इन पांच राज्यों के विधानसभा
परिणामों का अगर कोई संदेश है तो वह यह है कि देश की जनता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
के कामकाज से खुश नहीं है। इनके अहंकार, इनकी
हिटलरशाही प्रवृत्ति से जनता नाराज है। इतना ही नहीं, देश का
किसान और युवा वर्ग अब सरकार पर भरोसा नहीं करते। यह दावा राहुल गांधी ने मंगलवार शाम
को अपनी प्रेस कांफ्रेंस में किया। एक अखबार ने तो सुर्खी बनाई मोदी की नोटबंदी के
बाद जनता की वोटबंदी। नवम्बर से ही गरम किए गए राम मंदिर मुद्दे का न तो असर हुआ और
न ही सुप्रीम कोर्ट के आदेश के खिलाफ एससी/एसटी एक्ट लाने का
फायदा हुआ। नोटबंदी और जीएसटी की वजह से पहले से नाराज कोर वोटर हाथ से निकल गया। यही
नहीं उन्होंने भाजपा के खिलाफ वोट डाला। तीनों ही राज्यों में लग रहा था कि बसपा,
सपा और अन्य दल कांग्रेस के वोट काटेंगे। लेकिन किसान, मजदूर और अन्य वर्ग भाजपा से इतने नाराज थे कि वोट कटने को समझ गए। एमएसपी
और अन्य कई उपायों का असर नहीं हुआ। उलटे सवर्ण और शहरी वर्ग में भाजपा के वोट दूसरी
तरफ चले गए। इस बार मोदी का जादू नहीं चला, न ही मोदी द्वारा
किए गए निजी हमलों का असर हुआ। उलटा जनता ने इसे बुरा माना। भाजपा की यह गलतफहमी भी
दूर हो जानी चाहिए कि मोदी-शाह की जोड़ी उनकी नैया पार करा देगी।
राजस्थान, एमपी और छत्तीसगढ़ में मोदी व शाह के ताबड़तोड़ चुनाव
प्रचार पर राहुल गांधी की 82 जनसभाएं व सात रोड शो भारी पड़े।
इन राज्यों के चुनाव परिणामों ने जहां कांग्रेस के लिए संजीवनी का काम किया वहीं राहुल
को राजनीति में नया अध्याय लिखने का मौका दिया। नतीजों ने उन्हें देश की राजनीति की
पिच पर मंझे राजनेता के रूप में स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। राफेल,
नोटबंदी, जीएसटी, सीबीआई,
आरबीआई, रोजगार, किसान व
नौजवान को लेकर जहां राहुल तल्ख रहे वहीं भाजपा बैकफुट पर आ गई। इतना ही नहीं,
अब तक पप्पू कहने वाली भाजपा, मोदी-शाह की टीम पर राहुल ने अपनी आक्रामक शैली से तीन राज्यों में चुनावी एजेंडा
सैट किया। मोदी से लेकर अमित शाह व कद्दावर भाजपा नेता उसमें फंसते गए। कहीं न कहीं
वह नौजवानों, किसानों को यह संदेश देने में भी सफल रहे कि मोदी
के वादे खोखले हैं और जुमलेबाजी से लोगों का भला नहीं होने वाला है। उन्होंने झूठे
वादे और नफरत की राजनीति पर मोदी-शाह को घेरा। नतीजे गवाह हैं
कि राहुल का यह नया स्वरूप मोदी मैजिक को फीका करने में काफी हद तक सफल रहा। भाजपा
को इस गलतफहमी से निकलना ही होगा कि सिर्प मोदी के चेहरे को आगे कर सभी चुनाव जीते
जा सकते हैं। 2014 में मोदी का जो आभामंडल दिखा था, 2019
के आते-आते उसके बरकरार रहने की संभावनाओं पर विराम
लगता दिख रहा है। वोटर सिर्प भाषण के जरिये तसल्ली पाने के मूड में नहीं हैं। वह अपने
हित के मुद्दों पर ठोस काम देखना चाहते हैं। भाजपा को विकास के एजेंडे पर लौटना ही
पड़ेगा।
-अनिल नरेन्द्र
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