Friday, 2 February 2018

आफ्सपा हटाने का समय नहीं है

अरसे से अशांत क्षेत्रों में सैन्य विशेषाधिकार कानून (आफ्सपा) का मामला चर्चा का विषय रहा है। दक्षिण कश्मीर के शोपियां जिले में सेना की गोली से दो पत्थरबाजों की मौत और जम्मू-कश्मीर पुलिस द्वारा सेना के जवानों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराने को जो कहा गया उसे देखते हुए सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत ने यह बिल्कुल ठीक कहा कि फिलहाल आफ्सपा पर पुनर्विचार की कहीं कोई आवश्यकता नहीं है। उन्होंने कहा है कि अभी इसका समय नहीं आया। सेना जम्मू-कश्मीर जैसी जगह पर काम करते समय मानवाधिकारों की रक्षा के लिए पर्याप्त सावधानी बरत रही है। जनरल रावत का यह बयान इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि ऐसी खबरें आई थीं कि आफ्सपा को हटाने या कम से कम कुछ प्रावधानों को हल्का करने पर रक्षा और गृह मंत्रालय में कई दौर की उच्च स्तरीय वार्ता हो चुकी है। दरअसल यह कानून सेना को देश के भीतर अशांत क्षेत्रों में तैनाती के दौरान उसकी कार्रवाई पर किसी जांच-पड़ताल या अनुशासनात्मक कार्रवाई से मुक्त करता है। कश्मीर में भी रह-रहकर इस कानून के खिलाफ आवाज उठती रही है। मौजूदा पीडीपी-भाजपा सरकार के दौरान भी कहा गया था कि अशांत क्षेत्रों में सैनिकों की तैनाती कम कर दी जाए। लेकिन पत्थरबाजी की वारदात बढ़ने से यह मामला पीछे चला गया। इस मामले में सेना की यह दलील भी विचार योग्य हो सकती है कि उसे आंतरिक मामलों में तैनाती नहीं दी जानी चाहिए या फिर कुछ विशेषाधिकार जरूर होने चाहिए वरना सैनिकों पर कोई भी अनाप-शनाप आरोप लगा सकता है और इससे बेवजह सैन्य का मनोबल प्रभावित हो सकता है। बेहतर होगा कि भारत सरकार के स्तर पर नए सिरे से स्पष्ट किया जाए कि असहमति, असंतोष अथवा आक्रोश के नाम पर सेना पर पत्थरबाजी की अनदेखी नहीं की जा सकती। पत्थरबाजी और कुछ नहीं एक तरह की कबीलाई मानसिकता से उपजा बर्बर कृत्य है। सेना जब कोई भी आपरेशन करती है तो पीछे से यह पत्थरबाज आतंकियों के भागने में मदद करते हैं। सेना एक साथ आगे-पीछे नहीं लड़ सकती। फिर अगर सेना पर पत्थरों से हमला होता है तो उन्हें क्या अपनी आत्मरक्षा करने का हक नहीं है? मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को यह समझना चाहिए कि सेना और सुरक्षाबलों के संयम की भी एक सीमा है और बात-बात पर अलगाववादियों और उनके उकसावे पर सड़क पर उतरने वाले पत्थरबाजों की हिमायत करने से उन्हें और उनकी सरकार को कुछ हासिल होने वाला नहीं है। बेहतर होगा कि वह सेना की मजबूरी भी समझें।

-अनिल नरेन्द्रa

No comments:

Post a Comment