लोकसभा
चुनाव के लिए सभी पार्टियां अपने प्रत्याशियों के नाम पर अंतिम मुहर लगाने में जुटी
हैं। सभी छोटी-बड़ी पार्टियां
अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार गठबंधनों और महागठबंधनों में जुगाड़
भिड़ाने में लगी हैं। सभी गठबंधनों में सहयोगी सौदेबाजी में व्यस्त रहे। शनिवार के
दिन बिहार में जहां एनडीए गठबंधन की तीनों पार्टियां भाजपा, जदयू
और लोजपा ने अपने-अपने प्रत्याशियों के नामों की घोषणा कर दी
वहीं लालू प्रसाद के नेतृत्व वाली राजद की अगुआई में बने महागठबंधन ने सीटों के बंटवारे
को अंतिम रूप दे दिया।
बिहार
की 40 सीटों में राजद ने अपने पास
20 रखी बाकी 20 सीटें उसने अपने सहयोगी पार्टियों
में बांट दी। कांग्रेस को 9, उपेन्द्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक
समता पार्टी को 5, जीतन राम मांझी की हिन्दुस्तान अवाम पार्टी
(हम) को 3 और मुकेश
सहनी की विकासशील इंसाफ पार्टी को 3 सीटें दीं।
एनडीए
में भाजपा जिसने बिहार में 2014 में
22 सीटें अकेले जीत कर वह सबसे बड़ी पार्टी बनी थी उसने जदयू और लोजपा
के साथ समझौता करके खुद को 17 सीटें, जदयू
को 17 सीटें और लोजपा को 6 सीटें दी हैं,
भाजपा ने संकेत दिया था समझौते में खोना पड़ता है। यही कारण है कि भाजपा
जिन सीटों पर जीती हुई थी। उनमें से भी 5 सीटें खाली कर सहयोगियों
को दे दी इसका परिणाम यह हुआ कि उसे अपने वरिष्ठ नेताओं की सीटें बदलने पर मजबूर होना
पड़ा। चूंकि पार्टी सिर्प 17 सीटों पर ही चुनाव लड़ रही है इसलिए
उसे अपने शीर्ष नेताओं को भी सीट देने में मुश्किल हुई। 2014 में भाजपा ने कुल 30 सीटों पर चुनाव लड़ा था। उस वक्त
कुछ बड़े नेता चुनाव हार गए थे। इनमें प्रमुख नाम शाहनवाज हुसैन का है। पार्टी के लिए
मुश्किल है कि वह जीते हुए पांच नेताओं को तो सीटें दे नहीं पा रही है अब हारे हुए
नेताओं को कौन-सी सीटें दे।
लालू
के महागठबंधन में भी यही हुआ। अपने स्थापना काल से लेकर 2014 के चुनाव तक राजद ने कभी भी इतनी
कम सीटों पर चुनाव नहीं लड़ा था। यह पहला अवसर है जब उसने आधी सीटें अपनी सहयोगी पार्टियों
के लिए छोड़ी हैं। लालू ने जिस तरह अपने छोटे सहयोगियों को सीटें बांटने में सदाशयता
दिखाई है इसकी चर्चा स्वाभाविक है क्योंकि जो पार्टियां लालू के साथ गठबंधन में शामिल
हैं उनमें कांग्रेस को छोड़कर कोई भी पार्टी ऐसी नहीं है जिसका कोई खास प्रभाव हो।
पश्चिम
बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस अकेले लड़ रही हैं जबकि वाममोर्चा और कांग्रेस
में भी बात नहीं बनी इसलिए सभी अलग-अलग ही लड़ रहे हैं। ममता की राजनीति स्पष्ट है। वे पश्चिम बंगाल के मुस्लिम
वोटरों पर अपना एकाधिकार मानती हैं। इसलिए कांग्रेस के साथ किसी तरह का गठबंधन नहीं
चाहतीं। कांग्रेस वाममोर्चे से गठबंधन जरूर करना चाहती थी किन्तु स्थानीय कांग्रेस
नेता लाल झंडे के साथ लड़ने के लिए तैयार नहीं थे। ममता को उम्मीद है कि उनकी सीटें
ज्यादा आएंगी तो वे केंद्र में गठबंधन की सरकार में अहम भूमिका निभा सकेंगी। किन्तु
साथ वे यह भी चाहती हैं कि कांग्रेस व भाजपा की भी सीटें कम हों या वे एक भी सीट न
जीत पाएं।
उत्तर
प्रदेश की स्थिति लगभग स्पष्ट हो गई है। सपा-बसपा और आरएलडी ने अपने गठबंधन से कांग्रेस को बाहर रखा है। इसलिए कांग्रेस
सभी 80 सीटों पर लड़ने के लिए स्वतंत्र है। गठबंधन को डर है कि
कांग्रेस उसके मुस्लिम वोट काटेगी जबकि भाजपा विरोधी सवर्ण वोट जो सपा-बसपा को मिल सकते थे, कांग्रेस उसमें भी सेंध लगाएगी,
यही कारण है कि अब सपा-बसपा की तल्खी कांग्रेस
के खिलाफ बढ़नी शुरू हो गई है।
बहरहाल
गठबंधन वाले राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों ने अपनी सीटें बढ़ाने के लिए राष्ट्रीय
पार्टियों से गठबंधन किया है। उनको अपने अस्तित्व एवं प्रासंगिकता की चिन्ता है जबकि
राष्ट्रीय पार्टियों के लिए केंद्र में सत्ता प्राप्त करने का लक्ष्य है। क्षेत्रीय
पार्टियां जानती हैं कि यदि उनकी सीटें कम रह गईं तो उनकी सहयोगी राष्ट्रीय पार्टी
उनको महत्व नहीं देगी। लालू प्रसाद के साथ यही तो हुआ था। 2004 में 24 सीट
लेकर आए राजद के नेता को रेल मंत्रालय, उनके साथी रघुवंश प्रसाद
को ग्रामीण विकास मंत्रालय और प्रेम चन्द गुप्ता को कारपोरेट मंत्रालय तथा राज्य मंत्रालय
भी मिले किन्तु 2009 में जब लालू 4 सीट
पर आ गए तो उन्हें मंत्रिपरिषद में अकेले भी जगह नहीं मिली। अलग-अलग राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियां अपने-अपने जातीय
जनाधार के आधार पर चुनाव लड़ती हैं जबकि राष्ट्रीय पार्टियां मुद्दों और नारों पर ज्यादा
बल देती हैं। देश की सभी राजनीतिक पार्टियां चाहे वे राष्ट्रीय हों या क्षेत्रीय अपने
अनुसार मुद्दे और नारे गढ़ने की कोशिश करती हैं किन्तु कौन-सा
नारा कब फिट हो जाए और कब बेकार साबित हो यह प्रभावशाली नेतृत्व पर निर्भर करता है।
1960 के दशक में कम्युनिस्ट पार्टियां, भारतीय
जनसंघ और सोशलिस्ट पार्टियां कई राज्यों में संविद सरकारें चला रही थीं। सभी ने
1971 के आम चुनाव में नारा दिया कि देश में बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, महंगाई और गरीबी के लिए कांग्रेस ही जिम्मेदार
है इसे सत्ता से बाहर करना होगा। सभी पार्टियां अपने-अपने स्तर
पर गठबंधन करके चुनाव लड़ रही थीं। किन्तु इंदिरा जी ने नारा दिया कि `मैं गरीबी हटाना चाहती हूं और विपक्ष मुझे हटाना चाहता है।' उनका एक ही नारा था `गरीबी हटाओ।' देश की जनता ने इंदिरा जी के गरीबी हटाओ के नारे पर भरोसा किया और सारे विपक्षी
सिमट गए। समय का चक्र देखिए 1976 में फिर इंदिरा जी ने गरीबी
हटाओ की बात की किन्तु जनता ने विपक्ष के इस नारे पर ज्यादा भरोसा किया कि `बेटा कार बनाता है मां बेकार बनाती है।' इस बार इंदिरा
जी का गरीबी हटाओ का नारा नहीं चला।
आज
भी यही हो रहा है कि विपक्ष का कोई संयुक्त घोषणा पत्र नहीं, कोई सर्वमान्य नेता नहीं, कोई न्यूनतम साझा कार्यक्रम नहीं, उसका एक ही नारा और
लक्ष्य है मोदी हराओ। इसलिए वह अपने मतभेदों को भुलाकर इस उम्मीद से गठबंधन कर रहे
हैं कि वे भाजपा और एनडीए की सीटों को कम करने में सफल होंगे। भाजपा मानती है कि उसके
नेता पर भ्रष्टाचार का आरोप नहीं है इसलिए विपक्ष उनके नेता को जितना गालियां देगा
उसके समर्थन में उतनी ही वृद्धि होगी। भाजपा का नारा `मोदी है
तो मुमकिन है' की चाहे जितनी आलोचना करे विपक्ष किन्तु जब तक
तार्पिक आधार पर जनता को सहमत नहीं कर पाएगी तब तक वह इस नारे को निष्फल भी नहीं कर
पाएगी। बालाकोट एयर स्ट्राइक पर अंड बंड बोलने वाले विपक्षी नेताओं की समझ में यह बात
आनी चाहिए कि वे अपने खिलाफ भाजपा को हथियार थमा रहे हैं।
बहरहाल सत्तापक्ष और विपक्ष 2019 के लिए हर तरह के तरीके अपना रहे
हैं कौन कहां किस पर भारी पड़ता है इसका फैसला 23 मई को ही होगा
लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान नेताओं द्वारा मतदाताओं को समझाने-बुझाने और भ्रमित करने का सिलसिला चलता रहेगा। लेकिन सच यही है कि गठबंधनों
के बावजूद मोदी के खिलाफ विपक्ष का कोई सर्वमान्य चेहरा घोषित नहीं है।