Saturday, 19 November 2011

पेट्रोल कीमतों पर सरकारी दलीलों का पर्दाफाश



Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 19th November 2011
अनिल नरेन्द्र
महज एक पखवाड़े में पेट्रोल की बढ़ी कीमतें वापस होना अगर चमत्कार नहीं तो आश्चर्यजनक जरूर है। पिछले 33 महीनों में यह सिर्प दूसरा मौका है जब पेट्रोल की खुदरा कीमतों में कटौती की गई है। महत्वपूर्ण बात यह है कि यह कटौती क्यों की गई है? और कि पेट्रो पदार्थों पर आखिर नियंत्रण किसका है? कांग्रेस पार्टी इसका पूरा श्रेय लेने के चक्कर में है। क्या उत्तर प्रदेश में चुनावी अभियान की शुरुआत कर चुके कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी को केंद्र सरकार हर तरह का समर्थन कर रही है? यही वजह है कि राहुल के अभियान शुरू करने के एक दिन बाद ही सरकारी तेल कम्पनियों ने राहत देते हुए पेट्रोल की खुदरा कीमत में सवा दो रुपये तक की कटौती का ऐलान किया। संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होने जा रहा है। शायद सरकार ने सोचा हो कि दबाव कम किया जाए। फिर पब्लिक का विरोध भी सरकार को भारी पड़ रहा था। पब्लिक के साथ सरकार के सहयोगी दल खासकर तृणमूल कांग्रेस का दबाव भी एक कारण जरूर रहा। अब सवाल यह है कि आखिर पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों पर नियंत्रण किसका है? यूपीए सरकार से जब कीमत बढ़ाने की सफाई मांगी गई थी तो उसके प्रतिनिधि के रूप में वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने कहा था कि पिछले साल जून में हुए डिरेग्यूलेशन के बाद पेट्रोल की कीमतें तय करने का अधिकार पूरी तरह से ऑयल मार्केटिंग कम्पनियों के पास चला गया है। खुद प्रधानमंत्री ने विदेश से इस बारे में टिप्पणी की थी कि पेट्रोल तो पेट्रोल, धीरे-धीरे सारी ही चीजों की कीमतें तय करने का काम पूरी तरह बाजार पर छोड़ना उनकी सरकार की मुख्य प्राथमिकता है। यही नहीं, डॉ. मनमोहन सिंह ने यहां तक कहा था कि बढ़ी हुई पेट्रोल की कीमतें कम नहीं होंगी? ऐसे में यह चमत्कार आखिर कैसे हुआ कि ऑयल मार्केटिंग कम्पनियां (ओएमसी) पेट्रोल के दाम हाल की बढ़त के पहले वाले स्तर से भी थोड़ी नीचे लाने को तैयार हो गई? इन कम्पनियों के आला अफसरों का कहना है कि ऐसा उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों और डालर के मुकाबले रुपये के रुझान को दखते हुए किया है। इन दोनों रुझानों को गौर से देखें तो लगेगा कि इस फैसले के पक्ष में इससे ज्यादा लचर दलील और कोई हो ही नहीं सकती। डालर के मुकाबले रुपया फिलहाल पिछले 33 महीनों के सबसे निचले स्तर पर चल रहा है। लिहाजा ओएमसी मैनेजरों के लिए इस मोर्चे पर कुछ कहने की जगह ही नहीं बनती। कच्चे तेल की कीमतों में कुछ न कुछ घट-बढ़ रोज रहता है, लेकिन इस बाजार के विश्लेषकों का कहना है कि पिछले एक पखवाड़े में भारत के लिए इसकी औसत कीमत 108 से बढ़कर 110 डालर प्रति बैरल हो गई। जाहिर है कि पेट्रोल की कीमतें बाजार के किसी रुझान के तहत नहीं बल्कि राजनीतिक दबावों के चलते नीचे आई है और सरकार ने ऐसा करके अपने आपको एक्सपोज ही किया है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट की दलील बेतुकी लगती है। जून 2010 में पेट्रोल मूल्य नियंत्रण मुक्त किए जाने के बाद से कीमतों में लगभग 23 रुपये का इजाफा हुआ है इसलिए यह कमी `ऊंट के मुंह में जीरा' के समान ही है। वैसे देखा जाए तो पिछले डेढ़ साल में पेट्रोल की कीमतों में 13 बार वृद्धि की गई है जबकि कमी पिछले 33 महीनों में पहली बार की गई है। हकीकत तो यह है कि चौतरफा दबाव को देखते हुए यूपीए सरकार बौखला गई। इस दबाव को देखकर कांग्रेस आला कमान और सरकार ने देरी से ही सही आत्ममंथन तो किया कि महंगाई के मुद्दे पर पहले ही पार्टी की काफी किरकिरी हो चुकी है। ऐसे में पेट्रोल मूल्यों में वृद्धि उसे विधानसभा चुनावों में कहीं नुकसान न पहुंचा दे। इन हालात को देखते हुए केंद्र सरकार हरकत में आई और उसने पेट्रोल कम्पनियों पर कीमत कम करने का दबाव बनाया। वैसे यह सब नाटक था क्योंकि इंडियन ऑयल के चेयरमैन पहले ही कह चुके थे कि अगर सरकार कहे तो हम कीमतें घटाने को तैयार हैं। कुल मिलाकर सरकार की इस दलील की एक झटके में हवा निकल गई कि सरकार का पेट्रो पदार्थों की कीमतों पर कोई नियंत्रण नहीं और साथ-साथ यह भी साबित हो गया कि सरकार ने पेट्रोल की कीमतों में यह कमी सिर्प मतदाताओं को खुश करने की खातिर की है और चुनाव प्रक्रिया खत्म होते ही तेल कम्पनियों को खुश करने के लिए कीमतों में दोगुनी वृद्धि की जा सकती है।
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