Friday, 28 February 2014

थर्ड पंट कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानमती ने कुनबा जोड़ा

तथाकथित छोटे-छोटे सूबेदारों जिनमें से कई पुंके कारतूस हैं, का मानना है कि लोकसभा चुनाव का यह गेम थर्ड पंट बनाम भाजपा हो सकता है। गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा के थर्ड पंट में 11 दलों ने पेश किया विकल्प। लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस नीत संपग को पराजित करने और भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए नई दिल्ली में 11 दलों ने एकजुटता दिखाते हुए खुद को उनके विकल्प के रूप में पेश किया। इसकी घोषणा जद-यू, वाम दल, समाजवादी पाटी, अन्नाद्रमुक सहित विभिन्न छोटे दलों के नेताओं की बैठक के बाद की गई। एक घंटे से अधिक चली बैठक के बाद माकपा महासचिव पकाश करात ने कहा कि 11 पार्टियां संपग को हराने के लिए मिलकर काम करेंगी, जिसके शासन में व्यापक भ्रष्टाचार और महंगाई बढ़ी है। करात ने कहा कि भाजपा और कांग्रेस की नीतियां भी समान हैं। बहरहाल नेताओं ने यह फैसला भी किया है कि पधानमंत्री पद के उम्मीदवार के जटिल मुद्दे को चुनाव के बाद देखा जाएगा। इन नेताओं का मानना है कि कांग्रेस काफी पीछे छूट गई है और आगामी चुनाव में भाजपा के खिलाफ थर्ड पंट ही रेस में है, अपनी पोजीशन में है। यह बहुत पचलित कहावत है कि राजनीति में कोई स्थाई दोस्त या दुश्मन नहीं होता। यह बात चुनावों से ठीक पहले कुछ ज्यादा ही सच दिखाई लगती है। देश की केन्द्राrय राजनीति में लगभग 18 सालों से किसी एक पाटी का राज नहीं रहा है और फिलहाल गठबंधन राजनीति का कोई विकल्प भी देखने को नहीं मिल रहा है। ऐसे में तमाम पार्टियां अपने-अपने विकल्प तलाशने में जुटी हुई हैं। इस राजनीतिक माहौल में एक बात स्पष्ट है कि ऐसा कोई खास विचारात्मक अलगाव पार्टियों के बीच नहीं है। अगर इन पार्टियों का कोई समान स्वार्थ है तो वह बस इतना कि भाजपा का विरोध कर केन्द्राrय सत्ता में आना। कांग्रेस का कहना है कि थर्ड पंट के रेस में होने या चुनाव के बाद सरकार बनाने की बातें कल्पना और गलत आंकलन भर ही है, गुमराह करने की कोशिश है। यूपीए सरकार में शामिल एक भी दल अलग नहीं हुआ है, साथ ही वोटर के सामने यह भी है कि मुलायम सिंह यादव हों या मायावती, सारा विरोध दिखाने के बावजूद दोनों ही सरकार को समर्थन दे रहे हैं। जनता ने यह देखा है और देख भी रही है। दूसरे यह जो 11-12 दल साथ मिल रहे हैं वे क्या खुद 272 का जादुई आंकड़ा पार कर पाएंगे? वे किसकी मदद से सरकार बनाएंगे? जिस पंट में मुलायम हों क्या मायावती उसे समर्थन दे सकती हैं? जिस पंट में लेफ्ट पार्टियां हों क्या ममता बनजी समर्थन दे सकती हैं? जिस पंट में नीतीश कुमार हें, क्या लालू यादव उसे समर्थन दे सकते हैं? क्या जयललिता और करुणानिधि साथ-साथ बैठ सकते हैंजहां पर जगनमोहन रेड्डी या किरण रेड्डी में से कोई हो, क्या वहां चंद्रबाबू नायडू हो सकते हैं? इतने विरोधाभास हैं और यह नेता थर्ड पंट सरकार बनाने के अपने सपनों को साकार बनाने में जुट गए हैं। दूसरी तरफ भाजपा का कहना है कि नरेन्द्र मोदी की हवा है, चौतरफा तूफान उठ रहा है, कोलकाता में 2 लाख की भीड़, बाकी सब जगह भीड़ ही भीड़, यह देखकर कांग्रेस और बाकी दलों के नेता परेशान हो उठे हैं। गैर यूपीए दलों के नेताओं ने इकट्ठे होकर अपने कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने, अपनी राष्ट्रीय पहचान बनाने या बचाने के लिए भानमती का कुनबा जोड़ा है। उनका शायद यह भी मानना है कि साम्पदायिक ताकतों के विरोध के नाम पर एक बार फिर कांग्रेस का समर्थन लेकर सरकार बनाने में कामयाब हो जाएंगे। उनकी जैसी भाषा की तरफ ही अब अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पाटी भी बढ़ती दिख रही है। दो दिन पहले ही केजरीवाल ने कहा कि साम्पदायिकता, भ्रष्टाचार से भी ज्यादा खतरनाक है। इस भाषा से केजरीवाल गैर भाजपा दलों के साथ लिंक खोल सकते हैं। यानि तब केजरीवाल के लिए मुलायम सिंह यादव और अपनी लिस्ट में ऐसे ही अन्य कई नेता करप्ट नहीं रहेंगे? वह ऐसा कर सकते हैं, दिल्ली में भी कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाकर ऐसा कर भी चुके हैं? लेकिन इस बार साम्पदायिता के खिलाफ एकजुट होने का यह छलावा अगर वह करते हैं तो कितने कामयाब होंगे यह पश्न अलग है। 1996 के इस पयोग से जनता काफी आगे निकल आई है और मोदी के लिए एकतरफ समर्थन उफान पर है। वैसे भी थर्ड पंट पधानमंत्रियों से भरा है, मुलायम सिंह यादव, जयललिता, नीतीश कुमार, पकाश करात, देवगौड़ा सभी दावेदार हो सकते हैं पर जनता इस बार सतर्क है। तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता के जन्मदिन समारोह में संसद की अनुकृति वाले वजनदार केक का इस्तेमाल करके बता दिया गया है कि देश की सबसे ताकतवर कुसी के लिए एक और असरदार पत्याशी उपलब्ध है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनजी को जब से अन्ना हजारे ने समर्थन दिया है तब से लाल किले पर झंडा फहराने के सपने देखने लगी हैं। राजीव गांधी की हत्या में शामिल तमाम लोगों को जेल से रिहा करने की घोषणा कर जयललिता आने वाले चुनावों में इसकी भरपूर फसल काटने के सपने देख रही हैं। लेकिन तीसरे मोर्चे की घोषणा के वक्त असमगण परिषद और बीजू जनता दल के शीर्ष नेतृत्व की गैर हाजिरी पर उठते सवालों ने इस पहल का रंग थोड़ा फीका तो कर ही दिया है। अफरातफरी में की गई इस थर्ड पंट की घोषणा में साझा न्यूनतम कार्यकम की बात भी जिस हल्के अंदाज में की गई उसके संकेत भी अच्छे नहीं है। हमारा तो हमेशा से यह मानना रहा है कि जब-जब थर्ड पंट यानि गैर-कांग्रेस और गैर-भाजपा केन्द्र की सत्ता में आया है देश कई वर्ष पीछे चला गया है। इन छोटे-छोटे सूबेदारों की सोंच भी अपने पांत तक ही रहती है और एजेंडा भी पांत तक सीमित रहता है। मुझे याद है कि जब देवगौड़ा पधानमंत्री बने थे तो वह कर्नाटक से बाहर ही नहीं निकल पाए। इसलिए देश हित में यही है कि या तो भाजपा नेतृत्व में केन्द्र सरकार बने या फिर कांग्रेस नेतृत्व में। यही दो पार्टियां ऐसी हैं जिनका राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय विजन है, दृष्टि है। मुझे तो इस तथा कथित थर्ड पंट से कोई उम्मीद नहीं है। यह तो भानमती का कुनबा है, कहीं की ईंट तो कहीं का रोड़ा।

-अनिल नरेन्द्र

Thursday, 27 February 2014

इतालवी मरीन केस के कारण बढ़ता भारत-इटली तनाव

इटली के नौसैनिकों पर दर्ज केस उलझता जा रहा है। इसको लेकर भारत और इटली के बीच तनाव बढ़ता ही जा रहा है। केस 15 फरवरी 2012 को इतालवी समुद्री जहाज एनरिक लैक्सी द्वारा केरल तट से दूर समुद्र में भारत के दो मछुआरों की कथित रूप से गोली मारकर हत्या किए जाने से संबंधित है। इटली के इन मरीनों का तर्क है कि उन्हें जहाज पर समुद्री लुटेरों के हमले का अंदेशा था। इस मामले में दोनें मरीन को 19 फरवरी 2012 को गिरफ्तार किया गया था। जहाज टली ने भारत में मुकदमे का सामना कर रहे दो इतालवी मरीन के मामले में सख्त रुख अख्तियार करते हुए नई दिल्ली से अपने राजदूत को वापस बुला लिया और भारतीय अधिकारियों के रवैये को गैर जिम्मेदाराना बताया। अपने राजदूत को वापस बुलाने की इटली के फैसले की घोषणा करते हुए इतालवी विदेश मंत्री एमा बोनिनो ने कहा कि इटली की सरकार ने भारत में अपने राजदूत डेनियल,मेंमीनी को परामर्श के लिए तत्काल बुलाने का आदेश दिया है। मुकदमे के लंबा खिंचने को लेकर इटली भारत से नाराज है और राजदूत को वापस बुलाना, इतालवी सरकार द्वारा भारत सरकार पर दबाव बनाने के संदर्भ में देखा जा रहा है। ऐसा लगता है कि सुपीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई टलने से इटली नाराज हो गया है। न्यायालय ने हत्या के आरोपों का सामना कर रहे इतालवी मरीन मिसिमिलानो लातोरे तथा सल्वातोरे गिरोने के मामले को 24 फरवरी तक स्थगित कर दिया था। भारत के खिलाफ आरोप का नेतृत्व करते हुए इतालवी विदेश मंत्री बोनिनी ने कहा कि हम वहां जाकर सैन्य बल से अपने नौसैनिकों को वापस नहीं ला सकते लेकिन नई इतालवी सरकार के पास कई विकल्प खुले हैं। मीडिया में आई खबरों में कहा गया है कि इससे द्विपक्षीय संबंधों पर रोक लग सकती है और इतालवी नौसेना के समुद्री लूट रोधी मिशन से सैनिकों को वापस बुलाया जा सकता है। बोनिनो ने कहा कि इटली का मुख्य उद्देश्य दोनों सैनिकों की समय पर स्वदेश वापसी है। इटली का मुख्य उद्देश्य दोनों सैनिकों की समय पर स्वदेश वापसी सुनिश्चित करना है। इटली के नए रक्षामंत्री राबर्ट पिनोती ने कहा कि मरीन की पीड़ा सभी इटलीवासियों के दिल में है। पधानमंत्री मातेओ रेंजी और उनकी कैबिनेट के शपथ लेने के बाद राबर्ट ने संवाददाताओं से कहा कि मरीन का मुद्दा हमारी पहली चिंता है। इटली ने साफ कर दिया है कि आगामी 24 फरवरी को भारत के सुपीम कोर्ट की इस मामले से जुड़ी सुनवाई के लिए उनके भारत लौटने का (राजदूत का) कोई सवाल नहीं है। बीते 15 जनवरी को इटली ने भारत के सुपीम कोर्ट का रुख किया। उसे डर था कि इस मामले की जांच कर रही एनआईए आरोपी मरीन के खिलाफ आतंकवाद विरोधी कानून के तहत मामला चला सकती है जिसमें मौत की सजा भी संभव है। भारत ने हाल ही में मौत की सजा की बात को खारिज किया, उसने इस बात पर जोर दिया कि मरीन के खिलाफ समुद्री लूट विरोधी कानून के तहत मामला चलाया जाएगा। उधर इतालवी मरीन की पत्नियों ने अधिकारियों से मुलाकात की और इतालवी राजदूत से मामले के निपटारे तक नई दिल्ली नहीं लौटने का आग्रह किया। केन्द्र ने मामले को डिफ्यूज करने के लिए सुपीम कोर्ट को सूचित किया कि दो भारतीय मछुआरों की हत्या के आरोपी इटली के दो मरीन के खिलाफ समुद्री लूट निरोधक कानून एसयूए के तहत मुकदमा नहीं चलाया जाएगा। दूसरी ओर इतालवी सरकार ने केन्द्र सरकार के खिलाफ नया मोर्चा खोलते हुए इस मामले में जांच करने के लिए राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) के अधिकार क्षेत्र को चुनौती दे डाली। उल्लेखनीय है कि एएसयू कानून के तहत अधिकतम मौत की सजा का पावधान है। इसका मतलब यह है कि अब इन दो इतालवी मरीन को मौत की सजा नहीं होगी।

-अनिल नरेन्द्र

चुनाव करीब आते ही बढ़ी जोड़-तोड़ की राजनीति

आम चुनाव के लिए विभिन्न पार्टियां व नेता अपनी-अपनी गोटियां फिर फिट करने में जुट गए हैं। सियासी सरगर्मियां तेज हो गई हैं और नए समीकरण बन-बिगड़ रहे हैं। कांग्रेस और राजद के साथ मिलकर चुनावी गठबंधन का रास्ता टटोल रहे लोजपा नेता रामविलास पासवान ने अचानक दिशा बदलकर भाजपा की तरफ दौड़ लगा दी। अचानक एक दो बयानों से पता चला कि बिहार में दोनों मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला करने जा रहे हैं। दरअसल भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में हवा चलती देखकर रामविलास पासवान उससे हाथ मिलाने को तैयार हैं। अब पासवान एंड संस के लिए नरेन्द्र मोदी 2002 गुजरात दंगों में ब्लीपर हो गए हैं। चूंकि एसआईटी ने उन्हें (मोदी) क्लीन चिट दे दी है इसलिए पासवान को भाजपा और मोदी के साथ आने में कोई ऐतराज नहीं है। भाजपा को भी यह सूट करता है। पासवान के मोदी के करीब आने का मतलब यह भी है कि अब भाजपा और मोदी अछूते नहीं रहे। अब वह साम्पदायिक नहीं हैं। उधर कांग्रेस की मदद से नीतीश कुमार भाजपा को पटखनी देने का दाव तलाश रहे राजद मुखिया लालू पसाद यादव को उनके ही विधायकों ने ऐसा धोबिया पाट मारा है कि चुनावी अखाड़े में कूदने से पहले ही वे चारों खाने चित्त नजर आने लगे हैं, उनके बाईस में से तेरह विधायकों ने पाला बदलते हुए जद-यू में जाने की घोषणा कर दी। लालू उस समय दिल्ली में थे। वह रात को पटना पहुंच कर डैमेज कंट्रोल में लग गए। ताजा समाचार है कि तेरह विधायकों में से नौ वापस राजद में लौट आए हैं और उन्होंने लिखित में दिया है कि वह अभी भी अपनी मूल पाटी में ही हैं। हवा का रुख देखकर राजनेता बड़ी तेजी के साथ पाला बदलने में लगे हैं। आंध्र पदेश से हाल में अलग हुए तेलंगाना राज्य की पमुख आंदोलनकारी पाटी तेलंगाना राष्ट्रीय समिति ने इस राज्य के पृथक अस्तित्व की औपचारिकताएं पूरी होने से पहले ही कांग्रेस को आखें दिखाना शुरू कर दिया है और सीधा कहना शुरू कर दिया है कि उसका कांग्रेस में विलय का कोई इरादा नहीं है। वहीं इस पार्टी के अध्यक्ष के चन्द्रशेखर राव ने नए राज्य के मुख्यमंत्री पद के लिए गोटियां बिछाना आरम्भ कर दी हैं। उनकी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से दो दिन पहले मुलाकात हुई है। समझा जाता है कि राव एक शर्त पर अपनी पाटी का कांग्रेस में विलय कर सकते हैं यदि उन्हें तेलंगाना का मुख्यमंत्री बनाने के लिए कांग्रेस राजी हो जाए, मगर कांग्रेस नए राज्य का मुख्यमंत्री केन्द्राrय मंत्री एस जयपाल रेड्डी को बनाना चाहती है जो इस इलाके के सर्वमान्य नेता माने जाते हैं । कायदे से तेलंगाना में मुख्यमंत्री कांग्रेस का ही बनना चाहिए क्योंकि एकीकृत आंध्र पदेश में कांग्रेस की ही सरकार थी, मगर चन्द्रशेखर राव बहुत पुराने खिलाड़ी हैं और रंग बदलने में माहिर हैं। तेलंगाना इलाके की 17 सीटों पर कांग्रेस बहुत उम्मीदें लगाए बैठी है। जहां तक भाजपा का सवाल है उसकी निगाहें हर वर्ग और जाति के वोटों पर टिकी हैं। दलित नेता उदित राज को पाटी में शामिल करके भाजपा ने देश के दलितों के बीच संदेश देने की कोशिश की है कि वही उनकी असल खैरख्वाह है। खासकर उत्तर पदेश में बसपा सुपीमो पमुख मायावती की दलित वोटों पर पकड़ कमजोर करने के लिए भाजपा ने दलित कार्ड खेला है। उदित राज भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी रहे हैं। उन्होंने नौकरी छोड़कर राजनीति शुरू की और जस्टिस पाटी का गठन किया। दलितों के बौद्धिक वर्ग में उनका पभाव है, इसलिए उत्तर पदेश के अलावा देश के अन्य पांतों में भी भाजपा उनका इस्तेमाल करेगी। अगर अंतत रामविलास पासवान भाजपा से गठबंधन कर लेते हैं तो इससे भाजपा को काफी लाभ मिल सकता है। इससे उसे दोहरा फायदा मिल सकता है। पहला राजद-कांग्रेस-लोजपा के गठजोड़ को तोड़कर अपने खिलाफ एकजुट होने वाले वोटों को विभाजित करना ताकि वह इस गठजोड़ से होने वाले नुकसान से बच सके। दूसरा लोजपा को अपने खेमे में लाने से बिहार में दलित वोटों पर अपनी पकड़ मजबूत करना। इससे कांग्रेस के साथ-साथ जद-यू को भी झटका लगेगा। बिहार और उत्तर पदेश की 40 और 80 सीटों पर सभी क्षेत्रीय दलों एवं राष्ट्रीय दलों की निगाहें गड़ी हुई हैं। लेकिन नए घटनाकम से बिहार में चल रही उठापटक अब दिलचस्प मोड़ पर पहुंच गई है। अब देखना यह है कि रामविलास पासवान भाजपा के साथ जाएंगे या कांग्रेस को जद-यू के साथ देने के लिए मनाएंगे। देखना यह भी होगा कि पासवान जो कि सियासत के मझे हुए खिलाड़ी हैं भाजपा के साथ आने का दिखावा करके कांग्रेस पर दबाव बना रहे हैं।

Wednesday, 26 February 2014

यूप्रेन में रूस विरोधियों का पलड़ा भारी दिख रहा है

कम्युनिस्ट तानाशाही के खिलाफ हुए विद्रोह के कारण 1991 में सोवियत यूनियन गणराज्य समाप्त हो गया था और एक दर्जन राज्य अलग-अलग देश बन गए थे। कुछ पर यूरोपीय पभाव बढ़ा, कुछ पर रूस का पभाव रहा और कुछ एशियाई पभाव में रहे। इन्हीं में से एक राज्य देश यूपेन है। सत्तारूढ़ होने के बाद रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन यूपेन को रूस के पभाव में लाने की कोशिश करने लगे। मगर इसके खिलाफ भी विद्रोह की स्थिति बनी। पिछले कुछ दिनों से यूपेन में सियासी उठापटक चल रही है। राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच के खिलाफ यूकेन की राजधानी कीव में जबरदस्त संघर्ष चल रहा है। राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच ने ताजा खबरों से पता चला है, राजधानी कीव छोड़ दी है और देश के पूवी हिस्से में चले गए हैं। राजधानी से बाहर निकलने और अपने धुर विरोधी यूलिया तिमोशेंको की जेल से रिहाई के बाद रविवार को यूपेन के राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच के ठिकाने का अता-पता नहीं चल रहा। यूलिया ने रविवार को कीव आकर एक विशाल जनसभा को संबोधित किया था। यूपेन की समाचार एजेंसियों ने सरकारी सूत्रों के हवाले से बताया कि यानुकोविच जिस निजी विमान में सवार थे, उसे पूवी यूपेन के दोनेत्सक शहर से उड़ान भरने की मंजूरी नहीं दी गई। दोनेत्सक राष्ट्रपति का गढ़ समझा जाता है। राजधानी कीव का मध्य क्षेत्र शनिवार को देश के राजनीतिक संकट में आए बदलाव के बाद रविवार को सुबह की रोशनी के साथ शांत नजर आया। पिछले कुछ समय से चले आ रहे राजनीतिकि उठापटक के पीछे रूस-विरोधियों का हाथ है। राष्ट्रपति यानुकोविच के खिलाफ संसद में विरोधियों का पलड़ा भारी हो गया जिसके चलते उन्हें न चाहते हुए भी पद छोड़ना पड़ा। विरोधियों ने 25 मई को नए राष्ट्रपति के चुनाव पर जोर दिया है। सरकार समर्थक चुनाव दिसम्बर तक टालने के हक में हैं। यानुकोविच को अपने धुर विरोधी पूर्व पधानमंत्री यूलिया तिमोशेंको को जेल से छोड़ना पड़ा। सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच झगड़े का मूल कारण यूपेन की अर्थव्यवस्था की दिशा को लेकर है। विपक्ष के नेता यूपेन का आर्थिक ताना-बाना यूरोपीय माडल पर बनाना चाहते हैं। वह यूकेन को एक आधुनिक यूरोपीय देश बनाना चाहते हैं। जबकि यानुकोविच और उनके समर्थक देश को रूसी अर्थव्यवस्था की शक्ल देना चाहते हैं। यानुकोविच ने यूरोपीय संघ से लंबित एक समझौते को रद्द कर उसे रूस से कर लिया था। विपक्ष ने इसी को मुद्दा बनाकर आंदोलन करना शुरू कर दिया। आंदोलनकारियों और पुलिस में कई झड़पें हुईं और मौतें तक हो गईं। यूपेन में यूपेनी भाषा बोलने वाले यूपेन लोगों का वर्चस्व है। उनकी संख्या करीब दो-तिहाई है। ऐसे में रूस विरोधियों का पलड़ा भारी है। बाकी एक तिहाई रूसी बोलने वाले हैं। रूसी राष्ट्रपति पुतिन रूस विरोधियों को भड़काने के लिए यूरोपीय संघ को दोषी मानते हैं। अमेरिका पर भी पुतिन ने आरोप लगाया है। बहरहाल ताजा स्थिति के अनुसार रूसी पलड़ा कमजोर पड़ रहा है और रूसी विरोधियों का भारी। पर देखना यह है कि क्या ब्लादिमीर पुतिन इतनी आसानी से यूपेन से पलड़ा छोड़ देंगे? इतना तय है कि यूकेन में जो राजनीतिक उठापटक शुरू हुई है वह अभी चलेगी फिर जाकर कहीं वहां स्थिरता आएगी।

-अनिल नरेन्द्र

मोदी ने दी चीन को चेतावनीः सात बहनों को रिझाना चुनौती होगी

आप भाजपा के पीएम पद के उम्मीदवार की सियासत से मतभेद रखते हों पर आप यह तो मानेंगे कि नरेन्द्र मोदी एक साहसी नेता हैं जो अपनी बात कहने से नही कतराते। शनिवार को नरेन्द्र मोदी ने पूर्वेत्तर में चुनावी हुंकार भरी। अरुणाचल पदेश में उन्होंने चीन को चेतावनी दी तो असम में बांग्लादेश और पाकिस्तान व म्यांमार को चेताया। यह काम सभी नहीं कर सकते कि एक साथ ही चीन, पाकिस्तान, बांग्लादेश और म्यांमार को चेतावनी दे सकें और विपक्षी पार्टियों के नेताओं ने तो ऐसी कोई खुली चुनौती नहीं दी। यह जिगरे का काम है और केवल वही व्यक्ति कर सकता है जिसमें अभूतपूर्व साहस हो। मोदी ने सिलचर (असम) के रामनगर में एक रैली में कहा, जैसे ही हम सत्ता में आएंगे बाग्लादेश से आए हिंदुओं  को रखने के डिटेंशन कैम्पों को बंद कर देंगे। हमारी हिंदुओं के पति जिम्मेदारी है जिन्हें अन्य देशों में परेशान एवं उत्पीड़ित किया गया है। वह कहां जाएंगे? उनके लिए भारत ही एक मात्र देश है। हमारी सरकार उन्हें परेशान करना जारी नहीं रख सकती। मोदी ने कहा कि इसका मतलब यह नहीं होगा कि असम को पूरा बोझ उठाना पड़ेगा। उन्हें देश भर में बसाया जाएगा और नया जीवन शुरू करने की सुविधा दी जाएगी। नरेन्द्र मोदी ने असम की कांग्रेस नीत सरकार को वोट बैंक राजनीति में शामिल करने के लिए आड़े हाथ लिया। उन्होंने कहा कि राज्य के लोग समस्या में पड़ गए क्योंकि सरकार बाग्लादेश से घुसपैठ को रोकने में विफल रही है। मोदी ने कहा कि असम बांग्लादेश के करीब है जबकि गुजरात पाकिस्तान के करीब। असम के लोगों को बांग्लादेश के कारण ही समस्या हो रही है जबकि पाकिस्तान मेरे कारण चिंतित है। मोदी ने भाषण की शुरुआत में कामाख्या देवी के आशीर्वाद की कामना की। उन्होंने कहा मां कामाख्या की कृपा केवल असम के लोगों के लिए ही नहीं पूरे देश के लिए है। उनके आशीर्वाद से हम लोगों के सपनों और आकांक्षाओं को पूरा करने में मदद मिलेगी। मोदी ने कहा कि उनकी असम यात्रा से यहां के मुख्यमंत्री की रातों की नींद उड़ गई। उन्होंने कहा कि घुसपैठियों को वापस भेजा जाना चाहिए क्योंकि उन्होंने न केवल स्थानीय लोगों की नौकरियां ले ली हैं बल्कि वे राजनीतिक मंसूबों के साथ आए हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि असम की सरकार ने अपने वोट बैंक राजनीति के तहत डिटेंशन कैंप में रह रहे हिंदू विस्थापितों के मानवाधिकारों का भी उल्लंघन किया है। अरुणाचल पदेश में नरेन्द्र मोदी ने पासीघाट रैली में चीन को चेतावनी दी और विदेश नीति पर अपना रुख पेश किया। उन्होंने कहा कि चीन अपनी विस्तारवादी मानसिकता छोड़े। दुनिया की कोई ताकत अरुणाचल पदेश को भारत से नहीं छीन सकती। मोदी बोले, अरुणाचल पदेश भारत का अभिन्न अंग है और हमेशा बना रहेगा। कोई भी शक्ति इसे हमसे नहीं छीन सकती है। नरेन्द्र मोदी की चीन को चेतावनी देना महत्वपूर्ण है और इसका रिएक्शन भी हो सकता है पर मोदी ने अपनी विदेश नीति को स्पष्ट कर दिया है। भाजपा के लिए पूर्वेत्तर राज्यों में पांव जमाना आसान काम नहीं। उत्तर-पूर्व में चुनावी मुकाबला अक्सर क्षेत्रीय पार्टियों और कांग्रेस के बीच होता है। उत्तर-पूर्व के राज्यों (अरुणाचल पदेश, मणिपुर, मेघालय, असम, मिजोरम, नागालैंड, त्रिपुरा) को अमूमन सात बहनें कहा जाता है लेकिन सिक्किम सहित आठ राज्य हैं। इनमें सबसे ज्यादा 14 लोकसभा सीटें असम में ही हैं। राष्ट्रीय पार्टियें में केवल कांग्रेस है जो इन राज्यों में अपनी पहचान बना पाई है। ऐसे में 25 लोकसभा सीटों वाले उत्तर-पूर्व को कांग्रेस के हाथ से निकालकर अपने हाथ में करना भाजपा के लिए आसान नहीं है। कांग्रेस को उम्मीद है कि आसन्न लोकसभा चुनावों में न केवल असम बल्कि पूरे उत्तर-पूर्व में पाटी की स्थिति बेहतर होगी लेकिन उसे त्रिपुरा, नागालैंड और सिक्किम में परेशानी आ सकती है। त्रिपुरा में सीपीएम, नागालैंड में नगा पीपुल्स पाटी और सिक्किम में सिक्किम डेमोपेटिक पंट के पास लोकसभा सीटें हैं। उत्तर-पूर्व का इतिहास रहा है कि संसदीय सीटें उसी पाटी को मिलती हैं जिसकी राज्य में सरकार होती है लेकिन कांग्रेस को अपने दो बड़े वोट बैंक बंगाली मुस्लिम और आदिवासियों को संतुलित रखने में परेशानी आ सकती है। 2011 की जनगणना के मुताबिक असम की 14 लोकसभा सीटों में से छह पर मुस्लिम और चार पर आदिवासी पभावी हैं। 2004 में भाजपा को 2 पतिशत वोट मिले थे जो 2009 में बढ़कर 4 पतिशत हो गए थे। मोदी की लहर का फायदा उठाने की पाटी को उम्मीद है। यहां के मूल निवासी समूहों का साथ मिल सकता है पर राज्य की विषम जनसांख्यिक स्थिति भाजपा के लिए चुनौती है। जनता के मन में पार्टी को हिंदी समर्थक और साम्पदायिक होने की छवि को मोदी ने बदलने का पयास किया है। देखें, मोदी की लहर का पाटी को लोकसभा चुनाव में कितना फायदा होता है

Tuesday, 25 February 2014

राहुल गांधी के लिए करो या मरो की स्थिति

15वीं लोकसभा का अंतिम सत्र समाप्त हेते ही कांग्रेस आगामी लोकसभा चुनावों की तैयारियों में जुट गई है। पहली बार इस चुनाव की अगुवाई कर रहे पाटी उपाध्यक्ष राहुल गांधी आजकल बैठकें कर चुनावी रणनीति में पूरी तरह से जुट गए हैं। गत शुकवार को कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों के साथ जब राहुल गांधी ने चुनाव की बैठक की तो यही कहा कि सरकार के सामने दस साल बाद कांग्रेस सत्ता विरोधी लहर है। यानि 10 साल की सरकार के बाद अब कांग्रेस को सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ेगा। राहुल ने कहा कि हवा विपरीत है, इसलिए केवल सरकार की उपलब्धियां गिनाने से काम नहीं चलेगा, हमें लोगों को यह भी जताना होगा कि हम भ्रष्टाचारी नहीं हैं। उन्होंने कहा कि कांग्रेस के पचार में इस बात को पमुखता दी जाएगी कि भ्रष्टाचार कों मिटाने के लिए उसने कैसे-कैसे कानून बनाए हैं और कांग्रेस ने किसी भ्रष्टाचारी को नहीं बचाया है। ज्यादातर सदस्य इसी बात को लेकर चिंतित थे कि किस तरह कांग्रेस की छवि को भ्रष्ट पाटी के लेवल से मुक्त किया जाए और पाटी चुनावी घोषणा पत्र को किस तरह से आकर्षित बनाया जाए? ताकि कांग्रेस से नाराज बड़े जनसमूह का भरोसा फिर से जीता जा सके। लोकसभा चुनाव से ठीक पहले पचार में पिछड़ने से कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने नाराजगी जताते हुए आकामक पचार की भी वकालत की। पाटी नेताओं का कहना है कि भाजपा की तरफ से पधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी गुजरात मॉडल की बात कर रहे हैं और हम जनता के सामने अपनी उपलब्धियों को भी नहीं पहुंचा रहे हैं। राहुल गांधी की अध्यक्षता में यह सीडब्ल्यूसी की पहली बैठक थी। इस बैठक में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और पधानमंत्री मनमोहन सिंह मौजूद नहीं थे। नरेन्द्र मोदी की अगुवाई वाली भाजपा लहर से भयभीत सोनिया-राहुल गांधी सीटें बचाने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। सूत्रों के मुताबिक कांग्रेस ने योजना बनाई है कि चाहे कुछ भी हो, कुछ भी करना पड़े, 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की सीटें 100 से नीचे नहीं होनी चाहिए। 2014 के चुनाव में कांग्रेस को 95 से भी कम सीटें मिलने की बात कही जा रही है। ताजा सर्वेक्षण भी यही पोजेक्ट कर रहे हैं । यदि कोई भी अन्य पाटी 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के बाद दूसरे नंबर पर आ जाती तब तो 10 साल में कांग्रेस की जड़ सूखकर एक चौथाई रह जाती लेकिन देश में कांग्रेस और भाजपा के बाद कोई भी अन्य पाटी ऐसी नहीं है जिसका कई राज्यों में आधार हो। जो भी क्षेत्रीय दल हैं उनका आधार एक या दो राज्यों तक सीमित है। इसी का लाभ कांग्रेस को मिल सकता है। सत्ता विरोधी लहर के चलते हम कांग्रेस नेतृत्व की डिपेशन यानि व्याकुलता समझ सकते हैं। लोकसभा चुनाव से ठीक पहले आए सर्वे में बताया गया है कि नरेन्द मोदी की लहर का भाजपा को फायदा होता दिख रहा है। कांग्रेस अब तक की सबसे करारी हार का सामना करने जा रही है। टाइम्स नाउ-सी  वोटर और इंडिया टीवी के देश भर में हुए ताजा सर्वेक्षणों  के मुताबिक आज की तारीख में एनडीए को 227 सीटें, यूपीए को 101 सीटें और अन्य को 215 सीटें मिलने का अनुमान है। पिछले साल अक्टूबर में एनडीए को 186, यूपीए को 117 और अन्य को 240 सीटें मिलने का अनुमान था। मतलब कांग्रेस और अन्य दोनों पर भाजपा और एनडीए ने छलांग लगाई है। आम आदमी पाटी का लोकसभा चुनाव में कोई खास पभाव अभी नहीं दिख रहा है। आप को केवल 7 सीटें मिलने का ही अनुमान है। इन्हीं सर्वेक्षणों को देखते हुए राहुल गांधी 15वीं लोकसभा के अंतिम सत्र में अपने ज्यादा से ज्यादा विधेयक पारित कराने के चक्कर में थे। अंतिम क्षणों में वह कुछ हद तक कामयाब भी हुए। तेलंगाना बिल पारित करा लिया, विहसल ब्लोअर बिल पारित हो गया। मंत्रियों सहित लोक सेवकों द्वारा सत्र का जानबूझकर दुरुपयोग करने और भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ करने वाले लोगों को पोत्साहन देने के मकसद से एक नियमित तंत्र बनाने के पावधान वाले महत्वपूर्ण इस विधेयक को 15वीं लोकसभा ने मंजूरी दे दी है। विपक्ष के चालू सत्र की अवधि बढ़ाए जाने के लिए राजी नहीं होने के बाद सरकार ने राहुल गांधी के पसंदीदा छह भ्रष्टाचार रोधी विधेयकों के लिए अध्यादेश लाने की संभावना खुली रखी है। संसदीय कार्यमंत्री कमलनाथ ने संकेत दिया कि सरकार इन विधेयकें को अध्यादेश के जरिए लाने पर चर्चा करेगी। 15वीं लोकसभा के अंतिम सत्र महत्वपूर्ण एजेंडों को पूरा न देख सरकार ने महिला आरक्षण बिल आर्डिनेंस के जरिए पूरा करने की योजना बनाई है। सूत्रों के मुताबिक आगामी कुछ दिनों में सरकार तमाम महत्वपूर्ण एजेंडों से जुड़े अध्यादेश सामने ला सकती है। फूड सिक्योरिटी कानून व डायरेक्ट बेनेफिट ट्रांसफर जैसी योजनाओं का जमीनी स्तर पर व्यापक असर होता न देख कांग्रेस ने देश की आधी आबादी यानि महिलाओं का दिल जीतने के लिए अध्यादेश के जरिए महिला आरक्षण बिल पर दांव खेलने की योजना बनाई है। सूत्रों के मुताबिक राहुल गांधी महिला आरक्षण बिल व भ्रष्टाचार बिलों को हर हालत में आगे बढ़ाना चाहते हैं। लोकसभा चुनाव से पहले अल्पसंख्यकों को भी रिझाने की योजना के तहत केन्द्र की संपग सरकार ने बहुपतिक्षित समान अवसर आयोग के गठन के मसौदे को मंजूरी दे दी है। यह वैधानिक आयोग नौकरियों और शिक्षा में अल्पसंख्यकों के साथ होने वाले भेदभाव मामलों की जांच करेगा। जस्टिस सच्चर कमेटी से समान अवसर आयोग के गठन की सिफारिश की थी। पधानमंत्री की अध्यक्षता में गत गुरुवार को हुई केन्द्राrय मंत्रिमंडल की बैठक में इसे मंजूरी दी गई। देखना यह होगा कि खुद भ्रष्टाचार में डूबी यूपीए सरकार अब जाकर अपनी छवि सुधारने की कोशिश कर रही है जब पानी सिर से गुजर चुका है। यह कितने पभावी होते हैं यह तो समय ही बताएगा। हमें डर है कि यह कदम बहुत देर से उठाए जा रहे हैं। वह अंग्रेजी की कहावत है-आई होप इट इज नॉट टू लिटल टू लेट।

-अनिल नरेन्द्र

Sunday, 23 February 2014

मुस्लिमों को बच्चा गोद लेने का अधिकार हैः सुपीम कोर्ट

सामाजिक कार्यकर्ता शबनम हाशमी की याचिका पर सुपीम कोर्ट द्वारा बुधवार को दिए फैसले को ऐतिहासिक कहा जाए तो गलत न होगा। सुपीम कोर्ट ने ठीक ही व्यवस्था दी है कि अन्य किसी व्यक्ति की तरह मुस्लिम समुदाय का कोई भी व्यक्ति अगर चाहे तो जुवेनाइल जस्टिस लॉ के तहत किसी बच्चे को गोद ले सकता है। सुपीम कोर्ट का बहुत साफ कहना है कि कोई भी निसंतान मुस्लिम दंपत्ति भी बच्चा गोद ले सकता है। इसमें मुस्लिम लॉ बोर्ड आड़े नहीं आएगा। कोर्ट के मुताबिक जुवेनाइल जस्टिस लॉ पर अमल में पर्सनल लॉ बाधा नहीं बन सकती। शबनम हाशमी ने आठ साल पहले यह याचिका दायर की थी, जब मुस्लिम पर्सनल लॉ का वास्ता देते हुए उन्हें बच्चा गोद लेने से रोका गया था। बेशक कोर्ट का यह फैसला उन जैसे तमाम लोगों के संवैधानिक अधिकार की रक्षा करता है और इसलिए स्वागत योग्य है। यह अलग बात है कि कोर्ट ने गोद लेने के अधिकार को मौलिक अधिकार मानने से इंकार किया है। इसके बावजूद ताजा फैसले से एक उम्मीद तो जगी है। यह फैसला 2005 में दाखिल शबनम हाशमी की याचिका पर दिया गया है जिसमें सभी धर्में और जातियों के लोगों को बच्चा गोद लेने का हक दिए जाने की मांग की गई थी। दरअसल हिंदुओं के अलावा अन्य धर्मावलम्बी बच्चा गोद लेते थे तो उन्हें बच्चे के माता-पिता का दर्जा नहीं मिलता था। इसी बीच सरकार ने जुवेनाइल एक्ट में संशोधन कर हर धर्म के दंपत्ति को बच्चा गोद लेने का समान हक पदान कर दिया था। सुपीम कोर्ट ने भी साफ कहा है कि जुवेनाइल लॉ गोद लेने का हक देने वाला सकारात्मक कानून है। बाद में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने अजी दाखिल कर सरकारी कमेटियों को यह निर्देश देने की अपील की थी कि वह मुस्लिम बच्चे को गोद लेते समय इस्लामी कानून को ध्यान रखें। उचित ही सुपीम कोर्ट ने बोर्ड की इस दलील को खारिज कर दिया है बच्चा गोद लेना मानवीय और संवेदनशील मामला होता है। इस फैसले से पता चलता है कि न्यायपालिका कानूनी तथ्यों के साथ संवेदनाओं का भी ख्याल रखती है। वैसे भी मानवीयता जाति और धर्म से ऊपर की चीज होती है। ऐसे संवेदनशील मुद्दों के पति मजहबी दुराग्रह एक बड़े वर्ग के साथ असहिष्णुता ही मानी जाएगी। इसलिए इस फैसले को व्यापक नजरिए से देखे जाने की जरूरत है न कि धार्मिक आधार पर। फैसला देते हुए सुपीम कोर्ट ने यह टिप्पणी भी की कि यह कॉमन सिविल कोड की दिशा में एक कदम है। कॉमन सिविल कोड भारत की एक संवैधानिक पतिज्ञा है लेकिन इसके साथ मुस्लिम समुदाय को अपनी धार्मिक पहचान खो देने का एक अवास्तविक डर भी जुड़ा हुआ है। अदालत के फैसले के बाद मुस्लिम समुदाय के भीतर से जिस तरह के बयान आ रहे हैं, वे तीस साल पहले उठे साहबानो विवाद की याद दिलाता है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड से जुड़े लोगों की यह निराशा तो समझी जा सकती है कि कोर्ट ने उनकी दलीलों को स्वीकार नहीं किया लेकिन इस पूरे मामले पर उन्हें ठंडे दिमाग से सोचना चाहिए और इसे भावनात्मक स्वरूप देने से बचना चाहिए। आशा करें कि इस बात को धर्म के भीतरी विमर्श का मुद्दा मानकर यहीं छोड़ दिया जाएगा और खामख्वाह धार्मिक पहचान से जुड़ा मसला नहीं बनाया जाएगा।

-अनिल नरेन्द्र

भारत का 29वां राज्य तेलंगाना

भारत में 29वें राज्य तेलंगाना के गठन का मार्ग पशस्त करते हुए इससे संबंधित बहुचर्चित एवं विवादास्पद विधेयक को गुरुवार को संसद की मंजूरी मिल गई। राज्यसभा में दिन भर चले हंगामे और कई बार स्थगन के बाद सदन ने आंध्र पदेश पुनर्गठन विधेयक 2014 विपक्ष द्वारा लाए गए संशोधनों को खारिज करते हुए ध्वनिमत से पारित कर दिया। दो दिन पहले बड़े ही नाटकीय और शर्मनाक तरीके से विधेयक को लोकसभा में पास करवाया गया। लोकसभा की कार्यवाही का टीवी पसारण ब्लैक आउट कर और सदन के दरवाजे को बंद करते हुए लगभग इमरजेंसी जैसी स्थिति में भारी हंगामे के बीच सरकार ने मंगलवार को तेलंगाना बिल पारित करा लिया। 15वीं लोकसभा में अगर किसी विधेयक को लेकर इतना वाद-विवाद, इतनी अनुशासनहीनता हुई हो तो वह यही तेलंगाना बिल था। हमने देखा कि कैसे मिची स्पे डालकर, धक्का-मुक्की करके सदन की गरिमा तार-तार हुई। जिस ढंग से लोकसभा में इस विधेयक को पास कराया गया उससे इमरजेंसी के दुर्भाग्यपूर्ण दिनों की कड़वी यादें फिर ताजा हो गईं। बिल पास कराने के लिए लोकसभा को देश की नजरों से छिपा दिया गया, दरवाजे बंद कर दिए गए और मार्शलों की तैनाती के साथ ही टीवी कैमरों को बंद करके सदन के घटनाकम का सीधा पसारण रोक दिया गया । हैरत और अफसोस में डूबे देश को बिल के पास होने की खबर तब मिली जब टीवी पर रंग-गुलाल में डूबे तेलंगाना समर्थकें की जश्न मनाती भीड़ नजर आई। अलग तेलंगाना राज्य बनाने का सफर 60 साल का है। वर्ष 1972 में अलग आंध्र पदेश राज्य का गठन हुआ था। अलग तेलंगाना राज्य के गठन की लंबी दास्तान है। भाषाई आधार पर आंध्र पदेश का गठन पूर्ववती मद्रास राज्य एवं शाही हैदराबाद के तेलुगू बोलने वाले इलाके को मिलाकर किया गया। आंध्र के लोग अंग्रेजों के जमाने से ही मद्रास राज्य से आंध्र पांत को अलग करने के लिए संघर्ष करते रहे हैं लेकिन सफल नहीं हुए। जब देश आजाद  हुआ तो उन्हें अपनी उम्मीदें पूरी होती दिखाई दीं, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बहरहाल गांधीवादी नेता पाटेटी श्री रामुलु ने अलग राज्य की मांग को लेकर आमरण अनशन किया जिसकी केन्द्र सरकार ने अनदेखी की। श्री रामुलु 15 दिसम्बर 1952 को शहीद हो गए जिसके बाद बगावत शुरू हो गई। जवाहर लाल नेहरू की सरकार आंदोलन से हिल गई। पधानमंत्री ने 1952 में ही लोकसभा में घोषणा की कि आंध्र राज्य का गठन होगा। एक अक्तूबर 1953 को आंध्र राज्य अस्तित्व में आया और इसकी राजधानी कुर्दूल बनी। यहां सवाल तेलंगाना के समर्थन या विरोध का नहीं उस तरीके का है जो पूरा घटनाकम देश को दिखा है। आंध्र पदेश के दो हिस्सों में बांटने के पीछे तर्क था कि छोटे राज्यों का पशासन और विकास अधिक बेहतर तरीके से होता है। इसमें भावनात्मक पहलू भी जुड़े थे जिनके आधार पर अलग तेलंगाना की मांग पिछले 50 साल से ज्यादा से चली आ रही थी। लेकिन इतने संवेदनशील मसले को ऐसा सतही राजनीतिक रंग दे दिया गया कि जमीन से पहले लोगों के दिल इस अंदाज में बंट गए जैसा भारत-पाकिस्तान बंटवारे के दिनों में हुआ होगा। बंटवारे के मुकम्मल होने के बाद तेलंगाना और सीमांध्र में भी कहीं उन्ही खूनी दिनों की त्रासदी भी न दोहराई जाए जो नरसंहारों के रूप में इतिहास के पन्नें में दर्ज है। सबसे बड़ी बात है कि क्या इससे कांग्रेस को राजनीतिक लाभ मिलने वाला है जिसके लिए कांग्रेस ने संसद के सारे नियम, परंपराएं तोड़ीं? फिर देखना यह भी होगा कि क्या देश में और राज्यों के बंटवारे की मांगें और तेज होंगी

Saturday, 22 February 2014

संसद से लेकर विधानसभा तक माननीयों की बेअदबी

तेलंगाना के मुद्दे को लेकर जिस ढंग से लोकसभा और राज्यसभा में अत्यंत अशोभनीय व्यवहार सांसदों ने पूरे देश के सामने किया उसका असर देश की विभिन्न विधानसभा और विधायकों पर पड़ना स्वाभाविक ही था। बहुत ही दुख की बात है कि माननीय लोग संसद और विधानमंडलों  की गरिमा को तार-तार कर रहे हैं। उनकी करतूतों से लोकतंत्र के मंदिर शर्मसार तो हो रहे हैं पर निहायत गलत परम्परा डाल रहे हैं। बुधवार को राज्यसभा के साथ ही यूपी विधानमंडल और जम्मू-कश्मीर विधानसभा भी इनकी कारगुजारियों से लज्जित हुई। तेलंगाना मुद्दे को लेकर राज्यसभा में बुधवार को अशोभनीय स्थिति पैदा हो गई। इस मुद्दे पर हंगामे के बीच उपसभापति पीजे कुरियन ने आवश्यक दस्तावेज सदन के पटल पर रखवाए। इसी दौरान राज्यसभा के महासचिव शमशेर के शरीफ उपसभापति के निर्देश पर सदन में कोई घोषणा करने जा रहे थे। तभी आसन के समक्ष खड़े तेलगु देशम पाटी के सीएम रमेश ने उनके हाथ से दस्तावेज छीनने का पयास किया। रमेश ने हमलावर अंदाज में महासचिव से कागजात छीनकर फाड़ दिए। इस दौरान महासचिव को चोट भी लगी। लखनऊ विधानमंडल में तो और भी ज्यादा अशोभनीय हरकत देखने को मिली। वहां राज्यपाल के अभिभाषण के दौरान मुख्य विपक्षी दल बहुजन समाज पाटी के साथ राष्ट्रीय लोकदल के सदस्यों ने सरकार विरोधी नारेबाजी की। हंगामे के बीच रालोद के सदस्यों वीरपाल और सुरेश शर्मा ने तो कमीज (शर्ट) तक उतार दिए। बसपा सदस्य भी जूते-चप्पल पहने ही मेजों पर खड़े होकर विरोध जताने लगे। रही सही कसर जम्मू-कश्मीर विधानसभा में माननीयों ने पूरी कर दी। वहां विपक्षी पीपुल्स डेमोपेटिक पाटी के विधायक ने एक मार्शल को ही थप्पड़ जड़ दिया। विधानसभा में कृषि मंत्रालय के अनुदान पर चर्चा के दौरान पीडीपी विधायक सैयद बशीर विस्थापितों को दिए जाने वाले राशन की कमी को लेकर आसन के समीप आ गए। विधानसभा अध्यक्ष ने मार्शलों को नारेबाजी कर रहे पीडीपी विधायक बशीर को हटाने का आदेश दिया। मार्शल जब बशीर को सदन से बाहर लेकर जा रहे थे तब टीडीपी के अन्य विधायक भी वहां पहुंच गए। विधानसभा अध्यक्ष ने उन सदस्यें को भी सदन से बाहर किए जाने का आदेश दिया। जब मार्शल उन्हें हटा रहे थे तो बशीर ने मार्शल को थप्पड़ जड़ दिया। इस पकार का गलत आचरण जनता की बात रखने के नाम पर सदन में ऊल-जलूल उपकम करने वाले सांसदों और विधायकों को यह याद रखना होगा कि वह अखबारों और टीवी चैनलों की सुर्खियां तो बटोर सकते हैं लेकिन लोकतांत्रिक सोच रखने वाले उनके वोटर उन्हें कतई इन रूप में न तो पसंद करेंगे और न ही इस पकार के ड्रामे करने के लिए उन्हें चुना है।

-अनिल नरेन्द्र

आसमान से गिरे खजूर पर अटके अन्ना हजारे

गांधीवादी समाजसेवी अन्ना हजारे ने सबको चैंका दिया है। जिस ढंग से वह अपने दायें हाथ माने जाने वाले अरविंद केजरीवाल को अपना आशीर्वाद दे रहे थे उससे तो लगता था कि लोकसभा चुनाव में वह उन्हें ही अपना समर्थन देंगे। पर अन्ना ने घोषणा की है कि वह लोकसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस की पमुख सुश्री ममता बनजी को चुनाव में अपना समर्थन देंगे। बुधवार को नई दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब आफ इंडिया में हुई पेस कांपेंस में अन्ना हजारे ने कहा कि वे आज भी पक्षवार पार्टियों के खिलाफ हैं। लेकिन तृणमूल कांग्रेस की विचारधारा से काफी पभावित हैं। किसी पथ व पाटी से हमेशा दूर रहने वाले अन्ना हजारे ने कहा कि वह लोकसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस के लिए पचार करेंगे। आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल का लोकसभा चुनाव में समर्थन करने से साफ इंकार करते हुए अन्ना हजारे ने कहा कि वह सिर्फ तृणमूल का समर्थन करेंगे और पाटी के उम्मीदवारों के लिए पचार करेंगे। चुनाव में तृणमूल कांग्रेस के समर्थन को जायज ठहराते हुए अन्ना हजारे ने कहा कि उन्होंने पहली बार देश और समाज के बारे में सोचने वाला व्यक्ति देखा है, तो वह दीदी हैं। इसलिए वह उनका समर्थन कर रहे हैं। अन्ना ने कहा कि उन्होंने सभी पार्टियों से 17 मुद्दों पर राय मांगी थी पर ममता बनजी के अलावा किसी और ने जवाब नहीं दिया। अरविंद केजरीवाल ने भी उनके पत्र का जवाब, नहीं दिया। मैं माफी चाहूंगा पर मेरी राय में जे इज्जत और सम्मान अन्ना हजारे के लिए था उसमें काफी कमी आई है। पिछले कुछ दिनों से उनके अनाप-शनाप बयान जो आ रहे हैं उससे उनकी पतिष्ठा घटी ही है। एक बार फिर साबित हो गया है कि राजनीति दिखावे के लिए कुछ, करने के लिए कुछ और होती है। यह उसी तरह हुआ जैसे हाथी के दांत दिखाने के लिए अलग और खाने के लिए अलग होते हैं। अन्ना हजारे ने जब केवल ममता की उनकी सादगी के लिए पशंसा की थी तब कोई बड़ी बात नहीं थी। अब जबकि उन्होंने यह घोषणा कर दी कि वे तृणमूल कांग्रेस के सभी पत्याशियों के लिए पचार भी करेंगे तो सवाल उठना स्वाभाविक है। सबसे पहला सवाल तो यह है कि आखिर ममता बनजी की राजनीति में अन्ना को ऐसा क्या दिख गया कि वे उनका पचार करने को तैयार हो गए। इस देश में और भी मुख्यमंत्री और नेता हैं जिनकी सादगी ममता से कम नहीं बल्कि कहीं ज्यादा कही जा सकती है। जबसे ममता बनजी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनी हैं उन्होंने ऐसा कोई काम नहीं किया जिसका उन्हें जनता का समर्थन मिला हो। उल्टा उनके राज्य में बिगड़ती कानून व्यवस्था जरूर एक सवालिया निशान लगाती है। महिलाओं के साथ बढ़ती बलात्कार की घटनाओं को लेकर, अस्पतालों में बच्चों की मौत तक और पाटी नेताओं-कार्यकर्ताओं द्वारा किए जा रहे हमलों से ममता बनजी और उनकी सरकार की न केवल किरकिरी हुई है बल्कि उनकी पशंसक रही पख्यात लेखिका महाश्वेता देवी तक ने आलोचना की है। ममता और उनकी पाटी अन्य दलों के समान ही है। दुख तो अन्ना हजारे के राजनीतिक ढेंग पर हो रहा है, उन्हें इस तरह का ढेंग नहीं करना चाहिए। वह किस नेता को, किस पाटी का समर्थन करते हैं यह उनका निजी फैसला है और इस पर कोई ऐतराज नहीं कर सकता पर उनका यह फैसला आलोचना के दायरे में जरूर आएगा और जिस आसमानी हद तक अन्ना जी की इज्जत पहुंच गई थी वह अब धरातल पर आ जाएगी।

Friday, 21 February 2014

तेजपाल पर दुष्कर्म का आरोप, 2684 पन्नों की चार्जशीट दाखिल

खोजी पत्रकार और दिल्ली के सोशल सीन पर पेज-3 के सेलीब्रिटी तरुण तेजपाल के केस में पुलिस ने एक एफआईआर दर्ज कर दी है। तहलका पत्रिका के संस्थापक-सम्पादक तरुण तेजपाल पर पणजी में गोवा पुलिस ने पिछले साल नवम्बर में यहां के एक पांच सितारा होटल की लिफ्ट में एक महिला पत्रकार के साथ बलात्कार, यौन उत्पीड़न और इसकी मर्यादा भंग करने का आरोप लगाया है। जांच अधिकारी सुनीता सावंत ने तेजपाल पर धारा 354,354- (यौन उत्पीड़न), 341और 342 (गलत तरीके से रोकना, 376 (बलात्कार) 376 (2)(एफ) और 376 (2) (के) (अपने आधिकारिक पद का लाभ उठाना और अपने संरक्षण में महिला के साथ बलात्कार करना) के तहत आरोप लगाए हैं। मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट अनुजा पभु देसाई के समक्ष दाखिल 2684 पृष्ठों के आरोप पत्र में पीड़िता, तहलका पत्रिका के कर्मचारियें और मामले के जांच अधिकारी सहित 152 गवाहों के बयान हैं। आरोप पत्र में कहा गया है कि यह साबित करने के लिए रिकार्ड में पर्याप्त बयान  हैं कि  तेजपाल ने बलात्कार, यौन उत्पीड़न और पीड़िता की मर्यादा भंग करने की बात स्वीकारी है। जांच अधिकारी ने कहा है कि तेजपाल के माफी वाले ई-मेल हैं, पी]िड़ता से बलात्कार यौन उत्पीड़न तथा उसकी मर्यादा भंग करने के बारे में ई-मेल पत्र हैं जो उनके कहने पर पुन खोले गए। बताया जाता है कि पीड़िता ने अपनी शिकायत में कहा कि तेजपाल ने गत सात नवम्बर को उसका यौन उत्पीड़न किया और 8 नवम्बर को इसे पुन दोहराया। आरोप पत्र में इस बात का विवरण भी है कि कैसे तरुण तेजपाल हालीवुड अभिनेता राबर्ट डी नीरो के समझाने के बावजूद नहीं माने थे। दस्तावेज में इस बात का विवरण दिया गया है कि कैसे पीड़िता को हालीवुड अभिनेता राबर्ट डी नीरो और उनकी बेटी ड्रेना का सहचरी बनाया गया था। उसमें बताया गया है कि नीरो ने तेजपाल  को ऐसा करने से रोकने के लिए यह याद दिलाया कि वह उसकी बेटी की सबसे अच्छी सहेली है लेकिन इसका तेजपाल पर कोई असर नहीं हुआ। डीआईजी ओपी मिश्रा ने कहा कि जांच अधिकारी डी नीरो के वकील के सम्पर्क में थी लेकिन अभिनेता चूंकि यात्रा कर रहे थे इसलिए उन्होंने जवाब नहीं दिया। इन आरोपों में अगर तरुण तेजपाल दोषी पाए जाते हैं तो उन्हें सात साल से ज्यादा की कैद हो सकती है। तरुण तेजपाल ने बाम्बे हाई कोर्ट की गोवा बेंच में जमानत अजी लगाई थी। तेजपाल घटना के बाद से जेल में हैं। बाम्बे हाई कोर्ट से भी तेजपाल को कोई राहत नहीं मिली है। उनकी याचिका की सुनवाई अगले महीने के लिए टल गई। हालांकि हाई कोर्ट ने 50 वषीय तेजपाल को एक निचली अदालत में जमानत याचिका दायर करने की इजाजत दे दी क्येंकि आरोप पत्र दाखिल हो चुका है। तेजपाल ने खुद को बेकसूर बताते हुए आरोप लगाया है कि राजनीतिक पतिशोध के चलते उन्हें फंसाया गया है। मैंने कुछ गलत नहीं किया। उन्होंने कहा कि पूरी सच्चाई सीसीटीवी फुटेज में कैद है और इसे दुनिया जान जाएगी।
-अनिल नरेन्द्र

�ेंb � � � � ��� �े आधार पर फांसी की सजा पाए 15 दोषियों की सजा उम्रकैद में तब्दील की गई थी। इनमें कुख्यात वीरप्पन के सहयोगी भी हैं जिन्होंने एक बहादुर पुलिस अधिकारी समेत कई पुलिस कर्मियों की हत्या की थी। तथाकथित देरी के आधार पर फांसी की सजा पाए लोगों को राहत देने से भारतीय विधि व्यवस्था पर जहां पश्न चिन्ह लगता है वहीं उन लोगों के बलिदान की अनदेखी भी है जो अपनी फर्ज अदायगी के दौरान खूंखार आरोपियों का शिकार बन गए। इस स्थिति के लिए वह तंत्र तो जिम्मेदार है ही जो दया याचिकाओं का निपटारा शीघ्रता से करने की बजाय संकीर्ण वोट बैंक की राजनीति का लाभ लेने में देरी करता है पर साथ-साथ हम क्षमा चाहेंगे कहीं न कहीं सुपीम कोर्ट की भी जवाबदेही बनती है कि जिन लोगें के फांसी की सजा की पुष्टि खुद सुपीम कोर्ट ने की थी वह अब इस नतीजे पर पहुंच रहा है कि फांसी की सजा पाए दोषियों की दया याचिका के निपटारे में वर्षें की देरी वस्तुत उनके साथ अत्याचार है?

राजीव गांधी के हत्यारों को छोड़ने की तैयारी?

पूर्व पधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों को सरकार फांसी के फंदे तक नहीं पहुंचा पाई। मंगलवार को सुपीम कोर्ट ने कांग्रेस की अगुवाई वाली संपग सरकार को बड़ा झटका देते हुए राजीव गांधी के तीन हत्यारों को फांसी की सजा उम्रकैद में तब्दील कर दी। कोर्ट ने दया याचिका निपटाने में हुई 11 साल की देरी को पताड़ना और अनुचित बताते हुए यह फैसला दिया। यह पहला मौका है जब आतंकवादियों को फांसी की दया याचिका निपटाने में देरी के आधार पर माफ किया गया है। इससे पहले गत 21 जनवरी को सुपीम कोर्ट ने 15 दोषियों की मौत की सजा को उम्रकैद में तब्दील किया था। राजीव गांधी की हत्या 21 मई 1991 में श्रीपेरम्बदूर में लिट्टे के आत्मघाती दस्ते ने बम विस्फोट से की थी। टाडा कोर्ट ने चार हत्यारों श्री हरन उर्फ मुरुगन, टी सुथेन्द्र राजा उर्फ सान्तन, एजी पेरारिवलन उर्फ अरिव तथा एक मात्र दोषी नलिनी को फांसी दी थी। सुपीम कोर्ट ने 11 मई 1999 में चारों की फांसी पर मुहर लगा दी थी। सुपीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पी सदाशिवम की अध्यक्षता वाली बैंच ने सरकार की उस दलील को सिरे से खारिज कर दिया जिसमें कहा गया था कि याचिका के निपटाने में अनुचित विलंब नहीं हुआ है और इससे दोषियों को मानसिक पीड़ा नहीं झेलनी पड़ी है। पिछले माह भी अपने ऐसे ही फैसले में सुपीम कोर्ट ने दया याचिका में हुई देरी के आधार पर मौत की सजा पाए 15 दोषियों को राहत दी थी। अदालत के इस तर्क से असहमत नहीं हुआ जा सकता कि  मौत की सजा के मामले में सालों साल टलते रहना गलत है। सरकार अब लाख तर्क दे लेकिन उसके पास इस बात का कोई समुचित जवाब नहीं हो सकता कि किसी दया याचिका के निपटारे में दशक भर वक्त क्यों लगता है? अदालत का यह कहना भी वाजिब है कि सरकार दया याचिकाओं के संदर्भ में राष्ट्रपति को उचित समय के भीतर सलाह दे। फैसला आते ही तमिलनाडु की जयललिता सरकार ने राजीव हत्याकांड के सातों मुजरिमों की समय से पहले ही रिहाई का फैसला किया है। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी इस फैसले पर बेहद दुखी और भावुक नजर आए लेकिन डीएमके  पमुख करुणानिधि ने अपनी धुर विरोधी जयललिता के फैसले की तारीफ की। जयललिता ने कहा कि सभी दोषी 27 साल जेल में बिता चुके हैं, ऐसे में सरकार ने उन्हें रिहा करने का फैसला किया है। राज्य सरकार इस फैसले को मंजूरी के लिए केन्द्र के पास भेजेगी। क्येंकि यह मामला सीबीआई ने दर्ज किया था। उधर इस फैसले के बाद कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने अमेठी के पास चुनावी रैली में कहा, मैं दुखी हूं कि हत्यारे रिहा किए जा रहे हैं। अगर किसी व्यक्ति ने पधानमंत्री को मारा और रिहा किया जा रहा है तो आम आदमी को न्याय कैसे मिलेगा? इस देश में पधानमंत्री को भी इंसाफ नहीं मिलता, यह मेरे दिल की आवाज है। मैं मौत की सजा पर विश्वास नहीं करता, क्योंकि इससे मेरे पिता वापस नहीं आएंगे लेकिन यह मेरे पिता या परिवार का नहीं, देश का मुद्दा है। हम राहुल गांधी के दुख को समझ सकते हैं और उनसे हमददी भी  रखते हैं पर मूल सवाल यह है कि दया याचिकाओं में 11 साल की देरी के लिए  जिम्मेदार कौन है? कांग्रेस नीत गठबंधन सरकार क्यों इसके लिए जिम्मेदार नहीं? राष्ट्रपति और गृहमंत्रालय अगर चाहते तो दया याचिका का निपटारा जल्द हो सकता था। रही बात सुपीम कोर्ट के फैसले की तो पिछले महीने दया याचिका में देरी के आधार पर फांसी की सजा पाए 15 दोषियों की सजा उम्रकैद में तब्दील की गई थी। इनमें कुख्यात वीरप्पन के सहयोगी भी हैं जिन्होंने एक बहादुर पुलिस अधिकारी समेत कई पुलिस कर्मियों की हत्या की थी। तथाकथित देरी के आधार पर फांसी की सजा पाए लोगों को राहत देने से भारतीय विधि व्यवस्था पर जहां पश्न चिन्ह लगता है वहीं उन लोगों के बलिदान की अनदेखी भी है जो अपनी फर्ज अदायगी के दौरान खूंखार आरोपियों का शिकार बन गए। इस स्थिति के लिए वह तंत्र तो जिम्मेदार है ही जो दया याचिकाओं का निपटारा शीघ्रता से करने की बजाय संकीर्ण वोट बैंक की राजनीति का लाभ लेने में देरी करता है पर साथ-साथ हम क्षमा चाहेंगे कहीं न कहीं सुपीम कोर्ट की भी जवाबदेही बनती है कि जिन लोगें के फांसी की सजा की पुष्टि खुद सुपीम कोर्ट ने की थी वह अब इस नतीजे पर पहुंच रहा है कि फांसी की सजा पाए दोषियों की दया याचिका के निपटारे में वर्षें की देरी वस्तुत उनके साथ अत्याचार है?

Thursday, 20 February 2014

केजरीवाल भगोड़ा है, अरविंद केजरीवाल धोखा है, देश बचा लो मौका है

 आम आदमी के उद्धार करने के लिए आगे आए केजरीवाल सरकार चलाने से भाग गए हैं। वह अब पीएम बनने का सपना देख रहे हैं और राष्ट्रीय राजनीति में अपनी किस्मत आजमाएंगे। लोकसभा चुनाव का क्या परिणाम होगा यह तो वक्त ही बताएगा पर उनके भागने से गली-गली में आम आदमी हताश है। अरविन्द केजरीवाल के बारे में विभिन्न पार्टियां कहती हैं कि वह सियासी नहीं, राजनीतिज्ञ नहीं हैं। पशासन चलाना और राजनीतिज्ञ होना खास होता है। यह काबिलियत केजरीवाल में नजर नहीं आई। जब यह हाल दिल्ली में है तो राष्ट्रीय राजनीति में उन पर कौन-कितना विश्वास करेगा? यह पश्न अलग है। एक सियासी नेता की छवि उनके द्वारा किए गए वादों को पूरा करने से बनती है। उनकी विश्वसनीयता, कैडेबिलिटी सिर्फ उनके द्वारा किए गए कामों से बनती है। घोषणाओं से नहीं, भागने से नहीं। राजनीति से भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकने के वादे के साथ दिल्ली की सत्ता में पहली बार आई आम आदमी पाटी की सरकार ने 18 वादे किए थे। पहला वादाः बिजली के दाम आधे कर देंगे और बिजली कंपनियों की लूट बंद होगी। हकीकत सत्ता में आने के कुछ घंटों बाद ही दिल्ली सरकार ने 372 करोड़ रुपए की सब्सिडी का ऐलान किया। घरेलू इस्तेमाल के लिए 400 यूनिट तक की खपत में 50 फीसदी तक दाम कम किया। बिजली वितरण कंपनियों का कैग आडिट कराने का मामला कोर्ट में है। रिलायंस और टाटा पावर की ओर से दाखिल मामले का कोर्ट से फैसला आना है। कटु और कड़वा सत्य यह है कि बिजली कंपनियों द्वारा जारी किए गए ताजा बिलों ने कम से कम मध्यवगीय उपभोक्ता के होश जरूर फाख्ता कर दिए हैं क्येंकि जो बिल उनके हाथ में आए हैं उसके बिल कम होने की जगह और बढ़ गए हैं। जिन उपभोक्ताओं के बिल अपने में पांच से छह हजार के आते थे वह अब सात से आठ हजार तक पहुंच गए हैं और उन्हें लगता है कि सरकार की सस्ती बिजली योजना की घोषणा उन पर उल्टी पड़ी है। वहीं केजरीवाल सरकार द्वारा जाते-जाते फेंके गए दावे भी उन पर उल्टे पड़ते नजर आ रहे हैं। इसके लिए जिन उपभोक्ताओं ने अपने जन आंदोलन के दौरान बिल जमा नहीं किए थे उन बिल को आधा माफ करने की बात कही गई थी। लेकिन सरकार का ही वित्त विभाग उसके पक्ष में नजर नहीं आ रहा है। उसका कहना है कि ऐसा करने से ईमानदार उपभोक्ता अपने में हतोत्साहित होगा जो ठीक नहीं है और यह भविष्य में गलत परम्परा होगी। इस मुद्दे को लेकर विधानसभा में भी हंगामा हुआ था। आम आदमी पाटी के आंदोलन में कूदे दिल्ली के 24 हजार लोगों को केजरीवाल सरकार द्वारा दी गई 50 फीसदी छूट समझ से बाहर है। दिल्ली में तो कई लाख उपभोक्ता हैं। यह सिलेक्टिव बेसिस पर राहत कानूनी दृष्टि से भी गलत है और अदालतों में यह फैसला नियमित रूप से गलत करार दिया जाएगा। वादा नं. 2ः साफ पानी हर घर तक, हर परिवार को हर रोज 700 लीटर पानी मुफ्त। हकीकत केजरीवाल ने शपथ लेने के बाद ही दिल्ली के सभी परिवारों के लिए 20 हजार लीटर पानी मुफ्त करने का फैसला किया। लेकिन साथ ही ज्यादा पानी इस्तेमाल करने वालों पर 10 पतिशत अधिभार बढ़ा दिया। संगम विहार और देवली इलाके में लोगों का कहना है कि अब भी 20-22 दिनों में एक बार पानी मिलता है। इसके बदले में 500-700 रुपए देने पड़ते हैं। उनका कहना है कि केजरीवाल सरकार आई भी और चली भी गई लेकिन न तो पानी की समस्या खत्म हुई और न ही जल माफिया का कब्जा। वादा नम्बर 3ः भ्रष्टाचार से छुटकारा दिलाएंगे, हर भ्रष्टाचारी को जेल पहुंचाएंगे और आम जनता को रोजमर्रा के भ्रष्टाचार से बचाएंगे। हकीकत ः 8 जनवरी  को भ्रष्टाचार की शिकायत दर्ज कराने के लिए हेल्पलाइन चालू की गई लेकिन शिकायत मंजूर करने के लिए स्टिंग की शर्त लगा दी। शुरुआती 20 दिनों में लगभग एक लाख से ज्यादा काल आईं। जिनमें से 50 फीसदी कालों को ही सुना गया। मात्र 1200 शिकायतें सही पाई गईं। वादा नं. 4ः सत्ता में आने के 15 दिन के भीतर रामलीला मैदान में जनलोकपाल बिल पारित कराएंगे। हकीकत सरकार बनाने के 49वें दिन सरकार सदन में बिल लेकर पहुंची और उसके बाद क्या हुआ सबको मालूम ही है। इसी तरह जनता दरबार लगाने और शिकायतों को सुनने का वादा पहले जनता दरबार के बाद ही बंद हो गया। स्पूलों को निजी स्कूलों से बेहतर बनाने और 500 नए स्कूलों का वादा भी किया गया था। शिक्षा मंत्री मनीष सिसौदिया ने हेल्पलाइन की शुरुआत की पर बात आगे नहीं बढ़ सकी। इसी तरह सरकारी अस्पतालों को बेहतर बनाने की बात कही गई थी पर यह भी महज वादा बनकर ही रह गई। महिला, बच्चों और बुजुर्गें की सुरक्षा के लिए दस मोहल्ले में महिला कमांडो फोर्स बनेगी। हकीकत जस्टिस वर्मा कमेटी की सिफारिशों और महिला कमांडो फोर्स के मामले में फिर एक कमेटी बनी है। दिल्ली में ठेके के हर कर्मचारी को पक्का करेंगे। हकीकत सरकार डीटीसी ड्राइवर, कंडक्टर, स्कूल टीचर सहित कई विभागों के कर्मचारियों को पक्का करने के लिए एक उच्चस्तरीय समिति का गठन किया। इस समिति की सिफारिशें आने से पहले ही केजरीवाल ने इस्तीफा दे दिया। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के त्याग पत्र से उनकी सरकार के करीब एक दर्जन फैसलों के भविष्य पर तलवार लटक गई है। इससे भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू हुई मुहिम पर विराम लगना तय माना जा रहा है। इसके अलावा घोटालों पर दर्ज कराई गई एफआईआर के तहत जांच की पकिया ठप होना भी निश्चित माना जा रहा है। इसी तरह बिजली, पानी की दरों पर दी गई छूट भी 31 मार्च के बाद मिलने की संभावना कम है। कुल मिलाकर अरविंद केजरीवाल का कार्यकाल अविश्वनीय तो रहा ही साथ ही साथ उनकी जिम्मेदारी से भागने की पवृत्ति भी जाहिर हुई। जब वह दिल्ली से इस तरह भाग सकते हैं तो जनता आगे उन्हें कोई भी, किसी भी पकार की जिम्मेदारी कैसे दे सकती है। फेसबुक पर किसी ने  लिखा हैः अरविंद केजरीवाल भगोड़ा है, आयकर विभाग की नौकरी छोड़कर भागा, अन्ना हजारे को छोड़कर भागा, राजनीतिक जिम्मेदारी से भागा, अरविंद केजरीवाल धोखा है, देश बचा लो मौका है।
-अनिल नरेन्द्र

Wednesday, 19 February 2014

20 साल बाद एक बार फिर बने एलजी दिल्ली के सर्वेसर्वा

चलो जाते-जाते केजरीवाल एंड कंपनी दिल्ली के विधायकों का तो भला कर ही गई। अधर में लटके दिल्ली के तमाम विधायक जीतकर भी विधायक नहीं बन पा रहे थे। केजरीवाल ने सरकार बनाकर कम से कम इनका तो भला कर ही दिया। दिल्ली में आम आदमी पाटी की सरकार तो चली गई लेकिन चुने हुए 70 विधायकों को सरकार न रहने से कोई परेशानी नहीं आने वाली। उन्हें पहले की तरह ही विकास के लिए करोड़ों रुपए का फंड मिलेगा और वेतन भी बाकायदा बैंक खाते में आता रहेगा। खास बात यह है कि इस्तीफा देने के बाद अरविंद केजरीवाल तो अब मुख्यमंत्री नहीं रहे लेकिन उनकी पाटी के विधायक मनिंदर सिंह धीर फिलहाल विधानसभा उपाध्यक्ष की कुर्सी पर कायम रहेंगे। सरकार के न रहने के बावजूद उनकी कुसी पर कोई आंच नहीं आएगी। दिल्ली विधानसभा के निलंबन के दौरान विधायकों को 54 हजार रुपए मासिक वेतन भत्ते मिलते रहेंगे। इसके अलावा 30 हजार रुपए दो डाटा एंट्री आपरेटर रखने के लिए दिए जाते हैं। विधानसभा भंग करने की बजाय निलंबित की जाती है तो उन्हें वेतन मिलता रहेगा। विधानसभा अध्यक्ष मनिंदर सिंह धीर को भी वेतन व भत्ता मिलता रहेगा। अब राजधानी में राष्ट्रपति शासन लागू होने के बाद उपराज्यपाल नजीबजंग दिल्ली के सर्वेसर्वा हो गए हैं। अब दिल्ली राजनिवास से चलेगी। यह 20 साल में पहली बार है जब भाजपा या कांग्रेस को। पूर्ण बहुमत नहीं मिला। पहली विधानसभा में भाजपा को बहुमत मिला था और बाद के तीन चुनावों में कांग्रेस को पिछले साल हुए चुनावों में पहली बार ऐसा हुआ कि किसी भी पाटी को बहुमत नहीं मिला। उपराज्यपाल के सामने तीन विकल्प थे। पहलाः विधानसभा भंग करें। राष्ट्रपति शासन लगाएं, जो छह महीने तक रह सकता है। लेकिन नए चुनाव इससे पहले भी हो सकते हैं। दूसराः विधानसभा को भंग करने के बजाय निलंबित रखा जाए और राष्ट्रपति शासन लगाया जाए। इस बीच सरकार बनने की सम्भावना तलाशी जाए। तीसराः भाजपा को फिर से सरकार बनाने के लिए कहा जा सकता है। भाजपा अगर खुद दावा करे तो उसे सरकार बनाने के लिए कहा जा सकता है। आमतौर पर जब एक सरकार त्याग पत्र दे तो मुख्यमंत्री को कामचलाऊ मुख्यमंत्री बने रहने को कहा जाता है पर ऐसी कोई कानूनी पाबंदी नहीं। उपराज्यपाल ने अरविंद केजरीवाल को काम चलाऊ मुख्यमंत्री बनाना उचित नहीं समझा और न उनके विधान सभा भंग करने के पस्ताव को ही माना। उपराज्यपाल उनके पस्ताव को मानने के लिए बाध्य नहीं हैं। माननीय उपराज्यपाल नजीबजंग के सामने कई चुनौतियां हैं। मुख्य शासक के तौर पर दिल्ली के विकास और योजनाओं को वापस पटरी पर लाना होगा। संभावना है कि दिल्ली के सिस्टम को ट्रैक पर लाने के लिए वह सबसे पहले नौकरशाही में व्यापक बदलाव करेंगे। अन्य चुनौतियों में दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने वर्ष 2014-15 का बजट विधानसभा में पेश नहीं किया। अब उपराज्यपाल की जिम्मेदारी बजट लेखानुदान तुरन्त पास कराने की है ताकि सरकार के पास सरकारी कर्मचारियों को वेतन तथा विकास कार्यों के लिए फंड उपलब्ध हो। एनटीपीसी ने बिजली वितरण कंपनियों को बकाया भुगतान का समय निर्धारित कर अल्टीमेटम दे रखा है। उन्हें वितरण कंपनियों को बकाया भुगतान कर दिल्लीवासियों को बिजली गुल होने के खतरे से उभारना एक महत्वपूर्ण चुनौती है। पिछले छह महीने से दिल्ली जल बोर्ड के बड़े पोजेक्ट अधर में लटके हैं, क्योंकि विकास कार्यें की स्वीकृति नहीं मिल रही थी। जल बोर्ड को वापस लाइन पर लाना होगा। संगम विहार जैसी कालोनियों में पानी को लेकर हा-हाकार मचा हुआ है। वहां तुरन्त पानी उपलब्ध कराना अति आवश्यक है। दिल्ली विधानसभा के 28 कालेजों की गवर्निंग बाडी सदस्य केजरीवाल सरकार ने नहीं बनाए हैं। अब उपराज्यपाल को कालेज गवर्निंग बाडी के 140 सदस्यों की नियुक्ति तुरन्त करनी होगी। स्वराज विधेयक द्वारा विधायक फंड को मोहल्ला सभा में भेजने का केजरीवाल सरकार का निर्णय था। लेकिन स्वराज विधेयक पास नहीं हुआ। अब उपराज्यपाल को सभी विधायकों को विकास के लिए फंड निर्गत करने की चुनौती है। ट्रांस यमुना बोर्ड द्वारा दिल्ली के 20 विधानसभा क्षेत्रों में हो रहे विकास कार्य ठप पड़े हैं। बोर्ड को पुनजीवित करना और ठप कार्यें को आगे बढ़ाना एक चुनौती यह भी होगी। दिल्ली की सभी आरडब्ल्यूए को भागीदारी निवास से फंड मिलना बंद हो चुका है। सभी आरडब्ल्यूए फंड के अभाव से ग्रस्त हैं जिससे वे विकास कार्य को गति दे सकें। हजारों कान्ट्रैक्टर कर्मचारी अपनी नौकरी पक्की कराना चाहते हैं  जिसके लिए वे धरना पदर्शन महीने भर से कर रहे हैं। उपराज्यपाल के सामने ये है कुछ पमुख चुनौतियां। देखें माननीय नजीब जंग इनसे कैसे निपटते हैं। अंत में केजरीवाल सरकार के कई फैसले छद्म विवादों में फंस गए हैं। इनका जिक मैं अलग से करूंगा।

ö अनिल नरेन्द्र

Tuesday, 18 February 2014

Disgraced Exit

प्रकाशित: 18 फरवरी 2014 
 The entry of Arvind Kejriwal in the Delhi politics on 6th December 2013 was like that of a hero, whose charismatic personality possessed remedies for all the ills. He could provide electricity at half the rates, he could provide free water to the entire Delhi, he could expose the guilty Chief Minister and her corrupt ministers and send them to the jail, he could teach lesson to corrupt electricity companies and corrupt government officials, he could eradicate corruption, he could regularize four lakh fifty thousand temporary government employees working in various government departments, but before he could fulfill all his promises, he made a dramatic exit from the Delhi politics. Arvind Kejriwal, who came to power on the promise of a new type of politics in Delhi, abandoned the government in just 49 days. In a haste to enter the coming elections to Lok Sabha, the Aam Aadami Party (AAP) made Jan Lokpal Bill as the scapegoat and Kejriwal tendered his resignation to the Lieutenant Governor, Najib Jung. Kejriwal proved to be a cunning political leader. Some people were considering him a novice in the politics, but the way he put up an act becoming martyr on Friday, proves that he is a cunning and crafty politician. Everybody was of the view that the non-Congress and BJP minority government would not last long. The mute point was whether this government will be ousted or would Kejriwal took to heels. At the very outset of the Assembly session, script had already been written that Kejriwal government had decided to quit the seat of power, but he wanted to make it appear not as a normal act, but as an act of martyrdom similar to that of Abhimanyu in the Kurukshetra battle field where he was killed after being encircled by great warriors. The AAP strategists were of the view that it was impossible to run this government for long with the support of the Congress. If the government continues somehow, then it would last up till the Lok Sabha elections. Meanwhile, if the magic of BJP leader Narendra Modi worked in the Lok Sabha elections, then the situation could become bad to worse. Under such circumstances, if the Congress makes this government fall or it falls on its own, then it would lead to more loss than benefits to the AAP. The AAP leadership had decided upon the next step to find any excuse for causing the government to fall and the stand of  united opposition and the lieutenant governor provided that desired opportunity. As a strategic step, Arvind Kejriwal dramatically resigned and for this preparations had already been made at the Hanuman Road office of the AAP in Connaught Place. The Party had directed all its volunteers to remain present at the Party Office on Hanuman Road. The Party had also put up a small screen to enable party workers to see and listen to Arvind Kejriwal. To give it a symbolic look, Kejriwal addressed the workers for 15 minutes from the same window from where he had addressed people after the victory in Delhi Assembly elections. The positive signals received from Anna Hazare also made Kejriwal feel that it was the right time to offer a small sacrifice for bigger achievement in future. This reminds me of the dialogue from Shahrukh Khan's film 'Bajigar' that At times, to win, it is necessary to lose. The person, who wins after losing, is known as Bajigar. The AAP supporters consider the resignation by Arvind Kejriwal a step in the right direction and they are of the view that the Party had formed the government only with the object of making the country free of corruption, but Congress, BJP and Mukesh Ambani do not want this to happen. BJP and Congress have shown their true colours by opposing the Jan Lokpal Bill. With the filing of an FIR against Mukesh Ambani, both the Congress and BJP have been enraged. They felt that with the passage of the Jan Lokpal Bill, they will have to face the music. That is why they did not allow this bill to be passed. The common man who voted AAP to power, is feeling deceived. The public is asking, had the Jan Lokpal Bill not been passed for the time being roof was not going to fall. Was it not more important to provide houses to the people living in slums? Was it not more important to improve the water and electricity supply in the city? Was it not important to improve the conditions of the hospitals in the capital? Had the Central Government not passed his Jan Lokpal Bill, he could have waged a political war on this issue, but he was claiming from the day first that if the bill is not passed, he would resign. In fact he has realized that he could not fulfill his promises, as such he was looking for an escape route. He wanted to pose as a martyr before the masses. The AAP government remained in power for just 49 days. During this period, not a single day passed, when Kejriwal had not created one or the other controversy. The working of Somnath Bharti, the Law Minister remained disputed throughout the tenure of the AAP government. Instead of pulling up Bharati, Kejriwal himself sat on dharna totally ignoring the Constitution and law and order. We feel the countdown for the fall of this government had started on that day itself. After the resignation of Kejriwal, there are talks among people that it would have been better if he had not sit on dharna on the Somnath Bharati issue against Delhi Police during preparations of Republic Day celebrations. His voters are baffled over this matter. Running a government and sitting on dharna do not go hand in hand. No doubt, his supporters have been claiming on TV Channels that political stature of Kejriwal has risen after his resignation, but I feel there has been drastic reduction in the number of his supporters. The educated section among the voters who voted him to power, has been disappointed with his government and this section would not vote for him again. I personally feel that when the history would mention about 49 days' rule of Kejriwal, who knows he would be referred to as a hero or a zero. Sometimes, 49 days of power are sufficient to turn a large section of supporters into opponents. Kejriwalji, you must be having enough time after sacrificing the Delhi government to concentrate on wider politics of the country and as you are claiming to win more than 50 seats in the coming Lok Sabha elections, then you must put your full strength behind it.
- Anil Narendra 
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सवाल सांसदों की संसद में जाने से पहले तलाशी का

गत गुरुवार को लोकसभा में जो कुछ हुआ वह शर्मनाक तो था ही साथ-साथ उससे एक गम्भीर पश्न यह उठने लगा है कि सांसदों की संसद के अंदर पुख्ता सुरक्षा का क्या पबंध किया जाए? उस दिन तो मिची स्पे और न जाने क्या-क्या निकला। भविष्य में अगर कोई सांसद कोई और घातक हथियार लेकर पवेश कर गया और कोई गंभीर हमला हो गया तो उसकी जिम्मेदारी किसकी बनेगी? इस हादसे के बाद अब सरकार के सामने एक बड़ी चुनौती खड़ी हो गई है संसद के अंदर की सुरक्षा। तेलंगाना विवाद को लेकर एक सांसद ने तो यहां तक कह दिया था कि वह सदन के अंदर सांप लेकर आएंगे। एक अंग्रेजी अखबार ने तो सुर्खियों में लिखा था पार्लियामेंट अंडर अटैक। यानी संसद पर हमला। सवाल यह है कि क्या संसद भवन में पवेश करते समय सांसदों की तलाशी ली जाए? कई दलों के सांसदों ने दबाव बनाना शुरू कर दिया है कि सबकी तलाशी ली गई तो यह उनकी गरिमा के खिलाफ होगा। सीमांध्र के सांसद कांग्रेस से हाल ही में निष्कासित हुए एल राजगोपाल ने गुरुवार को लोकसभा में पेपर स्पे  किया था। इस पर वे सभी के निशाने पर आ गए हैं। ताजा व्यवस्था के अनुसार संसद भवन में पवेश करते वक्त सांसदों की तलाशी नहीं ली जाती है। दरअसल सांसदों को विशेषाधिकार का कवच मिला हुआ है, ऐसे में सदन के अंदर की किसी गतिविधि पर पुलिस सीधी कार्रवाई नहीं कर सकती। स्पीकर के आदेश पर ही पुलिस आपराधिक मामले दर्ज कर सकती है। लोकसभा की स्पीकर मीरा कुमार ने 17 फरवरी को संसद परिसर की सुरक्षा मामलों की समिति की बैठक बुलाई है। इसमें सांसदों की सुरक्षा जांच सहित अन्य विकल्पों पर विचार किया जाएगा।  राजगोपाल की हरकत पर तेलंगाना के कांग्रेस सांसद पी पभाकर ने स्पीकर को शिकायत की है कि राजगोपाल और टीडीपी सांसद वेणुगोपाल रेड्डी के खिलाफ आपराधिक कार्रवाई की जाए। संसद सुरक्षा मामलें की समिति में करिया मुंडा जो इसके अध्यक्ष हैं और कांग्रेस से पीसी चाको, बीएसपी से दारा सिंह चौहान, भाजपा से कीर्ति आजाद, सपा से यशवीर सिंह और महबूब अली समेत कुछ अन्य सांसद हैं, को इस मुद्दे पर फैसला लेना है। सांसदों की तलाशी का फैसला करना आसान नहीं रह गया है। सूत्रों के अनुसार औपचारिक मंत्रणा के पहले स्पीकर मीरा कुमार ने इस मामले में पमुख दलों को पूरी तरह से विश्वास में लेना चाहती है। ज्यादातर दल यही सलाह दे रहे हैं कि सुरक्षा पुख्ता करने के लिए तलाशी की बजाय दूसरे विकल्पों पर विचार होना चाहिए। संसदीय मर्यादा बनाए रखने की जिम्मेदारी सभी दलों के सांसदों की है। ऐसे में यह कहना शायद ठीक नहीं कि सत्ता पक्ष ही स्थिति संभाल सकती है। आमतौर पर सांसदों का कहना है कि जिन सांसदों ने उस दिन आपराधिक कृत्य किया है उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए। लोकसभा स्पीकर आपराधिक मुकदमा दर्ज करा सकती हैं। यदि इस तरह का कोई कड़ा फैसला स्वीकार कर लेती हैं तो इसका अच्छा संदेश जाएगा। संसदीय मामलों के मंत्री कमलनाथ ने सरकार की तरफ से लोकसभा स्पीकर को लिखित रूप से यह सलाह दे चुके हैं कि आरोपी सांसदों के खिलाफ कड़े से कड़े कदम उठाए जाएं क्योंकि इन लोगों के कारनामों से संसद की गरिमा को आघात लगा है। 62 सालों के संसदीय इतिहास में कभी इतनी अमर्यादित तस्वीर सामने नहीं आई। लोकसभा स्पीकर और सुरक्षा समिति क्या सुझाती है देखते हैं।

-अनिल नरेन्द्र

पावेल-मोदी मुलाकात अमेरिका की मजबूरीः चढ़ते सूरज को सभी सलाम करते हैं

आखिरकार 13 फरवरी गुरूवार को सुबह 9.45 बजे अमेरिकी राजदूत नैंसी पावेल ने गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा के पीएम पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी के गांधीनगर स्थित सरकारी आवास में हाजिरी बजा ही दी। वे तय समय से पांच मिनट पहले पहुंच गईं। उनके साथ अमेरिका के भारत में तैनात वाणिज्य दूत व अन्य अफसरों की टोली भी थी। यह मुलाकात करीब एक घंटे चली। अमेरिकी राजदूत की मोदी की मुलाकात काफी महत्वपूर्ण है। भारत में राजनीति के संभावित बदले रुख को भांप कर अब अमेरिका ने नरेन्द्र मोदी से गिले-शिकवे दूर करने के पयास शुरू कर दिए हैं। संबंध सुधारने की यह पहली कड़ी है। अमेरिका के रुख में परिवर्तन का कारण आम चुनाव में मोदी के नेतृत्व में सरकार बनने की जताई जा रही संभावना है। अमेरिका ने इस मुलाकात को अपने संबंध विस्तार का हिस्सा करार दिया है। वाशिंगटन ने कहा कि यह मुलाकात लोकसभा चुनावों से पहले राजनीतिक नेताओं और कारोबारियों के साथ उनकी समग्र पहुंच का हिस्सा है। विदेश विभाग की उपपवक्ता मैरी हर्फ ने कहा कि भारत में चुनाव से पहले राजदूत पावेल और अमेरिकी महावाणिज्य दूत समूचे भारत में राजनीतिक दलों के वरिष्ठ नेताओं, कारोबारी, पतिष्ठानों और एनजीओ तक व्यापक स्तर पर पहुंच बना रहे हैं।  मालूम हो कि अमेरिका का मोदी को लेकर नौ साल का बहिष्कार खत्म करते हुए पावेल ने मोदी से गांधीनगर में मुलाकात की है। इस दौरान पावेल ने मोदी से यह कहा, बताया जा रहा है कि अमेरिका लोकसभा चुनावों के बाद भारत में चुनी जाने वाली नई सरकार के साथ निकटता से काम करना चाहेगा। पावेल के मुताबिक भारत और अमेरिका की साझेदारी काफी महत्वपूर्ण और सामरिक है। दूसरे शब्दों में नैंसी पावेल ने नरेन्द्र मोदी को यह संकेत देने की कोशिश की है कि अगर वह अगले पधानमंत्री बने तो अमेरिका उसे सहयोग करने को तैयार है। अमेरिका के रुख में परिवर्तन उसकी मजबूरी है। 2002 में गुजरात दंगे हुए थे और 2005 में अमेरिका ने वहां के मुख्यमंत्री को अपने यहां आने के लिए यह कहकर वीजा देने से इंकार कर दिया था कि वे धार्मिक स्वतंत्रता के घोर उल्लंघनों के एक तरह से कसूरवार हैं।  आज वही मोदी भाजपा के पीएम पद के उम्मीदवार है और देश भर में उनके पक्ष में व्यापक जन समर्थन देखने को मिल रहा है। यही नहीं अदालत ने मोदी को पिछले दिनों दंगे में कथित भूमिका को लेकर क्लीन चिट दे दी है। ऐसे में क्या सीधे-सीधे यह नहीं माना जाए कि अमेरिका को भारत में बदलते राजनीतिक हालात का बखूबी एहसास है और वह लोकसभा चुनाव के बाद नई बनने वाली सरकार से दूरी बनाकर नहीं रखना चाहती। सीधे-सीधे यह कहें तो नरेन्द्र मोदी को लेकर अमेरिका की खिन्नता का असर दोनों देशों के संबंधों पर भी पड़ सकता है। जाहिर है कि अमेरिका के लिए यह खामियाजा बड़ा मंहगा होगा और वह इससे बचने के लिए पहले से तत्पर दिखना चाहता है। एक बात और कही जा रही है कि अमेरिका भारत सहित दुनिया भर के बड़े नेताओं से नए सिरे से संवाद कर अपने संबंधों को नया आयाम देना चाहता है। भारत के संदर्भ में यह आधार नियमित तौर पर व्यापारिक हितों से भी जुड़ा है। आज अमेरिका आर्थिक मोर्चे पर तमाम तरह की चुनौतियों का सामना कर रहा है। ऐसे में वह किसी नई मुश्किल में नहीं फंसना चाहता है। मोदी को लेकर अपने पुराने स्टैंड को भी वह इसी दबाव में बदलने को मजबूर हैं। वैसे बता दें कि अमेरिकी राजदूत नैंसी पावेल को नरेन्द्र मोदी से मुलाकात के लिए दो महीने का इंतजार करना पड़ा। पावेल ने बीते साल दिसंबर के दूसरे हफ्ते में ही विदेश मंत्रालय के समक्ष मोदी से मुलाकात  की व्यवस्था कराने का आग्रह किया था। दरअसल लोकसभा चुनाव से ठीक पहले अमेरिका की ओर से मोदी के साथ शुरू होने वाली सुलह सफाई सरकार को रास नहीं आई। यही कारण है कि मुलाकात तय हो जाने के बाद खुद विदेश मंत्री सलमान खुशीद सार्वजनिक रूप से अमेरिका को नसीहत देते देखे गए। पर अमेरिका भी क्या करे चढ़ते सूरज को सभी सलाम करते हैं। दुनिया झुकती है झुकाने वाला चाहिए।

Sunday, 16 February 2014

बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले

8 दिसम्बर 2013 को दिल्ली सियासत में अरविंद केजरीवाल का आगाज किसी नायक की तरह हुआ था जिसके चमत्कारी व्यक्तित्व के पास हर मर्ज की दवा थी। वह आधी दर पर बिजली दे सकता है, वह समूची दिल्ली को मुफ्त पानी पिला सकता है, वह भ्रष्ट शीला सरकार के सारे काले कारनामों का पर्दाफाश करके कसूरवार मुख्यमंत्री  व उनके भ्रष्ट मंत्रियों को जेल की हवा खिला सकता है, वह भ्रष्ट बिजली कम्पनियों और भ्रष्ट सरकारी अधिकारियों को सबक सिखा सकता है, वह भ्रष्टाचार को नष्ट कर सकता है, सरकारी महकमों में अस्थायी तौर पर कार्यरत साढ़े चार लाख कर्मचारियों को नियमित कर सकता है लेकिन वह इससे पहले ही यह वादे पूरे करते नाटकीय ढंग से भाग लिए। दिल्ली में नई किस्म की राजनीति का स्वाद चखाने का वादा कर सत्ता में आए अरविंद केजरीवाल 49 दिनों में सरकार छोड़कर भाग खड़े हुए। शुकवार को लोकसभा चुनाव में उतरने की हड़बड़ी में आम आदमी पाटी(आप) के मुखिया ने जनलोकपाल बिल को इसका बहाना बनाया और उपराज्यपाल नजीबजंग को इस्तीफा दे दिया। केजरीवाल एक धूर्त सियासी नेता साबित हुए। कुछ लोगों को लगा कि शायद वह राजनीति में नौसिखिया हैं पर शुकवार को जिस नाटकीय अंदाज में उन्होंने शहीद बनने का नाटक किया उससे तो यही लगता है कि वह एक धूर्त, मंझे हुए सियासत दान है। सभी मान रहे थे कि इस पहली गैर कांग्रेस, गैर भाजपा अल्पमत सरकार की आयु ज्यादा लंबी नहीं है। इस सरकार को कब गिराया जाएगा, या खुद केजरीवाल मैदान से भागेंगे बस पश्न इतना-सा था। विधानसभा सत्र के शुरू होने से पहले ही इस बात की पटकथा लिखी जा चुकी थी कि अरविंद केजरीवाल ने अपनी सरकार की विदाई का मन बना लिया है, लेकिन वह इसे सामान्य ढंग से न लेकर अपितु शहादत के तौर पर लेते हुए दिखाना चाहते हैं जैसे कुरुक्षेत्र के मैदान में अभिमन्यु का वध हुआ हो और दिग्गजों ने घेरकर मार दिया हो। आम आदमी पाटी के राजनीतिकारों का मानना था कि कांग्रेस की बैसाखियों पर इस सरकार का ज्यादा लंबे समय तक चलना असम्भव है। यदि किसी भी तरह सरकार चल भी गई तो उसकी उम्र लोकसभा चुनाव तक ही है। वहीं यदि लोकसभा चुनाव में भाजपा के नरेन्द्र मोदी का जादू चल गया तो स्थिति बद से बदतर हो सकती है। इन हालातों में बाद में यदि सरकार कांग्रेस गिराती है या खुद गिर जाती है तो इसका लाभ पाटी को मिलने की जगह उसका नुकसान ही होगा। पाटी सिपहसालारों ने इसके लिए सत्र से पहले ही शतरंजी ढंग से बिसात बिछा रखी थी कि उन्हें अगले कदम पर क्या करना है जिससे सरकार गिराने का कोई न कोई रास्ता बनाना उसकी रणनीति थी जिसका मौका उन्हें संयुक्त विपक्ष, उपराज्यपाल के स्टैंड ने दे दिया। अरविंद केजरीवाल ने तयशुदा रणनीति के तहत नाटकीय ढंग से इस्तीफा दे दिया और इसके लिए कनॉट प्लेस के हनुमान रोड स्थित पाटी कार्यालय में पहले से ही तैयारी हो चुकी थी। पाटी ने अपने स्वयं सेवकों को पहले ही संदेश भेज दिया था कि वह हनुमान रोड पाटी कार्यालय पर उपस्थित रहें। पाटी ने एक छोटी स्कीन भी लगा रखी थी ताकि कार्यकर्ता विधानसभा में अरविंद केजरीवाल को देखें और सुनें। केजरीवाल ने इसे पतीकात्मक बनाने के लिए उसी खिड़की से  15 मिनट का भाषण दिया जिससे उन्होंने दिल्ली विधानसभा चुनाव में जीत के बाद भाषण दिया था। अन्ना हजारे की तरफ से मिले सकारात्मक संदेशों से भी केजरीवाल को लगा कि टाइम आ गया है कि बड़ी उपलब्धि के लिए छोटी कुरबानी दे दो। इससे मुझे शाहरुख खान की फिल्म बाजीगर का वह डायलाग याद आ गयाः कभी-कभी जीतने के लिए हारना जरूरी होता है। हार कर जीत जाने वाले को बाजीगर कहते हैं। आप समर्थकें का तो यही कहना है कि आम आदमी पाटी समर्थक अरविंद केजरीवाल के इस्तीफे को सही मान रहे हैं और उनका कहना है कि सरकार बनी ही इसलिए थी कि भारत भ्रष्टाचार मुक्त देश बने लेकिन कांग्रेस, भाजपा व मुकेश अंबानी ऐसा नहीं चाहते थे। भाजपा और कांग्रेस ने जनलोकपाल बिल का विरोध कर अपनी असली तस्वीर दिखा दी है। मुकेश अंबानी के खिलाफ मामला दर्ज होते ही दोनों पार्टियां तिलमिला गईं। उन्हें लगा कि जनलोकपाल बिल पास हो गया तो उनकी खैर नहीं। इससे उन्होंने बिल पास नहीं होने दिया। दूसरी ओर आम आदमी पाटी को वोट देने वाले अपने आप को छला महसूस कर रहे हैं। जनता सवाल कर रही है कि यदि फिलहाल जनलोकपाल बिल पारित नहीं होता तो क्या आफत आ जाती? पहले दिल्ली की झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले गरीब लोगों को मकान देना जरूरी नहीं था? क्या बिजली-पानी की व्यवस्था को चुस्त करना जरूरी नहीं था? अस्पतालों में खराब हालत को सुधारना जरूरी नहीं था? यदि केन्द्र सरकार उनका जनलोकपाल बिल पारित नहीं करती तो केजरीवाल उसके खिलाफ सियासी लड़ाई लड़ सकते थे लेकिन वह तो पहले दिन से ही कहते रहे कि यदि यह बिल पारित नहीं होगा तो वे इस्तीफा दे देंगे। असल में केजरीवाल को मालूम था कि वह अपने किए वादों को पूरा नहीं कर सकते, इसलिए भागने का मौका देख रहे थे। वे शहीद बनकर जनता के सामने जाना चाहते थे। आम आदमी पाटी की सरकार सिर्फ 49 दिन ही शासन में रही। इस दौरान एक दिन भी ऐसा नहीं निकला जब किसी न किसी मुद्दे पर केजरीवाल ने विवाद न पैदा किया हो। कानून मंत्री सोमनाथ भारती की कार्यशैली पर लगातार सवाल उठते रहे। बनिस्पद इसके कि अरविंद केजरीवाल भारती को खींचते उल्टे संविधान, कानून-व्यवस्था की धज्जियां उड़ाते हुए खुद धरने पर बैठ गए। हमारे अनुसार इस सरकार की उल्टी गिनती उसी दिन से शुरू हो गई थी। केजरीवाल के इस्तीफे देने के बाद जनता में चर्चा है कि बेहतर होता यदि उन्होंने अपने कानून मंत्री सोमनाथ भारती के मुद्दे पर दिल्ली पुलिस के खिलाफ गणतंत्र दिवस की तैयारियों के बीच रेल भवन पर धरना नहीं दिया होता। उनके वोटर भी इस कदम से हैरान थे। सरकार चलाना और धरना देना दोनें काम एक साथ नहीं चल सकते। बेशक टीवी चैनलों पर उनके समर्थक यह कहें कि केजरीवाल का इस्तीफे के बाद सियासी कद बढ़ा है पर हमें लगता है कि उनके समर्थकों में भारी कमी आई है।  जिन लोगों ने उन्हें विधानसभा में वोट दिए थे उनमें पढ़ा-लिखा तबका उनकी हरकतों से, उनकी सरकार से मायूस हुआ है और वह अब दोबारा उन्हें वोट नहीं देगा। पर यह मेरा अपना विचार है कि इतिहास के पन्नों में जब केजरीवाल के 49 दिनों के शासन का उल्लेख होगा तो पता नहीं इन्हें हीरो लिखा जाएगा या जीरो? कभी-कभी सत्ता के 49 दिन भी समर्थकें के बड़े हिस्से को विरोधी बनाने के लिए काफी होते हैं। दिल्ली सरकार की बलि चढ़ाकर आप को अब इतनी फुर्सत तो मिल ही जाएगी कि वह देश की व्यापक राजनीति पर पूरा ध्यान दे सकें और जैसे केजरीवाल दावा कर रहे हैं कि आगामी लोकसभा चुनाव में 50 से ज्यादा सीटें जीतेंगे फिर पूरी ताकत झोंक दें।

-अनिल नरेन्द्र

Saturday, 15 February 2014

आईपीएल में सट्टेबाजी-फिक्सिंग के तार हवाला और आतंकियों से जुड़े हैं

खेल जगत से अच्छी खबर भी है और बुरी भी। पहले अच्छी खबर बता दूं। दागी अधिकारियों के कारण ओलंपिक अभियान से बाहर हुए भारत से 14 महीने की फजीहत के बाद अंतर्राष्ट्रीय ओलंपिक समिति (आईओसी) ने मंगलवार को पतिबंध हटा लिया। इस पतिबंध के कारण रूस के सोच्चि में चल रहे शीतकालीन ओलंपिक में भारतीय एथलीटों को तिरंगे की जगह आईओसी के झंडे तले मार्च पास्ट करना पड़ा था जिसमें भारत की काफी फजीहत हुई थी। आईओसी के इस फैसले के बाद सोच्चि ओलंपिक के समापन समारोह में भारतीय एथलीट तिरंगे को लेकर गर्व से चल सकेंगे। रविवार को भारतीय ओलंपिक संघ (आईओए) के नए सिरे से चुनाव होने के दो दिन बाद यह फैसला लिया गया। आईओए ने इन चुनावों में दागी अधिकारियों को बाहर रखा था। आईओए में दागी पदाधिकारियों के कारण आईओसी ने भारत को ओलंपिक से बाहर किया था। अब बात करते है बुरी खबर की। बीसीसीआई के अध्यक्ष एन श्रीनिवासन के दामाद गुरुनाथ मयप्पन आईपीएल मैचों में सट्टेबाजी में लिप्त पाए गए हैं। उनकी संलिप्तता साबित हो गई है। सुपीम कोर्ट द्वारा नियुक्त जस्टिस मुदगिल समिति ने सोमवार को अदालत को सौंपी अपनी जांच रिपोर्ट में कहा है कि मयप्पन बिंदु दारा सिंह के जरिए सट्टेबाजी में शामिल हैं। यहीं नहीं वह टीम की जानकारियां भी लीक किया करते थे। इस रिपोर्ट के बाद चेन्नई सुपर किंग्स के अस्तित्व पर सवाल उठने लगे हैं। उल्लेखनीय है कि पिछले साल आईपीएल-6 के दौरान राजस्थान रॉयल्स टीम के तीन खिलाड़ियों को दिल्ली पुलिस ने स्पॉट फिक्सिंग के आरोप में पकड़ा। जांच के  दौरान बीसीसीआई अध्यक्ष एन श्रीनिवासन के दामाद गुरुनाथ मयप्पन का नाम सामने आया। अक्टूबर 2013 में सुपीम कोर्ट ने जस्टिस मुदगिल जांच कमेटी गठित की थी। पूर्व आईपीएल कमिशनर ललित मोदी ने तो आईपीएल के मैचों में होने वाली स्पॉट फिक्सिंग और सट्टेबाजी की जानकारी भारतीय टीम के कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी को होने का और सनसनीखेज आरोप लगा दिया है। मोदी ने एक न्यूज चैनल के साथ बातचीत में कहा है कि फिक्सिंग के सच को छिपाने में खुद धोनी भी शामिल हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि मयप्पन के साथ मिलकर धोनी ने फिक्सिंग के सच को छिपाया। जस्टिस मुदगिल की रिपोर्ट से किकेट बोर्ड की उस समिति के खोखलेपन को उजागर कर दिया है जो इस मामले का भंडाफोड़ होने के बाद गठित की गई थी और जिसने मयप्पन को क्लीन चिट दी थी। मुदगिल समिति ने आईपीएल की एक अन्य टीम राजस्थान रायल्स के तीन खिलाड़ियों जिनमें श्रीशांत भी शामिल हैं, को भी सट्टेबाजी में शामिल बताया है। अगर सुपीम कोर्ट की पहल पर गठित कोई समिति यह महसूस कर रही है कि किकेट साफ-सुथरा खेल बने और स्पॉट फिक्सिंग जैसी बुराइयों को रोकने के लिए काफी कुछ करने की जरूरत है, तो इस पर हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। सच तो यह है कि ऐसा ही कुछ देश की जनता भी महसूस कर रही है। कमेटी ने आईपीएल को गड़बड़ियों से बचाने के लिए कई सुझाव दिए हैं जिसमें आईपीएल गर्वनिंग बाडी को बीसीसीआई से स्वतंत्र रखने की बात भी शामिल है। यह भी कहा गया है कि सट्टेबाजी और मैच फिक्सिंग से जुड़े मामलों के लिए अलग कोर्ट कानून और जांच एजेंसियां हों। इन कानूनों को एंटी-टेरर या एंटी-ड्रग्स कानूनों की तरह कठोर बनाया जाए। रिपोर्ट में कहा गया है कि खेलों में इन कुकृत्यों के लिए हवाला का धन उपयोग में लाया गया। यही नहीं रिपोर्ट में सट्टेबाजी व स्पॉट फिक्सिंग में आतंकी तत्वों की संलिप्तता राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा बताया गया है। हमारा मानना है कि कानून से यह बीमारी शायद ही रुके। कुछ लोगों की राय है कि सारी समस्या इसलिए है कि हमारे देश में सट्टेबाजी पर पतिबंध है। अगर सट्टेबाजी पर पतिबंध हटा लिया जाए तो आधी से ज्यादा बीमारी दूर हो सकती है। यह कहना शायद गलत न हो कि आईपीएल हमारे मूल्यहीन होते समाज की एक झलक पेश करता है। जब राजनेताओं से लेकर देश की जानी-मानी हस्तियां जुड़ी हुई हों तो फिर सुधार की उम्मीद कैसे की जाए? सारा खेल पैसे का बन गया है पर आईपीएल के आयोजकों को हम चेतावनी देना चाहते हैं कि उनका गोरखधंधा तब तक ही चल रहा है जब तक लोग उसे देख रहे हैं। अगर किकेट पेमियों ने मुंह फेर लिया तो न खेल रहेगा और न ही धंधा। बेहतर तो यही होगा कि बीसीसीआई आईपीएल किकेट में घर कर गईं खामियों को दूर करने के लिए कमर कसे। निसंदेह वह ऐसा तभी कर पाएगी जब किकेट बोर्ड को साफ-सुथरे ढंग से चलाएंगे। अभी तो उसे एक ऐसी निजी कंपनी की तरह से चलाया जा रहा है जो पारदर्शिता और जवाबदेही से दूर रखने के जतन करती है। क्या यह अजीब बात नहीं कि किसी किकेट पशासक को यह नहीं समझ आ रहा कि किस तरह किकेट बोर्ड के मुखिया नियम-कानूनों से खेल रहे हैं?

-अनिल नरेन्द्र

लोकसभा इतिहास की सबसे शर्मनाक घटना, गरिमा तार-तार हुई

गुरुवार को लोकसभा में जो हुआ उसने पूरे देश का सिर शर्म से झुका दिया है। अगर इसे लोकसभा के इतिहास में काला दिन कहें तो गलत नहीं होगा। लोकसभा के इतिहास में ऐसा बदनुमा दाग पहले कभी नहीं लगा। स्पीकर ने इस घटना को शर्मनाक और गन्दा बताते हुए आंध्र पदेश के 16 सांसदों को  5 दिन के लिए सस्पेंड कर दिया है। हुआ यूं कि सुबह 11 बजे ही तेलंगाना बिल के विरोध पर सदन की कार्यवाही टालनी पड़ी थी। 12 बजे गृहमंत्री सुशील कुमार श्ंिादे बिल पेश करने के लिए खड़े हुए तो स्थिति बिगड़ गई। टीडीपी के वेणुगोपाल रेड्डी लोकसभा महासचिव की कुसी पर चढ़कर अध्यक्ष की मेज पर रखे कागजात छीनने लगे। उन्होंने पेपर वेट उठाकर महासचिव की मेज पर रखा, शीशा तोड़ दिया। आरोप तो यह भी है कि वेणुगोपाल ने चाकू लहराया, लेकिन उन्होंने इससे इंकार कर दिया और कहा कि मेरे हाथ में टूटा हुआ माइक था जो चाकू जैसा लगा होगा। कांग्रेस से हाल ही में निकाले गए सांसद एल राजगोपाल ने फिर चौंकाते हुए काली मिर्च का स्पे चारों ओर छिड़क दिया। सदन और दर्शक दीर्घा में बैठे लोगों को खांसी होने लगी। दम घुटने और आंखों में जलन की शिकायत पर डाक्टरों को बुलाना पड़ा। 3 सांसद विनय कुमार पाण्डे, पोन्नम पभाकर और पी बलराम नाइक कोडा को राम मनोहर लोहिया अस्पातल ले जाया गया, जहां बाद में उन्हें छुट्टी दे दी गई। दोपहर 2 बजे कार्यवाही शुरू होते ही हंगामा फिर शुरू हो गया तो स्पीकर ने 16 सांसदों को  5 दिन के लिए सस्पेंड कर दिया। इनमें कांग्रेस, टीडीपी और वाईएसआर कांग्रेस के सांसद हैं। जहां इस शर्मनाक घटना के लिए टीडीपी और कांग्रेस के सांसद जिम्मेदार हैं वहां हम समझते हैं कि केन्द्र की यूपीए सरकार और कांग्रेस भी इस शर्मनाक स्थिति के लिए कम जिम्मेदार नहीं। समझ नहीं आया कि क्या सोचकर कांग्रेस आलाकमान ने सरकार से इस बिल को पेश करने को कहा? तेलंगाना बिल और आंध्र पदेश के विभाजन को लेकर कई दिनों से विरोध चल रहा था। खुद कांग्रेसी मुख्यमंत्री इसके विरोध में दिल्ली आकर धरने पर बैठ गए थे। आंध्र विधानसभा ने इस पस्ताव को रिजेक्ट कर दिया था। इन परिस्थितियों में इसको पेश करके कांग्रेस पाटी ने खुद अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारी है। वह कहावत है न कि चौबे गए थे छब्बे बनने, दुबे बनकर आए सही बैठती है। अब कांग्रेस को दोनें तरफ से नुकसान होगा। इससे एक और बात भी साबित होती है कि कांग्रेस आलाकमान की अपने सांसदों पर पकड़ कितनी कमजोर हो गई है। पिछले सात दिनों से कांग्रेस के सीमांध्र व तेलंगाना क्षेत्र के सांसद हंगामा कर रहे हैं और कांग्रेस आलाकमान उनके खिलाफ कुछ भी कार्रवाई करने से कतरा रहा है और वह भी ऐसे समय जब लोकसभा का अंतिम सत्र हो और राहुल गांधी के आधा दर्जन ड्रीम बिल पारित होने के लिए लाइन में हो? पता नहीं अब लोकसभा सुचारू रूप से चलेगी भी या नहीं। अगर नहीं चली तो धरा धराया रह जाएगा राहुल का भ्रष्टाचार विरोधी बिल। सांसदों में भी असुरक्षा की भावना है। उनको इस सत्र के बाकी दिनों में कोई ज्यादा दिलचस्पी नहीं है। वह अपने  चुनाव क्षेत्र में अविलम्ब वापस जाना चाहते हैं। बहुतों को तो यह भी चिंता सता रही है पता नहीं कि कांग्रेस आला कमान इस बार टिकट देता भी है या नहीं? कांग्रेस आलाकमान को इतना तो मालूम ही था कि यह लोकसभा का अंतिम सत्र  है और महत्वपूर्ण बिलों को पास करने का अंतिम मौका। बेहतर यह होता कि वह अपनी फ्लोर मैनेजमेंट बेहतर करके पहले ही दिन इन 16 सांसदों को सस्पेंड करके कम से कम राहुल के महत्वपूर्ण बिल पास करवा लेता? लगता है कि कांग्रेस के फ्लोर मैनेजमेंट धरे धराए रह गए। अब यह भी विवाद का मुद्दा बन गया है कि आंध्र पदेश पुनर्गठन विधेयक 2014 पेश हुआ है या नहींसरकार कह रही है कि बिल पेश हो गया है पर भाजपा सरकार के इस दावे को मानने से इंकार कर रही है। भाजपा ने कहा कि चूंकि संसदीय पकिया का अनुसरण नहीं हुआ है इसलिए वह इस विधेयक को पेश होने को स्वीकार नहीं करती है। लोकसभा के नेता पतिपक्ष ने पूरे घटनाकम में कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा जो कुछ हुआ है वह कांग्रेस द्वारा रचा गया है क्येंकि कांग्रेस ऐसी अव्यवस्था पैदा करना चहती थी जिससे सभी सदस्य लोकसभा से चले जाएं और तब वह ऐसा दावा कर सके कि तेलंगाना विधेयक पेश हो गया है। तेलंगाना विधेयक पेश होने के दावे को ठुकराते हुए सुषमा ने कहा कि उन्हें कोई पूर्व सूची उपलब्ध नहीं कराई गई और न ही सदन की कार्यवाही में इसे सूचीबद्ध किया गया। जैसा मैंने कहा कि भारत के संसदीय इतिहास में गुरुवार का दिन एक काला धब्बा है जिसमें संसद की गरिमा तार-तार हो गई।