Friday 26 June 2020

सस्ते का मोह छोड़ना होगा तभी ड्रैगन से लड़ पाएंगे

इस समय पूरे देश में चीन को आर्थिक आघात पहुंचाने की मांग और सोच जोर पकड़ चुकी है। हालांकि पिछले काफी समय से सोशल मीडिया पर चीनी वस्तुओं के बहिष्कार की मांग चल रही थी पर जोर इसने तब पकड़ा जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बुधवार को कहा कि सैनिकों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। उसी बात को आगे बढ़ाते हुए सरकारी मशीनरी आर्थिक मोर्चे पर चीन की घेराबंदी करने में जुट गई है। रेल मंत्रालय और संचार मंत्रालय ने दो बड़े कदम उठा दिए हैं। अब शहरी विकास मंत्रालय का नम्बर है, जो दिल्ली से मेरठ के बीच बन रहे एमआरपीसी परियोजना का ठेका चीनी कंपनियों को दिए जाने को चीनी उपकरण हटाने के निर्देश दिए हैं। बेशक आज पूरे देश में चीनी उत्पादों के बहिष्कार की मांग उठ रही है पर व्यावहारिक रूप से भारत किस हद तक चीनी प्रॉडक्ट्स को पूरी तरह दरवाजा दिखाने की क्या स्थिति में है? चीन से गहन आर्थिक रिश्तों के मद्देनजर चीनी उत्पादों का पूरी तरह बहिष्कार करना उतना आसान नहीं। इस पड़ोसी देश से कारोबारी रिश्ते पूरी तरह समाप्त करने में कुछ मुश्किलें हैं। भारत की सबसे ज्यादा निर्भरता इलैक्ट्रॉनिक मशीनरी पर है। साल 2019 में देश में कुछ इलैक्ट्रिकल उत्पादों का 34 प्रतिशत हिस्सा चीन से आया। भारत वहां से राडारों के लिए ट्रांसमिशन उपकरण, टीवी, कैमरा, माइक्रोफोन, हैंड फोन, लाउडस्पीकर समेत ढेरों चीजें खरीदता है। चीन की मोबाइल निर्माता कंपनी श्यामो भी भारत में नम्बर वन पर है। यह तो भारत में इतनी लोकप्रिय है कि इसने एक-चौथाई से अधिक बाजार पर कब्जा किया हुआ है। भारत ने पिछले साल अपनी फर्टिलाइजर इम्पोर्ट का दो प्रतिशत हिस्सा पड़ोसी देश चीन से आयात किया था। भारत फर्टिलाइजर में इस्तेमाल होने वाला एक अहम तत्व डायमोनियम फॉस्फेट चीन से लेता है। यूरिया को भी चीन से खरीदना पड़ता है। पिछले साल भारत ने 13.87 अरब डॉलर (10 खरब, 58 अरब रुपए से ज्यादा) के मूल्य के न्यूक्लियर रिएक्ट और बायलर्स चीन से मंगाए। मेडिकल इक्विपमेंट की जहां तक बात है पिछले साल मेडिकल इक्विपमेंट के कुल आयात का दो प्रतिशत चीन से आया। भारत पड़ोसी देश पर पीपीई, वेंटिलेटर्स, एन-95 मास्क तथा दूसरे मेडिकल किट के लिए निर्भर है। हालांकि अब पीपीई किट और मास्क का उत्पादन देश में जोरों से शुरू हो चुका है। ऑटो पार्ट्स के कुछ इम्पोर्ट का दो प्रतिशत भाग पिछले साल चीन से आया। भारत में भी बनने वाली कारों के कई हिस्से चीन से ही इम्पोर्ट होते हैं। ड्राइव ट्रांसमिशन, स्टीयरिंग, इलैक्ट्रिकल्स, इंटीरियर्स, ब्रेक सिस्टम और इंजन के पार्ट्स चीनी कंपनियां सप्लाई करती हैं। भारत से चीन को निर्यात होने वाला आधा सामान कच्चा माल होता है। वहीं चीन से आयातित अधिकांश सामान विर्निमित होता है। कुछ उत्पाद तो ऐसे हैं, जिनका कच्चा माल चीन हमसे मंगवाकर उनसे बने उत्पाद हमें ही बेचता है। मसलन पिछले साल करीब 3000 करोड़ रुपए का लोहा व स्टील भारत ने चीन से मंगवाया और बदले में स्टील से बने हजार करोड़ रुपए के उत्पाद निर्यात किए। चीन द्वारा निर्यात की जाने वाली शीर्ष 10 वस्तुओं में से नौ भारत के कच्चे माल से बनी होती हैं। भारत दवा निर्यात में शीर्ष देशों में से एक है। लेकिन कच्चे माल के लिए चीन पर भारत निर्भर है। भारत में दवा निर्माता कंपनियां 70 प्रतिशत एपीआई यानि एक्टिव फार्मास्युटिकल इंग्रेडिएंट्स चीन से मंगाती है। 2018-19 में 240 करोड़ रुपए के एपीआई चीन से आयात हुए। 75 प्रतिशत एंटीबायोटिक्स बाजार में चीन का कब्जा है। हमसे कच्चा माल मंगाकर हमें ही महंगे उत्पाद बेचता है। जब-जब चीन के साथ भारत का गतिरोध बढ़ता है तो चीनी सामानों के बहिष्कार का माहौल बनने लगता है। लेकिन हकीकत में सस्ते श्रम और व्यापक स्तर पर विनिर्माण के बूते चीन ने सुनियोजित ढंग से दुनियाभर के बाजारों में कम कीमतों के उत्पादों से कब्जा जमाया है। यही वजह है कि जिन देशों में ड्रैगन ने पांव पसारे, वहां स्थानीय कंपनियों को मुकाबले से बाहर कर दिया। बाजार विश्लेषकों का कहना है कि इसमें कोई दो राय नहीं है कि हम चीन से निर्भरता खत्म कर आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ सकते हैं। लेकिन इसमें लंबा वक्त लगेगा। सरकार को दृढ़ शक्ति का प्रदर्शन करना होगा और तमाम दवाबों के बावजूद आत्मनिर्भर नीति पर चलने के लिए नीतियों में संशोधन करना होगा और भारतीय उपभोक्ताओं को सस्ते का मोह भी छोड़ना होगा।

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