Wednesday 11 September 2013

यूपी की सपा सरकार न केवल दंगा रोकने में विफल रही बल्कि इसे बढ़ाया

27 अगस्त को मुजफ्फरनगर के कवाल गांव की एक छोटी-सी घटना ने इतना भयानक रूप ले लिया कि दंगा थमने का नाम ही नहीं ले रहा। दंगे और उसके बाद सांप्रदायिक हिंसा अब मुजफ्फरनगर से बढ़कर आसपास के इलाकों में भी फैल गई है। अब तक अधिकृत रूप से 31 लोगों के मारे जाने की पुष्टि हुई है और प्रशासन ने 200 दंगाइयों को गिरफ्तार किया है। सपा सरकार ने केंद्रीय मंत्री अजीत सिंह तथा रविशंकर प्रसाद सहित अन्य सांसदों को प्रभावित क्षेत्रों का दौरा करने से मना कर दिया है। सवाल यह उठता है कि दंगा रुक क्यों नहीं रहा, इसके पीछे कौन है और उनका उद्देश्य क्या है? इसके साथ यह भी देखना जरूरी है कि पूरे प्रकरण में अखिलेश सिंह यादव की समाजवादी पार्टी कहां खड़ी है? उत्तर प्रदेश में अब तक तीन बार सेना बुलाई गई है दंगों पर नियंत्रण करने के लिए और तीनों बार राज्य में समाजवादी पार्टी की सरकार रही है जिसकी बागडोर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से मुलायम सिंह यादव के हाथ में रही है। अखिलेश सरकार बनने के बाद तो जैसे दंगों में बाढ़-सी आ गई है। अब तक 104 सांप्रदायिक दंगे और 35 खूनी संघर्ष हो चुके हैं। खुद मुख्यमंत्री ने मार्च में विधानसभा में 27 दंगों की लिखित जानकारी दी थी। यह दंगे 15 मार्च 2012 से 31 दिसम्बर 2012 के बीच के थे। इनमें 58 लोग मारे जा चुके हैं। उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में हालात इस तरह बिगड़ना जितना दुर्भाग्यपूर्ण है, उतना ही चिन्ताजनक यह है कि प्रशासनिक मोर्चे पर अखिलेश सरकार व उनके अधिकारी बुरी तरह फेल हुए हैं। छोटी-सी बात कहां से शुरू हुई। 27 अगस्त को कवाल गांव में एक समुदाय के लड़के ने दूसरे समुदाय की लड़की से छेड़छाड़ की, यह लड़की पड़ोसी गांव मलिकपुर की थी। लड़की के दो भाइयों गौरव और सचिन ने उस लड़के जिसका नाम शाहनवाज था की प्रक्रियास्वरूप हत्या कर दी। जब शाहनवाज के रिश्तेदारों को इसका पता चला तो उन्होंने दोनों भाइयों को बड़ी बेरहमी से मार डाला। बस यहीं से शुरुआत हुई। अगर स्थानीय प्रशासन और पुलिस उसी समय कानूनी कार्रवाई करते और मेलमिलाप की कोशिश करते तो मामला शायद रुक जाता पर पुलिस क्या करती है? वह सचिन और गौरव के परिवार वालों पर एफआईआर दर्ज कर लेती है और शाहनवाज के रिश्तेदारों को साफ छोड़ दिया जाता है। होना यह चाहिए था कि दोनों पक्षों के खिलाफ केस दर्ज होना चाहिए था। इससे स्थानीय लोगों और समुदाय विशेष को यह लगा कि सरकार पक्षपात कर रही है और उन्हें अपनी सुरक्षा खुद करनी होगी, इसलिए 31 अगस्त को एक महापंचायत करने का फैसला किया गया पर 30 अगस्त को दूसरे समुदाय के लोगों ने ही जवाबी कार्रवाई शुरू कर दी। सवाल यह उठता है कि पहले तो दोनों पक्षों के खिलाफ समान कार्रवाई नहीं की, फिर 30 अगस्त को हो रहे हमलों को नहीं रोका और फिर 31 अगस्त को महापंचायत की परमिशन भी दे दी? किसी भी स्टेज पर दोनों समुदायों को बिठा कर सुलह करवाने का प्रयास नहीं किया गया। सूबे के राज्यपाल बीएल जोशी ने सूबे की बिगड़ती कानून व्यवस्था की रिपोर्ट केंद्र सरकार को भेज दी है। राज्यपाल ने माना है कि सूबे में सांप्रदायिक तनाव के लिए प्रदेश सरकार का रवैया जिम्मेदार है और हालत उसके काबू से बाहर दिखाई दे रहे हैं। 27 अगस्त को एक लड़की से छेड़छाड़ के मामले में मुजफ्फरनगर के कवाल में तीन लोगों की हत्या के करीब 11 दिन बाद से वहां जिस कदर हालात बिगड़े और कई लोगों की मौत हुई, राजभवन ने इसे बेहद गम्भीरता से लिया है। राज्यपाल का भी मानना है कि अखिलेश सरकार ने समय रहते सख्त कदम नहीं उठाए। साथ ही प्रशासनिक कामकाज भी ऐसा रहा जिससे हालात बिगड़े। वोट बैंक की राजनीति से यह यूपी की सपा सरकार इतनी ग्रस्त है कि पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों के हाथ बांध रखे हैं। अफसरों से साफ कहा गया कि एक समुदाय विशेष के खिलाफ नरम रवैया अपनाएं। सरकारी नीति के हिसाब से पुलिस भी पक्षपात कर रही है। एक समुदाय विशेष के खिलाफ कार्रवाई करने से डरती है और बचती है। गिरफ्तार भी जो लोग किए जा रहे हैं उनमें अधिकांश दूसरे समुदाय के लोग हैं और समाजवादी पार्टी कानून का शासन स्थापित करने के बजाय अपने समर्थक संप्रदाय का शासन स्थापित करने में लगी है। जब खुद सरकार किसी खास संप्रदाय का पक्षपात करे तो ऐसी सरकार धर्मनिरपेक्ष तो कतई नहीं हो सकती। यह दंगा अचानक नहीं हुआ, तैयारी के साथ हुआ। दंगाइयों के हौसले इतने बुलंद हैं और तैयारी इतनी जबरदस्त है कि गांव में सेना के सामने ही कार्बाइन से फायरिंग की गई। रविवार सुबह गांव कुटवा में यदि सेना न पहुंचती तो मृतकों की संख्या बहुत बढ़ जाती। यहां आपसी गोलीबारी में चार लोगों की जान चली गई। रविवार की सुबह जिस समय जिले के डीएम और एसएसपी सेना के अफसरों के साथ मीटिंग कर रहे थे तब शाहपुर के कुटवा गांव सुलग गया था। यहां के घरों को आग लगा दी गई और चार लोगों की मौत हो चुकी थी। बताया गया है कि चेतावनी पर उपद्रवियों में एक ने कार्बाइन से फायरिंग की। सेना ने जवाबी फायरिंग की और उपद्रवियों को खदेड़ा। यह असला कहां से और कब आया? क्या स्थानीय प्रशासन सो रहा था? अगर मीडिया रिपोर्ट को सही माना जाए तो एक धार्मिक स्थल से हथियार, गोला-बारुद निकला है। कुछ लोगों का मानना है कि इन दंगों के पीछे सियासत है। सपा सरकार के सुपर चीफ मिनिस्टर की यह चाल है। पश्चिमी यूपी अजीत सिंह की राष्ट्रीय लोकदल का गढ़ है। यहां के मुसलमान और जाट दोनों ही अजीत की पार्टी का चुनाव में समर्थन करते हैं। सम्भव है कि इन दोनों समुदायों को आपस में भी भिड़ाकर अजीत सिंह की पैंठ तोड़ने का प्लान हो? फार ए चेंज हम दिग्विजय भाई से सहमत हैं कि इस कार्यकाल में सपा का रिकार्ड काफी खराब है। वह सांप्रदायिक ताकतों पर लगाम नहीं लगा पा रही है। बसपा सरकार इससे अच्छी थी। हम सवाल करना चाहते हैं कि जब 2002 के गुजरात दंगों में आज तक मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को दिन-रात कठघरे में खड़ा किया जाता है तो यह स्यूडो सेक्यूलरिस्ट उसी मापदंड व पैमाने पर अखिलेश यादव और उनकी समाजवादी  सरकार को कठघरे में क्यों नहीं खड़ा करते? यह है ऐसा साफ केस जब राज्य सरकार ने जानते हुए, समझते हुए कार्रवाई इसलिए नहीं की ताकि दंगा भड़के पर अब हमारा अविलम्ब प्रयास यह होना चाहिए कि सब मिलकर पूजा करें, दुआ करें कि हिंसा का यह दौर थमे और अमन-शांति स्थापित हो। पोस्टमार्टम के लिए बहुत समय है। मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों, गिरजाघरों, धर्मगुरुओं और स्थानीय नेताओं सबको मिलकर पहला काम हिंसा रोकना और शांति, अमन व चैन स्थापित करना चाहिए।

-अनिल नरेन्द्र

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