Wednesday 18 December 2013

समलैंगिकता अपराध या अधिकार?

समलैंगिक संबंधों को वैध ठहराने वाले दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले को माननीय सुप्रीम कोर्ट ने पलट कर इस मसले पर व्यापक बहस और खेमाबंदी आरम्भ हो गई है। जहां एक तरफ प्रगतिशील कहे जाने वाले तबके ने इसे प्रतिगामी कदम करार दिया है वहीं धार्मिक संगठनों व बाल अधिकार के लिए कार्यरत संस्थाओं ने इस फैसले का स्वागत किया है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में साफ कहा है कि जब तक आईपीसी की धारा 377 वजूद में है, समलैंगिक यौन संबंधों को कानूनी मान्यता नहीं दी जा सकती, यदि संसद चाहे तो इस पर चर्चा करके उचित निर्णय ले सकती है। देश की सर्वोच्च अदालत ने दिल्ली हाई कोर्ट के वर्ष 2009 के फैसले को पलट कर 1861 के इस कानून को न केवल वैध करार दिया है बल्कि भारतीय संस्कृति और धार्मिक भावनाओं का भी हवाला दिया है। असल में समलैंगिक संबंधों को वैध करार देने वाले दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले पर अनेक धार्मिक-सांस्कृतिक संगठनों ने ही चुनौती दी थी। सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत करते हुए योग गुरु बाबा रामदेव ने कहा कि मैं इस फैसले का स्वागत करता हूं, समलैंगिकता मानव अधिकार का हनन है और यह एक मानसिक विकृति है जिसका इलाज है। बाबा रामदेव ने समलैंगिकता को जैनेटिक कहे जाने के तर्प को गलत बताया। उन्होंने कहा कि यदि हमारे माता-पिता समलैंगिक होते तो हमारा जन्म ही न होता। यह अप्राकृतिक है और एक बुरी आदत है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सहारनपुर जिले के दारुल उलूम देवबंद सहित अन्य उलेमाओं ने भी स्वागत किया है। उलेमाओं ने इसे ऐतिहासिक फैसला बताते हुए कहा कि समलैंगिकता को दुनिया का कोई भी मजहब अनुमति नहीं देता। विश्व प्रसिद्ध इस्लामी अदारा दारुल उलूम देवबंद के मोहतमिम मुफ्ती अबुल कासिम नोमानी ने फैसले का स्वागत करते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला मानवता और सांस्कृतिक मान्यताओं के अनुरूप है जिसे सख्ती से अमल में लाया जाना चाहिए, मजहब-ए-इस्लाम में समलैंगिकता अपराध की बहुत बड़ी सजा है। दूसरी ओर समलैंगिकताओं की लड़ाई लड़ने वाली ऋतु सेन ने कोर्ट के निर्णय पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा कि फैसले से हमारा अधिकार ही खत्म हो गया है जबकि संविधान हम सभी को अपने तरीके से जीने का अधिकार देता है। किन्नर संगठन `अस्तित्व' की प्रमुख लक्ष्मी पांडे ने कहा कि आज हमें भारतीय होने पर दुख हो रहा है क्योंकि हमें वह अधिकार नहीं है जो साधारण भारतीय नागरिक को प्राप्त हैं। फैसले से किन्नरों और समलैंगिकों पर अत्याचार बढ़ेगा। किन्नर ट्रस्ट से जुड़ी समलैंगिक रुद्राणी ने कहा कि 2009 के कोर्ट के फैसले के बाद लोगों की हमारे बारे में धारणा बदली थी। पुलिस भी कम परेशान करती थी लेकिन अब पुलिस हमें ज्यादा परेशान  करेगी। अगर आंकड़ों की हम बात करें तो भारत में लगभग 25 लाख समलैंगिक हैं जिनमें से 1.75 लाख समलैंगिक एचआईवी संक्रमित हैं। कुछ देशों में 01-14 साल तक की जेल का प्रावधान है, कुछ देशों में तो समलैंगिक संबंध बनाने पर मौत की सजा तक दी जाती है। लगभग 77 देशों में अपराध घोषित है समलैंगिकता। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आने के बाद जिस तरह से कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने इसे लोगों की स्वतंत्रता से जुड़ा मामला बताया है उसके बाद इस मुद्दे पर कांग्रेस पार्टी और सरकार की कवायद तेज हो गई है कि समलैंगिकों को राहत पहुंचाने के लिए शायद सरकार एक अध्यादेश लाने की तैयारी कर रही है। गौरतलब है कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि उनकी निजी राय में हाई कोर्ट का निर्णय उचित था। इसके बाद कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने राहत का संकेत दिया और मंत्रालय सूत्रों का कहना है कि सरकार जल्द ही राहत के लिए अध्यादेश ला सकती है। उधर भाजपा ने अपना रुख स्पष्ट करने से बचते और गेंद सरकार के पाले में डालते हुए कहा कि अगर सरकार इस बारे में प्रस्ताव लाना चाहती है तो वह इस विषय पर सर्वदलीय बैठक बुलाए। सुषमा स्वराज ने कहा कि उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में यह भी कहा है कि संसद इस विषय को तय कर सकती है। समलैंगिकता की वकालत करने वाले कहते हैं कि दो बालिग यदि एकांत में संबंध बनाते हैं तो मौजूदा प्रगतिशील दौर में इसमें कानूनी हस्तक्षेप अनुचित है। वैसे भी हमारे संविधान की मूल भावना यह है कि आपकी आजादी की सीमा वहां तक है जहां से दूसरों की आजादी शुरू होती है। इस आधार पर भी कुछ लोग कोर्ट के फैसले की तीखी आलोचना कर रहे हैं तो उनकी अभिव्यक्ति का भी सम्मान किया जाना चाहिए। लेकिन इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि न तो भारतीय समाज और न ही हमारे धर्म ऐसे रिश्तों को अवैध मानते हैं। फर्ज कीजिए कि अगर सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला यदि ठीक विपरीत होता तब भी उसकी उतनी ही तीखी आलोचना होती। अब उचित यही होगा कि सुप्रीम कोर्ट ने धारा-377 को हटाने या उसमें जरूरी फेरबदल करने का जिम्मा संसद पर छोड़ा है तो उसे अपनी भूमिका निभानी चाहिए। साथ ही यह भी विचार करना चाहिए कि आखिर क्या वजह है कि जिन मुद्दों पर संसद में गहन विचार-विमर्श होना चाहिए वे अदालती कार्यवाही का मुद्दा बने ही क्यों?

-अनिल नरेन्द्र

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