Sunday, 23 February 2014

मुस्लिमों को बच्चा गोद लेने का अधिकार हैः सुपीम कोर्ट

सामाजिक कार्यकर्ता शबनम हाशमी की याचिका पर सुपीम कोर्ट द्वारा बुधवार को दिए फैसले को ऐतिहासिक कहा जाए तो गलत न होगा। सुपीम कोर्ट ने ठीक ही व्यवस्था दी है कि अन्य किसी व्यक्ति की तरह मुस्लिम समुदाय का कोई भी व्यक्ति अगर चाहे तो जुवेनाइल जस्टिस लॉ के तहत किसी बच्चे को गोद ले सकता है। सुपीम कोर्ट का बहुत साफ कहना है कि कोई भी निसंतान मुस्लिम दंपत्ति भी बच्चा गोद ले सकता है। इसमें मुस्लिम लॉ बोर्ड आड़े नहीं आएगा। कोर्ट के मुताबिक जुवेनाइल जस्टिस लॉ पर अमल में पर्सनल लॉ बाधा नहीं बन सकती। शबनम हाशमी ने आठ साल पहले यह याचिका दायर की थी, जब मुस्लिम पर्सनल लॉ का वास्ता देते हुए उन्हें बच्चा गोद लेने से रोका गया था। बेशक कोर्ट का यह फैसला उन जैसे तमाम लोगों के संवैधानिक अधिकार की रक्षा करता है और इसलिए स्वागत योग्य है। यह अलग बात है कि कोर्ट ने गोद लेने के अधिकार को मौलिक अधिकार मानने से इंकार किया है। इसके बावजूद ताजा फैसले से एक उम्मीद तो जगी है। यह फैसला 2005 में दाखिल शबनम हाशमी की याचिका पर दिया गया है जिसमें सभी धर्में और जातियों के लोगों को बच्चा गोद लेने का हक दिए जाने की मांग की गई थी। दरअसल हिंदुओं के अलावा अन्य धर्मावलम्बी बच्चा गोद लेते थे तो उन्हें बच्चे के माता-पिता का दर्जा नहीं मिलता था। इसी बीच सरकार ने जुवेनाइल एक्ट में संशोधन कर हर धर्म के दंपत्ति को बच्चा गोद लेने का समान हक पदान कर दिया था। सुपीम कोर्ट ने भी साफ कहा है कि जुवेनाइल लॉ गोद लेने का हक देने वाला सकारात्मक कानून है। बाद में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने अजी दाखिल कर सरकारी कमेटियों को यह निर्देश देने की अपील की थी कि वह मुस्लिम बच्चे को गोद लेते समय इस्लामी कानून को ध्यान रखें। उचित ही सुपीम कोर्ट ने बोर्ड की इस दलील को खारिज कर दिया है बच्चा गोद लेना मानवीय और संवेदनशील मामला होता है। इस फैसले से पता चलता है कि न्यायपालिका कानूनी तथ्यों के साथ संवेदनाओं का भी ख्याल रखती है। वैसे भी मानवीयता जाति और धर्म से ऊपर की चीज होती है। ऐसे संवेदनशील मुद्दों के पति मजहबी दुराग्रह एक बड़े वर्ग के साथ असहिष्णुता ही मानी जाएगी। इसलिए इस फैसले को व्यापक नजरिए से देखे जाने की जरूरत है न कि धार्मिक आधार पर। फैसला देते हुए सुपीम कोर्ट ने यह टिप्पणी भी की कि यह कॉमन सिविल कोड की दिशा में एक कदम है। कॉमन सिविल कोड भारत की एक संवैधानिक पतिज्ञा है लेकिन इसके साथ मुस्लिम समुदाय को अपनी धार्मिक पहचान खो देने का एक अवास्तविक डर भी जुड़ा हुआ है। अदालत के फैसले के बाद मुस्लिम समुदाय के भीतर से जिस तरह के बयान आ रहे हैं, वे तीस साल पहले उठे साहबानो विवाद की याद दिलाता है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड से जुड़े लोगों की यह निराशा तो समझी जा सकती है कि कोर्ट ने उनकी दलीलों को स्वीकार नहीं किया लेकिन इस पूरे मामले पर उन्हें ठंडे दिमाग से सोचना चाहिए और इसे भावनात्मक स्वरूप देने से बचना चाहिए। आशा करें कि इस बात को धर्म के भीतरी विमर्श का मुद्दा मानकर यहीं छोड़ दिया जाएगा और खामख्वाह धार्मिक पहचान से जुड़ा मसला नहीं बनाया जाएगा।

-अनिल नरेन्द्र

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