Thursday 18 July 2024
अयोध्या के बाद बद्रीनाथ हार
13 सीटों के उपचुनाव परिणाम में भाजपा को उत्तराखंड की बद्रीनाथ विधानसभा सीट न जीत पाना भाजपा के लिए कड़ा संदेश है। इससे पहले लोकसभा चुनाव में भाजपा अयोध्या (फैजाबाद) हार गई थी। हाल में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा की सीटें 303 से घटकर 240 रह गई थी। सबसे चौंकाने वाला निर्णय फैजाबाद लोकसभा क्षेत्र के मतदाताओं ने दिया जब यहां से भाजपा उम्मीदवार हार गए थे। यह दुनियाभर में चर्चा का विषय बनी। इसी तरह अब भाजपा ने उत्तराखंड की बद्रीनाथ सीट भी गंवा दी। अयोध्या और बद्रीनाथ भगवान विष्णु के स्वरूप हैं। दोनों सीटें हारने के बाद भाजपा के हिन्दुत्व के एजेंडे को भारी धक्का लगा है। दरअसल 2022 के विधानसभा चुनाव में भी बद्रीनाथ विधानसभा सीट कांग्रेस ने ही जीती थी, लेकिन कांग्रेस के विधायक राजेन्द्र सिंह भंडारी को भाजपा द्वारा तोड़ लिया गया था। पार्टी ने उन्हें ही उम्मीदवार बनाया लेकिन बद्रीनाथ सीट की जनता ने दलबदल को स्वीकार नहीं किया और उधर फिर से कांग्रेस पर ही विश्वास जताया। कह सकते हैं कि कांग्रेस ने अपनी सीट वापस ले ली और यहां हारी नहीं है। इसी तरह उत्तराखंड की मंगलौर सीट भी बसपा के पास थी जो अब कांग्रेस ने जीत ली है। इसलिए कहने को कहा जा सकता है कि उत्तराखंड में भाजपा को ज्यादा नुकसान नहीं हुआ। लेकिन अयोध्या में राम मंदिर निर्माण से देशभर में भाजपा के पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश जो की गई थी उसका कोई असर जनता में नहीं हुआ। यह चुनावी मुद्दा बन ही नहीं सका। आधे अधूरे मंदिर का निर्माण करवाकर चुनावी लाभ उठाने की भाजपा की रणनीति औंधे मुंह गिरी और अब रही सही कसर बद्रीनाथ में हार के साथ पूरी हो गई। इससे राहुल गांधी की उस बात को बल मिलता है कि हिन्दुत्व पर भाजपा का कोई ठेका नहीं है। अगर हिन्दुत्व का दिन रात ढिंढोरा पीटने वाली भारतीय जनता पार्टी अयोध्या और बद्रीनाथ नहीं जीत सकी तो इससे निष्कर्ष निकाला जा सकता है। उत्तराखंड की दोनों सीटों पर मिली हार भाजपा दिग्गजों के लिए बड़ा सबक दे गई है। पार्टी के रणनीतिकार यदि अभी नहीं चेते तो भविष्य में उसके लिए चुनाव दर चुनाव की राह कठिन हो सकती है। काडर के बजाए बाहर से आए नेताओं पर दांव लगाने से कार्यकर्ताओं में असंतोष को भाजपा नेतृत्व भांप नहीं पाया। इसी वजह से बद्रीनाथ में करारी हार का सामना करना पड़ा। आमतौर पर जब भी लोकसभा या फिर विधानसभा उपचुनाव होते हैं तो अधिकतरों पर जनता का झुकाव सत्तापक्ष की तरफ रहता है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि हर कोई चाहता है कि उनका जनप्रतिनिधि सत्तापक्ष का होगा तो क्षेत्र में विकास कार्य भी होंगे। उत्तराखंड में इससे पहले 15 उपचुनाव हो चुके हैं, जिनमें 14 बार सत्तापक्ष की जीत हुई थी। भाजपा सरकार और उसके संगठन दोनों इस उपचुनाव में जीत तय मानकर चल रहे थे। पर वे जनता के मन को ठीक से टटोल नहीं पाए। तीन महीने पहले जब लोकसभा चुनाव पर मतदान हुआ था तो बद्रीनाथ से भाजपा प्रत्याशी ने 8254 मतों से बढ़त बनाई थी। इतनी कम अवधि में जनता के मिजाज ने कैसे करवट बदला कि विधानसभा उपचुनाव में भाजपा प्रत्याशी को मार खानी पड़ी। यह भगवान शिव और भगवान विष्णु का संदेश तो नहीं है?
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