Friday 18 August 2017

पाकिस्तान की 70 वर्ष की आजादी?

1947 को दोनों भारत और पाकिस्तान आजाद हुए थे। 70 साल के इस लंबे सफर में दोनों देशों में कितना अंतर आ गया है। दोनों के राजनीतिक इतिहास में जमीन-आसमान का फर्क है। पाकिस्तान की सियासत में 70 साल में लगभग साढ़े तीन दशक तक फौज की सत्ता रही। इस दौरान पाकिस्तान में चार सैनिक सरकारें गद्दीनशीं हुईं और सत्ता का कंट्रोल जनरल अय्यूब खान, जनरल याहया खान, जनरल जिया-उल-हक और जनरल परवेज मुशर्रफ के पास था। जनरल अय्यूब से लेकर जनरल परवेज मुशर्रफ तक हर दौर में एक ही कॉमन रिएक्शन सुनने को मिलता रहा जिसमें चुनी हुई नागरिक सरकार की अक्षमता, भ्रष्टाचार और देश के लिए खतरे के दावे सबसे ऊपर थे। देश की सेना चाहती है कि सभी मामलों में उसकी सलाह से सरकारें चलाई जाएं। रक्षा विशेषज्ञ हसन असकरी का कहना है कि बाहरी सुरक्षा का बोझ उन पर है, आंतरिक सुरक्षा और आतंकवाद से मुकाबला भी सेना कर रही है। नागरिक सरकार की भूमिका सीमित है। इसलिए जब सलाह-मशविरे की प्रक्रिया चलती रहती है तब तक हालात ठीक रहते हैं। हसन असकरी के अनुसार दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा बजट मामलों का है। तीसरा ऐसा होता है कि खुद को सशक्त बनाने के लिए कुछ मंत्री अनावश्यक रूप से सेना की आलोचना करते रहते हैं जिससे संबंधों में खटास आ जाती है। हाल ही में नवाज शरीफ कोर्ट से प्रधानमंत्री पद के लिए अयोग्य करार दिए जाने के बाद जुलूस का नेतृत्व करते हुए इस्लामाबाद से लाहौर पहुंचे। इस यात्रा के दौरान उनके भाषणों में प्रत्यक्ष और कहीं-कहीं अप्रत्यक्ष रूप में भी सेना और न्यायपालिका को उनकी बर्खास्तगी के लिए दोषी ठहराया गया। अदालत के जरिये नवाज शरीफ को हटाने के फैसले ने देश को एक बार फिर नागरिक सरकार सर्वोच्चता की चर्चा को जन्म दिया है। नवाज शरीफ दो बार भारी बहुमत से सत्ता में आए, यह तीसरा मौका था जब उन्हें पद से हटना पड़ा, लेकिन इस बार संबंध बिगड़ने के क्या कारण रहे? रक्षा विशेषज्ञ आयशा सिद्दीकी का मानना है कि इसकी एक बड़ी वजह विदेश नीति थी। नवाज शरीफ विदेश नीति को धीरे-धीरे बदलना चाह रहे थे और राष्ट्रीय सुरक्षा के सवाल को एक नया आयाम देने की कोशिश कर रहे थे। इससे पाकिस्तान की विदेश नीति के केंद्र में भारत नहीं रहता। यह सेना की दुखती रग था और इसलिए मीडिया ट्रायल शुरू किया गया ताकि मियां साहब को हटाया जा सके। रक्षा विशेषज्ञ शुजा नवाज का कहना है कि सेना और नागरिक सरकार के बीच विरोधाभास का मुख्य कारण कथनी और करनी में अंतर भी है। वे कहते हैं कि सिस्टम केवल बातों से नहीं बल्कि उसे कैसे चलाते हैं, इससे स्थापित होता है। इसमें केवल नागरिक सरकार या सेना की गलती नहीं बल्कि यह पूरी पाकिस्तान की आवाम की जिम्मेदारी है। पाकिस्तान की बुनियादी जरूरत गुड गवर्नेंस की है। जब सरकार लोगों की जरूरत को पूरा करेगी और ईमानदारी से काम करेगी तो जनता भी उसका साथ देगी और दूसरी कोई ताकत उसे बेदखल नहीं कर सकती। पाकिस्तान में जहां पिछले 70 साल में सेना का सियासी रसूख बढ़ा है, वहीं चीनी और उर्वरक कारखानों से लेकर बेकरी तक के कारोबार में उसकी भागीदारी में भी वृद्धि हुई है तो क्या सत्ता के कारण सेना के व्यवसाय में विस्तार या उसमें स्थिरता आई है? पाकिस्तान में तानाशाही के दौर में पत्रकार भी लोकतंत्र की बहाली और अभिव्यक्ति की आजादी के संघर्ष में शामिल रहे। वरिष्ठ पत्रकार राशिद रहमान का कहना है कि तानाशाही का साथ देने वाले पत्रकारों को बुरी नजर से देखा जाता था, लेकिन आजकल स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है। टीवी चैनलों और कुछ हद तक अखबारों में जो खबरें चल रही हैं वो सेना का जनसम्पर्क विभाग तय करता है। इसे जानबूझ कर नहीं तो डर या भय या किसी और कारण से पत्रकारों ने अपना लिया है। मैं समझता हूं कि यह न तो पत्रकारिता की आवश्यकताएं पूरी कर रहा है और न ही वो अपनी जिम्मेदारी पूरी कर पा रहा है।

-अनिल नरेन्द्र

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