Wednesday, 20 February 2019

गम, गुस्से और नम आंखों से 16 राज्यों के 40 शहीदों की अंतिम विदाई

गम, गुस्से और नम आंखों से 16 राज्यों में 40 शहीदों की अंतिम यात्रा पर लाखों लोग उन्हें श्रद्धांजलि देने निकले। शहीद सपूतों का शनिवार को नाम आंखों और भारी आक्रोश के बीच अंतिम संस्कार किया गया। उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा सहित देश के 16 राज्यों में 40 सीआरपीएफ जवानों को अंतिम विदाई देने लोग तिरंगा लहराते हुए पहुंचे। पुलवामा आतंकी हमले में शहीद हुए जवानों के शव जब अलग-अलग राज्यों में पहुंचे तो उनकी अंतिम यात्रा का दृश्य देखने वाला था। उत्तराखंड के उधम सिंह नगर के रहने वाले शहीद वीरेंद्र सिंह राणा का पार्थिव शरीर जब खटीया पहुंचा तो श्रद्धांजलि देने वालों का तांता लग गया। वीरेंद्र सिंह के ढाई वर्ष के बेटे ने अपने पिता के शव को मुखाग्नि दी। वहीं शनिवार को देहरादून के शहीद हुए एएसआई रतूड़ी को उनकी बहादुर बेटी ने अपने पिता को सैल्यूट किया और एक टक देखती रही। प्रयागराज में जब शहीद हुए केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के जवान महेश कुमार यादव का पार्थिव शरीर पहुंचा तो सीआरपीएफ के जवानों द्वारा सलामी गारद दिए जाने के बाद शहीद के पिता राज कुमार यादव ने मुखाग्नि दी। इधर शहीद हुए जवानों को अंतिम विदाई दी जा रही थी तभी एक खबर आई कि एलओसी के राजौरी के नौशेरा सेक्टर में बारूदी सुरंग धमाके में सेना के इंजीनियरिंग विभाग के मेजर चित्रेश सिंह बिष्ट शहीद हो गए। एक जवान भी घायल हुआ। वह एक आईईडी को डिफ्यूज कर रहे थे कि अचानक डिफ्यूज करते वक्त वह फट गया। बम निरोधक दस्ते का नेतृत्व कर रहे मेजर बिष्ट ने एक बारूदी सुरंग को सफलतापूर्वक निक्रिय कर दिया था। हालांकि दोपहर बाद करीब तीन बजे दूसरी आईईडी को निक्रिय करते वक्त बलास्ट हो गया। 31 साल के मेजर बिष्ट देहरादून के रहने वाले थे और अगले महीने सात मार्च को उनकी शादी होनी थी। शहीद होने वाले जवान पूरे देश के मूल निवासी थे। उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, पंजाब, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, मध्यप्रदेश, राजस्थान, झारखंड, ओडिशा, केरल, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक और असम सभी राज्यों के शहीद हुए। शनिवार को जब उनका पार्थिव शरीर उनके यहां पहुंचा जहां उनका जन्म हुआ था, जहां वो पले-बढ़े थे तो इन शवों की हालत को देख लोगों के मन में घोर गुस्सा भरा था। हमले की चपेट में आए जवानों के शरीर का वो हाल हो चुका था जिसे बता पाना मुश्किल है। हमले के तुरन्त बाद आई तस्वीरें इसकी गवाही भी दे रही थीं। ब्लास्ट के बाद शवों को पहचानना कठिन हो गया। कहीं हाथ पड़ा था तो कहीं शरीर का दूसरा भाग बिखरा हुआ था। जवानों के बैग कहीं थे तो उनकी टोपी कहीं बिखरी हुई थी। हमले का यह इलाका युद्धभूमि जैसा दिख रहा था। शरीर के बाद इन अवशेष और सामानों को एक साथ इकट्ठा करके उनकी पहचान का काम शुरू हुआ। इस काम में जवानों के आधार कार्ड, आईडी कार्ड से बड़ी मदद मिली। जिन जवानों के सिर से आसपास चोट आई थी उनकी पहचान सिर्प आईडी कार्ड से हो सकी। शवों की शिनाख्त के कुछ मामले तो बेहद दर्द भरे थे। कई जवान घर जाने के लिए छुट्टी का आवेदन लिखकर आए थे। इस आवेदन को उन्होंने अपने बैग में या पॉकेट में रख रखा था, इसी के आधार पर उन्हें पहचाना जा सका। इस प्रचंड विस्फोट में कई जवानों के बैग उनसे अलग हो गए थे। ऐसे में उनकी पहचान उनकी कलाई में बंधी घड़ियों से हुई। सबसे दुखद बात यह है कि पुलवामा के शहीदों को श्रद्धांजलि देने जनसैलाब उमड़ा हुआ था वहीं निम्स यूनिवर्सिटी में कश्मीरी छात्र जश्न मना रहे थे और देश विरोधी नारे लगा रहे थे। कवि कुमार मनोज की पंक्तियां हैं-सुख भरपूर गया, मांग का सिन्दूर गया, नंगे नौनिहालों की लंगोटियां चली गईं। बाप की दवाई गई, भाई की पढ़ाई गई, छोटी-छोटी बेटियों की चोटियां चली गईं। ऐसा एक विस्फोट हुआ, जिस्म का पता नहीं, पूरे ही जिस्म की बोटियां चली गईं। आप के लिए तो एक आदमी मरा है साहब, किन्तु मेरे घर की तो रोटियां चली गईं। जी! एक बार फिर जम्मू-कश्मीर में पुलवामा में सीआरपीएफ के जवानों की शहादत के साथ मेहंदी वाले हाथों ने मंगल-सूत्र उतारे, बूढ़े मां-बाप का सहारा छिन गया, नन्हे-मुन्ने बच्चों के सिर से पिता का साया उठ गया और बहन की राखी चली गई। इस सबके बाद हाथ आया, तो हम बदला लेंगे और कार्रवाई करेंगे कि सिर्प बातें। लेकिन कब तक पता नहीं। हम हर बार यही करते आ रहे हैं और लगता है यही करते रहेंगे, क्योंकि मरने वाले सैनिक हमारे कुछ नहीं लगते। इसलिए उनके क्षत-विक्षत शव हमारे दिल को नहीं दहला सकते। हम कर सकते हैं, तो सिर्प श्रद्धांजलि कार्यक्रम और कुछ दे सकते हैं तो वही घिसे-पिटे बयान, जिसे सुन-सुनकर कान पक चुके हैं। सवाल हर बार की तरह इस बार भी यही है कि आखिर कब तक हम अपने सैनिकों को आतंक की भेंट करते रहेंगे? कब तक सैनिकों के परिवार बेसहारा और उनके पुत्र-पुत्रियां यतीम होते रहेंगे? क्या कारण है कि भारत आजादी के सात दशक बाद भी आतंक के खौफ के साये में जी रहे हैं? भले वह आंतरिक सुरक्षा हो या बाह्य सुरक्षा, दोनों ही भारत के सामने बड़ी समस्याएं बनी हुई हैं। एक ओर हम आतंकी वारदातों को रोकने में असफल हो रहे हैं और अपने सैनिकों को गंवा रहे हैं, तो दूसरी ओर देश के नौजवानों की आतंकी संगठनों में शामिल होने की खबरें हमारे लिए बेहद चिन्ताजनक हैं। क्या हालात इतने बिगड़ चुके हैं और इंसानियत के मानक इतने गिर चुके हैं कि एक पढ़े-लिखे युवा को आतंक की शरण में जाने के लिए विवश होना पड़े? क्या हमारे देश के होनहार इतने कमजोर हैं कि कोई भी उनका ब्रेनवाश कर सकता है? ऐसे कई सवाल हैं, जो देश में करोड़ों लोगों के दिल में कांटे की तरह चुभ रहे हैं। आखिर क्यों हम आतंक को रोक नहीं पा रहे हैं? ऐसे में भारत को अपना नरम रुख छोड़कर आतंकियों के साथ आतंकियों जैसा ही सलूक करना होगा। संधि और समझौते की बुनियाद पर शांति कायम करने का सालों का यत्न सिर्प कागजों में दिख रहा है। धरातल पर असर दिखे, ऐसी कार्रवाई करने की आज महत्ती आवश्यकता है। यह पत्र जालोर के देवेन्द्रराज सुथार ने लिखा है।
-अनिल नरेन्द्र


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