Sunday 15 March 2015

स्टिंग मास्टर खुद स्टिंग में फंसे ः पार्टी बेहाल

दिल्ली में आम आदमी पार्टी सरकार का पहला महीना पूरा हो चुका है। दुख से कहना पड़ता है कि इन 30 दिनों में आम आदमी पार्टी की सरकार ने फजीहत के सिवाय और कुछ हासिल नहीं किया। देश के इतिहास में शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि कोई पार्टी इतने कम समय में सत्ता शीर्ष पर पहुंची हो और फिर अचानक उसकी पूरी साख मिट्टी में मिल गई हो और यह साख किसी विरोधी दल ने नहीं बल्कि खुद पार्टी के नेताओं ने एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाकर मिट्टी में मिलाई है। नई तरह की राजनीति करने के बड़े-बड़े दावों के साथ सत्ता में आई आम आदमी पार्टी जिस तरह कलह से ग्रस्त है उससे वह अपने साथ-साथ अपने समर्थकों और शुभचिन्तकों को भी शर्मसार कर रही है। आम आदमी पार्टी में फूट से गुस्साए कार्यकर्ताओं ने बुधवार शाम ईस्ट पटेल नगर स्थित पार्टी कार्यालय के बाहर अपने वरिष्ठ नेताओं के खिलाफ नारेबाजी की, कैंडिल मार्च निकाला। कार्यकर्ताओं ने कहा कि आप में कलह से उन्हें सदमा पहुंचा है। इससे जनता के बीच गलत संदेश जा रहा है। इस पर तुरन्त रोक लगे अगर नहीं लगी तो पार्टी को गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। जिस उम्मीद से जनता ने वोट देकर आप को जिताया था, वह चूर-चूर हो सकता है। जिस तरह से पार्टी नेताओं में खींचतान शुरू हुई है वह शर्मनाक है। पुलिस सूत्रों की मानें तो प्रदर्शन में शामिल कार्यकर्ता योगेन्द्र यादव के समर्थक थे। उनका कहना था कि पार्टी में लोकतंत्र होना चाहिए और सभी को अपनी बात रखने का अधिकार है। जिस तरह योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण के खिलाफ कार्रवाई की गई है वह गलत है। आज दुख से कहना पड़ता है कि आप में भारी जूतम-पैजार मची है। पार्टी दो गुटों में बंटी हुई है और दोनों एक-दूसरे पर कीचड़ उछाल रहे हैं। जितने मुंह, उतनी बातें। कोई ब्लॉग लिख रहा है, कोई चिट्ठी, तो कोई स्टिंग ऑपरेशन की सीडी पेश कर रहा है। इस ड्रॉमे में कभी इमोशन आ जाता है तो कभी बदले की आग भड़कती दिखती है। इसका कुल नतीजा यह है कि पार्टी के नेतृत्व में शामिल सारे लोगों की कलई उधड़ गई है। लोग हैरान-परेशान हैं कि जिनसे राजनीति की सफाई की उम्मीद थी, वह अपने भीतर अपनी गंदगी छिपाए हुए थे। अब तो यह भी तय-सा लग रहा है कि आप का विवाद योजनाबद्ध तरीके से बढ़ाया जा रहा है। इस पार्टी की कलह अब अपने चरम पर जाती दिख रही है। कोई नहीं जानता कि यह कब खत्म होगी और कैसे? यह भी कहना आज कठिन है कि कलह शांत होने के बाद वह अपनी प्रतिष्ठा बचा सकने में समर्थ होगी या नहीं? आश्चर्यजनक यह है कि जब पार्टी के वरिष्ठ नेता खुलेआम एक-दूसरे पर हमला करने में लगे हैं तब पार्टी प्रमुख अरविंद केजरीवाल उपचार के बहाने मौन साधे हुए हैं। उनकी रहस्यमय चुप्पी यही बता रही है कि जो कुछ हो रहा है वह उन्हें रास आ रहा है और शायद इसलिए कि उनके विरोधी करार दिए गए प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव के खिलाफ माहौल बन रहा है। पिछले कुछ दिनों से केजरीवाल के समर्थकों ने इन दोनों नेताओं पर जैसे जोरदार हमले किए हैं उसके बाद इसके आसार बढ़ गए हैं कि उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया जा सकता है। केजरीवाल की खुद की छवि धूमिल हो रही है। राजेश गर्ग ने जो ऑडियो टेप जारी किया है उस टेप में केजरीवाल न केवल कांग्रेस से मिलकर सरकार बनाने को आतुर दिखते हैं बल्कि वह कांग्रेसी विधायकों को तोड़ने की भी सलाह दे रहे हैं। आवाज केजरीवाल की ही है और वह यह भी नहीं कह सकते कि उनकी आवाज को तोड़-मरोड़ कर झूठा टेप जारी किया गया है और वैसे भी उनके विश्वासपात्र इस बात से इंकार नहीं कर रहे कि केजरीवाल तब की राजनीतिक परिस्थितियों में सरकार गठन की संभावनाओं को टटोल रहे थे। यदि ऐसा ही है तो फिर अलग तरह की राजनीति करने और अपने लिए नैतिकता के उच्च मानदंड तय करने का क्या मतलब? मौजूदा हालात यही बयां करते हैं कि किस तरह मूल्यों, मर्यादाओं और आदर्शों की बातें करने वाले दल मौका मिलते ही अवसरवादी बन जाते हैं। आप अन्ना हजारे के नेतृत्व में चले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की देन है। इस आंदोलन से जुड़े एक वर्ग ने यह लाइन पकड़ी कि व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए उसके भीतर घुसना होगा, बुरी राजनीति को खत्म करने के लिए अच्छी राजनीति खड़ी करनी होगी और इसी का जनता ने स्वागत किया और केजरीवाल की पार्टी को दिल खोलकर वोट दिया। अब वही जनता यह मानने लगी है कि आप में भी वह तमाम कमजोरियां हैं जिनसे लड़ने का दावा केजरीवाल करते आए हैं। आज आप कार्यकर्ता सवाल कर रहे हैं कि अगर आप ने भी वही हथकंडे अपनाने हैं तो आप में और भाजपा, कांग्रेस में फर्प क्या है? और यदि इस पार्टी को भी वही करना है तो फिर इसकी जरूरत ही क्या है? उम्मीद की जाती है कि अरविंद केजरीवाल के लौटने पर पार्टी के इस गृहयुद्ध पर विराम लगेगा और केजरीवाल एंड कंपनी अपने वह सारे वादे पूरे करेगी जिसके लिए दिल्ली की जनता ने उन्हें वोट दिया। पहले 30 दिन की आप की सरकार में बेशक बिजली-पानी में राहत मिली हो पर कुल मिलाकर पार्टी का शर्मनाक प्रदर्शन रहा है। आप की दुर्दशा से अन्ना की इस बात को भी बल मिलता है कि आंदोलनों और राजनीति में बहुत फर्प है। यह जरूरी नहीं कि आंदोलनकारी सफल राजनीतिज्ञ भी हों।

-अनिल नरेन्द्र

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