Sunday, 16 February 2014

बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले

8 दिसम्बर 2013 को दिल्ली सियासत में अरविंद केजरीवाल का आगाज किसी नायक की तरह हुआ था जिसके चमत्कारी व्यक्तित्व के पास हर मर्ज की दवा थी। वह आधी दर पर बिजली दे सकता है, वह समूची दिल्ली को मुफ्त पानी पिला सकता है, वह भ्रष्ट शीला सरकार के सारे काले कारनामों का पर्दाफाश करके कसूरवार मुख्यमंत्री  व उनके भ्रष्ट मंत्रियों को जेल की हवा खिला सकता है, वह भ्रष्ट बिजली कम्पनियों और भ्रष्ट सरकारी अधिकारियों को सबक सिखा सकता है, वह भ्रष्टाचार को नष्ट कर सकता है, सरकारी महकमों में अस्थायी तौर पर कार्यरत साढ़े चार लाख कर्मचारियों को नियमित कर सकता है लेकिन वह इससे पहले ही यह वादे पूरे करते नाटकीय ढंग से भाग लिए। दिल्ली में नई किस्म की राजनीति का स्वाद चखाने का वादा कर सत्ता में आए अरविंद केजरीवाल 49 दिनों में सरकार छोड़कर भाग खड़े हुए। शुकवार को लोकसभा चुनाव में उतरने की हड़बड़ी में आम आदमी पाटी(आप) के मुखिया ने जनलोकपाल बिल को इसका बहाना बनाया और उपराज्यपाल नजीबजंग को इस्तीफा दे दिया। केजरीवाल एक धूर्त सियासी नेता साबित हुए। कुछ लोगों को लगा कि शायद वह राजनीति में नौसिखिया हैं पर शुकवार को जिस नाटकीय अंदाज में उन्होंने शहीद बनने का नाटक किया उससे तो यही लगता है कि वह एक धूर्त, मंझे हुए सियासत दान है। सभी मान रहे थे कि इस पहली गैर कांग्रेस, गैर भाजपा अल्पमत सरकार की आयु ज्यादा लंबी नहीं है। इस सरकार को कब गिराया जाएगा, या खुद केजरीवाल मैदान से भागेंगे बस पश्न इतना-सा था। विधानसभा सत्र के शुरू होने से पहले ही इस बात की पटकथा लिखी जा चुकी थी कि अरविंद केजरीवाल ने अपनी सरकार की विदाई का मन बना लिया है, लेकिन वह इसे सामान्य ढंग से न लेकर अपितु शहादत के तौर पर लेते हुए दिखाना चाहते हैं जैसे कुरुक्षेत्र के मैदान में अभिमन्यु का वध हुआ हो और दिग्गजों ने घेरकर मार दिया हो। आम आदमी पाटी के राजनीतिकारों का मानना था कि कांग्रेस की बैसाखियों पर इस सरकार का ज्यादा लंबे समय तक चलना असम्भव है। यदि किसी भी तरह सरकार चल भी गई तो उसकी उम्र लोकसभा चुनाव तक ही है। वहीं यदि लोकसभा चुनाव में भाजपा के नरेन्द्र मोदी का जादू चल गया तो स्थिति बद से बदतर हो सकती है। इन हालातों में बाद में यदि सरकार कांग्रेस गिराती है या खुद गिर जाती है तो इसका लाभ पाटी को मिलने की जगह उसका नुकसान ही होगा। पाटी सिपहसालारों ने इसके लिए सत्र से पहले ही शतरंजी ढंग से बिसात बिछा रखी थी कि उन्हें अगले कदम पर क्या करना है जिससे सरकार गिराने का कोई न कोई रास्ता बनाना उसकी रणनीति थी जिसका मौका उन्हें संयुक्त विपक्ष, उपराज्यपाल के स्टैंड ने दे दिया। अरविंद केजरीवाल ने तयशुदा रणनीति के तहत नाटकीय ढंग से इस्तीफा दे दिया और इसके लिए कनॉट प्लेस के हनुमान रोड स्थित पाटी कार्यालय में पहले से ही तैयारी हो चुकी थी। पाटी ने अपने स्वयं सेवकों को पहले ही संदेश भेज दिया था कि वह हनुमान रोड पाटी कार्यालय पर उपस्थित रहें। पाटी ने एक छोटी स्कीन भी लगा रखी थी ताकि कार्यकर्ता विधानसभा में अरविंद केजरीवाल को देखें और सुनें। केजरीवाल ने इसे पतीकात्मक बनाने के लिए उसी खिड़की से  15 मिनट का भाषण दिया जिससे उन्होंने दिल्ली विधानसभा चुनाव में जीत के बाद भाषण दिया था। अन्ना हजारे की तरफ से मिले सकारात्मक संदेशों से भी केजरीवाल को लगा कि टाइम आ गया है कि बड़ी उपलब्धि के लिए छोटी कुरबानी दे दो। इससे मुझे शाहरुख खान की फिल्म बाजीगर का वह डायलाग याद आ गयाः कभी-कभी जीतने के लिए हारना जरूरी होता है। हार कर जीत जाने वाले को बाजीगर कहते हैं। आप समर्थकें का तो यही कहना है कि आम आदमी पाटी समर्थक अरविंद केजरीवाल के इस्तीफे को सही मान रहे हैं और उनका कहना है कि सरकार बनी ही इसलिए थी कि भारत भ्रष्टाचार मुक्त देश बने लेकिन कांग्रेस, भाजपा व मुकेश अंबानी ऐसा नहीं चाहते थे। भाजपा और कांग्रेस ने जनलोकपाल बिल का विरोध कर अपनी असली तस्वीर दिखा दी है। मुकेश अंबानी के खिलाफ मामला दर्ज होते ही दोनों पार्टियां तिलमिला गईं। उन्हें लगा कि जनलोकपाल बिल पास हो गया तो उनकी खैर नहीं। इससे उन्होंने बिल पास नहीं होने दिया। दूसरी ओर आम आदमी पाटी को वोट देने वाले अपने आप को छला महसूस कर रहे हैं। जनता सवाल कर रही है कि यदि फिलहाल जनलोकपाल बिल पारित नहीं होता तो क्या आफत आ जाती? पहले दिल्ली की झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले गरीब लोगों को मकान देना जरूरी नहीं था? क्या बिजली-पानी की व्यवस्था को चुस्त करना जरूरी नहीं था? अस्पतालों में खराब हालत को सुधारना जरूरी नहीं था? यदि केन्द्र सरकार उनका जनलोकपाल बिल पारित नहीं करती तो केजरीवाल उसके खिलाफ सियासी लड़ाई लड़ सकते थे लेकिन वह तो पहले दिन से ही कहते रहे कि यदि यह बिल पारित नहीं होगा तो वे इस्तीफा दे देंगे। असल में केजरीवाल को मालूम था कि वह अपने किए वादों को पूरा नहीं कर सकते, इसलिए भागने का मौका देख रहे थे। वे शहीद बनकर जनता के सामने जाना चाहते थे। आम आदमी पाटी की सरकार सिर्फ 49 दिन ही शासन में रही। इस दौरान एक दिन भी ऐसा नहीं निकला जब किसी न किसी मुद्दे पर केजरीवाल ने विवाद न पैदा किया हो। कानून मंत्री सोमनाथ भारती की कार्यशैली पर लगातार सवाल उठते रहे। बनिस्पद इसके कि अरविंद केजरीवाल भारती को खींचते उल्टे संविधान, कानून-व्यवस्था की धज्जियां उड़ाते हुए खुद धरने पर बैठ गए। हमारे अनुसार इस सरकार की उल्टी गिनती उसी दिन से शुरू हो गई थी। केजरीवाल के इस्तीफे देने के बाद जनता में चर्चा है कि बेहतर होता यदि उन्होंने अपने कानून मंत्री सोमनाथ भारती के मुद्दे पर दिल्ली पुलिस के खिलाफ गणतंत्र दिवस की तैयारियों के बीच रेल भवन पर धरना नहीं दिया होता। उनके वोटर भी इस कदम से हैरान थे। सरकार चलाना और धरना देना दोनें काम एक साथ नहीं चल सकते। बेशक टीवी चैनलों पर उनके समर्थक यह कहें कि केजरीवाल का इस्तीफे के बाद सियासी कद बढ़ा है पर हमें लगता है कि उनके समर्थकों में भारी कमी आई है।  जिन लोगों ने उन्हें विधानसभा में वोट दिए थे उनमें पढ़ा-लिखा तबका उनकी हरकतों से, उनकी सरकार से मायूस हुआ है और वह अब दोबारा उन्हें वोट नहीं देगा। पर यह मेरा अपना विचार है कि इतिहास के पन्नों में जब केजरीवाल के 49 दिनों के शासन का उल्लेख होगा तो पता नहीं इन्हें हीरो लिखा जाएगा या जीरो? कभी-कभी सत्ता के 49 दिन भी समर्थकें के बड़े हिस्से को विरोधी बनाने के लिए काफी होते हैं। दिल्ली सरकार की बलि चढ़ाकर आप को अब इतनी फुर्सत तो मिल ही जाएगी कि वह देश की व्यापक राजनीति पर पूरा ध्यान दे सकें और जैसे केजरीवाल दावा कर रहे हैं कि आगामी लोकसभा चुनाव में 50 से ज्यादा सीटें जीतेंगे फिर पूरी ताकत झोंक दें।

-अनिल नरेन्द्र

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