Wednesday 16 May 2018

हिंसा के सहारे चुनाव जीतना

पश्चिम बंगाल में सोमवार को पंचायत चुनाव के लिए मतदान का दिन था। मतदान के दौरान बड़े पैमाने पर हिंसा में कम से कम 18 लोगों की मौत हो गई और 50 लोग घायल हो गए। ये मौतें पश्चिम बंगाल के आठ जिलों में हुई हैं। हालांकि चुनावों के लिए कड़े सुरक्षा के इंतजाम का दावा किया जा रहा था फिर भी इतने बड़े पैमाने पर हुईं मौतें बेहद दुर्भाग्यपूर्ण और शर्मनाक है। बूथ कब्जे, आगजनी, बम फेंकने, धमकी देने और मारपीट की कितनी घटनाएं हुईं इसका पूरा हिसाब दे पाना फिलहाल मुश्किल है। चुनाव शांतिपूर्ण, निष्पक्ष, बिना किसी भय या दबाव के होने चाहिए। लेकिन इनमें से किसी भी कसौटी पर ये चुनाव खरे नहीं उतरते। यही नहीं, ये चुनाव कानून-व्यवस्था की नाकामी भी बयान करते हैं। इस हिंसा से यही पता चलता है कि इस राज्य में लोकतंत्र के नाम पर किस तरह लोकतांत्रिक मूल्यों व मर्यादाओं की धज्जियां उड़ाई गईं। चिन्ता का विषय तो यह है कि इसके पूरे आसार दिख रहे थे कि पंचायत चुनावों के मतदान प्रक्रिया को बाधित करने के लिए हिंसा का सहारा लिया जा सकता है, लेकिन न तो ममता बनर्जी की राज्य सरकार ने उसे रोकने के लिए कोई दिलचस्पी दिखाई और न ही राज्य चुनाव आयोग ने उसे रोकने के लिए पर्याप्त प्रबंध किए। पश्चिम बंगाल में चुनाव के दौरान हिंसा का इतिहास रहा है इसलिए उम्मीद की जा रही थी कि राज्य सरकार चुनाव आयोग के साथ मिलकर निष्पक्ष-स्वतंत्र चुनाव का प्रबंध करेगी पर इस काम में राज्य सरकार विफल रही है। राज्य सरकार ऐसे समय में केंद्रीय बल मांग लेते हैं पर राजनीतिक कारणों के चलते ममता बनर्जी की तृणमूल सरकार ने केंद्र से सुरक्षा बल मांगने के बजाय उनके प्रति अपना अविश्वास प्रकट करने के लिए मुख्यत गैर-भाजपा शासित राज्यों से पुलिस बलों पर ज्यादा भरोसा किया और मांगे भी कितने, दो हजार। यह महज दिखावा था। हिंसा की ताजा घटनाओं पर माकपा, कांग्रेस और भाजपा यानि विपक्ष की सभी पार्टियों ने तीखी प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए तृणमूल का आतंक उसे करार दिया। इसके पलटवार में तृणमूल ने कहा कि पंचायत चुनाव में हिंसा की घटनाएं पहले भी होती थीं, बल्कि वाम मोर्चे के राज में इससे भी ज्यादा हुई थीं। सवाल यह है कि क्या पहले के आंकड़ों का हवाला देकर राज्य सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी अपनी जवाबदेही से पल्ला झाड़ सकती है? यह सही है कि बंगाल में पंचायत चुनाव के दौरान हिंसा का पुराना इतिहास रहा है और जिस पार्टी की सरकार होती है वह विपक्ष के कार्यकर्ताओं को डराने-धमकाने में कोई कसर नहीं छोड़ती। जिस तरह उपद्रवी तत्व बेखौफ थे इससे यह स्पष्ट होता है कि इन्हें उपद्रव करने की खुली छुट मिली हुई थी और इसी वजह से चुनावी हिंसा में इतने अधिक लोग हताहत हुए। इस तरह चुनाव जीतना क्या लोकतंत्र के लिए जायज है?

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