भारत में 29वें राज्य तेलंगाना के गठन
का मार्ग पशस्त करते हुए इससे संबंधित बहुचर्चित एवं विवादास्पद विधेयक को गुरुवार
को संसद की मंजूरी मिल गई। राज्यसभा में दिन भर चले हंगामे और कई बार स्थगन के बाद
सदन ने आंध्र पदेश पुनर्गठन विधेयक 2014 विपक्ष द्वारा लाए गए
संशोधनों को खारिज करते हुए ध्वनिमत से पारित कर दिया। दो दिन पहले बड़े ही नाटकीय
और शर्मनाक तरीके से विधेयक को लोकसभा में पास करवाया गया। लोकसभा की कार्यवाही का
टीवी पसारण ब्लैक आउट कर और सदन के दरवाजे को बंद करते हुए लगभग इमरजेंसी जैसी स्थिति
में भारी हंगामे के बीच सरकार ने मंगलवार को तेलंगाना बिल पारित करा लिया।
15वीं लोकसभा में अगर किसी विधेयक को लेकर इतना वाद-विवाद, इतनी अनुशासनहीनता हुई हो तो वह यही तेलंगाना
बिल था। हमने देखा कि कैसे मिची स्पे डालकर, धक्का-मुक्की करके सदन की गरिमा तार-तार हुई। जिस ढंग से लोकसभा
में इस विधेयक को पास कराया गया उससे इमरजेंसी के दुर्भाग्यपूर्ण दिनों की कड़वी यादें
फिर ताजा हो गईं। बिल पास कराने के लिए लोकसभा को देश की नजरों से छिपा दिया गया,
दरवाजे बंद कर दिए गए और मार्शलों की तैनाती के साथ ही टीवी कैमरों को
बंद करके सदन के घटनाकम का सीधा पसारण रोक दिया गया । हैरत और अफसोस में डूबे देश को
बिल के पास होने की खबर तब मिली जब टीवी पर रंग-गुलाल में डूबे
तेलंगाना समर्थकें की जश्न मनाती भीड़ नजर आई। अलग तेलंगाना राज्य बनाने का सफर
60 साल का है। वर्ष 1972 में अलग आंध्र पदेश राज्य
का गठन हुआ था। अलग तेलंगाना राज्य के गठन की लंबी दास्तान है। भाषाई आधार पर आंध्र
पदेश का गठन पूर्ववती मद्रास राज्य एवं शाही हैदराबाद के तेलुगू बोलने वाले इलाके को
मिलाकर किया गया। आंध्र के लोग अंग्रेजों के जमाने से ही मद्रास राज्य से आंध्र पांत
को अलग करने के लिए संघर्ष करते रहे हैं लेकिन सफल नहीं हुए। जब देश आजाद हुआ तो उन्हें अपनी उम्मीदें पूरी
होती दिखाई दीं, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बहरहाल गांधीवादी नेता पाटेटी
श्री रामुलु ने अलग राज्य की मांग को लेकर आमरण अनशन किया जिसकी केन्द्र सरकार ने अनदेखी
की। श्री रामुलु 15 दिसम्बर 1952 को शहीद
हो गए जिसके बाद बगावत शुरू हो गई। जवाहर लाल नेहरू की सरकार आंदोलन से हिल गई। पधानमंत्री
ने 1952 में ही लोकसभा में घोषणा की कि आंध्र राज्य का गठन होगा।
एक अक्तूबर 1953 को आंध्र राज्य अस्तित्व में आया और इसकी राजधानी
कुर्दूल बनी। यहां सवाल तेलंगाना के समर्थन या विरोध का नहीं उस तरीके का है जो पूरा
घटनाकम देश को दिखा है। आंध्र पदेश के दो हिस्सों में बांटने के पीछे तर्क था कि छोटे
राज्यों का पशासन और विकास अधिक बेहतर तरीके से होता है। इसमें भावनात्मक पहलू भी जुड़े
थे जिनके आधार पर अलग तेलंगाना की मांग पिछले 50 साल से ज्यादा
से चली आ रही थी। लेकिन इतने संवेदनशील मसले को ऐसा सतही राजनीतिक रंग दे दिया गया
कि जमीन से पहले लोगों के दिल इस अंदाज में बंट गए जैसा भारत-पाकिस्तान बंटवारे के दिनों में हुआ होगा। बंटवारे के मुकम्मल होने के बाद
तेलंगाना और सीमांध्र में भी कहीं उन्ही खूनी दिनों की त्रासदी भी न दोहराई जाए जो
नरसंहारों के रूप में इतिहास के पन्नें में दर्ज है। सबसे बड़ी बात है कि क्या इससे
कांग्रेस को राजनीतिक लाभ मिलने वाला है जिसके लिए कांग्रेस ने संसद के सारे नियम,
परंपराएं तोड़ीं? फिर देखना यह भी होगा कि क्या
देश में और राज्यों के बंटवारे की मांगें और तेज होंगी?
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