Wednesday 17 August 2016

सड़क हादसे मामलों में हम इतना असंवेदनशील क्यों बन गए हैं?

दिल्ली में आए दिन सड़क हादसों में सड़क चलते निर्दोषों की मौत होती रहती है और सड़क पर घायल पड़े व्यक्ति की कोई मदद नहीं करता और वह तड़प-तड़प कर दम तोड़ देता है। राजधानी दिल्ली में मानवता को शर्मसार करने वाली एक घटना तीन दिन पहले हुई। वह भी संसद भवन से महज दो किलोमीटर दूर। नई दिल्ली के मंदिर मार्ग थाना क्षेत्र में सड़क पार कर रहे आईसक्रीम वेंडर को तेज रफ्तार कार चालक ने टक्कर मारी और काफी दूर तक घसीटता रहा। जब लोगों ने चालक को घेर लिया उसने घायल को आरएमएल अस्पताल में इलाज कराने का वादा कर गाड़ी में बैठाया और फिर पेशवा रोड पर तड़पता छोड़कर फरार हो गया। आखिर में आईसक्रीम वेंडर की मौत हो गई। सड़क दुर्घटना हो या फिर राह में किसी महिला के साथ होने वाली घटना, आम तौर पर दिल्लीवासी मदद के लिए सामने नहीं आते हैं। इसकी एक बड़ी वजह है कि लोग पुलिस की प्रक्रिया और कोर्ट-कचहरी के चक्कर से डरते हैं। यह कहना भी गलत न होगा कि लोगों ने अपना दायरा इतना कम कर लिया है कि समाज में उनके सामने क्या हो रहा है, इससे न तो उन्हें फर्प पड़ता है और न ही वे इससे मतलब रखते हैं। कई बार ऐसा सामने आया है कि सड़क दुर्घटना में पीड़ित की मदद करने वाले व्यक्ति को कानूनी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है, उसे गवाह के तौर पर कोर्ट-कचहरी भी आना पड़ता है। पुलिस घटना के बारे में पूछताछ करती है और यह प्रक्रिया लंबी चलती है। मुकदमा सालों चलता है और मदद करने वाले व्यक्ति को अंत तक कानूनी प्रक्रिया में शामिल होना पड़ता है। इससे लोग मदद के लिए सामने नहीं आते। सड़क हादसों में पीड़ितों की घटनास्थल पर मदद करने वाले नेक लोगों को कानूनी पचड़े से बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी गाइडलाइन महज औपचारिकता बनकर रह गई है। सेव लाइफ फाउंडेशन ने वर्ष 2012 में सुप्रीम कोर्ट में दायर जनहित याचिका में कहा था कि घटनास्थल से गुजरने वाले चार में से तीन व्यक्ति पीड़ित की मदद करने से कतराते हैं। करीब 88 फीसदी लोग पुलिस उत्पीड़न और कानूनी पचड़े में फंसने से डरते हैं। याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस वी. गोपाला गौड़ा और अरुण मिश्रा की बेंच ने अक्तूबर 2014 में केंद्र सरकार को गाइडलाइन बनाने का आदेश दिया। सड़क परिवहन व राजमार्ग मंत्रालय से मई 2015 में जारी गाइडलाइन को सुप्रीम कोर्ट ने मार्च 2016 में मंजूरी दी। हालांकि यह महज औपचारिकता बनकर रह गई है। सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन कुछ इस प्रकार हैöपीड़ित को अस्पताल पहुंचाने वाले नागरिक को सिर्प उसका पता नोट करके जाने दिया जाएगा। उससे और कुछ नहीं पूछा जाएगा। सभी सार्वजनिक एवं निजी अस्पताल पीड़ित की मदद करने वाले शख्स से न तो एडमिशन फीस या पैसे की मांग करेंगे और न ही उसे रोक सकेंगे। अस्पताल ऐसा सिर्प तभी कर सकेंगे जब भर्ती किए जाने वाले घायल व्यक्ति की मदद करने वाले का फैमिली मेम्बर या रिश्तेदार हो। इस संबंध में हिन्दी, अंग्रेजी और क्षेत्रीय भाषा में एंट्रेंस गेट पर लिखवाना होगा। सड़क हादसों में पीड़ितों की मदद करने वालों को प्रोत्साहित करने के लिए उचित इनाम या मुआवजा होना चाहिए। मदद करने वाले व्यक्ति की किसी किस्म की आपराधिक जवाबदेही नहीं होगी। फोन करके पीड़ित के सड़क पर पड़े होने की जानकारी देने वाले घटनास्थल पर मौजूद शख्स को नाम या निजी जानकारी देने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा। अस्पताल मेडिकल लीगल केस फॉर्म में मदद करने वाले व्यक्ति की इच्छा पर ही निजी जानकारी दी जाएगी। उन अफसरों के खिलाफ अनुशासन या विभागीय कार्रवाई की जाएगी जो मदद करने वाले व्यक्ति को नाम या निजी जानकारी देने के लिए बाध्य करेंगे। अगर हादसे का कोई गवाह अपनी इच्छा से पहचान जाहिर करता है तो पुलिस जांच के लिए सिर्प उससे एक बार पूछताछ कर सकती है। इस दिशा में राज्य सरकार को एक ऐसा सिस्टम बनाना होगा जिसमें मदद करने वाले शख्स का उत्पीड़न रोकने के लिए एक स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग सिस्टम बनाना होगा। सड़क हादसे से जुड़े इमरजेंसी मामले में डाक्टर की ओर से त्वरित प्रतिक्रिया न करना प्रोफेशनल मिसकंडक्ट माना जाएगा। गाइडलाइंस तो बहुत अच्छी है पर इसका अच्छा परिणाम तभी आएगा जब सही मायनों में इस पर अमल हो।

-अनिल नरेन्द्र

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