता उन्हें क्यों नहीं होती? दया याचिकाओं के निपटारे में आवश्यकता से अधिक देरी एक विचारणीय मुद्दा अवश्य है, लेकिन इस देरी को आधार बनाकर आतंकियों के मानवाधिकारों का उल्लेख का कोई मतलब नहीं है। निराशाजनक बात तो यह है कि हमारे भारत महान में ऐसे अनेक संगठन खड़े हो गए हैं जो आतंक पीड़ित आम लोगों और सुरक्षाकर्मियों को भूलकर आतंकवादियों के अधिकारों का हवाला देते थकते नहीं। अब यह प्रवृत्ति केवल संगठनों तक ही सीमित नहीं रह गई इसमें अब कुछ राजनीतिक दल भी वोट बैंक के चक्कर में शामिल हो गए हैं। खास बात यह है कि ये राजनीतिक दल फांसी की सजा पाए आतंकियों के पक्ष में सिर्प इसलिए खड़े हो जाते हैं ताकि वोट बैंक की राजनीति को मजबूत किया जा सके। यह राजनीति न्याय का उपहास उड़ाने और आतंक पीड़ितों को व्यथित करने वाली तो है ही, आतंकवादियों को बल प्रदान करने वाली भी है। देवेन्द्रपाल सिंह की फांसी की सजा के सन्दर्भ में सुप्रीम कोर्ट का अंतिम निर्णय कुछ भी हो, लेकिन उसने इस सन्दर्भ में जिस तरह संसद पर हुए हमले के दौरान मारे गए सुरक्षाकर्मियों का उल्लेख करते हुए यह सवाल किया कि क्या किसी ने इन बहादुर सिपाहियों के परिवार वालों की भावनाओं या उन पर क्या गुजर रही होगी इसकी भी जानकारी ली या सोचा या फिर वोट बैंक के चक्कर में इन्हें भी भुला दिया।
दुनिया के किसी देश में सजा दिलवाने की प्रक्रिया में इतना समय नहीं लगता जितना हमारे देश में लगता है और इसी देरी से कई विवाद पैदा हो जाते हैं और आतंकियों को नई-नई दलीलें देने का मौका मिल जाता है। सुप्रीम कोर्ट में दायर एक हलफनामे में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने कहा कि इस समय राष्ट्रपति के समक्ष 19 दया याचिकाएं विचाराधीन हैं। 2009 में मनमोहन सिंह सरकार के फिर से सत्तारूढ़ होने पर दया याचिकाओं को लेकर नीति तैयार की गई। इस नीति के तहत राष्ट्रपति के पास पेन्डिंग याचिकाओं को एक-एक करके वापस बुलाया गया। समीक्षा के बाद दोबारा राष्ट्रपति को भेजा गया। इस कारण दो साल में 32 दया याचिकाओं में से 13 का निपटारा हो सका। इस समय पेन्डिंग 19 में से 14 याचिकाएं राष्ट्रपति सचिवालय में हैं जबकि पांच गृह मंत्रालय के पास विचाराधीन पड़ी हैं। ट्रायल कोर्ट के फैसले की तारीख के हिसाब से सबसे पुरानी दया याचिका को प्राथमिकता के आधार पर निपटाया जा रहा है। केंद्र सरकार ने यह भी कहा कि दया याचिकाओं में देरी का आरोप लगाने वाले मुजरिमों की याचिका पर अब और देरी नहीं की जानी चाहिए। केंद्र के अनुसार अनावश्यक देरी के महत्व को नकारा नहीं जा सकता लेकिन विलम्बता के आधार पर फांसी को असंवैधानिक भी नहीं कहा जा सकता। अदालत अपराध की गम्भीरता और वीभत्सता को नजरंदाज नहीं कर सकती। फांसी की सजा का मकसद भुल्लर जैसे आतंकवादियों को हतोत्साहित करना है। सम्भावित अपराधियों के मन में कानून का भय हो, इसके लिए विधान में मृत्युदंड आवश्यक माना गया है।
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