Sunday 25 September 2011

आस्था नहीं संविधान से चलता है देश

Editorial Publish on 26 Sep 2011

2जी स्पेक्ट्रम घोटाले से सरकार के भीतर और बाहर लगी आग से प्रधानमंत्री पद की छवि चाहे जितनी झुलसी हो किन्तु डॉ. मनमोहन सिंह का यह कहना बेहद आपत्तिजनक है कि उनको अपने मंत्रियों पर पूरा भरोसा है। इसी के साथ यह भी जोड़ना कि न तो वे उनसे त्यागपत्र मांगेंगे और न ही खुद त्यागपत्र देंगे। क्योंकि विपक्ष का तो काम ही है आलोचना करना।

इससे ज्यादा तो प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह से उम्मीद की भी नहीं जा सकती। जो प्रधानमंत्री अपने संवैधानिक कर्तव्यों तक को भूल गया हो उससे यह उम्मीद करना कि वह देश में किसी घोटाले से विचलित हो जाएगा, अत्यंत मुश्किल है। संविधान के अनुच्छेद 78 के मुताबिक प्रधानमंत्री मंत्रिपरिषद के सभी निर्णयों की सूचना राष्ट्रपति को देता है। यही नहीं, मंत्रिपरिषद का सामूहिक उत्तरदायित्व ही संसदीय लोकतंत्र में सरकार का मुख्य आधार होता है। भारतीय संविधान ने स्पष्ट उपबंध द्वारा इस सिद्धांत को सुरक्षित किया है। अनुच्छेद 75(3) के अनुसार मंत्रिपरिषद लोकसभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी है। सामूहिक उत्तरदायित्व का अर्थ यह है कि मंत्री गण अपने कार्यों के लिए टीम के रूप में लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होते हैं। मंत्री गण एक टीम के रूप में कार्य करते हैं और मंत्रिपरिषद में लिए गए सभी निर्णय उसके सदस्यों के संयुक्त निर्णय होते हैं। मंत्रिमंडल की बैठक में मंत्रियों में किसी विषय पर कितना ही मतभेद क्यों न रहा हो, किन्तु एक बार जब निर्णय ले लिया जाता है तो हर मंत्री को उसे मानना ही पड़ता है। यदि कोई मंत्री प्रधानमंत्री या उसकी नीतियों से असहमत है तो उसके सामने मंत्रिपरिषद से त्यागपत्र देने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। यह सिर्प संविधान में प्रधानमंत्री और मंत्रियों के बीच संबंधों का सैद्धांतिक पंक्तियां नहीं हैं। इसी के आधार पर मंत्री या तो खुद मंत्रिपरिषद से त्यागपत्र दे चुके हैं अथवा उन्हें हटाया जा चुका है।

प्रधानमंत्री और उनके सहयोगी तो शुरू से ही इतने निरंकुश और अहंकारी तरीके से काम कर रहे हैं कि उन्हें इस बात की परवाह नहीं है कि उनकी भी कभी सत्ता से विदाई होगी। इसी दुर्भावना से प्रेरित होकर वे संवैधानिक भावनाओं की भी उपेक्षा करने में किसी तरह का संकोच नहीं कर रहे हैं और जो कुछ भी सही-गलत करना है, उसे वे बिना किसी भय एवं संकोच के कर रहे हैं। ऐसी सरकार से यह उम्मीद करना कि वह संवैधानिक उपबंधों के अनुकूल कार्य करेगी, निरर्थक है।

प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को तो ए. राजा पर भी हमेशा विश्वास रहा। उन्हें दयानिधि मारन भी प्रिय रहे। उनके प्रति भी उनके दिल में आस्था एवं विश्वास पूरा था। उन्होंने हमेशा ही अपने इन दोनों मंत्रियों को निर्दोष बताया। वे फंसे और जेल गए तो सुप्रीम कोर्ट की वजह से, प्रधानमंत्री की वजह से नहीं।

अब जब तत्कालीन वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम घिरे हैं तो फिर प्रधानमंत्री उनके प्रति अपनी आस्था और विश्वास व्यक्त कर रहे हैं। मसलन घोटालेबाज मंत्री हो या घोटाले में शामिल सहघोटालेबाज मंत्री हो, सभी के प्रति जिस प्रधानमंत्री का विश्वास हो उससे क्या उम्मीद की जा सकती है कि वह देश के शासन का संचालन ईमानदारी से कर सकता है? आखिर इसी सवाल का जवाब तो दयानिधि मारन के उस पत्र में मिला है जिसकी वजह से प्रधानमंत्री ने मंत्रिसमूह (जीओएम) की व्यवस्था खत्म कर दी थी। मसलन जो भी निर्णय ए. राजा और दयानिधि मारन के वक्त हुए उनकी सम्पूर्ण जिम्मेदारी प्रधानमंत्री के तौर पर डॉ. मनमोहन सिंह की भी है।

प्रधानमंत्री का पद एक संवैधानिक लोकतंत्र की रस्सी से बंधा है। वे कोई देश के सम्राट नहीं हैं कि देश की बागडोर उनके पूर्वजों ने उन्हें सौंपी है और इस पर उनका राज्य इसलिए कायम है कि उनकी भुजाओं में ताकत है। सच तो यह है कि वे इस देश के शासक इसलिए हैं कि देश की जनता को भारतीय संविधान ने अपना शासक चुनने का अधिकार दिया है। अपने इन्हीं संवैधानिक अधिकारों का इस्तेमाल करके देश की सवा अरब जनता ने अपने ऐसे शासक का चुनाव किया है जो खुद भी संवैधानिक अधिकारों के माध्यम से देश पर शासन करता है और अपने संवैधानिक कर्तव्यों के माध्यम से देश की जनता की सेवा। सवाल यह नहीं है कि प्रधानमंत्री की अपने किस मंत्री के प्रति विश्वास है। सवाल यह है कि क्या प्रधानमंत्री के मंत्री उनके विश्वास के योग्य हैं अथवा अयोग्य एवं अपराधी होने के बावजूद उन पर विश्वास करके प्रधानमंत्री असंवैधानिक कार्य कर रहे हैं?

जहां तक रही प्रधानमंत्री के स्पष्टीकरण में इस पूरक आलोचना का कि विपक्ष का तो काम ही आलोचना करना है, यह आरोप भी प्रधानमंत्री के संवैधानिक अविज्ञता का ही परिणाम है। आखिर विपक्ष के पास है क्या? लोकतंत्र ने विपक्ष को न तो जांच के लिए कोई एजेंसी दिया है और न ही जांच का कोई अधिकार। सिर्प उसे गलत कामों की आलोचना एवं सरकार को सुधारने हेतु दबाव डालने का ही अधिकार दिया है। लेकिन फिर भी आलोचनाओं एवं मंत्रिपरिषद पर दबाव के लिए उसे भी उतना ही भुगतान मिलता है जितना कि सत्तापक्ष के गुनाहों को छिपाने के लिए सत्तारूढ़ पार्टी के सांसदों एवं मंत्रियों को। लेकिन जिस बात के लिए प्रधानमंत्री विपक्ष पर पिले पड़े हैं उसकी पुष्टि तो उनके मंत्रिपरिषद के एक सहयोगी के मंत्रालय से बात सामने आई है।

प्रधानमंत्री संवैधानिक दायित्वों से बच नहीं सकते। सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें ए. राजा के मामले में ही लपेट लिया था किन्तु बड़ी मुश्किल से बचे हैं शपथपत्र वगैरह देने के बाद। शासन का भी सामान्य सिद्धांत यही है कि जब कभी किसी जिले में दंगा, हत्या या डकैती जैसी जघन्य अपराधों की घटना होती है तो जरूरी नहीं कि उन अपराधों में डीएम, एसपी और दरोगा शामिल हों किन्तु लापरवाही के आरोप में सभी के खिलाफ कार्रवाई होती है। इसलिए अरबों रुपये के घोटाले में शामिल अपने मंत्रियों के प्रति ऐसी आस्था और विश्वास का मतलब क्या होता है इसकी समझ प्रधानमंत्री को भले ही न हो देश की जनता एवं संवैधानिक संस्थाओं को जरूर है।

No comments:

Post a Comment