Sunday 26 October 2014

दीवाली के दिन कश्मीर यात्रा मोदी का मास्टर स्ट्रोक

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के व्यक्तित्व और विचारधारा को लेकर कितनी भी भ्रांतियां हों, सत्य-असत्य अवधारणाएं देश और दुनिया में फैली हुई हैं कि किसी सामान्य निष्कर्ष पर पहुंचना कठिन है किन्तु यह तो मानना ही होगा कि उनके व्यक्तित्व और कार्यशैली जनता को अपना मुरीद बना लेती हैं और यह उनकी मानवता है, इसी मानवीयता का एक उदाहरण हमें दीवाली के दिन जब सारा देश अपने-अपने घरों को सजाने में और दीप जलाकर उजाला कर रहा था नरेन्द्र मोदी कश्मीर के  बाढ़ और आपदा पीड़ितों के साथ कुछ समय बिताकर उनकी पीड़ा पर मरहम लगा रहे थे। झेलम में आई बाढ़ के बाद यह दूसरा मौका है जब प्रधानमंत्री खुद राज्य में मौजूद थे और समाज के विभिन्न वर्गों से मिलकर उनकी जरूरतों का जायजा ले रहे थे। बाढ़ के वक्त वहां लोगों के बीच राज्य सरकार की मौजूदगी ही करीब दो हफ्तों के लिए जिस प्रकार गायब हो गई थी उसमें अगर केंद्र सरकार और सेना ऐन वक्त पर मदद में नहीं कूदती तो पता नहीं क्या हो जाता। मोदी ने दीवाली का दिन शायद इसलिए चुना होगा कि तबाही के अंधेरे में डूबे दिलों में उम्मीद का दीया जल जाए। 11 साल पहले भी उन्होंने यही किया था, बस जगह और हादसे में फर्प था। भूकंप के कहर से तबाह गुजरात में उन दिनों मोदी मुख्यमंत्री थे और हादसे के साल आई दीवाली उन्होंने पूरी तरह तबाह हो चुके भुज के पीड़ितों के साथ मनाई थी। दीवाली पर कश्मीर के  बाढ़ और आपदा पीड़ितों के  बीच रहने से प्रधानमंत्री ने एक तीर से कई निशाने साध लिए हैं। उनके इस मास्टर स्ट्रोक से विरोधी दल भी उवाक हैं। वे विरोध के लिए भी कोई ठोस आधार नहीं खोज पा रहे हैं। कश्मीर के दोनों बड़े दलों नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी ने मोदी के कदम का स्वागत किया है। हुर्रियत ने विरोध करते हुए आम हड़ताल की घोषणा पर अनजाने में मोदी के मिशन कश्मीर को ही मजबूत किया है। उधर मोदी के आने का ऐलान होते ही पाकिस्तान ने सीज फायर का उल्लंघन कर कश्मीर मुद्दे के अंतर्राष्ट्रीयकरण की फिर से कोशिश की है। मोदी का यह ऐलान अचानक सामने जरूर आया लेकिन यह भाजपा के मिशन-44 के तहत अपनाई गई सोची-समझी रणनीति है। महाराष्ट्र और हरियाणा में जीत के बाद अब भाजपा के एजेंडे में झारखंड और जम्मू-कश्मीर सबसे ऊपर है, जहां दिसम्बर-जनवरी में चुनाव होने वाले हैं। बाढ़ पीड़ितों के दर्द को अपना मानते हुए मोदी ने इस बार अपना जन्म दिन नहीं मनाया। इससे पहले बाढ़ के आते ही वह तुरन्त कश्मीर आए और एक हजार करोड़ रुपए की मदद की पहली किश्त का ऐलान भी कर आए। मोदी द्वारा यह साफ करना कि पीड़ितों के नुकसान का आंकलन करके जो मुआवजा या आर्थिक मदद होगी वह सीधे पीड़ितों के बैंक खातों में जाएगी, एक नया और सराहनीय कदम है। बेहतर है कि भाषणों में कश्मीर की अखंडता की गरज लगाने की बजाय इसे करने से स्थापित किया जाए और मोदी बेशक वैसा ही कर रहे हैं। अफसोस यह है कि मोदी को कश्मीर घाटी में केवल तबाही की चुनौतियों से ही नहीं जूझना है बल्कि नफरत और काले मंसूबों से डूबी उस सोच से भी दो-चार करना है जिसने धरती का स्वर्ग कही जाने वाली कश्मीर घाटी को तबाह कर रखा है। मोदी के आगमन की प्रतिक्रिया में मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला याद दिलाना नहीं भूलते कि वह खुद ईद मनाने वाले मुसलमान हैं जबकि मोदी ऐसे हिन्दू हैं जो अपनी दीवाली छोड़कर यहां आ रहे हैं। क्या यह अजीब नहीं कि मोदी के बाढ़ पीड़ितों के बीच जाने की सुखद पहल में कांग्रेस को मीन-मेख निकालने की क्या जरूरत थी? क्या यह महज आलोचना के लिए आलोचना का एक और उदाहरण नहीं है? कश्मीर के अलगाववादियों ने तो यह कहकर अपनी धर्मांधता और छोटी सोच का ही परिचय दिया कि प्रधानमंत्री अपनी संस्कृति हम पर लादने आ रहे हैं। पथभ्रष्ट अलगाववादियों के ऐसे तंग नजरिये पर हैरत नहीं, लेकिन यह सवाल तो उठेगा ही कि उन्हें हतोत्साहित करने के लिए केवल मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ही क्यों आगे आए? क्या यह अच्छा नहीं होता कि सभी राजनीतिक दल कश्मीर के अलगाववादियों की एक सुर में निंदा करते। दीवाली के दिन बाढ़ पीड़ितों के बीच रहकर प्रधानमंत्री की पहल कुल मिलाकर दुखी-उदास लोगों के बीच आशाओं का दीप जलाने और पूरे देश को एक सकारात्मक संदेश देने वाली है। आखिर दीवाली यही तो संदेश देती है कि चहुंओर शुभ का संचार हो और जन-जन के बीच सुख-समृद्धि, शांति-सद्भाव का प्रसार हो।

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