Monday 3 September 2018

लोकतंत्र का प्रेशर कुकर फटने वाला है?

बहुचर्चित भीमा-कोरेगांव मामले में जिस तरह से पुणे पुलिस ने अलग-अलग शहरों से छापेमारी कर पांच जाने-माने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया है उस पर माननीय सुप्रीम कोर्ट ने सख्त रुख दिखाया है। सुप्रीम कोर्ट ने रोमिला थापर, प्रभात पटनायक, देवकी जैन, सतीश देशपांडे और माना दारुवाला की गिरफ्तारी को चुनौती देने वाली याचिका पर टिप्पणी की कि असहमति लोकतंत्र की सेफ्टी वॉल्व है। अगर आप (सरकार) इसकी इजाजत नहीं देगी तो सेफ्टी वॉल्व फट जाएगा। कोर्ट ने साथ ही पांचों एक्टिविस्ट को अगली सुनवाई तक हाउस अरेस्ट में रहने की इजाजत दी। वे अब पुलिस की निगरानी में अपने घरों में रहेंगे। पुणे पुलिस ने गत मंगलवार को हैदराबाद से तेलुगू कवि वरवर राव, मुंबई से वेरनाने गोंजाविल्स और अरुण फरेरा, फरीदाबाद से सुधा भारद्वाज और दिल्ली से पत्रकार गौतम नवलखा को गिरफ्तार किया था। इन गिरफ्तारियों के खिलाफ अपनी याचिका में चीफ जस्टिस की अगुवाई वाली बैंच पर याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश हुए अभिषेक मनु सिंघवी समेत नामी वकीलों ने गिरफ्तारी के खिलाफ दलील दी थी कि इन पांचों का कोरेगांव की हिंसा से कोई लेना-देना नहीं है। एफआईआर में इनके नाम तक नहीं हैं, फिर भी नौ महीने बाद इन्हें गिरफ्तार किया गया। यह पुलिस पॉवर का दुरुपयोग है। जो असहाय है, उन्हें दबाने की कोशिश हुई है। पुणे पुलिस ने पिछले जून में जब पांच लोगों को गिरफ्तार किया था तब भी विरोध हुआ था लेकिन उस समय का तेवर ऐसा नहीं था। दरअसल पुणे पुलिस इस वर्ष के आरंभ में भीमा-कोरेगांव से आरंभ हिंसा और उसके विस्तार की जांच करती हुई इस निष्कर्ष पर पहुंची कि इसके पीछे शहरों में सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों के नाम पर काम कर रहे माओवादियों की भूमिका है। इन्हीं गिरफ्तारियों में से एक आरोपित के मेल से जो पत्र बरामद हुआ, उसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की स्वर्गीय राजीव गांधी की तर्ज पर हत्या की योजना की चर्चा थी। उसके बाद पुलिस और सक्रिय हुई और जांच के बाद उसके पास कुछ नाम आए जिनसे यह गिरफ्तारियां हुईं। इनमें वारवारा राव जैसे लेखक और कवि ने माओवादियों के समर्थक होने को कभी छिपाया भी नहीं। बता दें कि भीमा-कोरेगांव घटना के पूर्व चलगार परिषद आयोजित किया गया था, जिसमें काफी भड़काऊ भाषण हुए थे। उसके बाद शौर्य दिवस मना। उसमें भी कुछ नेताओं पर ऐसे ही भाषण का आरोप है। पुलिस का मानना है कि यह सब सोची-समझी साजिश का हिस्सा थी, जिसके पीछे शहरों में छद्म नाम से रह रहे माओवादियों का हाथ था। भीमा-कोरेगांव मामले में हुई ताजा कार्रवाई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अन्य बड़े भाजपा नेताओं की हत्या की साजिश से जोड़कर भी देखा जा रहा है। सुरक्षा अधिकारियों का कहना है कि नक्सली नेताओं के बीच जिन दो पत्रों का आदान-प्रदान हुआ था, उसमें प्रधानमंत्री मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और गृहमंत्री राजनाथ सिंह की हत्या की योजना से जुड़ा ब्यौरा था। इन पांच की गिरफ्तारी उसी जांच की दिशा में कदम है। इनमें एक पत्र 2016 का है, जिसमें मोदी, शाह और राजनाथ की हत्या की साजिश का जिक्र है जबकि 2017 के पत्र में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी जैसे हत्याकांड को अंजाम देने का उल्लेख है। महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में अप्रैल में 39 नक्सलियों के मारे जाने के बाद चले अभियान से इन पत्रों का खुलासा हुआ था। अधिकारियों के अनुसार दूसरे पत्र में योजना को अंजाम देने के लिए अमेरिकी एम-4 राइफल और अन्य हथियारों के जुटाने का भी उल्लेख है। इसमें कार्यकर्ताओं से ऐसे हथियार खरीदने के लिए करोड़ों रुपए जुटाने को कहा गया है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता व पूर्व केंद्रीय मंत्री पी. चिदम्बरम ने कहा कि वह मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, एक वकील और एक कवि की गिरफ्तारी की निन्दा करते हैं। उन्होंने कहा कि मैं उन लोगों से कतई सहमति नहीं रखूंगा जो चरम वामपंथ या चरम दक्षिणपंथ के विचार रखते हैं, लेकिन मैं वह विचार  जाहिर करने से उनके अधिकार की रक्षा करूंगा। यही आजादी का सार है। चरमपंथी विचार रखने वाले किसी भी शख्स को तभी दंडित किया जा सकता है जब वह हिंसा में शामिल हो, हिंसा भड़काने के समर्थन में, या Eिहसा के लिए उकसाने में मदद करे। शशि थरूर ने कहा कि उन्हें माओवाद से कोई हमदर्दी नहीं है, लेकिन विचार, विश्वास एवं अभिव्यक्ति की आजादी किसी लोकतंत्र में मौलिक अधिकार है। अगर पुलिस जो दावा कर रही है वह सच है तो हमारी राय में छद्म नाम से रह रहे माओवादियों के प्रति किसी तरह की सहानुभूति प्रकट नहीं की जा सकती। अगर शहरों में छद्म वेश में बैठे माओवादी हिंसा करा रहे हैं तो यह एक अत्यंत खतरनाक स्थिति है और इस तंत्र को हर हालत में ध्वस्त किया जाना चाहिए। इस केस में विगत जून में हुई गिरफ्तारियों के आधार पर ही इतनी गिरफ्तारियां हुई हैं और पुलिस के मुताबिक कुछ समय तक नजर रखने के बाद ही इन्हें गिरफ्तार किया गया था। इसके बावजूद पुलिस इन्हें ट्रांजिट रिमांड पर नहीं ले पाई तो इसके लिए वह खुद जिम्मेदार है। बेशक अदालत का फैसला आने से पहले तक इस मामले में कुछ कहा नहीं जा सकता, लेकिन यह सवाल तो अपनी जगह है ही कि ठोस सबूतों और पर्याप्त तैयारी के बावजूद पुणे पुलिस अपने मकसद में कामयाब क्यों नहीं हुई? दिल्ली उच्च न्यायालय की भी टिप्पणी है कि ट्रांजिट रिमांड मांगते हुए पुलिस ने मान्य प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया, लिहाजा पुणे पुलिस के लिए अब यह बड़ी चुनौती है कि वह अदालत के सामने ठोस दस्तावेज, सबूत पेश करे और यह साबित करे कि प्रधानमंत्री व अन्य वरिष्ठ मंत्रियों की हत्या की साजिश वाकई ही थी और इसमें यह लोग शामिल थे? और यह भी कि यह कार्रवाई किसी राजनीतिक उद्देश्य से नहीं की गई?

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