Tuesday 8 May 2018

राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार समारोह का बायकाट

राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार समारोह का अपना ही महत्व है। बड़े से बड़ा फिल्मकार राष्ट्रीय पुरस्कार पाकर स्वयं को इतना गौरान्वित महसूस करता है कि इसे पाते हुए उसकी आंखों में एक अलग चमक होती है और होंठों पर एक अलग मुस्कान और चेहरे पर एक अलग सुकून होता है। यह पुरस्कार जहां किसी भी फिल्म कलाकार की कला की गुणवत्ता को एक पहचान, मान्यता देता है, वहीं देश के राष्ट्रपति के हाथों से इसका मिलना, उनके जीवन का एक अद्भुत पल बन जाता है। लेकिन इस बार तीन मई को नई दिल्ली के विज्ञान भवन में 65वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार समारोह विवादों में आ गया। खुशी और उत्साह के मौके पर यह गमगीन और निराशा का वातावरण अचानक तब बना जब पुरस्कार विजेताओं को दो मई को समारोह की रिहर्सल के दौरान यह पता लगा कि इस बार राष्ट्रपति अपने हाथों से सिर्प 11 व्यक्तियों को ही यह पुरस्कार प्रदान करेंगे और अन्य समस्त विजेताओं को सूचना प्रसारण मंत्री स्मृति ईरानी पुरस्कृत करेंगी। विजेताओं ने इससे नाराज होकर समारोह का बहिष्कार करने का फैसला किया। 53 विजेता अपना पुरस्कार लेने ही नहीं पहुंचे। दरअसल अब तक यह पुरस्कार राष्ट्रपति ही देते रहे हैं। राष्ट्रपति के प्रेस सचिव का कहना है कि राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद कार्यभार संभालने के बाद से ही ऐसे कार्यक्रमों के लिए केवल एक घंटे का वक्त ही दे रहे हैं। गणतंत्र दिवस या कोई बेहद महत्वपूर्ण बैठक ही इसका उपवाद हो सकती है। आयोजकों को कई हफ्ते पहले बता दिया गया था कि राष्ट्रपति इस कार्यक्रम के लिए एक घंटा ही उपलब्ध रहेंगे। पहली बार यह व्यवस्था की गई थी, जो राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों के समारोह के बुनियादी मकसद से विपरीत थी। वह मकसद था। देश में फिल्म-कला व संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए शासन के सर्वोच्च पद राष्ट्रपति से कलाकारों को सम्मानित करना। इसके जरिये कलाकारों के काम की सराहना के साथ-साथ उनकी राष्ट्रीय महत्ता को भी रेखांकित करना था। राष्ट्रपति को यह काम करना था ताकि कलाकारों को अपनी प्रतिभा के प्रदर्शन पर सम्मानित होने का सर्वोच्च बोध हो। लेकिन न जाने क्या सोचकर यह काम दो टुकड़ों में किया गया। क्या राष्ट्रपति किसी आकस्मिक काम में व्यस्त हो गए थे? ऐसी तो कोई सूचना भी नहीं थी और न देश में कोई अपरिहार्य स्थिति आ गई थी जिससे राष्ट्रपति का भाग लेना समारोह से ज्यादा जरूरी हो गया। फिर यह व्यवस्था किसके कहने पर की गई? इससे उन कलाकारों का अपमान हुआ जिन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार राष्ट्रपति के हाथों मिलने थे। रामनाथ कोविंद से पहले जितने भी राष्ट्रपति हुए हैं, वे कलाकारों को सम्मानित करने के लिए पूरा समय निकालते रहे हैं। पता नहीं महामहिम ने ऐसा कानून क्यों बनाया कि वह ऐसे किसी समारोह में सिर्प एक घंटा ही रुकेंगे। जब परंपरागत यह होता आया था तो इस बार भी वह क्यों नहीं किया गया? इससे श्याम बेनेगल का यह कहना सही लगता है कि जब आपके पास हमें सम्मानित करने का समय नहीं है तो फिर हमें बुलाते ही क्यों हो? ऐसा कहने वाले वे अकेले नहीं हैं। जाहिर है कि इस अप्रत्याशित घटनाक्रम को फिल्म उद्योग ने अपने प्रति शासन का विभाजनकारी और हिकारत का भाव माना है। इससे वे मर्माहट हुए हैं। इसी सन्दर्भ में उनके विरोध को भी समझना चाहिए। सवाल यह भी है कि जब सूचना प्रसारण मंत्रालय को यह पहले से पता था तब पुरस्कार विजेताओं को अंधेरे में क्यों रखा गया? लेकिन इससे भी बड़ा सवाल यह है कि राष्ट्रीय फिल्म समारोह जैसा आयोजन राष्ट्रपति महोदय के लिए कम महत्वपूर्ण क्यों है?

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