Thursday 16 July 2020

रोम जल रहा है और नीरो चैन की नींद सो रहे हैं

पहले कर्नाटक में सरकार गई, फिर मध्यप्रदेश में। अब राजस्थान सरकार पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। छत्तीसगढ़ का किला भी बहुत सुरक्षित नहीं है। आखिर क्या वजह है कि सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस किसी भी राज्य में एक-दो वर्ष से ज्यादा सत्ता में बने रहने में विफल साबित हो रही है? हर जगह उनके अपने विधायकों की बगावत ही उसके लिए संकट का सबब बन रही है। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि कांग्रेस मे अब कोई संकटमोचक नहीं बना है। पार्टी अध्यक्ष सोनिया अपने घर तक ही सीमित होकर रह गई हैं। राहुल गांधी सिर्फ ट्विटर पर सक्रीय हैं। कमोबेश यही स्थिति प्रियंका की भी है। इन तीनों के अलावा पार्टी में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जो संकट की घड़ी में राह निकाल सके। अशोक गहलोत, दिग्विजय सिंह और कमलनाथ जैसे नेताओं के मुकाबले संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल कहीं जूनियर हैं और उनकी आवाज नक्कार खाने में तूती के समान है। अधिकतर वरिष्ठ नेताओं को पहले ही किनारे लगा दिया गया है। यही वजह है कि एक के बाद एक कांग्रेस के किले ध्वस्त होते जा रहे हैं और गांधी परिवार सिर्फ मूकदर्शक बनने पर विवश है। इसके चलते जहां कांग्रेस कई राज्यों में आई सत्ता खो चुकी है, वहीं दूसरी ओर इनके चलते कई जगह सत्ता में आते-आते रह गई। लेकिन कांग्रेस सबक सीखने को तैयार नहीं है। हालिया तस्वीर राजस्थान की है। जहां कांग्रेस सरकार पर खतरा मंडरा रहा है, अशोक गहलोत की कुर्सी हिलती दिख रही है। शुक्रवार तक कांग्रेस जहां प्रदेश में अस्थिरता के लिए बीजेपी को दोषी ठहरा रही थी, वहीं शनिवार की शाम बीतते-बीतते तस्वीर बदलने लगी और पार्टी का एक धड़ा असंतोष होकर वैसे ही रूठा दिखाई देने लगा, जैसे चार महीने पहले मध्य प्रदेश में तस्वीर सामने आई थी। वहां डिप्टी सीएम व प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट नाराज बताए जा रहे हैं। भले ही कांग्रेस अपने यहां अस्थिरता के लिए बीजेपी को दोषी करार देती आई हो, लेकिन सच्चाई यह है कि कांग्रेस का नेतृत्व अपने यहां की वर्चस्व की लड़ाई और गुटबाजी पर काबू पाने में नाकाम दिख रही है। राजस्थान में सीएम और डिप्टी सीएम के बीच आपसी गुटबाजी व मनमुटाव कोई नई चीज नहीं है। पायलट के प्रदेशाध्यक्ष बनने के बाद से ही दोनों के बीच पावर की जंग और अपने वर्चस्व की लड़ाई रही है। भले ही असेंबली चुनाव के दौरान ही पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के चलते दोनों नेताओं ने आपसी मतभेद भुलाकर, मिलकर काम करने की बात कही हो, लेकिन हकीकत यही रही कि दोनों के बीच दूरियां कभी कम नहीं हुई। राज्य में होने वाले स्थानीय निकायों के चुनाव के मद्देनजर भी पायलट को लग रहा है कि पार्टी अध्यक्ष होने के बावजूद फैसले कहीं और से हेंगे। वहां पार्टी समझ रही है कि पायलट मेहनती और महत्वाकांक्षी हैं। यह भी अफवाह है कि सारा झगड़ा पायलट को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाने की मुहिम से शुरू हुआ। रोम जल रहा है और नीरो चैन की नींद सो रहे हैं।

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