Tuesday 20 August 2019

मंदी की मार से प्रभावित हमारी अर्थव्यवस्था

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वित्त वर्ष 2024-25 तक भारत को पांच अरब अमेरिकी डॉलर वाली अर्थव्यवस्था बनाने का जो लक्ष्य रखा है वह काफी चुनौतीपूर्ण है। इस वक्त भारत की अर्थव्यवस्था करीब 2.7 अरब अमेरिकी डॉलर की है। मौजूदा स्थिति तो बहुत उत्साहजनक नहीं मानी जा सकती। भारत मंदी के दौर से गुजर रहा है। आर्थिक सर्वे का अनुमान है कि प्रधानमंत्री मोदी के तय किए गए लक्ष्य तक पहुंचने के लिए देश की जीडीपी को हर साल आठ प्रतिशत की दर से बढ़ना होगा। इस लक्ष्य के बरक्स, देश की अर्थव्यवस्था में तरक्की की रफ्तार धीमी हो गई है। ऐसा पिछले तीन साल से हो रहा है। उद्योगों के बहुत से सैक्टर में विकास की दर कई साल में सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई है। देश की अर्थव्यवस्था की सेहत कैसी है, इसका अंदाजा हम इन पांच संकेतों से लगा सकते हैं। पहला जीडीपी (विकास दर) देश के घरेलू सकल उत्पाद यानि जीडीपी में पिछले तीन वित्तीय वर्षों से लगातार गिरावट आ रही है। 2016-17 में जीडीपी विकास दर 8.2 प्रतिशत प्रति वर्ष थी, तो 2017-18 में घटकर 7.2 प्रतिशत रह गई। वर्ष 2018-19 में यह और गिरकर 6.8 प्रतिशत हो गई। ताजा आधिकारिक आंकड़ों पर यकीन करें तो वर्ष 2019 की जनवरी से मार्च की तिमाही में जीडीपी विकास दर 5.8 प्रतिशत ही रह गई, जो पिछले पांच साल में सबसे कम है। केवल तीन साल में विकास दर की रफ्तार में 1.5 प्रतिशत की कमी बहुत बड़ी कमी है। जीडीपी की विकास दर घटने से लोगों की आमदनी, खपत, बचत और निवेश सब पर असर पड़ रहा है। विकास दर घटने से लोगों की आमदनी पर बुरा असर पड़ा है। मजबूरन लोगों को अपने खर्चों में कटौती करनी पड़ रही है। ग्राहकों की खरीददारी के उत्साह में कमी का बड़ा असर ऑटो उद्योग पर पड़ा है। जून 2019 के मुकाबले सबसे बड़ी कार कंपनी मारुति की बिक्री 16.68 प्रतिशत तक गिरी है। दोपहिया वाहन हीरो मोटर कोर्प की बिक्री 12.45 प्रतिशत गिरी। यह निजी कंपनियों के आंकड़े हैं। बिक्री में गिरावट से निपटने के लिए गाड़ियों के खुदरा बिकेता अपने यहां नौकरियों में कटौती कर रहे हैं। देशभर में ऑटोमोबाइल डीलर्स ने पिछले तीन महीने में ही दो लाख नौकरियां घटाई हैं। यह आंकड़े फेडरेशन ऑफ ऑटोमोबाइल डीलर्स एसोसिएशन के हैं। नौकरियों में यह कटौती, ऑटो उद्योग में की गई उस कटौती से अलग है, जब अप्रैल 2019 से पहले 18 महीनों के दौरान देश के 271 शहरों में गाड़ियों के 286 शोरूम बंद हुए थे। इसकी वजह से 32,000 लोगों की नौकरियां चली गईं। खपत की कमी की वजह से टाटा मोटर्स जैसी कंपनी को अपनी गाड़ियों के निर्माण में कटौती करनी पड़ी है। इसका नतीजा यह हुआ कि कलपुर्जों और दूसरे तरीके से ऑटो सैक्टर से जुड़े हुए लोगों पर भी बुरा असर पड़ा है। जैसे कि जमशेदपुर और आसपास के इलाकों में 30 स्टील कंपनियां बंदी की कगार पर खड़ी हैं। जबकि एक दर्जन के करीब कंपनियां तो पहले ही बंद हो चुकी हैं। अर्थव्यवस्था का विकास धीमा होने का रियल एस्टेट सैक्टर पर भी सीधा असर हो रहा है। बिल्डरों का आकलन है कि इस वक्त देश के 30 बड़े शहरों में 12.76 लाख मकान बिकने को पड़े हैं। इसका मतलब है कि इन शहरों में जो मकान बिकने को तैयार हैं उनका कोई खरीददार नहीं है। आमदनी बढ़ नहीं रही, बचत की रकम बिना बिके मकानों में फंसी हुई है और अर्थव्यवस्था की दूसरी परेशानियों की वजह से घरेलू बचत पर भी बुरा असर पड़ रहा है। घरेलू बचत की जो रकम बैंकों के पास जमा होती है, उसे ही वो कारोबारियों को कर्ज पर देते हैं। जब भी बचत में गिरावट आती है बैंकों के कर्ज देने की विकास दर भी घट जाती है। आज सरकारी बैंकों की हालत खस्ता है। उनके पास लोन देने के लिए पैसा ही नहीं है। आमतौर पर जब घरेलू बाजार में खपत कम हो जाती है तो भारतीय उद्योगपति अपना सामान निर्यात करने और विदेश में माल का बाजार तलाशते हैं। लेकिन आज स्थिति यह है कि विदेशी बाजार में भी भारतीय सामान के खरीददारों का विकल्प बहुत सीमित हो गया है। पिछले दो साल से जीडीपी की विकास दर में निर्यात का योगदान घटता जा रहा है। मई महीने में निर्यात की विकास दर 3.9 प्रतिशत थी। लेकिन इस साल जून में निर्यात में (ö) 9.7 प्रतिशत गिरावट आई है। यह चार महीनों में सबसे कम निर्यात दर है। अगर अर्थव्यवस्था पर संकट के बादल हों तो इसका सीधा असर विदेशी निवेश पर भी पड़ता है। अप्रैल 2019 में भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश 7.3 अरब डॉलर था। लेकिन मई महीने में यह घटकर 5.1 अरब डॉलर ही रह गया है। मोदी सरकार के पहले कार्यकाल का शानदार आगाज हुआ था। लेकिन जल्द ही वो दिशाहीन हो गया। अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक बदलावों के जिस ब्लूप्रिंट की घोषणा हुई थी, उसे 2015 के आखिर में ही त्याग दिया गया। श्रमिक, जमीन से जुड़े कानूनों में बदलाव अधूरे हैं। कृषि क्षेत्र के विकास दर की कमी से निपटने के लिए मेक इन इंडिया की शुरुआत की गई थी, लेकिन उसका हाल भी बुरा है। नोटबंदी, जीएसटी को हड़बड़ी से उठाए गए कदमों का सीधा असर अर्थव्यवस्था पर पड़ा है। टैक्स सुधारों की जो उम्मीद थी वह इस साल के बजट में कोई इरादा नजर नहीं आया। वित्त मंत्रालय के अधिकारियों द्वारा पीएम कार्यालय को बार-बार आगाह किए जाने के बावजूद मनमोहन सरकार से विरासत में मिली देश की बदहाल बैंकिंग और वित्तीय व्यवस्था की कमियों को दूर करने की नीतियां बनाने पर कोई ध्यान नहीं दिया गया? पिछले कई दशकों में ऐसा पहली बार है जब वित्त मंत्रालय में ऐसा कोई आईएएस अधिकारी नहीं है, जिसके पास अर्थशास्त्र में पीएचडी की डिग्री हो और जो अर्थव्यवस्था की बढ़ती चुनौतियों से निपटने के लिए सरकारी नीतियां बनाने में मदद कर सके।

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