शुक्र
है कि भारत की बेटियों ने देश की इज्जत रियो ओलंपिक में बचा ली। साक्षी मलिक ने पहले
फ्री स्टाइल कुश्ती में कांस्य पदक जीत कर और फिर पीवी सिंधु ने रजत पदक जीत कर निराश
देश को थोड़ी खुशी जरूर दी। अब योगेश्वर दत्त का मैच बाकी है। नरEिसह तो चार वर्षों के लिए बैन हो गए
हैं। भारत ने रियो में 119 खिलाड़ी भेजे इस उम्मीद में कि लंदन
ओलंपिक के छह मैडल से कम से कम दोगुने मैडल तो आएंगे। लंदन की तुलना में इस बार सुविधाएं
कई गुना बढ़ी हैं। बेशक दीपा कर्माकर के प्रदर्शन और हौंसले ने सबका दिल जीत लिया,
लेकिन बेहद मामूली अंतर से पदक उनके हाथ से फिसल गया। साक्षी मलिक ने
शायद अपने मन में हारने से इंकार कर दिया था इसीलिए आखिरी मिनटों में उन्होंने बाजी
पलट दी। सिंधु की जितनी तारीफ की जाए कम है। दुनिया की नम्बर वन बैडमिंटन खिलाड़ी को
जीत के लिए उन्होंने चने चबवा दिए। इन तीनों महिलाओं ने यह दिखा दिया कि बेटियों को
कभी भी कम कर न आंकें। अगर और बेहतर सुविधाएं मिलतीं तो और भी बेहतर परिणाम आ सकते
थे। साक्षी और सिंधु के पदकों के जरिये देश में एथलीटों के संघर्ष से जुड़ाव महसूस
करने वालों को कितनी ताकत दी है और लड़कियों का हौंसला कितना बढ़ाया है। इसका अंदाजा
क्रिकेटर वीरेन्द्र सहवाग की प्रतिक्रिया से होता है। साक्षी की जीत के बाद सहवाग ने
ट्वीट कियाöपूरा देश इस बात का साक्षी है, जब कोई मुश्किल होती है तो इस देश की लड़कियां ही मालिक हैं, थैंक यू साक्षी मलिक। यह बात खास तौर पर ध्यान देने लायक है कि रियो ओलंपिक का यह पहला मैडल हरियाणा
की एक बेटी कुश्ती में लेकर आई। न केवल इसलिए कि हरियाणा खाप पंचायतों के स्त्राr
विरोधी फैसलों के लिए जाना जाता रहा है, बल्कि
इसलिए भी कि भारत में महिला कुश्ती महज एक खेल नहीं, अपने आपमें
एक मूल्य है। अब भारतीय खेलों के इतिहास में पदक जीतने वाली महिला के तौर पर साक्षी
और सिंधु का नाम रियो ओलंपिक की उपलब्धि के साथ चमकता रहेगा। साक्षी और सिंधु की कामयाबी
ने निश्चित तौर पर मायूस हो रहे देश को थोड़ी खुशी जरूर दी है। पर कटु सत्य तो यह है
कि अंतर्राष्ट्रीय खेल प्रतियोगिता की दुनिया में भारत को अभी वहां पहुंचना बाकी है,
जहां अपेक्षाएं कुछ कम विकसित देश पदकों की दौड़ में अमेरिका,
रूस या चीन जैसे देशों की चुनौती देते हैं। छोटा-सा देश जमैका ने तेज रेसों में अपना दबदबा बना रखा है। बहरीन और अन्य अरब देशों
ने भी बहुत अच्छा प्रदर्शन
किया है, लंबी दौड़ों में अफ्रीकी देशों का दबदबा है तो बाक्सिंग
में क्यूबा और पूर्व सोवियत संघ का बोलबाला है। खेल मंत्रालय ने टारगेट (टॉप) स्कीम बनाई थी, जिसमें रियो
के साथ-साथ 2020 में होने वाले टोक्यो ओलंपिक
भी शामिल हैं। स्कीम का बजट 45 करोड़ था। दो साल में
100 से ज्यादा खिलाड़ियों को विदेश में ट्रेनिंग पर 180 करोड़ रुपए खर्च किए गए। शूटर, तीरंदाज, विकास गौड़ा और सीमा पुनिया जैसे डिस्कस थ्रोअर अपना औसत प्रदर्शन भी नहीं
कर सके। साई में एंटी-गैबिटी ट्रेडनिल जैसे आधुनिक सुविधाएं उपलब्ध
की मिशन ओलंपिक सेल इनका ख्याल रखती है। फूड सप्लीमेंट के लिए 700 रुपए दिए गए। पहले 300 रुपए मिलते थे। खेल मंत्रालय के
अनुसार खिलाड़ियों को उनके इवेंट से 15-15 दिन पहले रियो भेजा
गया। पहले दो-चार दिन पहले भेजा जाता था। पहली बार नेशनल कैंप
या इससे बाहर पर्सनल कोच और सपोर्ट स्टाफ दिए गए। इतना ही नहीं, भारतीय दल में 40 फीसदी से ज्यादा विदेशी कोच हैं। इस
बार पर्सनल कोच, फिजियो, मसाजर और ट्रेनर
बढ़ा दिए गए थे। भारत के इन सबके बावजूद फिसड्डी रहने के पीछे संसाधनों की कमी को लेकर
प्रतिभाओं की उपेक्षा और राजनीतिक दखलंदाजी तक कई वजहें रहीं। बेहतरीन प्रदर्शन के
बावजूद दीपा कर्माकर के पदक से चूक जाने के बाद जब उनके अभाव से गुजरने को लेकर रियो
में उनके फिजियो के उनके साथ नहीं जा पाने की खबर आई थी, तब यह
भी साफ हुआ था कि भारतीय खिलाड़ियों के पिछड़ने के लिए कौन-कौन
सी व्यवस्था जिम्मेदार है। ओलंपिक में भारत को अपनी बेहतरी के लिए क्या करना चाहिए,
इस मुद्दे पर हाल में ही लैक्चर देने वाला चीन रियो में अपने खिलाड़ियों
के खराब परफार्मेंस से खुद ही परेशान है। चीनी मीडिया के मुताबिक उनके देश में ओलंपिक्स
सपोर्ट कंट्रोल करने वाले यह वजह ढूंढ रहे हैं कि आखिर कहां गड़बड़ी हुई। चीन ने रियो
में 29 खेलों में 412 एथलीट्स भेजे थे।
ओलंपिक में अमेरिका और चीन के बीच मैडलों की होड़ लगी रहती है। मगर इस बार ग्रेट ब्रिटेन
के अलावा भी कई और देशों ने चीन के हिस्से के मैडल झटक लिए। बस कंडक्टर की एक साधारण
नौकरी करने वाले साक्षी के पिता (और मां) भी इसलिए बधाई के हकदार हैं कि घोर पुरुष वर्चस्व वाले समाज में उन्होंने अपनी
बेटी को कुश्ती जैसे खेल में आगे बढ़ने का हौंसला दिया। पांच साल पहले केवल ड्रैस के
लिए कुश्ती खेलने वाली साक्षी इतनी ऊंचाई पर पहुंचेगी यह किसी ने नहीं सोचा था। उनके
पिता सुखवीर मलिक ने बताया कि रियो जाने से पहले गुड़गांव में एक लाख की घड़ी पसंद
की थी और जीतने पर गिफ्ट मांगा था। तीन सितम्बर को उसका जन्मदिन है। उसे वही घड़ी गिफ्ट
करूंगा। बीजिंग ओलंपिक में गोल्ड मैडल जीतने वाले भारतीय निशानेबाज अभिनव बिन्द्रा
ने ट्वीट करके कहा कि रियो ओलंपिक में भारतीय खिलाड़ियों द्वारा मैडल न जीत पाने के
लिए भारत का सिस्टम जिम्मेदार है। अभिनव बिन्द्रा ने यूके का उदाहरण देते हुए कहा कि
ग्रेट ब्रिटेन ने हर पदक पर 55 लाख ब्रिटिश पाउंड (लगभग 48 करोड़ रुपए खर्च किए हैं और जब तक देश में व्यवस्था
को दुरुस्त नहीं किया जाता, तब तक पदक की उम्मीद नहीं की जानी
चाहिए। बिन्द्रा ने अपने ट्वीट में ब्रिटेन के समाचार पत्र द गार्जियन में प्रकाशित
लेख में दिए आंकड़ों का हवाला दिया है। अंत में, मैं तो यही कहूंगा
कि कुल मिलाकर कुछ खिलाड़ियों का प्रदर्शन अच्छा रहा पर पदक लाने के लिए और कड़ी मेहनत,
बेहतर प्लाEिनग और लंबी ट्रेनिंग पर जोर देना होगा।
ओलंपिक से दो-चार साल पहले ट्रेनिंग से गोल्ड नहीं आ सकता। हमें
स्कूल स्तर से ही प्रतिभाशाली खिलाड़ियों को चुनना होगा और तभी से उनकी टेEिनग, सुविधाओं पर ध्यान देना होगा।
-अनिल नरेन्द्र
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