Friday 27 March 2015

क्यों मजबूर हैं किसान आत्महत्या करने पर?

देश के किसानों ने बड़ी उम्मीदों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने मन की  बात साझा करते सुना होगा वरना गांव-देहात से आज कौन संवाद बनाता है? मौका माकूल था क्योंकि बेमौसम बरसात और ओलों की मार से बर्बाद फसलों से किसान बेजार है। बारिश व ओलावृष्टि के कारण फसलें बर्बाद होने से किसानों की मौत का सिलसिला थम नहीं रहा है। हाल ही में छह किसानों ने मायूसी के कारण आत्महत्या कर ली। उरई में तीन, महोबा, ललितपुर और बांदा में एक-एक की मौत हो गई। यह सभी उत्तर प्रदेश में हुईं। जमनपुर/डकोर (उरई) के रामपुरा के कस्बा नगन्द्रपुर में भगवान दास (65) की फसल चौपट होने के गम से मौत हो गई, उसके पास चार एकड़ जमीन थी। गेहूं की फसल पककर तैयार थी। बारिश से फसल चौपट हो गई। डकोर के ग्राम काबिलपुरा निवासी राम बिहारी (38) ने भी जहर खाकर जान दे दी। राम बिहारी पर आठ लाख का कर्ज था। चुरकी के ग्राम खाकड़ी निवासी महावीर पुत्र शोभरन सिंह की बर्बाद फसलें देखकर हार्ट अटैक से मौत हो गई। किसानों को उम्मीद बांधने की सख्त जरूरत है और यह काम प्रधानमंत्री से बेहतर और कौन कर सकता था। मोदी की मन की  बात के बेशक अपने रानीतिक स्वार्थ रहे हों, जो भूमि अधिग्रहण कानून के पक्ष में प्रधानमंत्री के स्वरों से झलके भी। लेकिन किसानों के सरोकारों से सीधे संवाद की यह पहल एक अति आवश्यक जरूरत थी, चाहे आप इसे राजनीतिक, सामाजिक या सरकारी किसी भी नजरिये के चश्मे से देखें। तेजी से औद्योगिकीकरण से आज कृषि का महत्व व वर्चस्व घटता जा रहा है। देश की जीडीपी में इसका योगदान अब 20 फीसदी से भी नीचे आ गया है पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आज भी हमारी आधी आबादी इन्हीं खेत-खलिहान की बदौलत अपना पेट भरती है। प्रधानमंत्री की यह पहल इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि अधिकतर राजनेताओं को हमारे अन्नदाताओं की तभी याद आती है जब उन्हें चुनाव में इनकी वोटें चाहिए होती हैं। लेकिन सत्ता की चॉभी हाथों तक पहुंचते ही देश की सबसे बड़ी साधनहीन आबादी को उसकी तकदीर पर छोड़ दिया जाता है कि वह प्रकृति के बदलते तेवरों का मुकाबला नंगे हाथों और खून-पसीने से करें ताकि खुशहाल आबादी तक भोजन-पानी का सामान बेहिचक पहुंचता रहे और खुद हालात से परेशान होकर आत्महत्या करने पर मजबूर हों। महाराष्ट्र में पिछले सात महीनों में किसानों की खुदकुशी के मामले 40 फीसद बढ़ गए हैं। पहले भारी सूखे ने खेतों में खड़ी फसलें जला डालीं और पिछले दिनों आई बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि ने दूसरे दौर की फसलों को भी जमीन पर लिटा दिया। महंगी खाद, बीज, कीटनाशक के बढ़ते खर्चे से हलकान किसान अब भारी कर्ज का बोझ कैसे झेलें यह प्रश्न सबके लिए चिन्ता का विषय होना चाहिए। आधी सदी पहले तक सबसे उत्तम पेशा मानी जाने वाली खेती आज सबसे निकृष्ट और खतरनाक क्यों हो गई है, उपज का लाभकारी मूल्य कैसे समय पर सीधे किसान तक पहुंचे, उपज को सुरक्षित बनाने के लिए आसान और असरदार तरीके से उचित बीमा की व्यवस्था करना सबसे बड़ी चुनौती है। अन्नदाता की इस दुर्दशा पर सभी को चिन्ता होनी चाहिए।

-अनिल नरेन्द्र

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