Friday 2 September 2011

अगला एजेंडा चुनाव सुधारों का होना चाहिए


Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 3rd September 2011
अनिल नरेन्द्र
लोकपाल के मुद्दे पर अन्ना हजारे ने पहली लड़ाई जीत ली है। अब टीम अन्ना का अगला एजेंडा चुनाव सुधारों का होगा। इसके संकेत खुद अन्ना दे चुके हैं। रामलीला मैदान में अन्ना ने कहा कि देश से भ्रष्टाचार को मुक्तकरने के लिए जरूरी है कि चुनावी प्रक्रिया में व्यापक सुधार किए जाएं वरना जो नेता एक-एक चुनाव में 10-10 करोड़ रुपये खर्च कर डालते हैं, उनसे यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे राजनीति में साधु-संत बने रहें। अन्ना ने दो मुद्दे दिए हैं। पहला है `राइट टू रिजेक्ट' और दूसरा है `राइट टू रिकॉल।' `राइट टू रिकॉल' यानि की यदि चुना हुआ प्रतिनिधि जनता के हिसाब से काम न करे तो उसे बीच में ही वापस बुलाने का अधिकार मतदाताओं के पास जरूर होना चाहिए। मैंने बहुत समय पहले यह बात इसी कॉलम में रखी थी।
जर्मनी में यह सिस्टम लागू है और वर्तमान सरकार इसी के तहत बनी है। `राइट टू रिजेक्ट' का दबाव हमारे सांसदों पर जरूर बनेगा। अभी तो यह हो रहा है कि एक बार वह चुनाव जीतकर आ जाएं तो उन्हें अगले पांच सालों तक जनता की फिक्र नहीं होती। केवल संसद भंग न हो और उन्हें दोबारा चुनावों का सामना न करना पड़े यही एक चिन्ता रहती है। झारखंड के निर्दलीय सांसद इन्दर सिंह नामधारी ने कहा कि अन्ना की दोनों मांगों में सबसे लोकप्रिय मांग `राइट टू रिजेक्ट' है। इससे राजनीति में दबंगई और काले धन पर रोक लग सकती है।
देश में सबसे अधिक मतदाता युवा हैं। आज का युवा वर्ग जागरूक हो चुका है और वह चाहता है कि राजनीति का अपराधीकरण रुके। अन्ना की इस मांग से राजनीति में साफ-सुथरी छवि के लोगों को ही प्रवेश मिलेगा। नामधारी ने कहा कि जन प्रतिनिधियों के वापस बुलाने के लिए जयप्रकाश नारायण के आह्वान देश में लोकप्रिय हो चुका है। हालांकि अभी यह टेढ़ी खीर है। पंचायतों में देखा जाता है कि जन प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का प्रावधान है। लेकिन एक बार चुनाव होने के बाद जन प्रतिनिधियों को फिलहाल वापस बुलाना इसलिए असम्भव है क्योंकि कोई ऐसा प्रावधान नहीं जिसके तहत वापस बुलाया जा सके।
कांग्रेस की तरफ से कहा गया है कि `राइट टू रिजेक्ट' व्यावहारिक नहीं है। क्योंकि बड़ी संख्या में मतदाता वोट नहीं देते। उन्होंने कहा कि आज मतदाता जागरूक हुआ है। अन्ना के आंदोलन के बाद स्थिति बदली है। सांसदों का मानना है कि अन्ना का `राइट टू रिजेक्ट' यानि मतदान के समय भी प्रत्याशी की नापसंद के विकल्प का जन आंदोलन अधिक उग्र हो सकता है। सरकार यदि झुक गई तो सांसदों का कहना है कि राजनीति करना मुश्किल हो जाएगा।
अन्ना के सहयोगी अरविन्द केजरीवाल कहते हैं कि चुनाव सुधारों को लेकर वे लोग जल्दी ही एक एजेंडा जनता के सामने लाएंगे। उनकी कोशिश रहेगी कि अगले एक साल में देश की चुनावी तस्वीर बदल जाए। चुनाव सुधार का एजेंडा जनलोकपाल से भी व्यापक है। एक तरह से यह तो मौजूदा व्यवस्था परिवर्तन का एक हिस्सा है। इसके लिए पूरे देश में एक साथ बदलाव की मशॉल जलानी होगी, तभी राजनीतिक दलों पर कारगर दबाव बन पाएगा। क्योंकि इस बदलाव के लिए कई संवैधानिक संशोधन भी करने पड़ सकते हैं। टीम अन्ना ने उम्मीद बांधी है कि 26 जनवरी से पहले लोकपाल कानून बन जाएगा। केजरीवाल को अब यह आशंका नहीं है कि जनता के दबाव को देखने के बाद सरकार के लोगों की इसमें कोई गड़बड़ी करने की हिम्मत होगी।
यह उचित ही है कि चुनाव सुधारों के सन्दर्भ में अन्ना द्वारा उठाए गए मुद्दों पर बहस हो। यह बहस गति पकड़नी चाहिए, क्योंकि भ्रष्टाचार के मूल में खर्चीली होती चुनावी राजनीति है। यह एक सच्चाई है कि लोकसभा, विधानसभा चुनावों में उम्मीदवार अनाप-शनाप खर्च करते हैं और चुने जाने के बाद उससे दोगुना रुपया कमाने के चक्कर में रहते हैं। वह यह मानकर चलते हैं कि अगर अगला चुनाव वह किसी कारण हार जाते हैं तो भी उनके पास इतना धन होना चाहिए कि उनका राजनीतिक वनवास ठीक से कट जाए। इसलिए वह ज्यादा से ज्यादा धन कमाने के चक्कर में रहते हैं और आमतौर से यह अवैध तरीके से अर्जित किया जाता है। दरअसल इसी कारण काले धन के कारोबार पर अंकुश लगाने के लिए मनमोहन सरकार कोई ठोस पहल नहीं कर रही है। चुनावी प्रक्रिया को काले धन से मुक्त करने के लिए तरह-तरह के सुझाव सामने आ चुके हैं। इनमें से एक सुझाव यह है कि चुनाव खर्च का वहन सरकारी कोष से हो। अभी हाल में राहुल गांधी ने भी यही सुझाव दिया, लेकिन निर्वाचन आयोग इससे सहमत नहीं है। उसे यह भय है कि इससे समस्या और विकराल हो जाएगी। मुख्य चुनाव आयुक्त इस सुझाव को इसलिए खतरनाक विचार मानते हैं, क्योंकि उन्हें आशंका है कि तब उम्मीदवार सरकारी कोष से मिले धन के साथ-साथ अपने धन का भी इस्तेमाल करेंगे। राजनीतिक दलों को चुनाव सुधारों का विरोध करने की जगह मौजूदा माहौल को समझते हुए चुनाव सुधारों की दिशा में आगे बढ़ें, क्योंकि भ्रष्टाचार की तरह से आम जनता इसे भी लम्बे अरसे तक अब सहन करने वाली नहीं कि देश को दिशा देने वाली राजनीति अनुचित संसाधनों पर आश्रित हो। जब राजनीति ही साफ-सुथरी नहीं होगी तो फिर वह देश का भला कैसे कर सकेगी?

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