प्रधानमंत्री
नरेन्द्र मोदी की अमेरिका यात्रा सफल रही। यह कई मायनों में महत्वपूर्ण साबित होगी।
मोदी की और अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा की व्यक्तिगत कैमिस्ट्री देखने लायक थी।
मोदी में यह काबलियत है कि वह दूसरे व्यक्ति को मोह लेते हैं। जिस ढंग से मोदी-ओबामा की मुलाकात हुई उससे भारत और अमेरिका
के रिश्तों में बड़ा परिवर्तन देखने को मिल सकता है। आज तक अमेरिका भारत की उपेक्षा
कर पाकिस्तान को प्राथमिकता देता रहा। अमेरिका की आतंक की परिभाषा भी भारत से अलग थी।
मोदी पहले भारतीय प्रधानमंत्री थे जिन्होंने अमेरिका को यह समझाने में सफलता पाई कि
आतंकवाद आतंकवाद होता है, वह गुड आतंकवाद और बैड आतंकवाद की श्रेणी
में नहीं बांटा जा सकता। मोदी ने यह भी ओबामा से मनवा लिया कि आतंकवाद की जड़ पाकिस्तान
है और पाकिस्तान में पल रहे यह जेहादी आतंकी संगठन हैं, तभी तो
लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद, दाऊद एंड कंपनी को चिन्हित
किया गया। अब तक तो अमेरिका की नजरों में वह आतंकवाद था जो अमेरिका के खिलाफ था,
उसे भारत किस दौर से गुजर रहा है इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी। पहली बार
मोदी ने ओबामा से आतंकवाद की परिभाषा बदलवाई। संकट के दौर से कैसे गुजरें इसका एक नायाब
नमूना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की इस अमेरिकी यात्रा में दिखा है। अमेरिकी उद्योग
और व्यापार जगत की शीर्ष हस्तियों को वह यकीन दिलाने में सफल रहे कि कोयला घोटाले पर
सुप्रीम कोर्ट के फैसले से मिले सबक का इस्तेमाल भारत की अर्थव्यवस्था को जीवंत बनाने
में किया जाएगा। मोदी और बराक ओबामा की मुलाकात के बाद दोनों देशों की पक्की दोस्ती
करने और महत्वपूर्ण मुद्दों पर सहयोग के लिए प्रतिबद्धता की झलक जारी दृष्टिपत्र और
साथ ही एक संयुक्त लेख से मिलती है। अमेरिकी राष्ट्रपति और भारतीय प्रधानमंत्री ने
साथ-साथ चलने की जो हामी भरी उसे ज्यादा अच्छे से बयान करने का
काम करेंगे दोनों देशों के बीच हुए समझौते। मोदी-ओबामा मुलाकात
इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि भारत और अमेरिका के रिश्तों में पिछले कुछ सालों से एक ठहराव-सा आ गया था। संप्रग-एक के दौरान रिश्तों में जैसी गतिशीलता
और गर्मजोशी थी वह उसके दूसरे कार्यकाल में नहीं रही। देवयानी खोबरागड़े के मामले में
रिश्ते जिस तरह से खराब होते गए, वह इस दौर में आए ठहराव का प्रमाण
थे। दोनों देश एक-दूसरे से दूर खिंचते गए और दोनों सरकारों ने
रिश्ते सुधारने की जरूरत नहीं समझी। हालांकि हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं,
इसकी एक वजह तो यह थी कि भारत अमेरिका की प्राथमिकताओं में नहीं था।
मोदी की इस यात्रा ने यह बदला है और इस मुलाकात से ठंडे पड़े रिश्तों में नई गतिशीलता
आएगी। निसंदेह ओबामा और मोदी की इस पहली मुलाकात में ही सभी क्षेत्रों में सहयोग का
आधार पुष्ट होने वाला नहीं था, लेकिन इसकी अपेक्षा अवश्य की जाती
है कि दोनों देश एक-दूसरे के प्रति भरोसे के उस अभाव को दूर करने
में सक्षम हों जो पिछले चार-पांच सालों में रह-रहकर नजर आया है। इस अभाव के चलते दोनों देशों में दूरियां बढ़ीं और अविश्वास
भी पैदा हुआ। अमेरिका वही देश है जिसने पिछले कई वर्षों से मोदी को वीजा तक देने से
इंकार करता रहा। आज भारत और नरेन्द्र मोदी के प्रति अगर अमेरिकी रुख बदला है तो यह
श्रेय नरेन्द्र मोदी को और अमेरिका में बसे भारतीय मूल के लोगों को जाता है। न्यूयार्प
के मैडिसन स्क्वायर में जमा भारतीय मूल के हजारों अमेरिकी नागरिकों को रिझाने के बाद
भारतीय प्रधानमंत्री ने सेल्समैन की अपनी सुपरिचित भूमिका में उतरने में जरा भी देरी
नहीं की और अमेरिका के शीर्ष उद्योगपतियों को निवेश के लिए रिझाने में कोई कसर नहीं
छोड़ी। मोदी की ओबामा से मुलाकात के बाद जमा विश्वास यकीनन हमारे लिए भविष्य का अच्छा
संकेत है। मोदी ने गहराई से इनकी समस्याएं सुनीं और यकीन दिलाया कि वापसी के बाद वह
प्राथमिकता के आधार पर इनका समाधान निकालेंगे। कुछ घोषणाएं तो उन्होंने मौके पर ही
कर दीं। कोयला खदानों का आवंटन रद्द होने से विदेशी निवेशकों में भारत के औद्योगिक
माहौल को लेकर अनिश्चितता-सी बन गई थी। अब मोदी ने उन्हें जिस
प्रकार समाधान का आश्वासन दिया है उससे भारत में निवेश को लेकर उनमें नया विश्वास जगता
दिखाई दिया है। यह विचित्र है कि अमेरिका ने एक ओर तो आतंकवाद के खिलाफ अभियान की अगुवाई
की और दूसरी ओर ऐसा करते समय उन आतंकी गतिविधियों की अनदेखी भी की जो भारत के लिए खतरा
बनी हुई हैं। अमेरिका यह अच्छी तरह जानता है कि भारत के पड़ोस अर्थात पाकिस्तान में
किस तरह उन तत्वों को हर स्तर पर सहयोग, समर्थन और संरक्षण दिया
जा रहा है जो भारतीय हितों के लिए खतरा बने हुए हैं, लेकिन वह
इस्लामाबाद पर वांछित दबाव बनाने के लिए तैयार नहीं होता। उसने सिर्प अफगानिस्तान में
अपने हितों की परवाह की और अब तो वह इस देश के भविष्य की चिन्ता किए बिना वहां से जल्दी
से जल्दी अपनी सेनाएं समेटने की कोशिश में है। एक महत्वपूर्ण पहलू इसका यह भी हो सकता
है कि चूंकि अब अमेरिका अफगानिस्तान से हट रहा है, इसलिए उसकी
पाकिस्तान पर भी निर्भरता
कम होगी। मोदी ने बेलाग शब्दों में अमेरिका को समझा दिया कि आतंक का समूल नाश तभी हो
सकता है जब पूरी दुनिया की इसमें भागीदारी हो। पाक को आतंक के खिलाफ सहयोगी बताने वाला
अमेरिका उसके भारत विरोधी कृत्यों से जिस प्रकार आंखें बंद कर लेता है उस पर मोदी ने
सीधी चोट की है। अफगानिस्तान पर भी मोदी की सलाह दूरदर्शिता से भरी है जिस पर अमेरिका
को गंभीरता से सोचना होगा। अफरातफरी में वहां से सेना निकालकर अमेरिका पाकिस्तानी फौज
और दहशतगर्दों के लिए मैदान खुला छोड़ देगा। यही गलती वह इराक में भी कर चुका है जिसका
खामियाजा अब दुनिया को भुगतना पड़ रहा है। मोदी की इस सफल अमेरिकी यात्रा का चीन पर
भी सीधा असर पड़ेगा। अगले कुछ सालों में व्यापार और उद्योग के क्षेत्र में सहयोग काफी
रहेगा। कुल मिलाकर मोदी की यह अमेरिकी यात्रा सफल रही।
-अनिल नरेन्द्र
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