Wednesday, 31 August 2016

सवाल हाजी अली दरगाह में महिलाओं के प्रवेश का

शनि शिगणापुर, त्र्यबकेश्वर के बाद अब मुंबई की प्रख्यात हाजी अली दरगाह में महिलाओं के प्रवेश को लेकर बॉम्बे हाई कोर्ट का फैसला कुछ मायनों में ऐतिहासिक कहा जा सकता है। हाई कोर्ट के फैसले के मुताबिक महिलाओं को दरगाह में जाने से रोकना उनके संवैधानिक अधिकारों का हनन है। बॉम्बे हाई कोर्ट ने शुक्रवार को ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए वर्ष 2012 से महिलाओं के दरगाह में मजार तक जाने पर लगी पाबंदी को असंवैधानिक करार दिया। हाई कोर्ट ने कहा कि यह प्रतिबंध संविधान में प्राप्त मौलिक अधिकारों के विपरीत है। हाजी अली दरगाह का मामला तो इसलिए भी दिलचस्प है कि वहां महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी पहले नहीं थी। महिलाओं को दरगाह के अंदर न जाने देने का फैसला कुछ ही समय पहले सन् 2012 में लिया गया था और तभी से महिला अधिकारों के लिए लड़ने वाले संगठन इसके खिलाफ मुहिम चला रहे थे। इस बात से इसी तथ्य की फिर पुष्टि होती है कि जिन धार्मिक स्थलों पर महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी है, वह परंपरागत रूप से हमेशा नहीं थी, यह बाद में किसी एक ऐतिहासिक दौर में लगाई गई। हाई कोर्ट का यह निर्णय हाजी अली दरगाह के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे देश के धार्मिक स्थलों पर स्त्री-पुरुष भेदभाव के खिलाफ नजीर बनेगा। शुक्रवार को याचिका पर सुनवाई के दौरान बॉम्बे हाई कोर्ट के जस्टिस वीएम कानडे और रेवती मोहित डेरे की खंडपीठ ने संविधान में महिलाओं और पुरुषों को मिले समान अधिकारों का हवाला दिया। पीठ ने कहा कि जब मुस्लिम महिलाओं को मक्का, मदीना में प्रवेश दिया जाता है तो हाजी अली दरगाह में प्रवेश वर्जित क्यों है? कोर्ट के फैसले के बाद हाजी अली ट्रस्ट ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने के लिए समय देने की मांग की। इसे स्वीकार करते हुए अदालत ने फैसले पर छह सप्ताह के लिए रोक लगा दी है। एनजीओ भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की नूरजहां नियाज ने हाजी अली दरगाह में महिलाओं को प्रवेश देने की मांग को लेकर हाई कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी। इस फैसले पर मुस्लिम समाज में समर्थन भी हो रहा है और विरोध भी। देवबंदी उलेमा ने कहा कि समाज सुधार के लिए महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी रहनी चाहिए। वहीं इस्लामिक शिक्षण संस्था दारुल उलूम के मोहतमिम मौलाना अबुल कासिम नोमानी बनारसी ने इस मसले को मुफ्तियों से संबंधित बताते हुए कुछ भी कहने से इंकार कर दिया। फतवा ऑनलाइन के प्रभारी मौलाना मुफ्ती अरशद फारुकी ने कहा कि इस्लाम केवल मर्दों को ही कब्रिस्तान में जाने की इजाजत देता है। शरीयत में महिलाओं के कब्रों पर जाने की पाबंदी है। जहां तक हाजी अली की दरगाह पर महिलाओं के प्रवेश को इजाजत देने का मामला है, तो यह सही नहीं है। समाज सुधार के लिए पाबंदी बरकरार रखनी चाहिए थी। शरीयत का भी यही फैसला है। उन्होंने कहा कि हाजी अली की दरगाह सिर्प तफरीगाह के तौर पर इस्तेमाल हो रही है जिससे उसकी बेहुरमती होती है। दूसरी ओर मौलाना खालिद रशीद फिरंगी महली, ईदगाह के इमाम का कहना है कि महिला व पुरुष को इस्लाम में बराबर का दर्जा हासिल है। महिलाओं को मस्जिद में नमाज पढ़ने से नहीं रोका गया है। इस्लाम में कब्रिस्तान और दरगाह पर जाने के कुछ नियम हैं। जिनको मानना जरूरी है। महिलाओं को चाहिए कि वे आजादी के नाम पर इस्लामी उसूल को न तोड़ें। हाई कोर्ट का फैसला एक और महत्वपूर्ण मुद्दे की ओर इशारा करता है। जरूरी नहीं कि तमाम धार्मिक संस्थानों में नियम भारतीय संविधान की भावनाओं के अनुकूल हों। लेकिन धीरे-धीरे ही सही, दोनों के बीच तालमेल बनाना बहुत जरूरी है। अरब देशों और दक्षिण एशिया में इस्लाम का स्वरूप अलग-अलग है। दक्षिण एशिया ने इस्लाम के कट्टर ढांचे को खारिज कर उसके उदार रूप को अपनाया है। यही कारण है कि इंडोनेशिया, बांग्लादेश से लेकर पाकिस्तान तक मुस्लिम महिलाएं देश का नेतृत्व संभाल चुकी हैं, लेकिन उस उदारता पर पिछले दो दशकों में उभरी कट्टरता ने ग्रहण लगा दिया है। भारत में एक बूढ़ी महिला शाहबानो और केरल की सीरिया ईसाई समाज की मैरी राय को सुप्रीम कोर्ट की तरफ से गुजारा भत्ता दिए जाने पर विरोध करने के लिए पूरा मुस्लिम और ईसाई समाज खड़ा हो गया था। देखना है कि कट्टरता और उदारता की इस लड़ाई में इस्लामी नारीवाद किस हद तक कामयाब होता है।

-अनिल नरेन्द्र

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