Friday, 25 August 2017

तीन तलाक गैर-कानूनी और गैर-इस्लामी है जो इस्लाम का अभिन्न अंग नहीं

देश की सर्वोच्च अदालत ने ऐतिहासिक फैसले में एक साथ तीन तलाक यानि तलाक--विद्दत की 1400 साल पुरानी प्रथा को खत्म कर दिया है। पांच जजों की संवैधानिक बेंच के दो जजों ने इसे धर्म का हिस्सा बताते हुए छह महीने के लिए रोक लगा दी और केंद्र से कानून बनाने को कहा। हालांकि तीन जजों ने बहुमत से इस प्रथा को धर्म का अभिन्न हिस्सा नहीं माना और इसे असंवैधानिक करार देते हुए तुरन्त खत्म करने का आदेश दिया। सर्वोच्च न्यायालय का बहुमत से आया यह फैसला ऐतिहासिक होने के साथ ही बराबरी के लिए संघर्ष कर रही मुस्लिम महिलाओं की बड़ी जीत है। इस फैसले ने दशकों से चली आ रही असमंजस की स्थिति को दूर करते हुए स्पष्ट कर दिया है कि मनमाने ढंग से दिया गया तलाक अमान्य, अवैध और असंवैधानिक है। इस जीत का सेहरा अगर किसी के सिर बांधा जा सकता है तो वे आम मुस्लिम महिलाएं ही हैं। यह सच है कि मुस्लिम महिलाओं के कई संगठन तीन तलाक के कानून को खत्म करने के लिए पिछले काफी समय से सक्रिय थे। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसे संगठनों ने तो इसे लेकर एक माहौल भी बनाया था। तीन तलाक जैसे मुद्दे को राष्ट्रीय चर्चा का विषय बनाने का श्रेय भी कुछ हद तक इन संगठनों को दिया जा सकता है। लेकिन इस जीत का श्रेय उन महिलाओं को ही मिलेगा, जिन्होंने चुपचाप इस लड़ाई को लड़ा, बिना किसी संगठन से जुड़े हुए, बिना किसी आंदोलन का हिस्सा बने हुए। इनमें उत्तराखंड के काशीपुर की शायरा बानो का नाम सबसे ऊपर है, जिन्होंने अपनी निजी समस्या को एक बड़े फलक पर देखा और सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। ऐसी ही लड़ाई इशरत जहां, फरह फैज, गुलशनी परवीन और आफरीन रहमान ने भी अपने-अपने तरीके से लड़ी। इनके पीछे करोड़ों आम मुस्लिम महिलाओं का जो मौन समर्थन है, उसे भी नजरंदाज नहीं किया जाना चाहिए। मुसलमानों में खासतौर पर सुन्नी समुदाय के हनफी पंथ में तीन तलाक की मान्यता थी और है भी। हालांकि तलाक के अन्य तरीके भी प्रचलन में हैं, लेकिन तीन तलाक में महिलाओं की स्थिति के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट ने इसे संविधान के दायरे में तोला। साथ ही तीन तलाक को इस्लामिक कानून के खिलाफ बताया। बहुमत के फैसले में जस्टिस जोसेफ ने कहाöमैं चीफ जस्टिस के इस विचार से सहमत होने में बहुत मुश्किल महसूस कर रहा हूं कि तीन तलाक की प्रथा पर अविभाज्य धार्मिक मजहब के रूप में विचार करना चाहिए और यह उनके पर्सनल कानून का अंग है। जस्टिस कुरियन के दृष्टिकोण से जस्टिस ललित ने सहमति जताई जो बहुमत के फैसले का हिस्सा थे। पवित्र कुरान की आयतों का हवाला देते हुए जस्टिस जोसेफ ने कहा कि वे एकदम स्पष्ट और असंदिग्ध हैं, जहां तक तलाक का संबंध है। पवित्र कुरान ने पवित्रता और स्थिरता का श्रेय विवाह को दिया है। बहुमत के निर्णय में कहा गया कि हालांकि अत्यधिक अपरिहार्य परिस्थितियों में तलाक की इजाजत है परन्तु तलाक के अंतिम रूप को हासिल करने से पहले सुलह के एक प्रयास और यदि यह सफल हो गया तो इसे निरस्त करना कुरान के आवश्यक कदम हैं। तीन तलाक के मामले में यह उपाय बंद हैं। इसलिए तीन तलाक पवित्र कुरान के बुनियादी सिद्धांत के खिलाफ है और परिणामस्वरूप यह शरीयत का हनन करता है। तीन तलाक का समर्थन करने वाले मौलवी और मुस्लिम संगठन अकसर शरीयत का हवाला देते रहे हैं, लेकिन इस फैसले के आलोक में उन्हें भी समझना चाहिए कि जो समाज अपनी बुराइयों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं होता, वह पिछड़ता चला जाता है। वास्तविकता यह है कि मामूली बातों पर आपा खोकर और टेलीफोन से लेकर स्काइप तथा वाट्सअप तक के जरिये महिलाओं को तलाक देने के मामले सामने आते रहते हैं। मनमाने तरीके से दिया जाने वाला तलाक पीड़ित महिला के मानसिक, आर्थिक और सामाजिक उत्पीड़न का सबब बन जाता है, क्योंकि इसके बाद अकसर ऐसी महिलाओं के लिए न तो घर में जगह होती है और न ही समाज में। यह व्यवस्था पूरी तरह से महिला विरोधी है जिसमें उनका पक्ष सुने जाने का कोई प्रावधान नहीं है। फिर यहां से निकाह हलाला जैसी यातना का दौर भी शुरू होता है, उम्मीद की जानी चाहिए कि सर्वोच्च न्यायालय इस पर भी जल्द फैसला करेगा। तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद मुस्लिम समाज का एक वर्ग भले ही इसे शरीयत में हस्तक्षेप बता रहा है जबकि वास्तविकता यह है कि विश्व के 20 मुस्लिम देश ऐसे हैं, जिन्होंने शरीयत को किनारे करते हुए तीन तलाक को काफी पहले से ही रोक दिया था। पाकिस्तान व बांग्लादेश, दोनों ही इस्लामिक देश हैं। दोनों देश सुन्नी मुसलमान बहुल हैं। यहां के फैमिली लॉ आर्डिनेंस 1961 में तीन तलाक को प्रतिबंधित किया गया है। मिस्र के लॉ ऑफ पर्सनल स्टेट्स 1929 में वर्ष 1985 में संशोधन कर चार धाराओं में तलाक को परिभाषित किया गया जिसके अनुसार तीन तलाक पूरी तरह प्रतिबंधित है। शिया बहुल इराक आधिकारिक रूप से इस्लामिक देश है। यहां के कोड ऑफ पर्सनल स्टेट्स 1959 को वर्ष 1987 में संशोधित कर तीन तलाक को प्रतिबंधित किया गया। जॉर्डन, कुवैत, लीबिया, सीरिया, ट्यूनीशिया, संयुक्त अरब अमीरात, यमन, श्रीलंका, अल्जीरिया में भी तीन तलाक गैर-कानूनी है। इसके अलावा इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपींस, लेबनान, मोरोक्को और सूडान आदि में भी तीन तलाक प्रतिबंधित है। इनमें वे मुल्क भी शामिल हैं जिन्हें हम अन्यथा कट्टर मजहबी देश मानते हैं। लेकिन भारत में अगर यह सब चलता रहा तो इसका दोष हम कुछ हद तक राजनीति को भी दे सकते हैं, कुछ सामाजिक जड़ता को भी और कुछ उन लोगों को भी, जिन्हें इस जड़ता के टूटने से डर लगता है। इधर सरकार ने कहा है कि तीन तलाक पर किसी नए कानून की जरूरत नहीं है। कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहाöसरकार इस मुद्दे पर संरचनात्मक एवं व्यवस्थित तरीके से विचार करेगी, प्रथम दृष्ट्या इस फैसले को पढ़ने से स्पष्ट होता है कि (पांच सदस्यीय पीठ में) बहुमत ने इसे असंवैधानिक और अवैध बताया है। वित्तमंत्री अरुण जेटली ने इस फैसले को उन लोगों के लिए बड़ी जीत करार दिया जिनका मानना है कि पर्सनल कानून प्रगतिशील होना चाहिए। इसके साथ ही उन्होंने कहा कि फैसला अब देश का कानून है। जेटली ने यह भी कहा कि इस्लामी दुनिया के कई हिस्सों में तीन तलाक की प्रथा को खारिज कर दिया गया है। ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड भी जानता है कि वह संवैधानिक आधार पर तीन तलाक को अब वाजिब नहीं ठहरा सकता, इसलिए उसने मुस्लिम महिलाओं के हितों का ध्यान रखने के लिए निकाहनामा में कुछ नई बातें जोड़ने की पेशकश की थी। पर अदालत ने इस तरह के पचड़े में पड़ने के बजाय संविधान की आत्मा की आवाज सुनी। इस फैसले से बोर्ड को कुछ सबक लेना चाहिए, समझना चाहिए कि संविधान सर्वोपरि है। उम्मीद की जानी चाहिए कि सर्वोच्च अदालत का यह फैसला मुस्लिम समाज में एक नई जागृति का सबब बनेगा। दुखद बात यह है कि जब तक ये मौलवी नहीं मानते तलाक-तलाक-तलाक जारी रहने की संभावना है।

-अनिल नरेन्द्र

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