सीबीआई में छिड़ा महाभारत अब सरकार के हाथ से निकलकर अदालत के हाथ में चला
गया है। छुट्टी पर भेजे गए सीबीआई निदेशक वर्मा और विशेष निदेशक राकेश अस्थाना के बीच
जंग के मामले का भविष्य अब तीन अदालतों में होने वाली कार्यवाही पर टिका है। शुक्रवार
को सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई के दोनों अफसरों के खिलाफ जांच रिपोर्ट
दो सप्ताह में पूरी करके सीवीसी को अदालत में पेश करने का आदेश दिया है व अंतरिम निदेशक
नागेश्वर राव को बड़े फैसले लेने पर भी रोक लगा दी है और जो काम पहले से जारी हैं उन्हीं
पर काम करते रहने की सलाह दी है। अगली सुनवाई दीपावली के बाद अर्थात 12 नवम्बर को होगी। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश से वर्मा को राहत
नहीं मिली है। जिससे दो दिन पहले रात के आदेशों और कई केसों से लेकर 14 अफसरों के तबादलों तक के मामलों की दिशा नहीं बदल सकी है। सरकार को तो जो करना
था वह कर दिया है, अब तो अदालत को तय करना है। हैदराबाद के व्यापारी
सतीश बाबू सना की तरफ से अस्थाना को पांच करोड़ रुपए की रिश्वत लेने के आरोप में जो
एफआईआर सीबीआई ने अपने निदेशक वर्मा के कहने पर लिखी थी, उसे
अस्थाना ने दिल्ली उच्च न्यायालय में चुनौती दी है। जिसकी सुनवाई 29 अक्तूबर को होगी। अदालत ने तब तक यथास्थिति बनाए रखने के आदेश दिए थे यानि
न तो वर्मा उनके खिलाफ कोई कदम उठाएंगे और न ही अस्थाना ही कोई कदम उठाएंगे। सरकार
के मंगलवार आधी रात के आदेश के बाद दोनों में से कोई भी एक-दूसरे
के खिलाफ कोई कदम उठाने की स्थिति में तो नहीं रहा। लेकिन यदि एफआईआर को गलत मंशा से
कायम हुआ मानती है तो अस्थाना की कुर्सी हिल सकती है। साथ ही जनवरी में वर्मा के रिटायर
होने के बाद अस्थाना के सीबीआई निदेशक बनने का रास्ता भी साफ हो जाएगा। वहीं आलोक वर्मा
ने उन्हें पद से हटाए जाने को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। यदि कोर्ट उनके पक्ष
में फैसला करती है तो वे अपने पद पर वापस आ जाएंगे और जनवरी में नियत समय पर रिटायर
होंगे। हालांकि यह अदालत पर निर्भर करता है कि वह कभी भी अस्थाना के खिलाफ जांच की
निगरानी करने का अधिकार देती है या नहीं? सीबीआई डायरेक्टर आलोक
वर्मा ने सात आधार पर अपने आपको पद से हटाने व ट्रांसफर करने, छुट्टी पर भेजने को चुनौती सुप्रीम कोर्ट में दी है। यह सात आधार हैंöपहला, आलोक वर्मा ने दलील दी कि उन्हें हटाना डीपीएसई
एक्ट की धारा 4बी का उल्लंघन है। डायरेक्टर का कार्यकाल दो साल
तय है। दूसरा, प्रधानमंत्री, नेता विपक्ष
और सीजेआई की कमेटी ही डायरेक्टर को नियुक्त कर सकती है, वही
हटा सकती है। इसलिए सरकार ने कानून से बाहर जाकर निर्णय लिया है। तीसरा, कोर्ट ने बार-बार कहा है कि सीबीआई को सरकार से अलग करना
चाहिए। डीओपीटी का कंट्रोल एजेंसी के काम में बाधा है। चौथा, जांच में कोई भी हस्तक्षेप न केवल एजेंसी की स्वतंत्रता खत्म करेगा,
बल्कि अधिकारियों का मनोबल भी तोड़ेगा। पांचवां, सीबीआई में पैदा इस संकट की वजह से कई संवेदनशील मामले उठे हैं। कोर्ट में
उनका ब्यौरा भी पेश कर सकता हूं। कुछ मामलों में तो खुद सुप्रीम कोर्ट मॉनिटरिंग कर
रहा है। छठा, सरकारी दखल कहीं लिखित में नहीं मिलेगा। लेकिन यह
होता है इसका सामना करने के लिए साहस की जरूरत होती है। सातवां, हाई पॉवर्ड कमेटी के जरिये सीबीआई को सरकारी दखल से अलग करना चाहिए। सीबीआई
में नम्बर वन और टू के टकराव को लेकर सीवीसी की भूमिका पर भी सवाल उठ रहे हैं। एक रिटायर्ड
अफसर ने कहा कि वर्मा ने अस्थाना के बारे में गत जुलाई-अगस्त
में शिकायत की थी। दोनों टॉप अफसरों के बीच बढ़ते टकराव और शिकायतों पर जरूरी कदम समय
रहते नहीं उठाए गए। मंगलवार को तब गतिविधियां बढ़ीं जब वर्मा ने अस्थाना से सभी काम
छीन लेने का फैसला किया। जानकार मानते हैं कि अदालत में सुनवाई के दौरान सीवीसी की
भूमिका और सरकार के फैसले पर सवाल खड़े किए जा सकते हैं। अब सीबीआई, सरकार और आलोक वर्मा, राकेश अस्थाना की साख के सवाल अदालतों
में टिके हैं। हालांकि केंद्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली का कहना है कि सीवीसी को सीबीआई
की जांच का अधिकार है। सीवीसी के पास दोनों अफसरों पर लगे आरोपों से जुड़े तथ्य हैं।
सीवीसी की निगरानी में ही पूरे मामले की जांच होगी। अब तो इन सारे सवालों के जवाब सुप्रीम
कोर्ट को तय करने हैं। देखते हैं कि सुप्रीम कोर्ट इनका जवाब तय करता है या महज लीपापोती
करके मामले को रफा-दफा करने की कोशिश करता है?
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