Saturday 6 January 2018

जातीय वैमनस्य पैदा करने वाली शक्तियां

महाराष्ट्र में मराठों के आरक्षण आंदोलन की आंच धीमी भी नहीं पड़ी थी कि भीमा-कोरेगांव युद्ध के 200वें वर्ष के अवसर पर दलितों और मराठों के बीच पैदा हिंसक विवाद से जनजीवन ठप होना दुखद, दुर्भाग्यपूर्ण एवं चिन्ताजनक है। वर्ष 1818 में भीमा-कोरेगांव में अंग्रेजों की मदद से महारों ने बाजीराव पेशवा द्वितीय को पराजित किया था। कायदे से वह अंग्रेजों का देसी रियासत के खिलाफ युद्ध था, पर शोषित महारों ने पेशवा को पराजित करने की घटना को उपलब्धि की तरह देखा। हर साल की तरह पहली जनवरी को वहां महार समुदाय के लोग इकट्ठे होते हैं। इस बार उससे पहले ही वहां दो घटनाएं हुईं। एक तो 31 दिसम्बर को पुणे में शनिवार वाड़ा मलगार परिषद की बैठक में जिग्नेश मेवाणी, रोहित वेमुला की मां तथा उमर खालिद जैसों की मौजूदगी थी, जो इस बहाने दलितों के गठजोड़ की तैयारी के बारे में बताती थी। 10 हजार से भी कम आबादी वाले पुणे के इस छोटे से गांव भीमा-कोरेगांव में हर साल होने वाले इस समारोह को लेकर इस बार जिस तरह से शोले भड़के और उसने पूरे महाराष्ट्र को अपनी चपेट में ले लिया, यह बताता है कि वैमनस्य पैदा करने वाली शक्तियां इस समय कुछ ज्यादा ही सक्रिय हैं और सद्भाव के प्रयास या तर्क फिलहाल शायद प्रभावहीन हैं। मंगलवार की घटनाओं के बाद बुधवार को जब महाराष्ट्र बंद का आयोजन किया गया, तो पूरे देश के तमाम छोटे-बड़े शहरों में कामकाज ठप होने की खबरें आने लगीं। पहली नजर में यह प्रशासन की विफलता दिखाई देती है जिसने स्थिति की न तो गंभीरता समझी और न ही पर्याप्त प्रबंध किए। किन्तु विचार करने वाली बात है कि आखिर भीमा-कोरेगांव में हुई मारपीट कैसे प्रदेश के अन्य जिलों में हिंसा में परिणत हो गई? बंद के दौरान निजी और सार्वजनिक सम्पत्तियों को जिस पैमाने पर क्षति पहुंचाई गई उसके पीछे निश्चय ही ऐसे तत्वों की भूमिका होगी जो प्रदेश में जातीय तनाव भड़काए रखना चाहते हैं। पूरे मामले में सबसे घृणित भूमिका कुछ राजनीतिक दलों की है। उन्होंने शांति की अपील करने या अपनी पार्टी को शांति स्थापना के लिए काम करने का निर्देश देने की जगह केवल आरोप लगाए। ऐसे समय, जब किसी कारण से भी तनाव भड़का हो, एक-एक दल और संगठन का दायित्व बनता है उसे रोके। सियासी मोर्चाबंदी तो बाद में भी हो सकती है। प्रकाश अम्बेडकर व जिग्नेश मेवाणी का एक साथ होना महाराष्ट्र में नई दलित राजनीति की शुरुआत भी हो सकती है। पहला काम यह है कि इस हिंसा पर काबू पाया जाए और आग फैलाने वालों की निशानदेही की जाए।

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